Tuesday, February 8, 2011

भर्तृहरि की शतकत्रयी से कविताएँ

( भर्तृहरि की इन कविताओं का अनुवाद प्रसिद्ध कवि राजेश जोशी ने किया है. इनके शतक त्रयी ( नीति शतक, श्रिंगार शतक और वैराग्य शतक ) में से यहाँ नीति शतक से कुछ कविताएँ दी जा रही हैं. शेष कविताएँ भी सामान्य अंतराल पर प्रकाशित होती रहेंगी. भूमिका राजेश जी है जिसमें भर्तृहरि को समझने के कई तरीके उन्होने सुझायें हैं. पूर्वग्रह द्वारा पहले पहल सीरिज़ में छपी  इन कविताओं के पुनटंकण का कार्य अनिल ने किया है. )

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शतकत्रयी के रचनाकार भर्तृहरि भारतीय काव्य मनीषा के अप्रतिम कवि हैं. भर्तृहरि और उनके समय के बारे में संस्कृत के अध्येताओं में लगातार विवाद बना रहा है : संस्कृत वांग्यमय में भर्तृहरि नाम के दो साहित्य मनीषियों का उल्लेख मिलता है. एक भर्तृहरि व्याकरणाचार्य है और दूसरे शतकत्रयी के रचनाकार. तीनों शतक अधिकांशतः साधारण धार्मिक पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित होते रहे हैं इन पुस्तिकाओं में भर्तृहरि के परिचय के नाम पर जो कथा मिलती है उसमें भर्तृहरि उज्जयिनी के महाराज हैं, गोरखनाथ के शिष्य हैं और विक्रमादित्य उनके छोटे भाई बताये गए हैं. यही कथा मालवा, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ से लेकर हरियाणा और अनेक अंचलों में लोकनाट्य, लोकगीतों, लोककथाओं में खेली और गायी जाती है. “अमरफल” की कथा के नायक को ही अधिकांशतः व्याकरणाचार्य और शतकत्रयी का रचनाकार भी माना जाता रहा है. लेकिन “अमरफल” की लोककथा के नायक राजा भर्तृहरि से शतकत्रयी की रचना का संबंध जोड़ने का कोई तार्किक आधार नहीं है. यहां तक कि इस कथा गायन में उनकी रचना का कोई स्पष्ट उल्लेख तलाशना भी दूभर है. विक्रमादित्य और गोरखनाथ से भर्तृहरि के संबंध का भी कोई ठोस आधार नहीं है. भर्तृहरि की पूरी रचना में व्यापार और कृषि का वर्णन तकरीबन नगण्य है. मात्र नीतिशतक में एकाध स्थान पर संकेतरूप में इसका उल्लेख मिलता है.


डी.डी. कोशाम्बी का मानना है कि भर्तृहरि का अनुमानित काल ज़्यादा से ज़्यादा तीसरी शताब्दी के अंत का माना जा सकता है. यह भारतीय सामंतवाद का उदय काल था और किसी भी प्रकार की समर्थ राजशाही उस वक़्त अस्तित्व में नहीं थी. यह काल गुप्तवंश के उदय के पूर्व का है. उस वक़्त भारतीय समाज में एक नया वर्ग उदित हो रहा था. वर्ग समाज में पूर्व व्यवस्था के गर्भ से जन्म लेने वाल हर नया वर्ग, नये विचारों, नये कला रूपों और नये सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों को लेकर पैदा होता है. उसके लिए संघर्ष करता है और उन्हें स्थापित करता है. इसलिए वर्ग समाज में कला के जितने उन्नत और उत्कृष्ट रूप नई वर्ग व्यवस्था के उदय काल में प्रकट होते हैं उतने उस विशिष्ट व्यवस्था के विकसित हो जाने पर संभव नहीं होते. सामंतवाद का उदय न केवल हमारे सामाजिक ढांचे में एक क्रांतिकारी परिवर्तन था बल्कि उसने संभवतः पहली बार सभी कलाओं को गुणात्मक रूप से परिवर्तित कर दिया. समस्त कलाओं को पहली बार विराटत्व और वैभव प्रदान किया.

