tag:blogger.com,1999:blog-28285985816625186792024-03-05T18:43:16.206+05:30नई बातचन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.comBlogger178125tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-80404840655582059952017-05-24T02:00:00.000+05:302017-05-24T02:00:17.639+05:30काव्यशास्त्रविनोद-११: लोग सिर्फ़ लोग हैं,तमाम लोग,मार तमाम लोग (रघुवीर सहाय)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता "रामदास" का विषय भी आम लोगों का आचरण है। ये लोग न केवल खुलेआम हुई हत्या के निष्क्रिय दर्शक हैं, बल्कि कविता के अंत तक आते-आते इस हत्या की अनिवार्यता के उत्साही समर्थक हो जाते हैं। कविता की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें---<br />"सधे क़दम रख कर के आये/लोग सिमटकर आँख गड़ाये/ लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी/ निकल गली से तब हत्यारा/ आया उसने नाम पुकारा/ हाथ तौलकर चाकू मारा/ छूटा लोहू का फ़व्वारा/ कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी/ भीड़ ठेलकर लौट गया वह/ मरा पड़ा है रामदास यह/ देखो-देखो बार-बार कह/ लोग निडर उस जगह खड़े रह/ लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।"</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यहाँ पहले तो हत्या का तमाशा देखते लोग हत्या होने के बाद मानो राहत की साँस लेते हैं, और उसकी अनिवार्यता का बखान करते हैं---कहा नहीं था......। इसके बाद वे इसका उत्सव-सा मनाने लगते हैं। हत्यारे के चले जाने के बाद बार-बार एक दूसरे को मृत रामदास का शव दिखाकर उसकी मौत का भरोसा दिलाते हैं। इतना ही नहीं वे उन लोगों को शर्मिंदा करने के लिए खोजते हैं, जिन्हें हत्या की अनिवार्यता में संदेह था। ज़ाहिर है वे इस रीत-नीत से असहमत लोग रहे होंगे। लेकिन वे भी गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब हैं। उन्हें खोजना उतना ही मुश्किल हो रहा है जितना आदतन ख़ुशामद न करने वालों को खोजना था। कवि जैसे कह रहा हो कि कहीं से ले आओ वह दिमाग़ जिसे हत्यारे की कामयाबी पर शक न हो।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
दूसरी तरफ़, आम लोगों के रवैये में किसी प्रकार के अफ़सोस की झलक तक नहीं है। कवि का रुख़ भी उनके प्रति उतना ही निष्करुण है। वह लोगों के वहां खड़े रह जाने को उनकी "निडरता" की संज्ञा देकर उन पर अत्यधिक कठोर व्यंग्य करता है। लोगों की कमज़ोरियों या उनके पतन को वह मानो उनका चुनाव मानता है,और ख़ुद मनुष्यता का लबादा ओढ़कर कहीं ऊँचाई पर खड़ा रहता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसका अर्थ यह क़तई नहीं कि लोग ऐसी कमज़ोरियों का प्रदर्शन नहीं करते। हत्यारे का सामना होने की आत्यंतिक स्थिति को छोड़ भी दें तो किसी की जान बचाने के लिए कई बार उन्हें अपनी मामूली सुविधाओं को छोड़ने में भी परेशानी होती है। आए दिन ऐसा देखने में आता है कि दुर्घटना का शिकार कोई व्यक्ति सड़क पर छटपटाता रहता है और लोग उसके पास से गुज़र जाते हैं। यही लोग दंगाइयों और अपराधियों को चुनाव भी जिताते हैं। लेकिन क्या यह सिक्के का सिर्फ़ एक पहलू नहीं है? यही आम लोग दूसरों के लिए जान भी देते हैं, ग़रीब और मासूम लोगों के इंसाफ के लिए लड़ते हैं, और मनुष्यता की नई से नई नज़ीर पेश करते हैं। यह बात और है कि हमारी व्यवस्था और ख़ासकर मीडिया की दिलचस्पी ऐसी चीज़ों में नहीं है इसलिए इनकी कहानियाँ कम सुनाई पड़ती हैं, लेकिन ये हर कहीं होते हैं। इसीलिए जब कोई कवि इनके होने से इनकार करता है तो वह जाने-अनजाने सत्ता और व्यवस्था की हाँ में हाँ मिला रहा होता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यह सच है कि हमारे देश के आम लोग ग़ुलामी, बंटवारे और आज़ादी के बाद भी जारी लूटतंत्र के इस क़दर सताए हुए हैं कि अनेक बार वे सामान्य मानवीय भावनाओं से भी वंचित जान पड़ते हैं। न्यूनतम मानवीय गरिमा से वंचित अपने देशवासियों को देखकर कवि उनसे प्रेम के कारण उनकी आलोचना करे और उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलाए, यह तो स्वाभाविक है। लेकिन अगर वह जनसमुदाय के पतन से अछूता रह जाने के जोश में मानवता को आभिजात्य की तरह धारण करता है और बाक़ी लोगों को लताड़ लगाता है तो उसे जनपक्षधर कवि कहना मुश्किल है। आइए देखें मुक्तिबोध ऐसी स्थिति का सामना होने पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
" ओ मेरे आदर्शवादी मन,/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,/ अब तक क्या किया?/ जीवन क्या जिया!!/उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,/ भूतों की शादी में कनात से तन गए,/ किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,"</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आलोचना यहाँ भी सख़्त है, लेकिन आलोचना करने वाला ख़ुद को भी अपने देशवासियों के पतन का भागीदार और ज़िम्मेदार पाता है। अपने मन को सम्बोधित करके यह सब कहने का यही अभिप्राय है। अपने देशवासियों की नियति से आज़ाद होकर उसने शुद्धता का कोई बाना नहीं ओढ़ रखा है। "अँधेरे में" नामक इस कविता में अन्यत्र भी इस आशय के वक्तव्य हैं,मसलन:<br />"मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे ही कारण दुर्घट हुई यह घटना"।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
असल में, रघुवीर सहाय की चेतना में जनता एक अचेतन समुदाय की तरह आती है जिसे कुछ ज्ञानवान लोग सही रास्ता दिखाते हैं। उनकी यह धारणा इतनी मज़बूत है कि उनके अपने समय में चलने वाले जनसंघर्ष भी इस पर खरोंच नहीं डाल पाते। जनता की शक्ति और उसकी भूमिका की समझ से कटी हुई यह चेतना किसी दौर में सीमित रूप से जनपक्षधर भूमिका भले ही निभा ले, वर्तमान संक्रमणकालीन दौर की लोकतांत्रिक चेतना से नहीं जुड़ पाती। जनता की भूमिका का अवमूल्यन करने वाली उनकी चेतना की एक और बानगी देखते चलें:<br />"जब एक महान संकट से गुज़र रहे हों/ पढ़े-लिखे जीवित लोग/ एक अधमरी अपढ़ जाति के संकट को दिशा देते हुए/ तब/आप समझ सकते हैं कि एक मरे हुए आदमी को/ मसखरी कितनी पसंद है"<br />(आज का पाठ है)</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस श्रृंखला में हमनेे जानबूझकर अब तक रघुवीर सहाय के एक परिपक्व संग्रह की सबसे चर्चित और प्रशंसित कविताओं का विश्लेषण किया है ताकि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं से ही उनकी सीमा भी प्रकट हो। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर इस मूल्यांकन की प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती थी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की जनता के प्रति अवमानना भरा रुख़ उनके किसी ख़ास दौर की विशेषता है।दरअसल, यह उनकी चेतना का ट्रेडमार्क है। इस बात को समझने के लिए हम उनके आरम्भिक और परवर्ती दौर की एक -एक कविता पर ग़ौर करेंगे। पहले एक शुरूअाती कविता "दुनिया"(1957) की अंतिम पंक्तियों पर नज़र डालें:<br />"लोग कुछ नहीं करते जो करना चाहिए तो लोग करते क्या हैं/ यही तो सवाल है कि लोग करते क्या हैं अगर कुछ करते हैं/ लोग सिर्फ़ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग/ लोग ही लोग हैं चारों तरफ़ लोग, लोग, लोग/ मुँह बाये हुए लोग और आँख चुंधियाते हुए लोग/ कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग/ खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग/ दुनिया एक बजबजाती हुई चीज़ हो गई है।"</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ये पंक्तियां अपनी मिसाल आप हैं और इनपर कुछ भी कहना ग़ैरज़रूरी है। कवि की परवर्ती दौर की एक छोटी सी कविता "जब उसको गोली मारी गयी"(1984) देखें:<br />"जब उसको गोली मारी गयी/ फ़ोटो से जाना क्या पकता था चूल्हे पर/बेटे ने बैठकर अपना मुँह दिखलाया/ लाश का ढँका था मुँह।"</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
जैसा कि स्पष्ट है इस कविता में एक हत्या के बाद खिंची हुई तस्वीर के माध्यम से बात की गई है। चूल्हे पर पकता खाना और मृतक के बेटे का चेहरा भी तस्वीर में आ गया है। वैसे तो यह विवरण तथ्यपरक और मार्मिक हो सकता था, लेकिन कवि को संभवतः विश्वास नहीं है कि किसी की हत्या का शोक उसके यानी स्वयं कवि के अलावा किसी और को हो सकता है चाहे वह मृतक का अपना बेटा ही क्यों न हो। "बैठकर अपना मुँह दिखलाने" की बात से लगता है कि फ़ोटो में अपना चेहरा ठीक से आए इसके लिए प्रयास किया गया है, ख़ास तौर पर तब जब मृतक का चेहरा ढँका है। शव के चेहरे को ढँकना अत्यंत सामान्य प्रथा है और उसकी फोटो में उसके किसी प्रियजन की तस्वीर आ जाना भी उतनी ही सामान्य बात। ग़ौरतलब यह है कि कवि इस तकलीफ़देह परिस्थिति में भी चीजों को देखने का कौन सा कोण खोज लाता है। उसके संयोजन में यह सब मृत व्यक्ति के प्रति उपेक्षा और किंचित विश्वासघात की तरह प्रकट होता है। इस कविता में "रामदास" की संवेदना की निरंतरता को आसानी पहचाना जा सकता है, बस समय के साथ तमाशा देखते लोगों की भीड़ में रामदास का बेटा भी न केवल शामिल हो गया है बल्कि अपना दयनीय चेहरा दिखाकर उसने संभवतः "निर्धनता के बदले कुछ मांगने" का कारोबार भी शुरू कर दिया है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
कवि के मनोजगत की बुनावट को समझने के लिए इससे बेहतर साक्ष्य मिलना मुश्किल है।</div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-85015995583266517142017-05-24T01:30:00.000+05:302017-05-24T01:30:00.158+05:30काव्यशास्त्रविनोद-१०: एक मेरी मुश्किल है जनता (रघुवीर सहाय)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
(१) एक दिन इसी तरह आयेगा---- रमेश<br />कि किसी की कोई राय न रह जायेगी-----रमेश<br />क्रोध होगा पर विरोध न होगा<br />अर्जियों के सिवाय-----रमेश<br />ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी<br />और उसे बादशाह बजायेगा-----रमेश<br />(आने वाला ख़तरा)<br />(२) कविता न होगी साहस न होगा<br />एक और ही युग होगा जिसमें ताक़त ही ताक़त होगी<br />और चीख़ न होगी<br />(बड़ी हो रही है लड़की)<br />(३) हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही है<br />...................…................................<br />हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो<br />सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर<br />एक अपनापे की हँसी हँसते हो<br />जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय<br />(हँसो हँसो जल्दी हँसो)</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ये तीनों उद्धरण रघुवीर सहाय के कविता संग्रह "हँसो हँसो जल्दी हँसो"(१९७०-७५) से लिए गए हैं। इन अंशों में दो बातें प्रमुखता से दिखाई पड़ती हैं। एक तो भारतीय लोकतंत्र की फ़ासिस्ट तानाशाही की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति, और दूसरी इस प्रवृत्ति का विरोध करने वाली शक्तियों की अत्यंत निराशाजनक अनुपस्थिति। अगर हम इन कविताओं के रचनाकाल पर ग़ौर करें तो पाएंगे कि एक तरफ़ यह दौर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में तानाशाही शक्तियों के उभार का है तो दूसरी तरफ़ नक्सलबाड़ी आंदोलन के बर्बर दमन और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जबरदस्त छात्र-युवा आंदोलन का भी है। इन्हीं प्रक्रियाओं की परिणति इमर्जेंसी में हुई थी। साफ़ दिखता है कि ऊपर उल्लिखित कविताओं में सत्ता की पहचान तो अचूक है लेकिन जनता के संघर्षों को इनमे पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। नतीजे के तौर पर इन कविताओं में घनघोर निराशावाद और भविष्यहीनता का माहौल दिखाई पड़ता है। सवाल यह है कि रघुवीर सहाय जिन्होंने स्वयं भी दिनमान के संपादक के रूप में उस दौर में महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका निभाई थी, अपनी कविता में कैसे जनता की शक्ति और उसके संघर्षों से पूरी तरह ग़ाफ़िल हो गए। यह सवाल इसलिए निर्णायक है कि इसके जवाब से उनके निराशावाद के स्रोत और उसकी वैधता का पता चलेगा। इसका जवाब ढूंढने के लिए हम उस दौर की उनकी कुछ और कविताओं के माध्यम से उनके भावजगत में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उनकी प्रसिद्ध कविता "आने वाला ख़तरा" की आरंभिक पंक्तियां हैं:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"इस लज्जित और पराजित युग में/ कहीं से ले आओ वह दिमाग़/ जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता/कहीं से ले आओ निर्धनता/जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती/और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो....."</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आम लोगों में पाई जाने वाली कमज़ोरियाँ ही इस कविता का प्रतिपक्ष है। इस बात के लिए निस्संदेह रघुवीर सहाय की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने सस्ती लोकप्रियता के लिए लोगों को अच्छी लगने वाली बातें कहने का आसान रास्ता न अपनाकर जनता को उसकी कमज़ोरियों की याद दिलाने की कोशिश की। अफ़सोस यह है कि यह आलोचना उन्होंने जनता का एक सदस्य अथवा हमसफ़र बनकर नहीं, नैतिकता के ऊंचे पायदान पर खड़े अभियोजक के रूप में की। कबीर ने गुरु की जो कल्पना की है उसमें सच्चे आलोचक के भी दर्शन होते हैं:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट<br />अंतर हाथ सहार दै बाहर मारै चोट</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
