Wednesday, April 28, 2010

नोयडा से दिल्ली, ऑफिस से घर

(नोयडा से दिल्ली मैं, हद से हद, दस बार आया होउंगा. पांच छः बार नोयडा से जे.एन.यू. तथा तीनेक बार नोयडा से आई.टी.ओ. और हर बार पाया कि दिल्ली के भीतर आना जाना जितना आसान है उतना नोयडा से दिल्ली नहीं. ना ज्यादा बसें हैं, मेट्रो भी अभी शुरू हुई है और भारी भीड़ ले के चलती है तथा उससे आना जाना बेतरह महँगा है. उन्ही दिनों मन में एक कहानी का प्लाट घूमा था और पता नहीं कब लिखा जाता. पर इस बीच पूजा का यह स्वानुभूत आलेख.)

पिछले ढाई साल से दिल्ली में हूँ और ऑफिस से घर(जाहिर सी बात है किराए का घर) आने जाने के तमाम अनुभव हैं. अच्छे या बुरे जैसे भी हैं, इन अनुभवों की कमी कत्तई नहीं है. नौरोजी नगर के बस स्टॉप पर नोयडा जाने वाली ठसाठस भरी बसों में चढ़ पाने की जद्दोजहद हो या कभी बारिश में भींगते भागते ऑफिस पहुंचना हो. वो दिन खुशनसीब होता जिस दिन सुबह बस में जगह मिल जाती थी.

इन्ही मुश्किलों के कारण सफदरजंग इन्क्लेव से मदर डेयरी शिफ्ट करने का निर्णय लिया. यहाँ आते हुए मन के किसी कोने में एक खुशी यह भी थी कि चलो यहाँ से नोयडा के लिए ढेरो बसें होंगी जिससे ऑफिस आना जाना कम दुश्वार हो जाएगा. लेकिन इस खुशी ने काफूर होने में ज्यादा समय नहीं लिया. पर ऑफिस तो जाना ही था, चाहे जैसे जाऊं.

इनदिनों बेवजह परेशान रहती हूँ. कोइ कारण दिखाई नहीं देता पर कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है मेरे साथ. ना कहीं जाने की इच्छा होती है न ही किसी से बात करने की. मैं खुद से ही शायद इतना बोल लेती हूँ कि थकान मुझ पर हावी रहती है. ऑफिस में अक्सर लोग मुझसे पूछने लगे हैं कि तुम परेशान क्यों रहती हो? अब मुझे लगता है कि अगर मैं ऑफिस नहीं आती जाती तो शायद पागल हो जाती जबकि मेरा स्वभाव ऐसा रहा है कि मुझे सफ़र पर निकलना बेहद पसंद रहा है चाहे माध्यम चरण एक्सप्रेस( पैदल), बस, ऑटो, मेट्रो ही क्यों न हो. बाईक की सवारी मेरा पसंदीदा शगल है, चाहे मैं खुद ड्राइव कर रही होऊं या कोइ और. लेकिन आजकल मोटरसाइकल की कल्पना करते ही सिहरन होने लगती है. असल बात कुछ इस तरह:-

मेरे एक अजीज मित्र के सगे भाई हैं, वैसे नाम में क्या रखा है, पर अपनी सुविधा के लिए इनका एक नाम रखा लेते हैं, जैसे उनका नाम इस बेचारी बात चीत में 'अ' रहेगा. जनाब 'अ' का घर मेरे कमरे से दो मिनट की दूरी पर है.सुबह ऑफिस जाने का समय भी कमोबेश एक ही है और लगभग रोज ही आते जाते मुझसे टकरा जाया करते हैं. इनके बेहद जिद करने पर लगभग एक पखवाड़ा पहले मैंने इनकी बाईक पर ऑफिस जाना शुरू किया जहां एक नया ही खेल मेरा इंतज़ार कर रहा था.

अपने घर पर हमेशा गंभीरता और रुआब का आवरण ओढ़े रहने वाला यह शख्स बाइक पर मेरे बैठते ही टिपिकल मर्द में बदल जाता है. रास्ते भर डींगे मारता है: आज ऑफिस से इसको नौकरी से निकाल दिया, उसको रखा लिया,अलान हाथ जोड़ रहा था, फलां पैर पकड़ रहा था, वगैरह..वगैरह...मगर यह तो जैसे शुरुआत भी नहीं थी.