इस तरह भर्तृहरि पुरानी व्यवस्था के विध्वंस और नई व्यवस्था के उदय के संधि स्थल पर खड़े एक संक्रमण काल के कवि हैं. इसलिए उनके व्यक्तित्व के अंतर्विरोध और उनकी रचना में विरोधाभास तीव्रता के साथ उजागर हुए हैं. शतकों ( नीति शतक, श्रृंगारशतक और वैराग्य शतक ) की कविता और लोककथा में वर्णित भर्तृहरि के व्यक्तित्व में यही एक मात्र समानता का बिंदु है. लोककथा का नायक भर्तृहरि एक बेचैन मन का व्यक्ति है. ऊहापोह में झूलता, निर्णय लेने में असमर्थ सा व्यक्ति. वह कई बार सन्यास लेता है, जंगल की ओर चला जाता है लेकिन बार बार वापस अपनी राजसत्ता में लौट आता है. धन, राज्य और विशेष रूप से नारी को लेकर भर्तृहरि की कविता में अनेक विरोधाभासी वक्तव्य हैं. ये विरोधाभास किसी वर्ग विशेष के विरोधाभास नहीं हैं जितना कि वे एक समय के संक्रमण और उसमें मूल्यों के विघटन में उजागर करते हैं. इसी कारण भर्तृहरि की कविता न केवल उनकी वर्गीय सीमाओं का बल्कि अपने समय का भी अतिक्रमण करती हुई अमरता को प्राप्त कर गई है.

भर्तृहरि बेहद संवेदनशील और अद्भुत कल्पनाशील कवि थे. बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने, बहुत सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त कर जाने की, अद्भुत कला उनके पास है. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कविता, कला और संगीत के प्रति उनमें गहरी आस्था है. वे न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि राजा और राज्य के लिए कला को अनिवार्य मानते हैं. कला, संगीत से विहीन मनुष्य उनके लिए बिना सींग और पूंछ वाला जानवर है. कला के प्रति ऐसी आस्था विरल है.
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नीतिशतक



महामूर्ख

मगर की दाढ़ से मणि निकाल कर
ला सकता है आदमी
मचलती लहरों में तैरता
समुद्र पार कर सकता है आदमी.
आदमी फूलों की माला–सा पहन सकता है
सर पर क्रोधित सांप को
पर नहीं बदल सकता वह
महामूर्ख का मन ! ॥4॥


रेत को पेर कर

तेल निकाल सकता है आदमी
मरीचिका में भी
पी सकता है पानी
बुझा सकता है प्यास.
शायद !
भटक-भटकाकर आदमी
खोज कर ला ही सकता है
सींग ख़रग़ोश के.
पर नहीं बदल सकता
ख़ुश नहीं कर सकता वह
महामूर्ख का मन. ॥5॥

एक दुष्ट को
मीठी मीठी बातों से
लाना रास्तों पर?
यानि
नाजुक मृणाल के डोरों से बांधकर
रोकने की कोशिश करना हाथी को
हीरे को छेदने की कोशिश
शिरीष के फूलों की नोक से
यानी
समुद्र को मीठा करने की कोशिश
शहद की एक बूंद से ! ॥6॥

पतन

उतरी स्वर्ग से पशुपति के मस्तक पर
पशुपति के मस्तक से उतरी
ऊंचे पर्वत पर
उतरी ऊंचे पर्वत से
नीचे धरा पर
पृथ्वी से उतर कर
समुद्र में समा गई गंगा.
विवेकहीन मनुष्य का
इसी तरह सौ तरह
होता है पतन. ॥10॥

दवा
बुझाया जा सकता
आग को पानी से
छाते से रोका जा सकता है
धूप को.
नुकीले अंकुश से मदमत्त हाथी को
और गाय और गधे को
किया ही जा सकता है बस में
पीट-पाट कर.
रोग की दवाओं से
और ज़हर को उतारा जा सकता है
मंत्रों से.
बताई है शास्त्रों ने हर चीज़ की दवा
पर दवा कोई नहीं
कोई नहीं है दवा
महामूर्ख की. ॥11॥

बिना सींग और पूंछ वाला जानवर


बिना सींग और पूंछ वाला
जानवर है वह
वह जो शून्य है
साहित्य कला और संगीत से
बिना घास खाए
जो जीता है वह
तो यह भाग्य ही है
इस नराधाम के जानवरों का ! ॥12॥

संग

दुर्गम पहाड़ों में
वनचरों के साथ साथ
घूमना अच्छा.
पर बैठना अच्छा नहीं
मूर्खों के साथ साथ
इन्द्र-भवन में भी. ॥14॥