प्रेमचन्द ने गोदान के पहले ही पेज पर होरी से कहलवाया था कि "जब दूसरे के पांवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पांवों को सहलाने में ही कुसल है"। लेकिन रघुवीर सहाय को लोग अपनी किसी परिस्थिति के कारण नहीं, "आदतन" ख़ुशामद करते दीख पड़ते हैं। वह भी इतने सर्वव्यापी ढंग से कि ऐसा न करने वाले को मानो दिन में चिराग़ लेकर ढूँढना पड़ता है। मुक्तिबोध भी आम लोगों की कमज़ोरियों को चिह्नित करते हैं लेकिन वे लोग उनकी आत्मा के अंश से गढ़े जाते हैं इसलिए वे कभी अकेले नहीं छूटते। "अँधेरे में" का यह अंश देखें:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"अब तक क्या किया,/जीवन क्या जिया!!/ बताओ तो किस- किस के लिए तुम दौड़ गए/करुणा के दृश्यों से हाय मुँह मोड़ गए,/ बन गए पत्थर;/ बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,/ दिया बहुत-बहुत कम,/ मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!"</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आलोचना मुक्तिबोध की भी पर्याप्त कठोर है लेकिन वे अपने लोगों से मुख़ातिब होते हैं, उनसे संवाद करते हैं, और उनकी लानत-मलामत करते हुए भी अफ़सोस और दुख महसूस करते हैं।इसीलिए वे अपने पाठकों को रूपांतरण की राह में आगे बढ़ने को प्रेरित कर पाते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इधर रघुवीर सहाय की कविता में "निर्धनता" है जो "अपने बदले में" कुछ न कुछ मांगती रहती है। ज़ाहिर है, यह शिकायत ग़रीबों से है जो बक़ौल कवि मानो अपना पेट बजाकर हमेशा कुछ मांगा ही करते हैं। बदले में एक बार फिर हमारा कवि ऐसा न करने वालों को "कहीं से" ढूंढ कर लाने की मांग करता है और आत्मसम्मान के सबूत के रूप में उन्हें "एक बार" आंख से आंख मिलाने को कहता है। यह नाज़ुक मसला ग़रीब और दुखी लोगों के प्रति नज़रिए से जुड़ा हुआ है। हर संवेदनशील कवि को इसका सामना करना पड़ता है। लेकिन प्रत्येक कवि इस पर एक जैसी प्रतिक्रिया नहीं देता। यहां हम आधुनिक हिंदी कविता के दो निर्माता कवियों की इसी विषय पर लिखी कविता उद्धृत करके उनकी संवेदना के बीच मौजूद फांक का अनुभव करेंगे। पहली कविता निराला की "भिक्षुक" है और दूसरी पंत की "वह बुड्ढा"। आइए पहले निराला की कविता का आरंभिक अंश देखें:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"वह आता------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता/ पथ पर आता।/ पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,/ चल रहा लकुटिया टेक,/ मुट्ठी भर दाने को----- भूख मिटाने को/ मुँंह फटी पुरानी झोली का फैलाता-------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।"</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अब पंत की कविता "वह बुड्ढा" की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"बैठ , टेक धरती पर माथा,/ वह सलाम करता है झुककर,/ उस धरती से पांव उठा लेने को/ जी करता है क्षणभर।...................गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,/ लुंगी से ढाँपे तन,/ नंगी देह भारी बालों से,/ वनमानुष सा लगता वह जन/ भूखा है: पैसे पा, कुछ गुनमुना,/ खड़ा हो, जाता वह नर,/ पिछले पैरों के बल उठ/ जैसे कोई चल रहा जानवर!/ काली नारकीय छाया निज/ छोड़ गया वह मेरे भीतर,/ पैशाचिक-सा कुछ दुखों से/ मनुज गया शायद उसमें मर!"</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
सम्भव है पन्त की कविता उस गरीब बुड्ढे व्यक्ति के प्रति हमदर्दी से शुरू हुई हो, लेकिन तुरन्त ही उनका आभिजात्य उनके मन में उसके प्रति नफ़रत भर देता है, और अंततःउसे जानवर के स्तर तक गिरा देता है। जबकि निराला की कविता में, भीख मांगने की मजबूरी में भी एक मनुष्य की भावनाओं का आलोड़न और उसको देखने वाले के मन में उसकी प्रतिक्रिया का मार्मिक अंकन हुआ है। यह जनसमुदाय से आत्मिक और भावनात्मक रूप से जुड़े हुए कवि की संवेदना और जनता के प्रति सहानुभूति के बनावटी आग्रह के बीच का फ़र्क़ है। दूसरी श्रेणी के कवि जनता का पक्ष चुनने के अपने निर्णय को इतना अधिक महत्व देते हैं कि मनमाफ़िक परिवर्तन न होने पर वे जनता पर ही खीज और झल्लाहट उतारने लगते हैं। रघुवीर सहाय की कविताएं उनको इसी श्रेणी में ले जाती हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
निर्धनता का अपने बदले में कुछ मांगना मूलतः "आत्मदया" की प्रवृत्ति है, यानी अपनी दुरवस्था का प्रदर्शन करके पूरी दुनिया से प्रेम, सहानुभूति वगैरह की अपेक्षा रखना। हमारे समाज की यह एक गहरी समस्या है जिसका सामना हमारे अनेक कवियों ने किया है। इनमे से रघुवीर सहाय से किंचित वरिष्ठ दो कवियों मुक्तिबोध और त्रिलोचन का एक-एक उद्धरण देखते हैं:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"दुखों के दाग़ों को तमगों-सा पहना,/अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,/ असंग बुद्धि व अकेले में सहना,/ ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गई तलघर,/ अब तक क्या किया,/ जीवन क्या जिया!!" (मुक्तिबोध,"अंधेरे में")</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"जिस समाज मे तुम रहते हो/यदि उसकी करुणा ही करुणा/ तुमको यह जीवन देती है/ जैसे दुर्निवार निर्धनता/ बिल्कुल टूटा-फूटा बर्तन घर किसान के रक्खे रहती/ तो यह जीवन की भाषा में/ तिरस्कार से पूर्ण मरण है।" (त्रिलोचन, "जिस समाज में तुम रहते हो")</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इन दोनों कविताओं में लोगों की आत्महीनता और आत्मदया की प्रवृत्ति को पहचानकर उसका प्रतिवाद किया गया है, लेकिन इस प्रवृत्ति के शिकार लोगों के प्रति हमदर्दी के साथ। यह हमदर्दी इस समझ से आती है कि ये कमज़ोरियाँ आम लोगों में उनकी परिस्थितियों के चलते आती हैं और मानव समाज के एक सदस्य के रूप में कहीं न कहीं हम भी उन परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन कमज़ोरियों में साझा करते हैं। मुक्तिबोध की कविता का पात्र "दुखों के दाग़ों को तमगे सा" पहनता है लेकिन समाज से कटे होने के कारण (असंग बुद्धि ) अपने मानसिक उद्वेलन को अकेले में सहता है जिससे उसकी ज़िन्दगी तहख़ाने में बदल जाती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
त्रिलोचन की कविता में समाज की करुणा पर पूरी तरह से आश्रित व्यक्ति का जीवन भी "मरण" के ही समान माना गया है। लेकिन ऐसी परिस्थिति के शिकार व्यक्ति पर कोई आक्षेप न करते हुए उसे सहारा देकर सचाई बताने का यत्न किया गया है। इधर रघुवीर सहाय की कविता में जो मनोवृत्ति सक्रिय है उसे ग़रीबों और भिखारियों में कोई फ़र्क़ नहीं मालूम पड़ता। ग़रीबों से सिर्फ़ एक बार आंख मिलाने की मांग कुछ इस तरह की गई है जैसे आजकल कुछ लोग मुसलमानों से देशभक्ति प्रदर्शित करने का आग्रह करते हैं। अच्छा! तो आप ग़रीब होने के बावजूद आत्मसम्मान रखते हैं। ठीक है, एक बार आंख से आंख मिलाकर दिखाइए।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
दरअसल, ये अतिसरलीकरण के दोष से ग्रस्त वक्तव्य हैं, जिनकी वास्तविक चोट उन्हीं लोगों पर पड़ती है जिनकी तरफ़दारी का दम कवि भरता है। यह कहने पर कि लोगों में शर्म, ग़ैरत और प्रतिरोध जैसे गुणों का ख़ात्मा हो गया है, चोट उन्हीं पर पड़ती है जो इन मानवीय गुणों को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे होते हैं। जो सचमुच बेग़ैरत और चाटुकार हैं उन्हें तो इस विचार से राहत ही मिलती है कि हम्माम में सभी नंगे हैं। जिस तरह सभी भारतीयों को भ्रष्ट कहने पर भ्रष्टाचारी की तो बांछें खिल जाती हैं और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जो व्यक्ति इन प्रलोभनों से परहेज कर रहा है, वह अपने को अकारण लांछित होता हुआ पाता है। इसी तरह आमलोगों को आदतन ख़ुशामद करने वाला, ग़रीबी का सौदा करने वाला, और आत्मसम्मान से हीन कहने पर जनसमुदाय में व्याप्त इन प्रवृत्तियों को बच निकलने की राह मिल जाती है-----जब सभी ऐसे ही हैं तो कोई क्या कर सकता है-----और इन प्रवृत्तियों से जूझने वाले लोग अन्यायपूर्ण ढंग से ख़ुद को कटघरे में खड़ा पाते हैं। इस प्रकार तमाम सदिच्छा के बावजूद ऐसे अतिसरलीकृत वक्तव्यों के निहितार्थ जनविरोधी होते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
इस संबंध में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि आम लोगों में व्याप्त "ख़ुशामद" की जिस कमज़ोरी को यह कविता अपना निशाना बनाती है, उसके एक निकृष्ट रूप "आदतन ख़ुशामद" को अपने प्रतिपक्ष के रूप में चुनती है। यह चुनाव ही तय कर देता है कि कविता कोई नई ऊंचाई नहीं पा सकेगी। ख़ुशामद करने का आदी होने का अर्थ है, उसीमें संतुष्टि व सुख पाना, ग़ुलामी की मानसिकता में रच-बस जाना। ऐसे लोग भला किस सम्मान के योग्य होंगे? इस तरह अपने प्रतिपक्ष के हीनतर रूप को हमले के लिए चुनकर कविता अपने पतन की राह ख़ुद चुन लेती है।<br />(जारी)</div>
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चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-48992846655234591392017-05-24T01:00:00.000+05:302017-05-24T01:00:04.077+05:30काव्यशास्त्रविनोद-९: बहस की लोकतांत्रिक संस्कृति के पक्ष में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना कहा था।इसका एक अभिप्राय यह भी है कि साहित्य जीवन के तमाम पहलुओं के बारे में कुछ कहता है। इन पहलुओं का एक वर्गीकरण "आत्म" और "पर" के रूप में भी हो सकता है, यानी "अपने" और "दूसरों" के बारे में कुछ कहना। अपने बारे में बात करने के अपने ख़तरे हैं। आत्मदया, आत्मश्लाघा और आत्ममोह तक इनमें से तमाम ख़तरों की पहचान की जा चुकी है। फ़िलहाल हम यहां दूसरों के बारे में कही जाने वाली बात यानी परचर्<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">चा की कुछ विशेषताओं पर ध्यान देंगे ताकि ऐसा करने वालों का ख़ुद का मूल्यांकन हो सके।</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px;">
जब हम दूसरों के बारे में कुछ कहते हैं तो दूसरों से अधिक अपने बारे में बता रहे होते हैं। दूसरों के बारे में हम जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके बारे में हमारी राय होती है। इस राय के पीछे हमारा दृष्टिकोण होता है और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा होती है। हमारी राय किसी के बारे में पूरी तरह ग़लत भी हो सकती है, लेकिन उस राय में निहित हमारा दृष्टिकोण और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा हमारी असलियत को उजागर करने वाले प्रामाणिक और विश्वसनीय माध्यम होते हैं। कौवा और कोयल एक जैसे लगते हैं लेकिन जैसे ही मुँह खोलते है अपनी पहचान करा देते हैं।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इससे पहले "प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध" के प्रसंग में हमने ज़िक्र किया था कि जब हम किसी की आलोचना करते हैं तो उस समय हमारी अपनी शक्ति की भी परीक्षा होती है। अगर हम किसी सबल प्रतिपक्षी को मनमाने तर्कों से अत्यधिक कमज़ोर,हास्यास्पद अथवा अप्रासंगिक बताने लगते हैं तो इससे यही पता चलता है कि हमारी अपनी सामर्थ्य विरोधी के घुटनों तक ही पहुंच पाने की है इसलिए हम उसके पूरे क़द का अंदाज़ा न पाकर उसके घुटनों पर ही वार कर रहे हैं।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस नज़रिये का रिश्ता हमारे लोकतांत्रिक रवैये से भी है। किसी वैचारिक संघर्ष में जब हम अपने विरोधी को उसकी समस्त शक्ति और संभावना के साथ देखते हैं तो उसके दृष्टिकोण में स्थित यत्किंचित सकारात्मकता को पहचानने और उसकी सराहना करने में सक्षम होते हैं।यहां तक कि इस दौरान कभी हम विरोधी के विचारों से प्रभावित होकर अपने दृष्टिकोण को बदलने को भी प्रेरित हो सकते हैं।यही वैचारिक बहस की ख़ूबसूरती है।अगर हम दोनों में से किसी भी एक पक्ष के रूपांतरण की संभावना को सिद्धांत रूप में स्वीकार नहीं करते तो सार्थक और ईमानदार बहस नहीं कर सकते। दूसरी तरफ़ अगर हम प्रतिपक्षी के संभावित प्रबलतम पक्ष से टकराते हुए उसका निषेध करने में सफल होते हैं तो उसका समूल विनाश हो जाता है। पुराने शत्रु की वापसी असंभव हो जाती है और संस्कृति के क्षेत्र में संघर्ष अगले चरण में पहुंच जाता है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