दो एक दिन ही साथ आते जाते हुआ था कि इन्होने मुझसे पूछा, " रोज ऑफिस आने जाने में कितना खर्च होता है?" मैंने जोड़ घटा कर कुछ बताया, लगे हाथ यह भी कह दिया "भैया, चुकी मैं रोज ही आपके साथ आ जा रही हूँ इसलिए मैं आपको एकमुश्त पैसा दे दूंगी." इतना कहना था कि उनके भीतर का पुरुष या कहा ले कि ' भैया' जाग गया और कहने लगे, " तुमने ऐसा सोचा भी कैसे, क्या मैं इतना गिरा हुआ हूँ, ..तुम नहीं आती तो भी इतना ही पेट्रोल फूंकता.." आदि आदि. मैं भी सहम कर चुप हो गयी, सच था कि मुझे ऐसी छोटी बात नहीं करनी चाहिए थी.

मंगलवार का दिन था और इन्होने बजरंग बली की खुशामदीद के लिए व्रत रखा हुआ था. ऑफिस से लौटते हुए 'अ' महाशय को जूस की तलब लगी. इच्छा न होने के बावजूद भी मैंने इनका साथ तो दिया ही दिया और पैसे भी दिए.अगले दिन बाइक मदर डेयरी पर रूकती है, क्या है तो...लस्सी पीने की इच्छा हो रही है..पर पर्स तो भूल आया हूँ. सौ कदम आगे चल कर बाइक जनरल स्टोर पर रूकती है...कुछ चिप्स लेना है बच्चों ने मंगाया है.

धीरे धीरे ये बातें रूटीन में शामिल हो गयी. मदर डेयरी पर लस्सी. जहां मुझे उतरना होता है वहाँ से बच्छो के लिए चिप्स या कुरकुरे. रोज. रोज मतलब रोज! कहने की जरुरत नहीं कि पैसे मैं ही देती थी. कुछेक बार लिहाज में और कई बार उनके कहने पर.

इधर कुछ दिनों से क्या होने लगा है कि हर तीसरे दिन, नियम से, पेट्रोल पम्प पर पहुंचाते हैं और वहाँ जाकर अचानक याद आता है कि अपना बटुआ तो आज घर पर ही भूल आये हैं. और अगर मैंने पेट्रोल नहीं भरवाया तो जाहिर है बाइक कहीं भी बंद हो सकती है.

उस दिन ऑफिस से मैं बेहद खराब मूड में निकली. धुप और लू से सर में चकमक हो रहा था और मुझे मेरा रूम दिखाई दे रहा था. जेब में बीस पच्चीस रूपये पड़े थे. तब तक उनका फोन आया: रजनी गंधा तक मैं भी पांच मिनट में पहुँच रहा हूँ.

रजनीगंधा पहुँच कर मैं 'अ' भैया का इंतज़ार करने लगी. मैं जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहती थी. वो आये. पर हुआ यह कि बाइक पर ठीक मेरे ठीक से बैठने के पहले फरमाईशों की उनकी फेहरिस्त खुल गयी. कहने लगे, " भतीजी का फोन आया था, बड़ी शैतान है, कहने लगी कि बिना छाता लिए आये तो घर में अन्दर नहीं आने देगी." इशारों में यह भी बता दिया कि पैसे नहीं है उनके पास. मैंने टका सा जबाव दिया कि मेरे पास भी नहीं है.

उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, " एटीएम् तो होगा". छतरी लेने की खातिर उस आदमी ने दिल्ली नोयडा एक कर दिया. गोल चक्कर से atta तक के सारे एटीएम् तक वो मुझे लेकर गए. और हर जगह उतनी ही भीड़. भीड़ होने का हवाला दे उन्होंने कहा, " तुम अपना एटीएम् मुझे दो मैं पैसे निकाल कर लाता हूँ." आखिरकार पैसे निकले और ये आदमी छतरी के लिए दूकान दर दूकान घुमाता रहा. मेरी तबीयत ज़रा भी ठीक नहीं थी और उस दिन वो हद कर रहे थे. मेरा मन कर रहा था कि गाडी रुकवाऊँ और एक थप्पड़ मार कर चली जाऊं. बार बार मन में यह चल रहा था कि घर पर मेरा भाई भी मेरा इंतज़ार कर रहा होगा.