मणियों का क्या दोष

जिस राजा के राज में
भटकते हों निर्धन ऐसे कवि
कविता जिनकी सुंदर
शास्त्रों के शब्दों सी
कविता जिनकी ज़रूरी
बहुत ज़रूरी शिष्यों के वास्ते
तो राजा ही है मूर्ख
समर्थ है विद्वान तो बिना धन के भी
हक़ है उसे करे निन्दा
अज्ञानी जौहरी की
गिरा दिया है जिसने मूल्य मणियों का
इसमें दोष क्या है भला मणियों का ! ॥15॥

राहु

वृहस्पति और पांच छह ग्रह
और भी हैं
आकाश गंगा में
पर किसी से नहीं लेता दुश्मनी मोल
वह पराक्रमी राहु
पर्व में वह ग्रसता है
सिर्फ़ तेजस्वी सूर्य और चंद्रमा को
जबकि सिर्फ़
सिर ही बचा है
उसकी देह में. ॥34॥

कांचन

बस धनवान ही हैं कुलीन
धनवान ही हैं पण्डित
वही है
सारे शास्त्रों और गुणों का भण्डार
वही है सुंदर
वही है दिखलौट
सारे गुण क्योंकि
बसते हैं कांचन में ! ॥41॥

कल्पतरू

हे राजन
दुहना है अगर तुम्हें
इस पृथ्वी की गाय को
तो पहले हष्ट-पुष्ट करो
इस लोक रूपी बछड़े को
अच्छी तरह पाला पोषा जाए
जब इस लोक को
तभी फलता फूलता है
भूमि का यह कल्पतरू. ॥46॥

ओ चातक

ओ चातक !
घड़ी भर को
ज़रा कान देकर सुनो मेरी बात
बहुत से बादल हैं आकाश में
पर एक से नहीं हैं
सारे बादल
कुछ हैं बरसते
जो भिगो डालते हैं सारी पृथ्वी को
और कुछ हैं जो
सिर्फ़ गरजते ही रहते हैं लगातार
ओ मित्र
मत मांगो हर एक से दया की भीख ! ॥51॥

दोस्ती

दूध ने दे डाला सारा दूधपन
अपने से मिले पानी को
गर्म हुआ जब दूध
पानी ने जला डाला अपने को
आग में.
दोस्त पर आयी जब आफ़त
तो उफ़न कर गिरने लगा दूध भी
आग में.
पानी से ही हुआ वह फिर शांत
ऐसी ही होती है दोस्ती
सच्ची और खरी. ॥76॥

आफ़तें

हाथ से फेंकी गई गेंद
फिर उछलती है
टप्पा खा कर
आफ़तें स्थायी नहीं होतीं
अच्छे लोगों की. ॥86॥

गंजा

धूप ने तपा डाली
जब चांद गंजे को
तो छाया की तलाश में
पहुंचा वह एक ताड़ के नीचे
ताड़ से गिरा फल
और तड़ाक से फोड़ दिया
उसने गंजे का सर
जहां कहीं जाता है भाग्य का मारा
आफ़तें साथ साथ जाती हैं
उसके. ॥91॥

ललाट पर लिखी


करील पर न हों पत्ते
तो बसंत का क्या दोष
नहीं टिपे उल्लू को दिन में
तो सूरज का क्या दोष
पानी की धार न गिरे चातक के मुंह में
तो बादल का क्या दोष
बिधना ने जो लिख दी है ललाट पर
कौन मेट सकता है उसे ! ॥94॥

कर्म

ब्रह्माण्ड का घड़ा रचने को
जिसने कुम्हार बनाया ब्रह्मा को
दशावतार लेने के जंजाल में
डाल दिया जिसने विष्णु को
रुद्र से भीख मंगवाई जिसने
हाथ में कपाल लेकर
जिसके आदेश से हर रोज़
आकाश में चक्कर लगाता है सूर्य,
उस कर्म को
नमस्कार !
नमस्कार ! ॥96॥

राजपाट क्या है


लाभ, लाभ क्या है
गुनियों की संगत है लाभ.
दुख, दुख क्या है
संग, मूर्खों का संग है दुख,
हानि, हानि क्या है
समय चूकना है हानि.
क्या है, क्या है निपुणता.
धर्म और तत्व को जानना है निपुणता
कौन है, कौन है वीर
वीर है, जो जीत ले इंद्रियों को
प्रेयसी, प्रेयसी कौन है
पत्नी, पत्नी ही है प्रियतमा
धन है, धन क्या है
ज्ञान, ज्ञान ही है धन
सुख, सुख क्या है
यात्रा, यात्रा ही है सुख
तो फिर राजपाट क्या है !! ॥104॥