हिंदी कविता का इस दृष्टि से अध्ययन करने पर कुछ रोचक नतीजे निकलते हैं। अब तक रचनाकार के बयान के आधार पर ही उसके उद्देश्य और उसकी पक्षधरता की पहचान की जाती रही है। फिर इसी आधार पर बड़ी आसानी से रचना की अंतर्वस्तु खोज ली जाती है। उस अंतर्वस्तु की समाज में क्या भूमिका है यह पता लगाकर रचना की सामाजिक भूमिका की पड़ताल भी पूरी हो जाती है। दूसरे शब्दों में, अब तक हिंदी आलोचना ने रचना के अपने बारे में दिए गए वक्तव्य यानी रचनाकार की मंशा को एकांगी रूप से अत्यधिक महत्व दिया है। अगर हम रचना में दूसरों के प्रति व्यक्त किये गए नज़रियों, ख़ासकर विरोधी प्रवृत्तियों से संघर्ष के तौर-तरीक़ों पर ध्यान केंद्रित करें तो कई चौंकाने वाले परिणाम मिलते हैं। "<span class="highlightNode" style="background-color: rgba(88, 144, 255, 0.15); border-bottom: 1px solid rgba(88, 144, 255, 0.3); font-family: inherit; padding: 0px 1px;">काव्यशास्त्रविनोद</span>" की आगामी कड़ियों में यही छानबीन की जाएगी।</div>
</div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-8368508418318399572017-05-24T00:38:00.002+05:302017-05-24T00:38:52.244+05:30काव्यशास्त्रविनोद-८: मुख़्तार साहब का सपना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
(अमरकांत की कहानी "डिप्टी कलेक्टरी" पर कुछ विचार)<br />
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<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अमरकांत की कहानी डिप्टी कलेक्टरी हिंदी की कथा परम्परा में लगभग एक प्रतिमान की हैसियत पा चुकी है। शायद ही कोई आलोचक हो जिसने कभी न कभी इस पर विचार न किया हो। नामवर सिंह समेत लगभग सभी आलोचकों ने एक स्वर से इस कहानी को आज़ादी के बाद बनी व्यवस्था में सामान्य भारतीयों की आकान्क्षाओं की पूर्ति न हो पाने के चलते व्यवस्था से मोहभंग की कथा माना है। इसकी वजह कहानी में शकलदीप बाबू की अपने बेटे को डिप्टी कलेक्टर बनाने उत्कंठा; इसके लिए लम्बी प्रतीक्षा; और अंततः निराशा है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ये शकलदीप बाबू कचहरी में काम करने वाले वही मुख़्तार साहब हैं जो कहानी शुरू होते ही पत्नी के सामने बेटे पर आगबबूला होते हैं क्योंकि वह बेरोज़गार है। दो बार इम्तेहान में असफल हो चुका है। पत्नी के विपरीत उनका मानना है कि तीसरी बार एग्ज़ाम देने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि "अगर सभी कुक्कुर काशी ही सेवेंगे तो हंडिया कौन चाटेगा?" बहरहाल वे शीघ्र ही चेत जाते हैं; पैसे की व्यवस्था करके खुद पूजा अर्चना में डूब जाते हैं। जिस दिन उनके बेटे को एग्जाम देने जाना है;स्टेशन पर आकर चलती गाड़ी में उसे प्रसाद देते हैं और किसी के पूछने पर बताते हैं कि पैसे दिए हैं। परिणाम आने से पहले ही वे रोज़ भोर में बेटे के चुन लिए जाने का सपना देखते हैं; जी भरकर मन के लड्डू खाते हैं और घूम घूम कर शेखी मारते हैं। परिणाम जब उल्टा निकलता है तो सकते में आकर चिन्तित होते हैं कि बेटा इस सदमे को कैसे झेलेगा। बेटे को सोता हुआ पाकर और उसकी साँस चलती हुई देख वे राहत की साँस लेते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
हमारे समाज में डिप्टी क्लेक्टरी का एकमात्रअर्थ है अचानक अपने बराबर वालों से बहुत ऊपर उठ जाना। साहब बहादुर बन जाना। ब्रिटिश ब्यूरोक्रेसी का चरित्र ऐसा ही था लेकिन आज़ादी के बाद भी ये रवैया बदस्तूर क़ायम है। कहानी में इसी मानसिकता का पर्दाफाश किया गया है। नारायण के डिप्टी कलेक्टर होने की आशंका मात्र पर मानो पूरा शहर शकलदीप बाबू को बधाई देने उमड़ पड़ता है। कहानी की मनोरचना औपनिवेशिक है पर यह बाक़ायदा सूचना देकर आज़ादी के बाद घटती है। हमारी आज़ादी की यही विडंबना इस कहानी का मूल कथ्य है। यह किसी प्रतिक्षा या मोहभंग की कहानी नहीं है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यह किसी पीढ़ी की कहानी भी नहीं है। ये संस्कार पूरे समाज के थे और आज भी बनेे हुए हैं। भीष्म साहनी की कहानी "चीफ की दावत" में शामनाथ बाबू युवा पीढ़ी के हैं। वे नौकरी में प्रमोशन के लिए अपनी माँ का और माँ जैसी ही लोक परम्परा का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ शकलदीप बाबू बेटे का इस्तेमाल करते हैं। नारायण नामका यह नौजवान पूरी कहानी में एक शब्द भी नहीं बोलता। न ही वह कहीं सामने आता है। उसके बारे में हर सूचना उसके माँ बाप की बातों और गतिविधियों से मिलती है। बेकारी में वो बाप की गालियाँ सुनता है;इम्तेहान की तैयारी करता है और असफल होकर सो जाता है। ज़ाहिर है की उसका चित्रण पिता की इच्छापूर्ति के साधन के रूप में हुआ है। अतीत के हाथों भविष्य के दुरूपयोग का यह चित्र जितना उदघाटक है उतना ही त्रासद।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
डिप्टी कलेक्टरी का यह सपना शकलदीप बाबू ने कचहरी में मुख्तारी करते हुए पाला था। मुख्तारी के दाव पेंच का इस्तेमाल घर में करने से वे कतई नहीं चूकते। उनके सारे फैसले सफलता असफलता की संभावना से तय होते हैं। सफलता की उम्मीद में उन्होंने ज़मीं आसमान एक कर दिया था। असफल होने के बाद वे फिर कहेंगे---सभी कुक्कुर। नारायण इसे जानता है इसीलिये उसने इस बार जी जान लगा दिया था। कहानी में नारायण की मुक़म्मल ख़ामोशी और रिजल्ट के बाद पिता की बेचैनी के बरक्स शान्तिपूर्वक सोना इस बात का पर्याप्त सबूत है की यह अभियान उसका नहीं था। आलोचक इसे नोट नहीं कर सके क्योंकि उनकी संवेदना नारायण की अपेक्षा शकलदीप बाबू के निकट पड़ती थी।</div>
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चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-56437860529355756552017-05-24T00:23:00.001+05:302017-05-24T00:23:55.577+05:30काव्यशास्त्रविनोद-७: संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मुक्तिबोध की एक अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध कविता "गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे" में वाचक की अंतरात्मा उसे यह चेतावनी देती है:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
निष्कर्ष निर्झर लहर प्राकृत वन्य और असभ्य है<br />वह मान्य ड्राइंगरूम संस्कृति से तुम्हें हटवायेगी<br />वह कान पकड़ेगी, उठाकर फेंक देगी<br />अजनबी मैदान में<br />घर बार सब छुड़वायेगी<br />तुमको अजाने देश में<br />गिरि कंदरा में जंगलों में सब जगह<br />भटकायेगी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
प्रसंग वाचक के सत्य की राह में दीक्षित होने का है।आगे चलकर वाचक के अंतरतम से सिक्के का दूसरा पहलू भी उभरता है:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अतः आदेश उसके मान<br />यदि तुम निकल जाओ<br />वह जहाँ भी जाय<br />तो तुम पाओगे अभिप्रेत<br />संकट कष्ट के चट्टान के भीतर फँसा हीरा<br />निकल दमकायेगा चेहरा तुम्हारा श्याम<br />किन्तु यदि माना नहीं आदेश,<br />स्वयं निष्कर्ष तुमको रगड़ देंगे<br />नष्ट कर देंगे<br />जहाँ रुक जाओगे।<br />तय नहीं आधे किये जाते रास्ते<br />इस रास्ते पर धरमशाला डाकबंगला भी नहीं है<br />सत्य को अनुभूत करना सहज है<br />मुश्किल बहुत<br />उसके कठिन निष्कर्ष मार्गों पर चले चलना</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
क्रान्तिकारी और मध्यमार्गी चेतना के बीच एक बुनियादी अंतर यह होता है कि क्रांतिकारी चेतना अपने उद्देश्य की तार्किक परिणति को समझती है, और वहां तक पहुंचे बिना उसे सफलता का बोध नहीं होता। वह उद्देश्य कैसा भी अव्यावहारिक, अप्राप्य अथवा ख़तरनाक बताया जाता हो, वह अंतिम सांस तक उसके लिए प्रयत्न करती है। उसे अपने लक्ष्य में पूरा भरोसा होता है, और किसी निश्चित समय में उसे हासिल करने की ज़िद भी नहीं होती। व्यापक उद्देश्य पूरे समाज की ज़रूरत होते हैं और उन्हें पाने में कई पीढियां खप जाती हैं। इसलिए विषम परिस्थिति में निराशा उसमें घर नहीं कर पाती, विफलता के क्षण में वो नए रास्तों की खोज करती है। जबकि मध्यमार्गी-उदारवादी चेतना कई बार सामान्य मानवीय आवश्यकताओं और उद्देश्यों को भी अतिवादी और सैद्धांतिक मान लेती है। अपने उदारवादी लक्ष्यों की पूर्ति की राह में भी कई बार वह बीच में ही थक हार कर बैठ जाती है, और जो कुछ थोड़ा बहुत हासिल हुआ उसी को गनीमत मान लेती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
बहरहाल, मध्यमार्ग की भी समाज में अपनी सकारात्मक भूमिका है, लेकिन फ़िलहाल यहाँ वह विचारणीय नहीं है। क्रांतिकारी उद्देश्यों को अधबीच में छोड़ने वाली कोई संस्था, संगठन या व्यक्ति इस सकारात्मकता का दावा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में इनके अंदर पाखंड और लफ़्फ़ाजी का बोलबाला हो जाता है, जो इन्हें पतन की अंधी सुरंग की ओर ले जाता है। इससे समाज में भी दिग्भ्रम, निराशा और पराजय की धारा बलवती होती है। हमारे समाज में चौतरफ़ा इसके साक्ष्य मिल सकते हैं। इसलिए विचार के अनुरूप व्यवहार अथवा ज्ञान के अनुरूप कर्म, जो मुक्तिबोध का सबसे पहला और सबसे बढ़कर सरोकार है, पर खरा उतरने की चेतावनी वाचक को उसके मन मस्तिष्क से ही मिलती है। व्यक्ति के अंतर्जगत की इस भूमिका को मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष या आत्मालोचन कहते थे, लेकिन आजकल मंगलेश डबराल जैसे उनके कुछ अन्यतम प्रशंसक इसे आत्मग्लानि और अपराधबोध कहते हैं। ऐसा वे बाक़ायदा ग्राम्शी को कोट करते हुए करते हैं कि ग्राम्शी ने ग्लानि और अपराधबोध को क्रांतिकारी भाव कहा था। हमारा यह कहना है कि ग्राम्शी ने किस सन्दर्भ में क्या कहा था यह देखना होगा, लेकिन एक बात तय है कि न तो उन्होंने यह सब मुक्तिबोध के बारे में कहा था और न ही ग्लानि और अपराधबोध के अलावा और किसी क्रान्तिकारी भाव के होने से इंकार किया था। ऐसे में इन सबको मुक्तिबोध के मत्थे मढ़ने का क्या तुक है। यह आपत्तिजनक इसलिए भी है कि मुक्तिबोध के विचारों के अनुसार, समझौतापरस्ती की राह चुनने वालों को अपराधबोध के सहारे क्रांतिकारी तो क्या सचाई का दावेदार भी मानना मुश्किल है, जैसा कि उपरोक्त काव्यांशों से स्पष्ट होता है।</div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-14639627502945174012017-05-24T00:21:00.000+05:302017-05-24T00:21:22.128+05:30काव्यशास्त्रविनोद-६: सकारात्मक निषेध का पैमाना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आधुनिक सभ्यता का स्वतंत्रता और समानता लाने का दावा वैसे तो बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते कमज़ोर पड़ने लगा था पर इसके नवें दशक में एक ध्रुवीय दुनिया की स्थापना के साथ ही यह ख़ामख़याली साबित हो गया। विकास और नवनिर्माण के सपनों की जगह येनकेनप्रकारेण मतलबसिद्धि ने ले ली। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और लूटखसोट को स्वीकार्य और कई बार प्रशंसनीय तक माना जाने लगा। ऐसे में मानवीय चेतना का विकास बाधित हुआ और चौतरफ़ा घुटन व्याप्त हो गई। इस परिस्थिति में हमारी चेतना में नकारात्मकता ने सकारात्मकता की जगह लेनी शुरू कर दी। अब हम ख़ुद अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप आगे बढ़ने के बजाय दूसरों की ख़ामियाँ तलाशने और उन्हें असफल करने की कोशिश में लग गए। वर्तमान में इसका सबसे अच्छा उदाहरण आम चुनावों में स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक देखने को मिलता है। इसमें हम प्रत्याशियों और उनकी पार्टियों को उनकी सकारात्मक योजना के आधार पर नहीं बल्कि कोई दूसरा, जिसे हम नापसन्द करते हैं, न जीत जाए इसलिए समर्थन देते हैं। इस नापसन्दगी का कारण व्यक्तिगत रंज़िश से लेकर जाति,धर्म,क्षेत्र,लिंग कुछ भी हो सकता है। यानी कोई भी ऐसा कारण जो मतदाता के रूप में हमें अपने स्वाभाविक सरोकारों और हितों से विमुख कर सकता हो। भारत से लेकर अमरीका तक होने वाले चुनावों में यह बात आसानी से देखी जा सकती है। दैनंदिन जीवन में भी हमारा आचरण इससे कुछ हटकर नहीं होता। शत्रु के शत्रु को मित्र बनाना हमारी समझदारी का चरम तकाज़ा बन गया है, इसलिए न तो हम अपनी सहमतियों में खरे होते हैं न असहमतियों में स्पष्ट। न जाने कब किससे काम पड़ जाये।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भाषा में प्रचलित कहावतें हमारी प्रवृत्तियों की सूचना देते हैं। अंग्रेज़ी की परंपरागत कहावत--- "ए मैन इज़ नोन बाय द कम्पनी ही कीप्स", अब सार्थक नहीं रह गयी है। हमारे साथी अब हमें परिभाषित नहीं करते क्योंकि हमारा साथ अब दूरगामी सहमति और साहचर्य पर आधारित नहीं रहा। अब तो हम किसी संयुक्त दुश्मन को रोकने के लिए तात्कालिक लक्ष्य से संचालित होकर हाथ मिलाते हैं। इसलिए अब हमारे विरोधी ही किसी हद तक हमें परिभाषित करते हैं। आज के दौर की कहावत होनी चाहिए--"ए परसन इज़ नोन बाय हिज/हर एनेमीज़"।