घंटो घुमाने के बाद छतरी की दूकान और छतरी दोनों मिली. बाद में पेट्रोल पम्प पर मुझसे पैसे लिए. और लस्सी पीने के बाद तो जैसे ताबूत में आख़िरी कील बाकी रह गयी हो कि बाइक से उतरते ही मुझसे चिप्स की पुरानी फरमाईश दुहरा दे गयी.

मैं चाहती तो उन्हें बहुत कुछ सुना सकती थी पर मित्र का सम्मान रखने के कारण बोल ना सकी. बात रूपयों की नहीं है. ऑफिस आने जाने की दुश्वारियो में पैसा खर्च होता है. अचरज की बात यह है कि यह आदमी मुझसे पैसे खर्च करवाने के नित नए तरीके ढूँढने में कितनी ऊर्जा खर्च करता होगा.

उस दिन मैंने निर्णय किया कि उनके साथ आना जाना बंद कर दूंगी. दो दिन तक ऐसा चला भी पर तीसरे दिन उन्होंने रास्ते में मुझे पकड़ लिया. फिर वही मेरे मित्र के सगे भाई होने का जिक्र, साथ ऑफिस होने की दुहाई. जाने किस बात का लिहाज रख मैं उनके बाइक पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद समोसे और लस्सी की दुकान नजदीक आई. बाइक के इंजन की आवाज में आ रहे परिवर्तन को मैं महसूस कर रही थी.

Sunday, April 4, 2010

जिस दिन मैं इतिहास के निर्माण का एक दर्शक था.

साइबर कैफे पर बैठा लिख रहा हूँ तो अजीब सा परायापन लगा. लगा जैसे यहाँ आना ही नहीं चाहिए था. हो सकता है मात्राएँ गलत पड़ जाए क्योंकि ये जो कुछ भी है गूगल इंडिक ट्रांसलिटरेशन के सहारे लिखा जा रहा है. बहुत दिनों बाद आप सब से मुखातिब हूँ तो और भी अजीब लग रहा है. दरअसल एक जरूरी बात कहनी थी.जब सारा देश सानिया और शोएब की शादी से घबरा रहा है/ पगला रहा है/ अपनी अपनी अनूठी समझ का परिचय दे रहा है वैसे में मैं एक दुखद इतिहास के बीचोबीच खुद को पा रहा हूँ.

बचपन में स्कूल से लौट जब दादा जी अंग्रेजो के बारे में पूछता था तो वो कुछ भी सही नहीं बता पाते थे. बस इतना ही कहते थे की अंग्रेजो ने बहुत जुल्म किया. ये तो बाद में पता चला कि मेरे दादा जी की ही तरह ज्यादातर लोग कभी अंग्रेजो से मुखातिब हुए ही नहीं/अंग्रेजो के सामने पड़े ही नहीं. परन्तु आजादी की लहर में किस्से भी गढ़े गए. इसके बारे में कभी विस्तार से आउंगा पर अभी यह बताना चाह रहा हूँ कैसे हम अचानक अपने आप को इतिहास बना रही जगहों के आस पास पाते हैं.

करनाल एक बहुत छोटी जगह है और मैं उस दिन अहमदाबाद से लौटा ही लौटा था. मेरे एक असिस्टेंट ने बताया कि आज मनोज बबली हत्याकांड मामले का फैसला सुनाया जाएगा. जानकारी भर के लिए बता दू कि मनोज बबली, करोड़ा गाँव के युगल थे, जिन्होंने अपनी मर्जी से विवाह किया. इनकी निर्मम ह्त्या उस समय कर दी गयी थी जब ये देश की बहादुर पुलिस के संरक्षण में पिपली से दिल्ली जा रहे थे. इन्हें बाकायदा बस से उतार कर, मार कर, नाहर में फेंक दिया गया था.