Saturday, February 5, 2011

महेश वर्मा की छ: कविताएँ

'कला के तीसरे क्षण ' का अचूक सूत्र तभी सफल दीखता है जब रचना से यह बात भी झाँकती दिखे कि इस रचना में जीवनानुभव की व्याप्ति कितनी है. जीवनानुभव और कला के इस बेहतरीन 'ब्लर' के लिए जो हुनर चाहिए उसकी खातिर कवि की यह ख्वाहिश कि "पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना / फिर तुम्हारी बात लिखूंगा". महेश की कविताओं से गुजरते हुए हम यह अनुभव शिद्दत से करते हैं. अगर कोई कवि रविवार को " यह कविता का दिन है गद्य के सप्ताह में" बताता है तो हम यह बूझ लेते हैं कि बाकी के छ: दिन कितने कठिन बीते या आगामी छ: दिनों के बाबत कवि कितनी तैयारी कर रहा है. प्रस्तुत छ: कविताएँ महेश वर्मा की हैं और हरेक कविता नए सत्य के साथ और नई युक्तियों के साथ जाहिर होती है.
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रविवार

 रविवार को देवता अलसाते हैं गुनगुनी धूप में
अपने प्रासाद के ताखे पर वे छोड़ आये हैं आज
अपनी तनी हुई भृकुटी और जटिल दंड विधान

नींद में मुस्कुराती किशोरी की तरह अपने मोद में है दीवार घड़ी 

खुशी में चहचहा रही है घास और
चाय की प्याली ने छोड़ दी है अपनी गंभीर मुखमुद्रा

कोई आवारा पहिया लुढ़कता चला जा रहा है
वादियों की ढलुआ पगडण्डी पर

यह खरगोश है आपकी प्रेमिका की याद नहीं
जो दिखा था, ओझल हो गया रहस्यमय झाडियों में

यह कविता का दिन है गद्य के सप्ताह में

हम अपनी थकान को बहने देंगे एड़ियों से बाहर
नींद में फैलते खून की तरह

हम चाहेंगे एक धुला हुआ कुर्ता पायजामा
और थोड़ी सी मौत
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पूर्वज कवि

पूर्वज कवि आते हैं
और सुधार देते हैं मेरी पंक्तियाँ
मैं कहता हूँ कि हस्ताक्षर कर दें जहाँ
उन्होंने बदला है कोई शब्द या पूरा वाक्य

होंठ टेढा करके व्यंग्य में मुस्काते
वे अनसुनी करते हैं मेरी बात


उनकी हस्तलिपि एक अभ्यस्त हस्तलिपि है
                  अपने सुन्दर दिखने से बेपरवाह
                  और तपी हुई
                  कविता की ही आंच में

सुबह मैं ढूँढता उनके पदचिन्ह ज़मीन पर
सपनों पर और अपनी कविता पर

फुर्र से एक गौरय्या उड़ जाती है खिड़की से 
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पुराना पेड़

वह दुःख का ही वृक्ष था
जिसकी शिराओं में बहता था शोक
दिन भर झूठ रचती थीं पत्तियाँ हंसकर
कि ढका रह आये उनका आंतरिक क्रंदन

एक पाले की रात
जब वे निःशब्द गिरतीं थीं रात पर और
ज़मीन पर
हम अगर जागते होते थे
तो खिडकी से यह देखते रहते थे

देर तक 
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घर

घर वैसा ही होगा जब हम लौटेंगे
जैसे शताब्दियों तक वैसे ही रहते हैं घर किताबों में

हम किताबों की धूल झाड़ेंगे
और घर में प्रवेश करेंगे
वहाँ चूल्हा वैसे ही जल रहा होगा
जैसा कहानी में जलता था और
लकड़ी बुझने से पहले शुरू हो गया था दूसरा दृश्य
वह बुढ़िया अभी भी आराम कुर्सी में
सो रही होगी जो कुछ सौ साल पहले
ऊंघ गयी थी आंच से गर्म कमरे के विवरणों के बीच
इसे एक गोली की आवाज़ ही जगा सकती है
लेकिन मालूम नहीं कब

हम चाहते भी थे कि दुर्भाग्य का वह पन्ना उधड़ कर
उड़ता चला जाए किसी रहस्य कथा में

हम चांदनी से भी आरामदेह एक बिस्तर पर लेट जायेंगे
जहाँ नींद की उपमा की तरह आएगी नींद
और हमें ढक लेगी

हम सपना देखेंगे एक घर का या किताब का
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सामाजिक भाषा में रोना 

और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया

दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने

कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ

मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार - तुम्हें मालूम है ना ?

किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुःख ?

पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा
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पत्थर

इतने संतुष्ट थे पत्थर
कि उनकी छाया ही नहीं थी
जो लाखों साल वे रहे थे समंदर के भीतर
यह भिगोए रखता था उनके सपनों को

गुनगुनी धूप थोड़ा और देर ठहरे
इस मामूली इच्छा के बीच
वे बस इतना चाहते हैं
कि कोई अभी उनसे बात न करे
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कवि से सम्पर्क : maheshverma1@gmail.com ; 09425256497

Thursday, February 3, 2011

धोबीघाट : मुम्बई क्या रंग डिब्बा है.

( शेषनाथ पाण्डेय का यह आलेख, धोबीघाट और इन्द्रधनुष के शहर मुम्बई पर है. और स्वयं इस स्वप्नशील शेषनाथ पर भी. दो वर्षों से मुम्बई में जमें शेषनाथ, टेलीविजन की रंगीनियाँ रचने का काम कर रहे हैं, धारावाहिकों की स्क्रिप्ट पर काम करना इनका पेशा है. स्वभाव से चुप्पा हैं. टेलीविजन के सफेद स्याह चेहरे को बेहद करीब से देख रहे, शेषनाथ कहानीकार हैं, जिनकी कहानी ‘इलाहाबाद भी’ नई बात पर प्रकाशित हो रही है. )

धोबी घाट : मुंबई डायरिज के बहाने

पिछले दिनों अक्षय कुमार ने अपनी एक टिप्पणी में कहा था कि हम जैसे अभिनेता( स्टार टाइप रूतबा वाले) उड़ान और तेरे बिन लादेन जैसी फिल्मों में काम नहीं कर सकते क्योंकि प्रोडूयसर को हमसे ज्यादा कमाई की उम्मीद होती है...अक्षय कुमार अपनी जगह पर सही हो सकते है लेकिन धोबीघाट के आने बाद के बाद अक्षय की बातें बेतुकी लगती है...आमिर का स्टारडम अक्षय से कहीं कम नहीं है बावजूद इसके आमिर ने न सिर्फ़ इस छोटी बजट और विशुद्ध कलात्मक फिल्म में काम किया बल्कि पैसा भी लगाया...आमिर ने ऐसा अनायास नहीं किया है...वे समय में हो रहे बदलाव को समझ गए है और उन्हें पता है कि अगर इस बदलाव से हम नजर छुपा ले तो हमारे पास शुतुरमुर्गी बचाव के छद्म के अलावा कुछ नहीं बच पाएगा...


हमारा परिवेश ग्लोबल होता जा रहा है...अब सच्चाई जानने के लिए हम सिर्फ़ मीडिया पर निर्भर नहीं रहे...आज फेसबुक, ऑरकुट, टूयटर जैसे सोसल साइट्स के अलावा ब्लॉग हमारे पास उपलब्ध है जिसकी बदौलत हम अपनी बात को गलोबल गाँव में छोड़ सकते है...और ये छोड़ना भी ऐसा नहीं कि इसका कोई मतलब नहीं...इसकी सार्थकता को हम पिछले दिनों साहित्य में हुए एक बड़ी हलचल से देख सकते है. बिभूति राय की एक आपत्ति जनक टिप्पणी पर एक लेखक ने घोर असहमति दर्ज करते हुए पहले अपने फेसबुक पर अपने विचार को लगाया...वहाँ से बात फैल कर एक ब्लॉग पर गई और ब्लॉग से एक अखबार ने उठा लिया फिर तो मामला पूरी तरह से मीडिया के हाथों में आ गया और देश की एक बड़ी खबर के रूप में कई दिनों तक हमारे बीच रहा...