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अपने विरोधियों को किसी प्रकार परास्त करने की इस प्रवृत्ति को अपने प्रतिपक्ष का नकारात्मक निषेध कह सकते हैं। ज़ाहिर है कि यह प्रवृत्ति हमें तात्कालिकता के दलदल में फँसा देती है और हम अंततः अपने ही विकास को अवरुद्ध करने लगते हैं। इससे बचने के लिए अपनी विरोधी शक्तियों की पहचान करने और उनसे लड़ने का नया नज़रिया विकसित करना होगा। सौभाग्य से हिंदी साहित्य में स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, लोकतंत्र, न्याय, इहलौकिकता और ऐंद्रियता को लेकर कोई विवाद नहीं है। इन मूल्यों के विरुद्ध खड़े होने वाले विचारों और रचनाओं को ही हमने अपने विरोधियों के रूप में पहचाना है और इसीसे आज हमारी पहचान है। यानी दुश्मनों की पहचान साफ़ है, उनकी क़तारबंदी भी दिख रही है, बस उनसे लड़ने के तरीक़े को तय करना है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस बिंदु तक आते आते हमारा विमर्श किसी युद्ध में आमने सामने खड़ी सेनाओं के रूपक में बदल गया है। युद्ध का यह रूपक वैसे तो उचित और कारगर है, लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए हमारा मैदाने-जंग साहित्य और संस्कृति है। इटली के प्रसिद्ध विचारक ग्राम्शी ने एक बात कही थी जो इस मोड़ पर हमें रास्ता दिखा सकती है। उन्होंने कहा था कि सैनिक संघर्ष में दुश्मन के सबसे कमज़ोर मोर्चे पर वार करना चाहिए और वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष में उसके सबसे मज़बूत मोर्चे पर। वे मानते हैं कि सैनिक शक्ति के बल पर केवल दमनकारी सत्ता का निर्माण किया जा सकता है जिसके माध्यम से सामंती युग में तो शासन किया जा सकता था, लेकिन आधुनिक युग में नागरिकों की सहमति किसी भी सत्ता के लिए अनिवार्य है और यह सहमति सांस्कृतिक -वैचारिक वर्चस्व से निर्मित होती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अब इस बात पर ग़ौर करें कि साहित्य, संस्कृति, विचार अथवा कला के मोर्चे पर दुश्मन के सबसे मज़बूत पक्ष से मुक़ाबला करने का क्या मतलब है। सैनिक संघर्ष में तो सबको पता है कि दुश्मन जहाँ कमज़ोर है वहीं प्रहार करके उसकी शक्ति को नष्ट करने की कोशिश होती है , अन्यथा मुंह की खानी पड़ती है और अपने सफाए का ख़तरा भी पैदा हो जाता है। लेकिन विचारों के क्षेत्र में ऐसा क्या है जो इसका उल्टा करने को विवश करता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
रोज़मर्रा की बहसों में हम देखते हैं कि बहुत से लोग अपने प्रतिद्वंदी की बात का अन्यथाकरण करके या उसकी सबसे ओछी व्याख्या करके अपने औचित्य का प्रतिपादन करते हैं। मिसाल के लिए अगर आपने उनसे कहा कि राज्यसत्ता और उसके सशस्त्र बलों को नागरिकों के लोकतान्त्रिक अधिकारों का सम्मान करना चाहिए तो वे इसके वास्तविक सन्दर्भों के बारे में बात करने के बजाय सशस्त्र बलों की कुर्बानियों की चर्चा करते हुए आपकी बात को आतंकवाद समर्थक और देशद्रोही की कोटि में डाल देते हैं। इसी प्रकार अगर आप अतीत के किसी बड़े लेखक पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं तो उनका कोई समर्थक आपके तर्क पर विचार करने और उसका जवाब देने के बजाय आपके अपने योगदान की छानबीन करके आपको हैसियत बताने लगता है। सरकार की किसी अनुचित बात की आलोचना का जवाब देने के बजाय उसे देश को बदनाम करने की साज़िश के रूप में देखना भी ऐसी ही प्रवृत्ति का काम है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बहुत पहले रेणु ने कहा था कि विचारों की दीवार में अगर हाथी की पूँछ के बराबर भी छेद छूट गया तो उस छेद से पूरा हाथी निकल जाता है। आशय यह कि कला, दर्शन, और विचार के क्ष्रेत्र में अगर कोई छोटी-सी असंगति या झोल हो तो उस विचार से वांछित नतीजे निकलना तो दूर अनर्थ होने की संभावना ही अधिक है। मसलन, अगर आप फ़ासीवाद का विरोध कर रहे हैं और उनको चोट भी पहुँचा रहे हैं, पर उनके अंधराष्ट्रवाद को लेशमात्र भी स्वीकार कर रहे हैं तो, आपको देरसवेर उनके सामने समर्पण करना होगा या उनसे निर्णायक पराजय झेलनी होगी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यह बात ध्यान रखने की है कि हम विशुद्ध तर्कशास्त्रीय प्रविधी की चर्चा यहाँ नहीं कर रहे हैं। यहाँ प्रसंग सत्य और असत्य तथा न्याय और अन्याय की शक्तियों के बीच होने वाले सांस्कृतिक-वैचारिक संघर्ष का है। हिंदी साहित्य सत्य और न्याय की पक्षधर शक्तियों के साथ है, इसलिए उसे इन मुद्दों का ध्यान रखने की ज़रूरत है। असत्य और अन्याय की पक्षधर शक्तियाँ सही मायने में न तो कोई तर्क देती हैं , न बहस करती हैं। वे केवल गाल बजाना जानती हैं और निहित स्वार्थी तत्वों को एकजुट करके बलपूर्वक ख़ुद को सही ठहराने की कोशिश करती हैं। इसलिए यह विश्लेषण उनके किसी काम का नहीं है। हाँ, सत्य और न्याय की पक्षधर शक्तियों को यह जान लेना चाहिए कि उनकी दीवार के छेद से उनके विरोधी तो अपना हाथी निकल लेंगे लेकिन ख़ुद उन्हें अपने विरोधियों की दीवार की सबसे मज़बूत ईंट निकालनी होगी और उसे ध्वस्त करना होगा, अन्यथा हाथी तो क्या चूहा भी नहीं निकल सकता।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
दूसरे शब्दों में, असत्य और अन्याय की शक्तियों के साथ चलने वाली इस सतत बहस में हमें अपने विपरीत पक्षों और विचारों के सर्वश्रेष्ठ को सामने लाकर उनका अतिक्रमण करना होता है। तभी हम सही मायने में उनका निषेध कर पाते हैं। अगर विरोधी पक्ष के तर्कों में तनिक भी संभावना शेष रह जाती है तो वह हमारी कमज़ोरी का साक्ष्य होती है, और उसके चलते हमारे सामने विरोधी विचारों की शक्ति बढ़ती चली जाती है। वे हमारी कमज़ोरी से शक्ति पाते हैं लेकिन हम उनकी कमज़ोरी से कोई शक्ति नहीं पाते। हम उनकी शक्ति और क्षमता से प्रतिस्पर्द्धा करके ही विचारों के संघर्ष में बढ़त हासिल करते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस संबंध में एक बात और ध्यान रखने की है कि जब हम न्याय और अन्याय की शक्तियों के बीच विचार या कला के क्षेत्र में संघर्ष की बात करते हैं तो उसका आशय यह नहीं होता कि हमारे सामने हमेशा सचेत रूप से हमारा विरोध करने वाली शक्तियां ही होती हैं। प्रायः ऐसी शक्तियां अत्यन्त भोंडे स्तर पर सक्रिय होती हैं और विचारों के क्षेत्र में कोई वास्तविक चुनौती पेश नहीं कर पातीं। उनका ज़ोर जिसकी लाठी उसकी भैंस पर होता है और उसी के बल पर वे बहस का दिखावा करती हैं। विचारों के क्षेत्र में वास्तविक संघर्ष हमें ख़ुद अपने भीतर मौजूद, अपने पक्ष में पाई जाने वाली कमज़ोरियों, भ्रमों और भटकावों से चलाना पड़ता है। यही भ्रम और भटकाव हमारी वैचारिक दीवार में दरार बनाते हैं और अंततः हमें निहत्था करने के काम आते हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी प्रमुख संघर्ष इसी प्रवृत्ति से है। जैसा कि मुक्तिबोध ने कहा था:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बुरे अच्छे बीच के संघर्ष से भी उग्रतर<br />अच्छे और उससे अधिक अच्छे बीच का संगर</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि सांस्कृतिक क्षेत्र के संघर्ष की प्रकृति पर समुचित ढंग से विचार किया जाए। हमारा इस संबंध में प्रस्ताव यही है कि विचार और रचना के क्षेत्र में हम जिस प्रवृत्ति को निशाना बनाते हैं अगर उसके सर्वश्रेष्ठ रूप को इस काम के लिए नहीं चुनते तो ग़लती करते हैं और हमारा निशाना चूक जाता है। अपने प्रतिपक्ष को उसकी समूची शक्ति और संभावना के साथ विचार या रचना का विषय बनाने पर ही हम उसका अतिक्रमण कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में प्रतिपक्ष की यत्किंचित सकारात्मकता हमारे अपने एजेंडे का अंग बन जाती है और प्रतिपक्ष पूरी तरह चुक कर निःसार हो जाता है। इसी प्रक्रिया को "प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध" करना कहते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
रचना के क्षेत्र में यह प्रक्रिया तब घटित होती है जब रचनाकार अपने प्रतिपक्ष को भी सहानुभूति देता है, उसे अपनी आत्मा के अंश से रचता है। तभी पाठक अपने दिलो-दिमाग़ में छिपी उस बुराई को पहचानता है और उससे लड़ पाता है। यही रचना का उद्देश्य भी है। रचनाकार न्याय के पक्ष में होते हुए भी न्यायाधीश के ऊँचे आसन पर नहीं बैठता। सज़ा नहीं सुनाता। उसकी भूमिका एक ऐसे वक़ील की है जिसे अपराध के प्रति नफ़रत पैदा करने के साथ-साथ किसी इंसान के अपराधी बनने की प्रक्रिया की छानबीन करके उसे दुनिया के सामने लाना होता है ताकि इसकी पुनरावृत्ति से यथासंभव बचा जा सके।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कहते हैं कि आग में तपकर सोना कुंदन बनता है। संघर्ष के माध्यम से विकास प्रकृति का बुनियादी नियम है। इसलिए रचना में न्याय के पक्ष की सशक्त मौजूदगी के लिए आवश्यक है कि अन्याय भी सशक्त रूप में मौजूद हो। यहाँ सशक्त का मतलब भौतिक रूप से बलशाली और अत्याचारी किसी व्यक्ति से नहीं है। सांसारिक जीवन में शक्ति का यह अर्थ हो सकता है, लेकिन रचना में शक्ति व्यक्तित्व और चरित्र की ख़ूबियों से आती है। इन ख़ूबियों के बावजूद किसी व्यक्ति की कोई दुर्बलता उससे निकृष्टतम कोटि का अपराध करा सकती है। और तब वह हमारी घृणा का पात्र बने बिना हमारी रचना और हमारे सरोकार का विषय बन सकता है। उससे जूझते हुए, ख़ासकर उसकी ख़ूबियों से पार पाने के क्रम में हमारा अपना पक्ष भी विकसित होता है। जीवन में न्याय के पक्ष की वास्तविक कामयाबी इस बात पर निर्भर है कि वह अपने प्रतिपक्ष में मौजूद लेकिन तनिक सा भी न्यायोचित दृष्टिकोण रखने वालों को अपने पक्ष में जीत ले। रचना में इसके समानांतर चलने वाली प्रक्रिया प्रतिपक्ष के समस्त सकारात्मक पहलुओं को निचोड़कर उसे अतिक्रमित कर जाने वाली दृष्टि से ही संभव है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ इस दृष्टि का स्वाभाविक रिश्ता बनता है। प्रतिपक्ष का सम्मान, उसे पूरा मौक़ा देना और उसमें मौजूद रंचमात्र सचाई को भी स्वीकार करना लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की बुनियादी अनिवार्यताएं हैं। कोई कह सकता है कि किसी गर्हित अन्याय को रचना का विषय बनाते हुए हम उसके कर्ताधर्ताओं के साथ सहानुभूति कैसे रख सकते हैं। असल में, यह दृष्टिकोण इसी समझ से जूझते हुए विकसित होता है। सामाजिक जीवन में तो गर्हित अपराधियों के प्रति घृणा का कुछ न कुछ औचित्य है, लेकिन रचना में हम इस दृष्टिकोण से संचालित होते हैं कि इंसान होने के कारण किसी दुसरे इंसान के पतन की कुछ ज़िम्मेदारी हम पर भी आयत होती है। इसलिए रचना में अपनी कल्पना से रचे गए पात्र में हम उन समस्त संभावनाओं का निवेश करते हैं जो उस पात्र को इंसान के दर्जे पर क़ायम रख सकती थीं। इसके बावजूद उसकी व्यक्तिगत, सामाजिक, पारिवारिक या मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों की कोई ऐसी ख़ासियत होती है जो उसे मनुष्यता के दर्जे से नीचे गिराने में कामयाब हो जाती है। इस तरह वह पात्र त्रासद विडम्बना का शिकार बनता है, और हम उसके पतन पर अट्टहास नहीं कर पाते, दिल ही दिल में दुखी होते हैं।बक़ौल गोरख पांडेय:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
हम जो ज़िंदा हैं<br />हम सब अपराधी हैं<br />हम दण्डित हैं<br />----------------</div>
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चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-64953335009071241492017-05-24T00:19:00.000+05:302017-05-24T00:19:43.908+05:30काव्यशास्त्रविनोद-५: भाषा का स्वभाव<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
वाक्य में क्रिया की केंद्रीय भूमिका की नासमझी और उसके प्रति हमारी लापरवाही को एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। "पीना" हमारी भाषा की सबसे सहज क्रियाओं में से एक है। हम चाय या शरबत "पीते" हैं, लेकिन अंग्रेज़ी के सामने अपनी हीन भावना के चलते हमने अब उन्हें "लेना" शुरू कर दिया है। "टु टेक ए कप ऑफ़ टी" की तर्ज पर हम अब चाय या कॉफी "लेते" हैं, "पीते" नहीं। "आप चाय लेंगे या कॉफी" जैसे वाक्यांश अब आम तौर पर सुनने में आ जाते हैं। इसी क्रम में अब "ठंडा"या "गरम" लेने की बारी भी आ चुकी है। "पीना" की जगह "लेना" का प्रयोग कितना भ्रामक है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि अगर हम चाहते हैं कि हमारे परिवार का कोई सदस्य बाज़ार से चाय पीकर चला आये तो हम उससे यह नहीं कह सकते कि "बाज़ार से चाय लेकर आओ"। ऐसा कहने पर वह बाज़ार से चाय खऱीदकर तो ला सकता है, लेकिन पीकर नहीं आ सकता। यानी "पीना" क्रिया को अपदस्थ करने में अंग्रेज़ी अभी पूरी तरह से कामयाब नहीं हुई है। अभी इस प्रदूषण को पहचान कर इसे दूर किया जा सकता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यहाँ किसी "उदारतावादी" विद्वान को शुद्धतावाद का ख़तरा दिखाई पड़ सकता है और वह "भाखा बहता नीर" जैसी किसी उक्ति की आड़ में छुपने की कोशिश कर सकता है। इस संबंध में फ़िलहाल इतना ही कहना पर्याप्त है कि जैसे बहते हुए पानी में दूसरे स्रोतों का पानी भी आकर मिलता है तो उसका प्रवाह बढ़ता है, उसी प्रकार दूसरी भाषा के शब्दों को लेकर कोई भी भाषा समृद्ध होती है, लेकिन जब किसी भाषा पर उसके स्वभाव के विपरीत दूसरी भाषा की वाक्यरचना और क्रिया थोपी जाती है तो उस भाषा का वही हाल होता है जो हमने गंगा-यमुना के बहते हुए नीर का कर रखा है। इस मामले में भाषा की तुलना नदी के साथ उचित ही की गई है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