मैंने जल्दी जल्दी रिपोर्ट वगैरह बनाया, सबमिट किया और कचहरी चला आया. कचहरी तथा आस पास की इमारते भरी हुई थीं. तंज हरियाणवी हर जगह गूँज रही थी. जब फैसला सुनाया गया तो अब लोग चाहे जो कहे(और इन लोगो में मैं पत्रकार बंधुओ को भी शामिल कर रहा हूँ) तो किसी को यकीन नहीं हुआ. एक बारगी तो जो जितना बड़ा बुद्धिजीवी था उसने उतना बड़ा झूठ बताया. पर धीरे धीरे लोगो ने फैसले के पक्ष में अपना पाला बदलना शुरू किया. फैसला था: पांच को फांसी, एक को उम्र कैद, एक को सात वर्ष की सजा.हरियाणे का यह तीसरा मौका है जब किसी को फांसी सुनाई गयी

तालिबान के जिस हिन्दू संस्करण के खिलाप यह फैसला है उसके खिलाफ इस स्तर तक खुद को तैयार करना बहुत साहस का कार्य है वरना आप बाहर से चाहे जितनी हल्की बात माने, पर हरियाणा में रहते हुए आप इन पंचायतो के खिलाफ ऊँची आवाज में बोल भी नहीं सकते. इनके अपने तर्क हैं, जैसे हर धोखेबाज के होते है, हू-ब-हू उसी तरह या जैसे तर्क हत्यारों के होते है. यहाँ के आला पुलिस अफसरान तक ने ऑफ़ दी रिकार्ड इन "ओनर कीलिंग्स" का समर्थन किया है, नेताओं और अन्य रीढ़ हीनो की तो बात ही जाने दे.

मनोज की माँ ,चंद्रपति, का यह बहुत बड़ा संघर्ष रहा है. आज भी गाँव वाले उसे प्रतारित करने का कोइ मौका छोड़ नहीं रहे है.उसे अपनी जमीन पर खेती तो नहीं ही करने दे रहे है बल्कि उस जमीन को पट्टे पर लेने वालो को भी डरा धमका रहे हैं. अपने जीवन में धोखे इत्यादि को अपना उद्देश्य बना चुके लोग भी कह रहे है कि वो बुढिया बेकार में तमाशा कर रही है,अब तो जो होना था वो हो लिया. यह संश्लिष्ट विश्लेषण का विषय है पर खुद को इन सारे प्रवाह के बीच पाकर लगा कि जाना जाए आखिर कुछ लोग ऐसी हिमाकत कैसे कर जाते है? वो कौन सा वकील है जो पैसे इत्यादि पर नहीं बिका? और वो जज? सुश्री वाणी गोपाल शर्मा नाम है उनका. सिर्फ फैसले पर ना जाए, उस फैसले को बारीकी से पढ़ने पर मालूम होता है कि उस इस महिला का स्टैंड क्या है और अपने सामाजिक किरदार को लेकर वो कितनी दृढ प्रतिज्ञ है.

मैंने तय किया है कि मैं इन सबसे मिलूंगा. चारो तरफ जिस अँधेरे की तारीफ़ में इस देश की मीडिया मारी जा रही है( पढ़े टाइम्स ऑफ़ इंडिया के आज और कल के अखबार; वो उन हत्यारों को नायक बनाने का कोई कोर कसार छोड़ना नहीं चाहती है, ढूंढ ढूंढ कर ऐसे ऐसे लोगो के साक्ष्ताकार छाप रही है जो इन हत्याओं को जायज ठहराते है) उसी समय ये जज, ये वकील और वो पत्रकार प्रिंस जिसने सबसे पहले यह खबर लगाई थी, उनसे एक एक कर के मिलना की इच्छा है.

टाइम्स ऑफ़ इंडिया चाहे जितनी मर्जी जोर से कह ले कि फैसले का असर इन पंचायतो पर नहीं पडा है, पर मैंने करीब से लोगो की आवाज बदलते देखा है. अगर बाकी के मामले में ऐसे ही फैसले आये और उन्हें लागू भी किया जाए तो पंचायतो पर ही नहीं पूरे देश पर असर पडेगा. फिर यह समाचार चैनल शानिया और शोएब से ज्यादा पंचायती मामलों पर टी आर पी लूटेंगे. नेता प्रेम के पक्ष में बोलते हुए पाए जायेंगे. धोखेबाज लोग घडियाली ही सही पर आंसू बहाते पाए जायेंगे.