यह मामूली बदलाव नहीं है...इन बदलावो का असर साहित्यिक मंच पर भी पड़ा है...अब छपने-छापने के लिए पत्रिकाओं की गिरोहबाजी से अलग एक रास्ता दिखाई दे रहा है. आज जो अर्थ पूर्ण फिल्में व्यावसायिकता की मोटी जंजीर को न तोड़ेने की वज़ह से सिनेमा घर तक नहीं पहुँच पाती लेकिन दर्शको तक पहुँच जाती है... अनुराग कश्यप की पहली फिल्म “पाँच” शायद डिस्ट्रीब्यूटर के अभाव में सिनेमा घरों तक नहीं पहुँच पाई लेकिन यू ट्यूब के माध्यम से सिनेमा के दीवाने दर्शकों तक पहुँच गई....हालांकि बड़ी रकम लगा कर यू टूब तक का ही सफ़र सही नहीं है फिर भी हमारे आस्वाद में जो बदलाव हो रहे हैं, इसका दूरगामी असर होगा... हम यह भी कह सकते है जनता द्वारा माउथ पब्लिसिटी का प्रभावशाली दायरा बहुत बढ़ गया है.

इन अर्थपूर्ण फिल्मों को बड़े बजट वाली फिल्मों की तरह ओपनिंग भले ही ना मिले लेकिन दर्शक अपने सोसल साइटों के माध्यम से सही चीजों को लोगों तक पहुँचाने में कामयाब हो रहे है...आज से कुछेक साल पहले भेजा फ़्राई, उड़ान, तेरे बिन लादेन, पीपली लाइव, फँस गए रे ओबामा की कुछ चर्चा ही नहीं मिलती लेकिन हर चीज का एक समय होता है और इसे तय करता है हमारा यथार्थ...इस तरह से हिंदी सिनेमा में जो पिछले कुछ वर्षो से बदलाव दिखाई दे रहे है उस बदलाव की एक मजबूत कड़ी के रूप में धोबीघाट हमारे सामने है...

स्वपन भंग की त्रासदी लेकिन संवेदना में छुपी मैल साफ हुए

आमिर खान के प्रोडक्शन में बनी नवोदित निर्देशक किरण राव की यह पहली फिल्म है और फिल्म में है, दुनिया का एक महत्वपूर्ण और अनोखा शहर मुंबई...लेकिन इस सबसे महत्वपूर्ण है इसके चकाचौंध से अलग मुंबई को एक आम जनता और कलाकार के माध्यम से देखना...बस चार लोगो की उपस्थिति और उनका आपसी अनकहा कनेक्शन इस तरह जुड़़ता है कि मुंबई एक ‘मेटाफर’ बन जाता है और यही कहानी उन चारों के साथ साथ समूची मुंबई की हो जाती है.

अरूण (आमिर खान) एक पेंटर है और अपनी पेंटिग एग्जिबिशन की एक पार्टी में वो मुंबई को बनाने वाले आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, और यू पी के मजदूरों के प्रति आभार प्रकट करता है और उनके दुखों के साथ खड़े होते हुए इस एग्जिबिशन को उनके नाम करता है...मुंबई में जिस तरीके़ से सत्ता के लिए इन मजदूरों को बाहरी कह के भगाया जा रहा है और उसके पक्ष में खड़े होने वालों की ज़बान बंद की जा रही है उस लिहाज से यह आभार रेखांकित करने लायक है...विरोध का यह तरीका चाहे जितना कमजोर हो लेकिन लोगों की संवेदना में अपनी पैठ बना ही लेता है जो कि हमारी एकता के लिए सबसे महत्वपूर्ण है...

अरूण को इसी एग्जिबिशन में एक पारसी लड़की शाई (मोनिका डोगरा) से मुलाकात होती है जो न्यूयार्क में बैंककर्मी है और अपने फोटोग्राफ़ी के शौक के चलते मुंबई आई है और वो मुंबई पर फोटोबुक निकालना चाहती है...अरूण को उसका पैशन अच्छा लगता है और शाई को उसका एग्जिबिशन...अरूण उसे अपने घर ले जाता है...अरूण मोनिका के खींचे हुए तस्वीरों को देखता है और यह देखना इतना आत्मीय हो जाता है कि वे एक-दूसरे में गुँथ जाते है...

सुबह होती ही अरूण को इस बात का जहाँ अफ़सोस होता है वही शाई खुश है और अरूण को सहज कर रही है लेकिन अरूण परेशान होते हुए कहता है कि हम कोई रिश्ता नहीं चाहते तब भी शाई उसे रिलेक्स करती है...फिर भी अरूण कनफ्यूज़ होकर कहता है कि “हम दरअसल ये कहना चाहते है” तो शाई इतना सुनने के बाद चिढ़ कर वहाँ से चली जाती है...