दूसरी बात अंग्रेज़ी के सामने हीन भावना की है। अंग्रेज़ी की इस भूमिका को समझ लेना इसलिए ज़रूरी है कि यह हमारी भाषा के प्रदूषण का लगभग एकमात्र स्रोत है। इसे एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। अंग्रेज़ी में पीने के लिए क्रिया "ड्रिंक" है, लेकिन सिगरेट का सुट्टा लगाने को वे "स्मोक करना" कहते हैं, जबकि हिंदी में इसे भी "पीना" ही कहते हैं। अब अगर अंग्रेज़ी के वाक्य में हिंदी की क्रिया का प्रयोग कर दें तो वाक्य बनेगा "आई ड्रिंक सिगरेट"।जब कभी मैं सामान्य पढ़े-लिखे हिन्दीभाषी लोगों के बीच इस वाक्य का ज़िक्र करता हूँ, उन्हें हंसी आ जाती है, जबकि अपनी भाषा में "पीने-लेने" के प्रसंग में इसी तरह की गलती करते हुए वे पूरी तरह सहज रहते हैं। इससे यह पता नहीं चलता कि हमारे लोग हिंदी से ज़्यादा अच्छी तरह अंग्रेज़ी को जानते- बरतते हैं। इससे सिर्फ़ यह पता चलता है कि अंग्रेज़ी की श्रेष्ठता और हिंदी की हीनता का भाव हमारे अवचेतन में घर कर चुका है। इसीलिए अंग्रेज़ी के वाक्य में हिंदी की क्रिया को घुसपैठ करते देखकर हम उसके दुःसाहस पर हंस पड़ते हैं। जबकि विदेशी भाषा होने के कारण अंग्रेज़ी के साथ यह बर्ताव व्याकरणिक रूप से ग़लत होने पर भी अधिक मानवीय और स्वाभाविक है। किसी ने कहा है कि अपनी भाषा में सामने आई क्रिया की ग़लती मुंह के कौर में आये बाल की तरह होती है जिसका एहसास हुए बिना नहीं रहता और जिसे नज़रंदाज़ करना बिलकुल नामुमकिन होता है। यह हमारी रग-रग में बसी ग़ुलामी का ही असर होगा कि हम अंग्रेज़ी के मामले में तो इस क़िस्म की संवेदनशीलता दिखाते हैं, लेकिन हिंदी के मामले में उदासीन बने रहते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस उदासीनता को देखने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं।हम अपने आसपास ग़ौर करें तो पाते हैं कि हिंदी के किसी प्रयोग को लेकर कहीं कोई बहस दिखाई नहीं पड़ती। "अनस्थिरता" शब्द को लेकर महावीरप्रसाद द्विवेदी और बालमुकुंद गुप्त के बीच हुए लगभग सौ साल पुराने विवाद की चर्चा हम ऐसे करते हैं जैसे वे किसी और ग्रह से आये लोग थे जो ऐसी "मामूली" बातों पर अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा देते थे। आज़ादी के पहले तो फिर भी कुछ जवाब-सवाल होते थे, लेकिन उसके बाद ये तौर-तरीक़े शायद संदिग्ध मान लिए गए। इधर पिछले तीन दशक के बारे में तो मैं ख़ुद एक प्रत्यक्षदर्शी के रूप में कह सकता हूँ कि हिंदी के किसी प्रयोग को लेकर न कोई किसी को रोकता-टोकता है, न कोई किसी की बात काटता है। यह सब ग़ैरज़िम्मेदाराना अशिष्टाचार माना जाता है। एक-डेढ़ दशक पहले तक अभिनव ओझा नामके एक जागरूक पाठक की चिट्ठियाँ पत्र-पत्रिकाओं में दिखती थीं, जिनमें प्रकाशित रचनाओं में हुई भूलों की चर्चा होती थी। ऐसी कोशिशें भी हमारी उदासीनता की भेंट चढ़ गईं। ऐसा तब हुआ जबकि हिंदी में कम से कम एक अदद शिखरपुरुष, एक अदद कविकुलभूषण, एक अदद रसिक कलावंत, एक अदद दुर्वासा और लगभग एक दर्जन जनपक्षधर आलोचक सक्रिय हैं। इनके होने के बावजूद हिंदी में वैचारिक बहसों का स्तर ननद-भौजाई की हंसी-ठिठोली जैसा रह गया है। सामाजिक हलचलों और उथल-पुथल ने हमारे साहित्य को लोकतांत्रिक दिशा ज़रूर दी, लेकिन हमारी साहित्यिक संस्कृति ने उसका मार्ग प्रशस्त नहीं किया, उसकी राह में रोड़े ही अटकाए।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ग़ौरतलब है कि हम अपने वाक्यों में केवल क्रिया को नहीं बदलते बल्कि उसका काल और उसकी संभाव्यता को भी बदलकर अपने वाक्यों को पूरी तरह भोथरा कर लेते हैं। एक सर्वव्यापी उदाहरण लें। किसी भी उच्चस्तरीय साहित्यिक सभा-संगोष्ठी में बड़ी आसानी से संचालक को कहते हुए सुना जा सकता है---"अब मैं बुलाना चाहूँगा अलाँ साहब को जिन्होंने फलाँ क्षेत्र में चिलाँ तीर चलाये हैं"। न बुलाता हूँ, न बुलाना चाहता हूँ, बल्कि "आई उड लाइक टु काल यू" की तर्ज पर भविष्य में कभी ऐसा करने की इच्छा की घोषणा। सचमुच बुला लूँगा ऐसा कोई वादा भी नहीं। लेकिन "खग जानै खगही की भाषा" को चरितार्थ करते हुए वक्ता महोदय माइक पर नमूदार होते हैं और फ़रमाते हैं---"मैं फलाँ साहब का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा जिन्होंने मेरी इतनी ताऱीफ की"। इस तरह हिंदी का कारोबार भविष्य की अनिश्चित संभावना के रूप में चल रहा है, अथवा स्थगित है। हिंदी जैसी बाँकी, क्षिप्र और असरदार भाषा का दम ऐसे बोझिल और जड़ प्रयोगों से घुटता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
एक उदाहरण और देखते चलें। हिंदी में भोजपुरी के प्रभाव से परसर्ग "ने" के विलोप पर तो कभी -कभी असहमति का अनौपचारिक इज़हार हो जाता है।यानी, मैंने कहा, मैंने खाया, मैंने गाया जैसे वाक्यों की जगह हम कहे, हम खाये, हम गाये जैसे वाक्यों को ख़ासतौर पर विद्यार्थियों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता क्योंकि इससे नौकरी के इंटरव्यू आदि में उनकी ग्रामीण जड़ों की पोल खुल सकती है। लेकिन निष्क्रियता की खुली वकालत करने वाले अंग्रेज़ी के "पैसिव वॉइस" के दबाव में हिंदी के वाक्यों के सौन्दर्य के मटियामेट होने पर मैंने किसी विद्वान को ध्यान देते नहीं देखा। हिंदी में कहते हैं कि"आपने जो किया वह मैंने देखा"। लेकिन आजकल की हिंदी में इसे कुछ यूँ कहते हैं, "आपके द्वारा किये गए कार्य को मैंने देखा"। आई सा द वर्क डन बाय यू।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कहने का आशय यह कि इंग्लैंड जैसे छोटे से द्वीप की अपनी भौगोलिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों में विकसित भाषा के प्रयोग अगर भारतीय उपमहाद्वीप के विस्तृत भूभाग में जन्मी और पली-बढ़ी भाषा पर वर्चस्व स्थापित कर लेंगे तो यह किस क़दर विनाशकारी होगा इसकी कल्पना भी आसानी से नहीं की जा सकती। इसे समझने के लिए हमें अपनी नदियों और उनमें गिरने वाले नालों को देखना होगा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
अंत में, हिंदी के स्वभाव की गतिशीलता और अंग्रेज़ी से इसके फ़र्क़ को समझने के लिए एक उदाहरण और देख लेते हैं। हिंदी में जब हम अतीत की किसी घटना का ब्यौरा देते हैं तो इसकी सूचना के साथ ही हम ख़ुद उस काल में पहुँच जाते हैं और वह घटना हमारे लिए वर्तमान काल की हो जाती है। मिसाल के तौर पर अगर हम किसी दोस्त के घर उससे मिलने गए और उसे सोता हुआ पाकर वापस आ गए तो, अगले दिन इसका ब्यौरा कुछ यूँ देंगे---"कल मैं उसके घर गया और मैंने देखा कि वह सो रहा है"। अंग्रेज़ी में इस वाक्य का प्रासंगिक अंश कुछ यूँ बनेगा---",,,,,,,,,,आई सॉ दैट ही वाज़ स्लीपिंग"। आजकल हिंदी में लगभग निरपवाद रूप से अंग्रेज़ी वाला ही प्रयोग चल रहा है, यानी "मैंने देखा कि वह सो रहा था"। इस तरह हम हिंदी की जीवंतता और सक्रियता पर अंग्रेज़ी की निष्क्रियता और अनिश्चितता को थोपकर उसके स्वाभाविक प्रवाह को रोक देते हैं।</div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-5162308644638653662017-05-24T00:15:00.001+05:302017-05-24T00:16:59.698+05:30काव्यशास्त्रविनोद-४: भाषा की भूमिका<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #666666; font-family: helvetica, arial, sans-serif; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
गणेशशंकर विद्यार्थी ने कभी कहा था कि अगर मेरा देश ग़ुलाम हो रहा हो और मेरी भाषा भी दूषित हो रही हो तो, मैं पहले अपनी भाषा को ब<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">चाऊंगा क्योंकि भाषा बची रहेगी तो देश को आज़ाद कराया जा सकता है, लेकिन भाषा दूषित हो गई तो देश को ग़ुलाम होने से कोई रोक नहीं सकता। इस कथन से भाषा के महत्व पर कुछ प्रकाश पड़ता है। हममें से ज़्यादातर लोग भाषा को अभिव्यक्ति के माध्यम से अधिक कुछ नहीं समझते। जैसे ट्रेन या बस यात्रा के माध्यम हैं, वैसे ही भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। हमने जो अनुभव किया उसे भाषा में व्यक्त कर दिया। अगर वह ठीक ठाक से श्रोता अथवा पाठक तक पहुँच गया तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि भाषा का प्रयोग कैसे हुआ।कहने सुनने में यह बात चाहे जितनी अजीब लगती हो लेकिन व्यवहार में हम भाषा के साथ इसी तरह पेश आते हैं।</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #666666; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
दरअसल, भाषा को इतना महत्व इसलिए दिया जाता है कि यह अभिव्यक्ति के साथ साथ अनुभूति का भी माध्यम है। भाषा का हर शब्द अपने अंदर किसी विशिष्ट अनुभव की स्मृति को धारण करता है। उस शब्द से परिचित होने का अर्थ है उसमें छुपी विशिष्ट अनुभूति से, उससे जुड़े तमाम विचारों से परिचित होना। इनसे परिचित होकर ही हम इनसे जुड़ी हुई या इनके बाद आने वाली धारणाओं की तरफ़ क़दम बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए दुःख, शोक, अवसाद, विषाद, पीड़ा, कष्ट, वेदना, यातना, यंत्रणा आदि एक ही वर्ग की भावनाओं को व्यक्त करने वाले शब्द हैं, लेकिन इनकी छायाएं अलग अलग हैं। जो व्यक्ति इन शब्दों को समझता है, वह अपने जीवन में इन शब्दों से जुड़ी भावनाओं को पहचान लेगा। अगर ऐसा नहीं है तो उसे इन भावनाओं में से किसी का सामना होने पर दुखद तो महसूस होगा लेकिन वह ठीक ठीक अपनी भावना को पहचान न सकेगा।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
जीवन के सीमित कार्यव्यापार में संलग्न रहने वाले किसी व्यक्ति के मन में भी अनेक प्रकार की भावतरंगें उठती हैं, लेकिन कोई भाषा संपन्न व्यक्ति जैसे उन्हें अलग अलग पहचान सकता ही वैसा वह नहीं कर पाता, क्योंकि उसका काम सीमित शब्दावली से चल जाता है। उसकी शब्दसंपदा उसकी अनुभूतिक्षमता को निर्धारित करती है। किसी वस्तु को पहचानने का मतलब है उसके बारे में एक अवधारणा ग्रहण करना और उसके सहारे उस वस्तु का वर्गीकरण करना। गुड़, चीनी, बूरा, खाँड़, मिश्री जैसे शब्दों के साथ इनके अलग अलग स्वाद की अवधारणा भी हमारे दिमाग़ में सुरक्षित रहती है। अगर कोई व्यक्ति इन अवधारणाओं से परिचित नहीं है तो इन चीज़ों को आकस्मिक रूप से खाने के बावजूद वह अलग अलग इनके स्वाद की विशेषता को पहचान नहीं सकेगा। आकस्मिकता की शर्त इसलिए कि अगर वह व्यक्ति अक्सर इन चीज़ों को खाता है तो वह इनके नाम से परिचित न होने के बावजूद अपने दिमाग़ में इनके स्वाद के अनुसार इनका वर्गीकरण करना और किसी न किसी रूप में इन्हें संबोधित करना सीख जायेगा। इस प्रकार वह आवश्यक भाषा अर्जित कर लेगा। इसके बाद वह इनकी बारीकियों पर और ध्यान देकर अपनी अनुभूति क्षमता का विकास करने में सफल हो सकेगा। इसी अर्थ में भाषा अनुभूति का माध्यम होती है। वह हमारे अनुभवों की स्मृति को संरक्षित और वर्गीकृत करती है। उसके सहारे ही हम अनुभूतियों की यात्रा पर निकल पाते हैं।</div>
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भाषा से वंचित होने का अर्थ है अनुभूति के सूक्ष्म विभेदों से अपरिचित रह जाना और इस प्रकार मनुष्योचित गरिमा और संवेदना से युक्त जीवन की संभावना का न्यूनतम रह जाना। ख़ास तौर पर हमारे देश में जहाँ विशाल आबादी निरक्षर है, और जो पढ़े लिखे हैं वे भी भाषा की शक्ति के प्रति सचेत नहीं हैं, यह मुद्दा निर्णायक हो जाता है। भूमंडलीकरण के युग में देश दुनिया के बड़े बड़े कारपोरेट निगम और कंपनियां हमारे जल, जंगल,और ज़मीन पर गिद्धदृष्टि लगाये बैठी हैं। किसानों, दलितों और आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से बेदख़ल करके दर दर भटकने पर मजबूर किया जा रहा है। लोगों को जानवरों की तरह हाँका लगाकर खदेड़ने की तैयारी है। समृद्धि और सम्पन्नता के द्वीपों के इर्द गिर्द उगे बाड़ों में उन्हें संगीनों के बल पर क़ैद करके देश की धरती, पहाड़, जंगल,और नदियों का सौदा किया जाने वाला है। ऐसे में भाषा वह अकेला हथियार है जिसके बल पर लोग न्याय की अपनी मानवीय चाहत को बचा पाएंगे और उसके लिए लड़कर सत्ता के इस शिकंजे को तोड़ पाएंगे। इस पृष्ठभूमि में हम अच्छी तरह समझ सकते हैं कि भाषा का मुद्दा कितना अहम है और गणेशशंकर विद्यार्थी ने क्यों इसे देश को बचाने की पूर्वशर्त माना था।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
यहाँ आकर हमारे सामने एक बात आईने की तरह साफ़ होनी चाहिए कि अगर हम देश, समाज, गरीब, दलित, आदिवासी, किसान, मज़दूर अथवा मध्यवर्ग के जीवन में कोई सकारात्मक बदलाव लाने के लिए काम करना चाहते हैं तो भाषा का सवाल हमारे एजेंडे में सबसे ऊपर होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो हमारी सारी क़वायद निष्फल हो जायेगी और हम अंग्रेज़ीदां बुद्धिजीवियों के पिछलग्गू बनकर रह जायेंगे।</div>
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अब लाख टके का सवाल यह है कि भाषा में आये प्रदूषण को कैसे पहचानें और उसके ख़ात्मे के लिए शुरुआत कहाँ से करें। इसका जवाब पाने के लिए हमें भाषा की बुनियादी इकाई वाक्य की छानबीन करनी होगी। वाक्य के विभिन्न अंगों संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण आदि पर नज़र डालते हैं तो एक दिलचस्प खींचतान दिखाई पड़ती है। कवि त्रिलोचन ने कहा था---</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,<br />
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
ध्वनि से शब्द और भाषा का संकेत मिलता है। ध्वनिव्यवस्था के लिपिबद्ध संकेत को ही भाषा कहते हैं। ध्वनि कंपन से उत्पन्न होती है, यानी एक क्रिया जो ध्वनि-तरंगों को जन्म देती है। क्रिया में बल होने का और चाहे जो आशय हो, एक बात तो तय है कि बिना बल के क्रिया नहीं हो सकती और जहाँ सक्रियता है वहां निर्बलता नहीं रह सकती। यानि जहाँ क्रिया है वहां बल है। भाषा में क्रिया का वही स्थान है जो जीवन में क्रियाशीलता का है। भाषा की लहरों में जीवन की हलचल के होने का यही अभिप्राय है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
त्रिलोचन की ही एक दूसरी काव्यपंक्ति है--<br />
"हिंदी की कविता उनकी कविता है जिनकी सांसों को आराम नहीं था"।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
मीर तक़ी मीर ने कहा था---<br />
क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सुरूरे-क़ल्ब<br />
आया नहीं ये लफ़्ज़ तो हिंदी ज़ुबाँ के बीच</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
सांसों को आराम न होने का अभिप्राय भी इसी अहर्निश क्रियाशीलता से संबद्ध है। हाँ, उसमें बेचैनी और जुड़ जाती है।इसी बात को मीर ख़ूबसूरती के साथ कहते हैं कि दिल का सुकून (सुरूरे-क़ल्ब) नामका शब्द तो हिंदी भाषा में आया ही नहीं। यह कथन वैसे ही है जैसे हम किसी के आत्मविश्वास की सुचना देते हुए कहते हैं कि असंभव शब्द उसके शब्दकोष में ही नहीं है। तात्पर्य यह कि हिंदी बोलने वालों ने दिल के सुकून का अनुभव ही नहीं किया। उनकी सांसों को आराम नहीं था। ज़ाहिर है, हिंदी समाज को परिभाषित करने वाली उनकी बुनियादी विशेषता क्रियाशीलता है।वही उसे अर्थ देती है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
यहाँ आते आते एक बात साफ़ हो जाती है कि जिस प्रकार जीवन की प्राथमिक और बुनियादी इकाई मनुष्य का सौंदर्य और उसकी सार्थकता क्रिया पर टिकी हुई है, उसी प्रकार भाषा की बुनियादी इकाई वाक्य का सौंदर्य क्रिया पर टिका हुआ है। लेकिन हमारे समाज में कर्म के अवमूल्यन की प्रवृत्ति और विचारधारा भी न केवल वजूद में है, बल्कि ख़ासी मज़बूत है। वर्तमान समय में यह कोई अपनी राह तो नहीं बना पाती, लेकिन कर्मण्यता के महत्व को लेकर भ्रम फैलाती रहती है। ऐसे ही एक विचारक रामस्वरूप चतुर्वेदी हैं। ये अपनी किताब "हिंदी गद्य:विन्यास और विकास"(लोकभारती,2002) में लिखते हैं, "वाक्य-विन्यास में सहज प्रवाह का एक साक्ष्य तब माना जा सकता है जबकि वाक्य में सबसे महत्वपूर्ण तत्व क्रिया का विलोप हो जाय, और वाक्य शेष अवयवों के संतुलन पर तना रहे"(पृष्ठ 18)। यहाँ क्रिया को सबसे महत्वपूर्ण तत्व बताने की "सावधानी" तो बरती गई है, लेकिन किसी अनूठे कारण से उसके विलोप को ही अच्छे वाक्य की शर्त बता दिया गया है। आगे चलकर विभूतिभूषण वंदोपाध्याय और प्रसाद की रचनाओं के हवाले से वे वाक्य में क्रियाहीनता को बाक़ायदा एक मूल्य की तरह प्रस्तावित करते हैं। इस वैचारिकी की प्रतिध्वनि हमारे समय के एक प्रमुख कथाकार-चिंतक दूधनाथ सिंह की पुस्तक "महादेवी"(राजकमल,2009) में देखने को मिलती है। वे लिखते है, "कभी-कभी मुझे लगता है कि सर्वनामों के बिना उत्कृष्ट कविता संभव ही नहीं है। संज्ञाएँ और अलंकृतियां, अव्यय और क्रियापद- ये सब तो काव्य-रण के पिछले मोर्चे के योद्धा हैं। असली युद्ध तो सर्वनाम ही लड़ते हैं।"(पृष्ठ 59) सर्वनामों के अमूर्तन के सहारे कविता कई बार सामान्यीकरण के अपने लक्ष्य की साधना करती है, व्यक्तिगत से सार्वजनीन की यात्रा करती है। लेकिन संज्ञा की बनिस्बत इसकी नामरूपहीनता व्यक्तित्वों के विलोप की संभावना भी अपने अंदर छिपाये रहती है। कहना अनावश्यक है कि व्यक्तित्वों का विखंडन, पतन और अंततः उनका विघटन हमारे समय और समाज की प्रमुख विडंबनाओं में से एक है। इसलिए सर्वनाम की उपयोगिता को स्वीकार करते हुए भी उसे वाक्य का सबसे प्रमुख अंग नहीं माना जा सकता। आगे चलकर लेखक की रणनीति तब और स्पष्ट होती है जब वह प्रसाद के विषय में लगभग तोहमत के रूप में कहता है कि "लेकिन प्रसाद में छायावाद के प्रारम्भिक चरण के सारे लक्षण हैं। वे अक्सर क्रियापदों का दामन नहीं छोड़ते(पृष्ठ 65)।" इससे पता चलता है कि सर्वनाम को प्रमुखता देने की रणनीति क्रिया को देशनिकाला देने से जुड़ी हुई थी। इस रणनीति से न कविता का भला होगा न समाज का। हाँ, इससे हमारे समय में फैली धुंध और गहरी हो जायेगी।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
बहरहाल, ताज्जुब इस बात का नहीं है कि इन विचारकों ने ये बातें लिखीं। सबके अपने विचार हैं और अगर वे खुलकर व्यक्त होते हैं तो हम उनका स्वागत करते हैं। ताज्जुब इस बात का है कि इन विचारों से हिंदी के किसी कवि-आलोचक के कान पर जूं नहीं रेंगी। ये विचार अपने तरीक़े से हमारी चेतना में सक्रिय रहे लेकिन कहीं कोई सवाल नहीं उठा। अकर्मण्यता और व्यक्तित्वहीनता को मूल्य बनाकर वैधता और प्रमाणिकता देने की कोशिशें जारी रहीं लेकिन हिंदी समाज का सामूहिक विवेक शायद घोड़े बेचकर सोता रहा। यह क़िस्सा कोई नया नहीं है। हमने अपनी भाषा के साथ जो लापरवाही बरती है और उसके जो दुष्परिणाम सामने आये हैं, उनकी चर्चा हम इस श्रंखला की अगली कड़ी में करेंगे।</div>
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चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-22025040200524078322016-09-03T15:03:00.002+05:302016-09-03T15:05:02.523+05:30काव्यशास्त्रविनोद-३: आलोचना के बारे में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आजकल हिंदी में आलोचना की निंदा करने और उसे अनावश्यक ठहराने का चलन है। इस काम में हवा के साथ बह जाने वाले मतदाताओं जैसी सादगी के साथ बहुत से साहित्यप्रेमी लगे हुए हैं। लेकिन असल में यह खेल उन मठाधीशों का है जिन्होंने अतीत में हमेशा आलोचकों के साथ दुरभिसंधियां की हैं और उनसे अनुचित लाभ उठाया है। अब जबकि आलोचना को अपनी अनैतिक सत्ता का औज़ार बनाने वाले आलोचक अपने ही कारनामों के कारण अप्रासंगिक हो चुके हैं, ये लोग युवा तुर्क का स्वांग भरते हुए आलोचना के ख़िलाफ़ बग़ावत का एलान कर रहे हैं। इस तरह ये आलोचना के बहाने हिंदी में सुचिंतित विचार-विमर्श की संभावना को भी ख़ारिज़ कर देना चाहते हैं ताकि उन जैसों की भूमिका पर सवाल उठने की आशंका न रह जाये और अब तक येन केन प्रकारेण अर्जित की हुई उनकी हैसियत बनी रहे। इसलिए आलोचना की भूमिका और प्रक्रिया पर पुनर्विचार आवश्यक है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
साहित्य की तमाम विधाओं में होने वाली रचनाओं की व्याख्या और उनका मूल्यांकन करने वाली विधा को आलोचना कहते हैं। रचना और पाठक के बीच पुल की भूमिका निभाने वाली इस विधा का विकास आधुनिक युग की जटिलताओं के चलते हुआ है। रचना अगर जीवन की पुनर्रचना है तो आलोचना रचना की पुनर्रचना है। आलोचक रचना में समाहित अनेक तत्वों में से किसी एक को प्रमुख मानकर अपनी समझ के मुताबिक़ रचना के प्रधान पक्ष का उदघाटन करता है। इस प्रक्रिया में प्रासंगिक उद्धरण और उनकी व्याख्या उसके औज़ार होते हैं। उद्धरणों के चुनाव का विशेषाधिकार उसका होता है, किन्तु उनकी व्याख्या का वस्तुनिष्ठ और तर्कसंगत होना अनिवार्य है अन्यथा आलोचना अविश्वसनीय हो जाती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आलोचना में वस्तुनिष्ठता और पक्षधरता का प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका अभिप्राय है रचना के विश्लेषण के दौरान उसकी अर्थसंपदा के उद्घाटन के अतिरिक्त सत्य और न्याय के साथ रचना के रिश्ते का परीक्षण करना। परस्पर विभाजित और संघर्षरत स्वार्थों वाले समाज में स्वभावतः सत्य और न्याय के प्रति दृष्टिकोण भी अलग अलग होते हैं।इसलिए रचना की मूल्यवत्ता को लेकर मतभेद होते हैं, लेकिन समाज से निरपेक्ष किन्हीं शाश्वत मान-मूल्यों के अनुरूप रचना के रसास्वादन की अवधारणा अब अप्रासंगिक हो चुकी है। ऐसे मानदंडों का प्रस्ताव करने वाले कुछ बौद्धिक अब भी हो सकते हैं , लेकिन साहित्यिक संस्कृति पर उनका प्रभाव नगण्य है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
सत्य और न्याय के प्रति पक्षधरता आलोचना का अनिवार्य अंग भले ही हो, उसे तथ्यों के आलोक में ही इनका पोषण करने की अनुमति है। ये तथ्य प्राथमिक तौर पर रचना से प्राप्त होते हैं ।आलोचक इन तथ्यों को सामाजिक और ऐतिहासिक तथ्यों के समानांतर रखकर उनकी विश्वसनीयता का परीक्षण करता है। इस प्रक्रिया से प्राप्त निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ होते हैं। वस्तुनिष्ठता ही पक्षधरता की आधारशिला है। वस्तुनिष्ठ हुए बिना पक्षधर होना आसान है,लेकिन उसका कोई मूल्य नहीं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आलोचना के लिए प्रधान और गौण के अंतर को समझना ज़रूरी है। किसी भी वस्तु, व्यक्ति, समाज, रचना अथवा परिघटना में अनेक तत्वों का समावेश होता है, लेकिन किसी समय विशेष में उनमें से एक तत्व ही प्रधान भूमिका में होता है, बाक़ी सब गौण होते हैं। प्रधान तत्व के आधार पर ही वस्तु का चरित्र तय होता है। प्रधान तत्व के अपने अंतर्विरोध होते हैं, जिनके चलते कई बार वह शक्तिच्युत होकर प्रधान भूमिका खो बैठता है, और कोई दूसरा तत्व शक्तिशाली हो प्रधान भूमिका में आ जाता है। ऐसी स्थिति में वस्तु का चरित्र बदल जाता है। यह बदलाव बिलकुल उलटी दिशा में भी ले जा सकता है। जैसे क़ानून का सम्मान करने वाला कोई व्यक्ति विकास के क्रम में वाह्य परिस्थितियों से जूझते हुए क़ानून तोड़ने वाले किसी मुजरिम में बदल सकता है, वैसे ही किसी अपराधी के अंदर अनुकूल मानसिक स्थिति में क़ानून के समक्ष समर्पण करके अपनी सज़ा काटकर शांतिपूर्ण जीवन जीने की कामना बलवती हो सकती है, और वह इसके अनुरूप आचरण कर सकता है। ऐसी स्थितियों में इन व्यक्तियों का चरित्र अपने विपरीत में बदलता दिखाई पड़ता है। ऐसा इसलिए होता है कि इनके अंदर अपने जीवन को दिशा देने वाला जो सबसे शक्तिशाली तत्व था वह अपने अंतर्विरोधों के चलते अपने विरोधी तत्व से पराजित हो गया और उसके विरोधी ने प्रधान भूमिका अपना ली। प्रधान तत्व में बदलाव से अन्य तत्वों की भूमिका और अर्थवत्ता भी कुछ न कुछ प्रभावित होती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यह नियम प्रकृति से प्राप्त सार्वभौम सत्य है और हर आलोचक अपने लेखन में इससे प्रभावित होता है। अंतर सिर्फ़ यह है कि सचेत आलोचक इस सचाई को समझकर इसका उपयोग करते हैं जबकि इससे अनभिज्ञ आलोचक अनजाने में इस नियम के उदाहरण बन जाते हैं। मसलन, अगर कोई आलोचक इस नियम को नहीं समझता तो वह रचना में घटित होने वाली घटनाओं और चरित्रों में होने वाले परिवर्तनों को तर्कसंगत तरीक़े से नहीं समझ सकेगा और उन्हें संयोग, सनक, विचारधारा या किसी अन्य अप्रासंगिक तत्व पर आधारित मानकर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत कर देगा। ऐसी स्थिति में उसकी आलोचना रचना के सत्य का उद्घाटन करने की बजाय स्वयं उसके आलोचक-रूप का उद्घाटन करेगी, जिसका प्रधान तत्व अज्ञान है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कहने का आशय यह कि आलोचना के क्षेत्र में पहला क़दम रचना के पर्याप्त अध्ययन-मनन के बाद उसके समूचे कलेवर के प्रधान तत्व की खोज है। ध्यान रहे कि लिख जाने के बाद रचना का अपना व्यक्तित्व होता है और वह स्वतंत्र रूप से समय और समाज के साथ अंतःक्रिया करती है। इसके बाद ख़ुद लेखक की राय का महत्व भी किसी पाठकीय प्रतिक्रिया से अधिक नहीं होता। साहित्य के लोकतंत्र में लेखक और पाठक दोनों के पास एक ही वोट होता है। किसी जीवित व्यक्ति की तरह ही जीवंत रचना में भी समय के साथ परिवर्तन और विकास होता है। हाँ, यह विकास उसकी अर्थवत्ता और प्रासंगिकता में आने वाले बदलाव के माध्यम से दिखाई पड़ता है। आलोचक का काम रचना में आये इसी बदलाव और नवीनता की खोज है। जो रचना जितनी ही सशक्त होती है उसमें विकास की यह गुंजाइश उतनी ही अधिक होती है। मिसाल के तौर पर ग़ालिब का यह शेर देखें-</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