शाई कि मुलाकात मुन्ना (प्रतीक बब्बर) से होती है जो बिहार के दरभंगा जिले से आठ साल के उम्र में ही अपने चाचा के साथ मुंबई आ गया था...वो दिन में धोबी और रात में जमादार (चूहा मारने) का काम करने के साथ एक्टर बनने का सपना लिए फिरता है...शाई के लिए तब मुन्ना और महत्वपूर्ण हो जाता है जब उसे पता चलता है कि वो अरूण के बारे में जानता है. मुन्ना से ही शाई को ये पता चलता है कि अरूण का तलाक हो गया है और उसकी बीबी बच्चे ऑस्ट्रेलिया में रहते है.इसके बाद शाई अरूण को लेकर और पोजेसिव हो जाती है लेकिन मसरूफ़ और डिप्रेस्ड अरूण की निजता में शामिल होने का साहस नहीं कर पाती.

इधर अरूण अपने नए फ्लैट में जाता है तो उसे एक छोटे से श्रृँगार बाक्स में बंद चैन, अँगूठी, फोटो और किसी मेटल से बनी एक मछली के साथ तीन विडियो कैसेट मिलते है. पहले तो वो अपने एजेंट से कहकर उस पुराने किराएदार को वापस करना चाहता है लेकिन एजेंट के इंकार पर अरूण अपने पास ही रख लेता है.

एक दिन ऐसे ही अपनी ज़िंदगी से उबकर वो कैसेट को देखना शुरू करता है...कैसेट में एक घरेलू महिला यास्मीन( कीर्ति मल्होत्रा) की बातें है जो अपने पेंटिंग मंव डूबे और ऊबे अरूण के लिए इंटरेस्टिंग हो जाती है जिससे प्रभावित होकर अरूण अपने पेंटिंग में उसका कोलाज बनाना शुरू करता है. इधर यास्मीन अपने विडियो से मुंबई का दर्शन करा रही है उधर शाई अपने फोटो खींचने के शौक में मुंबई देख रही है. मुंबई देखने का यह क्राफ़्ट अपने आप में महत्वपूर्ण है.

यास्मीन गाँव से ब्याह कर बड़े शहर में रहने का सपना लेकर आई है लेकिन उसका इंटरेस्ट यहाँ की चकाचौंध में नहीं है. वे अपने कैमरे में घर में काम करने वाली बाई और अपनी पड़ोसी की उस औरत को रिकार्ड कर रखी है जिसके साथ न जाने क्या हुआ है कि वो कुछ बोलती ही नहीं. रात-दिन एक ही जगह पर एक भाव में बैठी रहती है. फिल्म में अंत तक ये नहीं खोला जाता कि आखिर उस औरत के साथ क्या हुआ होगा लेकिन जब अपने आखिरी कैसेट में यास्मीन अपने भाई जान को बताती है कि वो अपने पति की दूसरी बीबी है और अब वह शायद आप से (भाई जान) कभी नहीं मिल पाएगी तो इससे उस महिला के साथ हुए हादसा को दर्शक कनेक्ट कर लेते है क्योंकि अरूण जिस कमरे में है उसी कमरे के पंखे से लटकर यास्मीन ने अपनी जान दे दी है. अरूण डर कर बाहर निकलता है तो वो महिला वैसे ही बैठी होती है. अरूण उस कमरे को छोड़कर दूसरे जगह चला जाता है. चूँकि अरूण के कपड़े धोने का काम मुन्ना करता है इसलिए अरूण अपने कमरे का पता उसे दे देता है.

इधर शाई मुन्ना के माध्यम से घोबीघाट के अलावा कई जगहो का फोटो लेती है अब शाई के लिए मुन्ना सिर्फ़ इंटरेस्टिंग ही नहीं दोस्त भी हो गया है और मुन्ना शाई से प्यार करने लगा है..और देखा जाय तो शाई भी मुन्ना से. शाई अब उसके साथ फिल्म देखती है उसे शराब पिलाती है और उसके साथ घूम-घूम कर मुंबई की फोटो खींचती है. एक दिन मुन्ना अरूण के घर कपड़े लेने जाता है तो देखता है कि शाई बैठी हुई है. मुन्ना को लगता है कि उसके साथ ठीक नहीं हो रहा है वो उदास हो जाता है. इधर बीच मुन्ना के दोस्त की हत्या हो जाती है जो एजेंट और कॉन्ट्रेक्ट के छोटे-छोटे काम करने के साथ-साथ मुन्ना को रोल दिलाने का दिलासा देता रहता है. मुन्ना के लिए ज़िदंगी और कठिन हो जाती है.