दाइम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं<br />ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे के पत्थर नहीं हूँ मैं</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उर्दू कविता की रीत थी माशूक़ की चौखट पर सर पटकते हुए या तो पत्थर की चौखट को घिस डालना , या सर को ही मिटा देना-(मिट जाएगा सर गर तेरा पत्थर न घिसेगा- ग़ालिब)। इस पारंपरिक दृष्टि से देखने पर इस शेर में यह अफ़सोस ज़ाहिर होता है कि माशूक़ के दर पर हमेशा पड़े रहने के लिए जो धैर्य और नसीब चाहिए, काश वो मेरे पास होता। लेकिन आधुनिक दृष्टि से देखने पर इश्क़ में अब तक रही बेबसी भरी ज़िन्दगी पर ही ख़ाक डालने और पत्थर नहीं इंसान बनने की बात निकलती जान पड़ती है। इसी प्रकार रचना के भाषिक संयोजन में से समय के साथ कोई नया तत्व उभरकर प्रधानता हासिल कर लेता है और रचना के अर्थ को बदल डालता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
रचना के प्रधान तत्व की खोज का यह आशय कदापि नहीं है कि किसी रचना में निर्विवाद रूप से कोई प्रधान तत्व होगा और उसे खोज निकालने के साथ ही आलोचक का काम ख़त्म हो जायेगा।इसके विपरीत अपनी-अपनी रुचि और संस्कार के मुताबिक़ विभिन्न आलोचक रचना के प्रमुख अभिप्राय के बारे में अलग-अलग राय व्यक्त करते हैं और यह मतभेद बहस और विवाद को जन्म देता है। किसी एक मत की सर्वस्वीकार्यता की बजाय यह स्थिति आलोचना की संस्कृति के लिए अधिक सुखद है। इस तरह की बहसों से गुज़रकर हम रचना, मनुष्य और समाज की बेहतर समझ हासिल करते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
रचना के मुख्य सूत्र की तलाश के लिए कुछ उपयोगी संकेत तो किये जा सकते हैं, लेकिन इसका कोई निश्चित फ़ार्मूला नहीं हो सकता। उस तत्व को जो रचना के केंद्र में है और उसके आशय को निर्धारित करता है, रचना का मर्म कहा जा सकता है। कभी यह रचना में आरम्भ से अंत तक विद्यमान रहता है, तो कभी एक या दो जगह ही सशक्त रूप में आकर पूरी रचना पर नई रोशनी डाल सकता है। इस दूसरी स्थिति के उदाहरण के रूप में हम निराला की प्रसिद्ध कविता "राम की शक्तिपूजा" को लेते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
विपुल सन्दर्भों से समृद्ध इस लंबी कविता में आया एक छोटा सा प्रसंग इसके समूचे आशय को निर्धारित करता है। कथा सर्वविदित है कि रावण से युद्ध के दौरान राम के संशयग्रस्त होने पर जाम्बवान उन्हें शक्ति की पूजा करने की सलाह देते हैं--"शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन"। पूजन की जो विधि है वह पारम्परिक रीति से ही सम्पन्न होती है, हालाँकि उसमें राम की दृढ़ता का सन्निवेश है। पूजा के अंतिम चरण में राम की परीक्षा लेने के लिए दुर्गा अर्पण के लिए रखे अंतिम पुष्प को चुरा लेती हैं। इससे साधना के अधूरी रह जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है। यहाँ आकर राम जो निर्णय करते हैं उससे शक्ति की मौलिक कल्पना करने की सलाह सार्थक होती है। कमल के फूल की भरपाई अपनी आँख से करने का निश्चय दरअसल, अपने मक़सद के लिए ख़ुद को दांव पर लगाने, कर्तव्य की वेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने का वह चुनाव है जिसे अनेक आसान विकल्पों को ठुकरा कर किया गया है। अपने संकल्प के अनूठेपन के कारण शक्ति की यह कल्पना मौलिक है। कविता और जीवन में असली फ़र्क़ इसीसे पड़ता है। समूची कविता इस एक संकेत से प्रज्ज्वलित है। इस प्रकार "राम की शक्तिपूजा" का केंद्रीय सूत्र कर्तव्य के प्रति निष्ठा और समर्पण की ऐच्छिक आत्यन्तिकता है जो निराला के राम को नई और मौलिक आभा से दीप्त करती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बड़ी और कालजई रचनाएँ प्रायः मनुष्य के आदिम और मूलगामी संवेगों पर आधारित होती हैं। प्रेम, साहस, सहानुभूति, करुणा, कृतज्ञता और विश्वास जैस भावों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। विशेष बात यह है कि इनके विलोम भाव भी रचना में उतनी ही सशक्त भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा ज्ञान, इच्छा और क्रिया के बीच चलने वाला द्वंद्व भी आधुनिक मनुष्य की एक मूलभूत संचालक शक्ति है। प्रेमचंद का उपन्यास "गोदान" और मुक्तिबोध की कविता "अँधेरे में" समेत तमाम महत्वपूर्ण रचनाओं का गठन इसी द्वंद्व से हुआ है। व्यक्ति और समाज तथा अंतर्जगत और बहिर्जगत के बीच चलने वाला द्वंद्व भी आधुनिक साहित्य की एक मूल विषयवस्तु है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आलोचना के क्षेत्र में जड़ जमाये भ्रमों में एक यह है कि कला अथवा सौंदर्य पर ज़ोर देने से रचना का अभिप्राय विघटित हो जाता है। इस मसले को "क्या कहा गया"(कथ्य),और "कैसे कहा गया" (रूप), इन दो प्रश्नों के उत्तरों के बीच मौजूद रिश्ते की पड़ताल मान सकते हैं। वास्तव में अगर साहित्य-कर्म की विशिष्टता को समझे बग़ैर रचनाकार अपने मंतव्य को समुचित कलात्मक ढंग से नहीं प्रकट करता तो इस बात की संभावना अधिक है कि रचनाकार का अभिप्राय स्पष्ट होने के बावजूद वह अपने पाठकों पर अनुकूल प्रभाव न छोड़ सकेगा। अंतर्वस्तु रचना का सत्य है और रूप उसकी शक्ति है। सत्य के साथ शक्ति का योग होने पर ही उसे जीवन मिल सकता है, अन्यथा नहीं। हाँ, इस मामले में कला और उसके नाम पर होने वाली नासमझ पच्चीकारी के बीच अंतर करना वैसे ही ज़रूरी है जैसे साहित्य के यथार्थ को अख़बारी बयानों से अलगाना। किसी भी हाल में रचना से तुरंत समझ में आ जाने की मांग करना अपने प्रति ज़्यादती है और इससे बचना चाहिए।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आलोचना करते समय एक बात का ध्यान हमेशा रखना चाहिए कि रचना में जो कुछ प्रस्तुत है हम उस पर ही विचार व्यक्त करने के लिए अधिकृत हैं। जो बात रचना में आई ही नहीं, उसके न आने की वजहों को लेकर हायतौबा मचाने और इससे अपने निष्कर्ष निकालने वाली आलोचना अवैध होती है। किसी रचना की सीमा वह तत्व नहीं हो सकता जो उसका विषय ही नहीं बना, वैसे ही जैसे किसी तैराक की सीमा यह नहीं हो सकती कि वह धावक नहीं है। किसी देश की तरह रचना की सीमा भी उसकी ज़मीन की, उसमें मौजूद सकारात्मक क्षमता की सीमा होती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस नियम का एक अपवाद भी है। रचना का सम्बन्ध चूंकि मनुष्य की स्मृति, उसके यथार्थ और स्वप्न से होता है, इसलिए समय के तीनों रूपों (अतीत, वर्तमान और भविष्य) में आवागमन उसका स्वभाव बन जाता है। इसमें भी कई बार स्मृति और यथार्थ स्वप्न के लिए राह बनाने का माध्यम बनते हैं। तभी रचना में भविष्य में खिलने वाले फूलों की ख़ुशबू शामिल होती है। लेकिन कभी कभी रचना में स्वप्न अथवा दुःस्वप्न के प्रबल रेखांकन से रचनाकार यथार्थ की किसी विसंगति का संकेत भी करता है। यथार्थ को अपना विषय बनाते हुए वह उसमें अनुपस्थित किसी वांछनीय तत्व को रचना में सायास उपस्थित दिखा कर उसकी अनुपस्थिति को हाइलाइट कर सकता है। कभी इसके विपरीत वह समाज में उपस्थित किसी अवांछनीय तत्व को रचना में सायास अनुपस्थित दिखाकर उसकी अवांछनीयता पर ज़ोर दे सकता है। किसी स्टैंसिल की तरह यह रचना अनुपस्थित की उपस्थिति और उपस्थित की अनुपस्थिति के नियम से संचालित होती है। समाज के यथार्थ और रचना के यथार्थ के बीच इस मानीखेज़ अंतर से वह हमारे जीवन की विडम्बना को प्रकट करता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
सही और ग़लत, न्याय और अन्याय के बीच संघर्ष में रचना का पक्ष क्या है, यह आलोचना की अनिवार्य जिज्ञासा है। ध्यान देने की बात यह है कि रचना का पक्ष रचनाकार के पक्ष का पर्याय नहीं होता। सच्ची रचना तब होती है जब रचनाकार अपने प्रतिपक्ष को भी अपनी आत्मा के अंश से रचता है। उसकी भूमिका सज़ा देने वाले जज की नहीं बल्कि ऐसे वक़ील की होती है जिस पर वादी और प्रतिवादी दोनों का पक्ष प्रस्तुत करने का दायित्व है। इस तरह वह सामाजिक अपराधों और बुराइयों की हमारी समझ को गहरा और विस्तृत करता है। सत्य और न्याय की स्थापना में इस समझ की अनिवार्य भूमिका होती है। दोस्तोयवस्की कृत " अपराध और दंड" तथा टॉलस्टॉय कृत "पुनरुत्थान" जैसी रचनाएँ इस श्रेणी में आती हैं।आलोचक को यह ध्यान रखना चाहिए कि जघन्य व्यक्तिगत और सामाजिक अपराधों की नृशंसता के वर्णन में लेखक इतना तो नहीं रम गया है कि वह पाठक की चेतना को जाग्रत करने की बजाय उसे सुन्न किये दे रहा है।अपनी सदिच्छा के बावजूद सुई का काम तलवार से लेने वाली ऐसी रचनाएँ मानवीय विवेक को कुंद करती हैं, और 'यही सब तो होता है' की यथास्थितिवादी चेतना का विस्तार करती हैं। विकराल विभीषिकाओं के प्रति जागरूक करने के लिए मानवीय संवेदना पर उसके प्रभाव को दर्शाने वाला कोई नाज़ुक सा हवाला जो पाठक के दिल को छू जाए, कहीं अधिक कारगर होता है। सआदत हसन मंटो की कहानी 'टोबाटेक सिंह' भारत पाकिस्तान विभाजन का ऐसा ही रचनात्मक रूपांतरण है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आलोचना का सुनहला नियम यह है कि किसी भी समय, समाज, रचना , रचनाकार अथवा आलोचक का मूल्यांकन उसके सर्वश्रेष्ठ के आधार पर होना चाहिए। किसी की कमतर उपलब्धि के आधार पर होने वाली उसकी आलोचना निष्फल होती है। जैसे किसी पर्वतारोही के असफल अभियानों के आधार पर उसका मूल्यांकन करना समझदारी नहीं है, वैसे ही किसी रचनाकार की कमज़ोर रचनाओं का उल्लेख करते हुए भी उसकी बेहतर उपलब्धियों के आधार पर ही उसका मूल्यांकन होना चाहिए। रचनाकार के जीवन और उसकी रचना में घालमेल से भी बचना चाहिए। आलोचक को रचनाकार के जीवन से अधिक उसके समय और समाज में रुचि लेनी चाहिए और रचना से उसके रिश्ते की पड़ताल करनी चाहिए। रचनाकार का जीवन नहीं उसका समय रचना की कसौटी है। हाँ, उसकी रचना उसके जीवन की कसौटी ज़रूर है और हमेशा बनी रहेगी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
किसी आलोचक के मूल्यांकन में एक बात ध्यान रखने की है कि उसने जिन रचनाओं को महत्वपूर्ण माना उनके आधार पर उसका रिपोर्ट कार्ड बनेगा। अगर किसी महत्वपूर्ण रचना को समझने से वह चूक गया तो यह उतना अहम नहीं है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति हर अच्छी रचना का सही मूल्यांकन नहीं कर सकता। हाँ, अगर वह किसी कमज़ोर रचना को महत्वपूर्ण बताता है और उसे अपना प्रतिमान बनाता है तो यह ज़रूर उसकी आलोचकीय अक्षमता का प्रमाण होगा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-top: 6px;">
अंततः, विश्वसनीय आलोचना लिखने के लिए आलोचक को चाहिए कि वह रचना से कम से कम एक आवश्यक सन्दर्भ-सूत्र लेते हुए अपनी बात तर्कसहित कहे। 'ऐसा मानते हैं', 'सुनते हैं', 'कहते हैं' जैसे वाक्यांशों से बचते हुए जो कुछ वह कहता है उसकी ज़िम्मेदारी उसे स्वयं उठानी चाहिये। इसका मतलब यह नहीं कि दूसरों को उद्धृत न किया जाए, बल्कि जो भी कहें उसके बारे में अपनी राय भी साफ़ साफ़ प्रकट करें। वही विश्लेषण वैध है जिसे हर स्तर पर चुनौती दिया जा सके, जिससे तर्क किया जा सके और आवश्यक होने पर जिसका खंडन किया जा सके। इसके अलावा सभी विश्लेषण गोलमटोल, सारहीन, और आलोचना की संस्कृति के लिए घातक शब्दाडंबर भर हैं। सच्ची आलोचना को निष्कवच और वेध्य होना चाहिए।</div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-68853783265047665332016-09-03T15:03:00.000+05:302016-09-03T15:03:30.372+05:30काव्यशास्त्रविनोद-२: भाषा की अंतर्वस्तु<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