शाई को मुंबई में चूहा मारने वाले को तस्वीर लेनी है. एक दिन वो जिस चूहा मारने वाले की तस्वीर लेती है वो मुन्ना ही रहता है. शाई यह देख कर चौंक जाती है. मुन्ना भी शाई को देख कर भाग जाता है. मुन्ना अब शाई के सामने नहीं आना चाहता. लेकिन एक दिन शाई उसे पकड़ लेती है और अपने प्रति नाराजगी का कारण पूछती है तो मुन्ना उसे बताता है कि तुम्हारा दिल अरूण पर आ गया है. फिर शाई मुन्ना से अरूण का ऐड्रेस पूछती है तो मुन्ना झूठ बोल देता है कि उसे नहीं मालूम वो ऑस्ट्रेलिया जा कर बसने वाला था. लेकिन जब शाई गाड़ी में बैठ कर चली जाती है तो वो दौड़ते हुए पीछा करता है और अपने पॉकेट डायरी से फाड़ के अरूण का पता दे देता है और चला जाता है. शाई के आँख से आँसू गिरते है जो मुन्ना और उसके बीच इस छोटी मगर गहरी यात्रा का चित्र खींच देते है.

हम जिस चीज को नियति का हिस्सा मानकर उसे छोटा बना देते है. उसी छोटी सी बात और क्षणिक इमोशन को किरण एक बड़े कैनवास पर रख देती है. कैनवास पर उभरे चित्र हमारी बिडंबना और विरोधाभास को रेखांकित करने के साथ हमारे स्वप्न भंग की कहानी कहते है. इस स्वप्न भंग के बीच महत्वपूर्ण है संवेदना का बचना जो कि मुन्ना द्वारा शाई को अरूण का ऐड्रेस देने और अरूण को अपने पेंटिंग में यास्मीन के सामान और उसके विडियो को चित्रित करने में दिखाई देता है. शायद धोबीघाट का यही सफ़र है.

एक तरफ़ यास्मिन जैसी घरेलू महिला जो अपने पति में अपने आप को इतना बंद कर लेती है कि उसके बिना अपनी जिदंगी ही खत्म कर लेती है वहीं शाई अपने रिश्ते और संबधो को लेकर इतनी सुलझी हुई है कि शारीरिक संबंध के बाद भी जब अरूण उसके साथ किसी रिश्ते से इंकार करता है तो वो कुछ परवाह नहीं करती उल्टे अरूण को ही रिलेक्स करती है. एक तरफ़ मुंबई की बारिश में उच्च मध्य वर्ग का अरूण अपने पैग को खिड़की से बाहर कर के जाम बनाता है वही मुन्ना अपने छप्पर से टपक रहे पानी को मग्गे में भर कर बाहर फेंकता है. इसका शिल्प अनोखे तरह से बुना गया है. जितनी बारीकी से कथा को बुना गया है उतनी ही बारीकी से आदमी के टूटना और छूटना को बुना गया है.

अभिनय में सब के सब अपने किरादार में डूबे हुए लगते है. खासकर प्रतीक और कीर्ति मलहोत्रा ने तो कमाल का काम किया है. आमिर ने भी अपने स्टाइल से अलग और रियल काम किया है. मोनिका डोगरा के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती थी जिसे वह बखूबी पार करती है. निर्देशन और लेखन की जितनी तारीफ की जाय कम है. मुंबई के चकाचौंध में कथानक के साथ क़िरदारों के बसरे और उनके परिवेश को भटकने का खतरा था लेकिन किरण ने संभाल लिया है. कही भी मॉल,होटल, क्लब और बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों का बाजारू दिखावा नहीं. कुछ भी बनावटी नहीं. संवाद भी एक दम चुस्त और सहज होने के साथ इंटरेस्टिंग है. कही कुछ बोझिल नहीं. किरण अपनी इस फिल्म से मीनिंगफुल सिनेमा के निर्देशकों के करीब खड़ी तो हुई ही है अपने इस तोहफ़े से हिंदी सिनेमा को समृद्ध भी किया है.


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