निराला ने गद्य को जीवनसंग्राम की भाषा कहा था।आधुनिक युग को गद्ययुग भी कहा गया है।ज़ाहिर है कविता पर विचार करते हुए अब हमारे सामने मसला गद्य बनाम काव्य का नहीं है, बल्कि गद्य बनाम बेहतर गद्य का है। गद्य की बेहतरी को आंकने के लिए भाषा की सरलता, प्रवाहमयता, विचारशीलता और सार्थकता जैसे परंपरागत पैमानों से सहमत होते हुए हम ये मानते हैं कि ये विशेषताएँ भाषा के रूप आकार की हैं। काव्यभाषा की वास्तविक विशेषता अपने पाठक की सोई हुई मानसिक क्षमताओं को जगाने, उसकी प्रश्नाकुलता को धार देने, उसके अंदर की मानवीय भावनाओं और उसके उदात्त आशयों को उसके सम्मुख प्रकट करने में निहित होती है। इसी भूमिका में वो काव्यरचना की सहयोगी बन सकती है। आइये कुछ और निकट से देखें कि वह ऐसा कैसे कर पाती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आम तौर पर ये मान्यता है कि भाषा में जो कुछ कहते या लिखते हैं, उसीसे से वांछित अर्थ निकल आता है, उसे कैसे कहा या लिखा गया इसकी भूमिका गौण है।भाषा एक माध्यम है जिसे सुविधाजनक होना चाहिए, यानी सरलतापूर्वक किसी कथन का मनोवांछित अर्थ निकल आये। सिद्धान्तरूप में हम अभिधा, लक्षणा, व्यंजना जैसी शब्दशक्तियों को स्वीकार करते हैं, लेकिन उन्हें रचनाकार के वांछित अभिप्रायों से अलग करके नहीं देखते। लेखक की इच्छा के मुताबिक़ किसी कथन से प्रत्यक्ष तौर पर आने वाले अभिधार्थ, और अप्रत्यक्ष तौर पर आने वाले लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ की अपेक्षा तो करते हैं, पर स्वयं भाषा में ये शक्तियां लेखक की इच्छा से निरपेक्ष तौर पर भी निहित हो सकती हैं, इस संभावना पर विचार नहीं करते।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उदाहरण के लिये, अपने रोज़मर्रा के जीवन में हम देखते हैं कि हमारी कही हुई बातें कई बार हमारे मन्तव्य के विपरीत प्रभाव छोड़ती हैं। हम किसी उद्विग्न व्यक्ति को सांत्वना देना चाहते हैं और वो हमारी बात से चिढ़ जाता है क्योंकि हमारी भाषा शैली और हावभाव उस व्यक्ति की मनःस्थिति के अनुरूप नहीं होते। ऐसे में हमारे शब्द बिलकुल उपयुक्त हो सकते हैं लेकिन उनका अर्थ हमारे अनजाने ही बदल जाता है। इसी प्रकार अगर हम अपनी रचना में कोई सामाजिक राजनीतिक सन्देश देने की कोशिश करते हैं लेकिन वह सन्देश वस्तुगत परिस्थितियों की उचित समझ पर आधारित नहीं है तो उसका परिणाम उल्टा निकल सकता है। कहने का आशय यह कि भाषा में दिए गए किसी वक्तव्य का वास्तविक अर्थ जितना वाचक के मन में होता है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण तरीक़े से वाह्य परिस्थितियों और उन व्यक्तियों के मन में होता है जो उससे अपने को सम्बंधित पाते हैं।जब दोनों पक्षों के बीच भाषा एक जैसा संवाद बना पाती है तो यह आदर्श स्थिति होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि किसी रचना की वास्तविक भूमिका उसके शब्दकोषीय अर्थ और रचनाकार की इच्छा से परे सामाजिक परिस्थितियों में विद्यमान होती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस प्रकार भाषा में अंतर्वस्तु का निवेश दो स्तरों पर होता है। पहला स्तर वह है जब रचनाकर अपनी रचना में अपने मनोनुकूल भावों को शब्दबद्ध करता है, और दूसरा वह जब रचना पाठक के पास आती है और वह अपनी स्थिति के अनुरूप उसका अर्थ ग्रहण करता है। पहले को मनोगत स्तर और दूसरे को वस्तुगत स्तर कह सकते हैं। वस्तुगत स्तर पर भले ही आरम्भ में पाठकों में अंतर्वस्तु को लेकर मतभेद दिखें लेकिन लोकतान्त्रिक बहस मुबाहिसे की प्रक्रिया में वे मतभेद सिमटते चले जाते हैं और न्यूनतम सम्भव स्तर पर पहुँच जाते हैं। जैसे पानी जिस बर्तन में जाता है उसीका आकार ग्रहण कर लेता है, किन्तु विकास की प्रक्रिया में अंततः कुछ ख़ास आकार के बर्तन पानी के अनुकूल पड़ते हैं और वे पानी के समुचित आकार की सूचना देते हैं। हम थाली में पानी नहीं पीते गिलास में पीते हैं क्योंकि गिलास का आकार पानी की प्रकृति के अनुरूप होता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यहाँ एक सवाल यह उठता है कि अगर किसी भाषिक रचना का अभिप्राय वाह्य परिस्थितियों अथवा उसके पाठक के अनुसार तय होता है तो उसे भाषा की अंतर्वस्तु कैसे कह सकते हैं। इसका जवाब यह है कि यह गुंजाइश खुद भाषा के अंदर होती है। उसकी संरचना में अनेक अर्थ छिपे होते हैं जो मौक़े के मुताबिक़ ख़ुद को ज़ाहिर करते हैं। जिस तरह पत्थर के अंदर अनेक मूर्तियां छिपी होतीं हैं, लेकिन मूर्तिकार उसके फालतू हिस्सों को तराश कर अपने मनमाफिक मूर्ति गढ़ लेता है, उसी तरह कविता का पाठक भी उससे अपने अनुरूप अर्थ ग्रहण करता है। शर्त बस यह है कि वह अर्थ कविता की भाषिक संरचना से वैध ढंग से निकलना चाहिए, मनमाने ढंग से नहीं। एक बार जब रचना पाठक के सामने चली जाती है तो रचनाकार के मंतव्य का प्रश्न समाप्त हो जाता है। रचना के बारे में उसकी राय किसी पाठक की राय से अधिक महत्त्व नहीं रखती। इस प्रक्रिया में एकाधिक वैध अर्थ भी हो सकते हैं, और यह विशेषता रचना की ताक़त है कमजोरी नहीं। अर्थों के इस बहुलतावादी लोकतंत्र में एक बार फिर पाठक अपने काव्यार्थ को चुनता है और अलग अलग पाठकों पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुसार रचना की सामाजिक भूमिका तय होती है। ज़ाहिर है कि इस प्रक्रिया में भाषा की अंतर्वस्तु की निर्णायक भूमिका होती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उदाहरण के लिये मान लें कि कोई कवि वर्तमान में दलितों के बारे में पूरी हमदर्दी के साथ सोचना और लिखना चाहता है लेकिन अपने संस्कारों से बाध्य होकर वह उनके प्रति दया का प्रचार करता है। वह पूरी ईमानदारी से सोचता है कि अगर दलित प्रतिरोध और संघर्ष के रास्ते पर चलना छोड़ दें तो सामंती शक्तियों के अंदर उनके प्रति सहनशीलता पैदा हो सकती है और धीरे धीरे दलितों का उत्थान सम्भव हो सकता है। ऐसी स्थिति में उसकी इच्छा के विपरीत उसकी रचना दलितों के अपमान और उनकी अवमानना का कारण बनेगी और दलित विरोधी शक्तियों को मज़बूत करेगी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ग़ालिब का मशहूर शेर है:</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा<br />
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
प्रत्यक्ष तौर पर इस शेर का अर्थ है कि किसी की मृत्यु के बाद उसके शरीर को जला दिया गया है और इस प्रक्रिया में उसका दिल, जो समस्त भावनाओं का आधार हुआ करता था, भी जल कर ख़त्म हो चुका है इसलिए बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेइ। शाब्दिक रूप से इस व्याख्या पर आपत्ति नहीं हो सकती और इसकी सदिच्छा पर भी सवाल नहीं उठ सकता। इस व्याख्या का इस्तेमाल किसी प्रियजन के बिछोह पर सांत्वना देने से लेकर अनात्मवाद की स्थापना के लिए भी हो सकता है। लेकिन इसमें जो राख कुरेदने का प्रसंग है और जिसके पीछे छिपी ख़्वाहिश को लेकर उत्सुकता भी ज़ाहिर की गई है, वह इस शेर में एक अलग अर्थ की संभावना पैदा करता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ध्यान से देखें तो ख़ुद कविता भी राख कुरेदने के अलावा क्या है। यह बात प्रायः स्वीकृत है कि वास्तविक जीवन प्रसंगों के गुज़र जाने के बाद और उनसे थोड़ी दूरी बन जाने पर ही स्मृति के सहारे बड़ी कविता अस्तित्व में आती है। यथार्थ और स्वप्न भी कविता के स्रोत हैं लेकिन कालजयी रचनाएँ अक्सर स्मृति को अपना माध्यम बनाती हैं। इसी तरह भावनाएं भी अपने आलंबन के गुज़र जाने के बाद अधिक तीव्र और मर्मस्पर्शी होकर सामने आती हैं।कहने का आशय यह कि किसी पाठक के लिए इस शेर का वास्तविक और वैध अभिप्राय यह भी हो सकता है कि शरीर के न रहने पर प्रियजन की यादें अधिक प्रभावी होती हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-top: 6px;">
अब ये दोनों व्याख्याएं पाठकों के मन मस्तिष्क में उनकी अभिरुचियों के मुताबिक़ जगह बनाती रहती हैं। अंततः इनमें से कोई एक ही व्याख्या समय की कसौटी पर खरी उतरेगी, लेकिन इसमें कितना वक़्त लगेगा यह नहीं कहा जा सकता। कबीर और तुलसी जैसे कवियों के अभिप्रायों पर अब भी अनेक राय है। इसी श्रेणी में ग़ालिब भी आते हैं। जो कविता जितनी समर्थ होती है उसे लेकर मत मतान्तर की गुंजाइश उतनी ही अधिक होती है। इस प्रसंग में अंतिम बात फ़िलहाल यह है कि हिंदी समाज और साहित्य में बहस का अवकाश कम होता जा रहा है। हमारे लेखकों और पाठकों को इस परिस्थिति में निहित ख़तरे को समझना चाहिए और अपने समाज को इस दिशा में चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए।</div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-17737702939704214862016-09-03T15:00:00.001+05:302016-09-03T15:00:59.283+05:30काव्यशास्त्रविनोद-१<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
डॉ. कृष्णमोहन की यह टिपण्णी फेसबुक पर शाया हुई थी. बाद में इसकी दो और किश्तें भी छपी. कई अर्थों में यह श्रृंखला बेहतर बन पडी है. लगा कि इन्हें एक जगह सहेज लिया जाए ताकि जरुरत पड़ने पर फेसबुक पर अनंत तक की 'स्क्रॉलिंग' करनी पड़े. </div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="line-height: 19.32px;">............................................</span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
संस्कृत में कहा गया है कि गद्य कवियों का निकष है। हिंदी में आकर इस उक्ति का अर्थ प्रायः यह समझा गया है कि कवियों को कविता के अलावा कहानी या आलोचना में भी कुछ काम करते रहना चाहिए।कवि त्रिलोचन ने इस प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए कभी लिखा था-- गद्य वद्य कुछ लिखा करो कविता में क्या है। कवि-कथाकार और कवि-आलोचक जैसी नई श्रेणियाँ सामने आ गईं और इस तरह के सूत्रीकरण भी कि ऐसे लेखकों की कथारचना और आलोचना भी छूँछे कथाकारों और आलोचकों से बेहतर होती है, कविता का तो कहन<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">ा ही क्या।अनेक विधाओं में काम करने पर लेखन में निखार आना तो स्वाभाविक है,लेकिन उपर्युक्त उक्ति में गद्य का उल्लेख कवियों की कविता ही के सन्दर्भ में की गई है। कवि को संबोधित कथन सबसे पहले उसकी कविता के सन्दर्भ में होगा क्योंकि वही उसे कवि बनाती है।</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px;">
दरअसल, हिंदी में गद्य और पद्य को परस्पर विलोम नहीं तो नदी के दो पाटों की तरह समानांतर मानकर चलने की रीति रही है।इस खाई को पाटने के लिए "गद्य कविता" नामक विधा का प्रचलन भी इसी रीति की ताईद करता है। सच तो यह है कि कविता, चाहे वह तुकांत हो या अतुकांत, छंदोबद्ध हो या मुक्तछंद हमेशा गद्य पर निर्भर रही है।प्राचीन संस्कृत से आधुनिक हिंदी तक तमाम भाषाओँ की इसकी यात्रा इस बात की बेहिचक पुष्टि करती है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भाषा की बुनियादी इकाई वाक्य है और वाक्य गद्य और पद्य में अलग अलग नहीँ होते। कविता और गद्य के वाक्यों में ख़ास अंतर यह होता है कि गद्य के वाक्यों में अर्थ की बहुलता उसे संदिग्ध बनाती है जबकि कविता में यह उसका विशेष गुण होती है। इसलिए कविता में यह कमाल दिखाने के लिए कवि को वाक्य में कर्ता, कर्म और क्रिया के क्रम में फेरबदल की थोड़ी सी छूट मिलती है लेकिन वाक्य को तोड़ने-मरोड़ने या उसका अंग-भंग करने की इजाज़त उसे क़तई नहीं है।बहरहाल, यहाँ बिलकुल अनायास याद आने वाली कुछ काव्य पंक्तियों को प्रस्तुत करना उचित होगा--</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:<br />ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति<br />भर्तृहरि</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कबिरा खड़ा बजार में मांगे सबकी ख़ैर<br />ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर<br />कबीर</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून<br />पानी गए न ऊबरैं मोती मानुस चून<br />रहीम</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
देख तो दिल कि जाँ से उठता है<br />ये धुआँ सा कहाँ से उठता है<br />मीर</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
रोक लो गर ग़लत चले कोई<br />बख़्श दो गर ख़ता करे कोई<br />ग़ालिब</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गद्य के दो भरे पूरे वाक्यों से रचित कविता के ये उदाहरण बताते हैं कि भारतीय कविता की लंबी परम्परा में गद्यमयता की यह रीति 19वीं सदी तक बिना रोकटोक चलती रही है। बीसवीं सदी के आरंभिक युग में विशेषकर छायावाद के दौर में गद्य पर निर्भरता की यह परंपरा हाथ से छूटी और उससे कविता का कुछ नुकसान भी हुआ लेकिन परवर्ती हिंदी कविता इस मसले को लेकर सचेत दिखाई पड़ती है।हम कह सकते हैं कि हिंदी कविता के मूल्यांकन में वाक्यों की रचना का दोषपूर्ण होना कोई बड़ी बाधा नहीं है।यानी, रूप के स्तर पर तो हिंदी कविता<br />गद्य के निकष पर खरी उतरती है,लेकिन क्या अंतर्वस्तु के स्तर पर भी यही बात कही जा सकती है?हम इस पर अपनी अगली कड़ी में विचार करेंगे।</div>
</div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-7431113074624523402015-10-26T15:57:00.000+05:302015-10-26T16:15:12.905+05:30ठहर गया वहीं पर एक इन्द्रधनुष<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">महेश वर्मा की कविताओं का पाठ हमें नई किसी दुनिया में प्रक्षेपित करता है. जहां नक्षत्र कांपते हुए नजर आते हैं. जहां एकांत के निहितार्थ किन्ही रंगो में नुमायाँ होते हैं. जहां रविवार एक काव्य पंक्ति का दर्जा रखता है. उन रविवारो में हम इन कविताओं का पुन:पाठ करते हैं. फिर किसी सोमवार को अपना काम -धाम किनारे कर उन कविताओं पर कुछ लिखना चाहते हैं और फिर पाते हैं कि वही कवितायेँ खुद को दुबारा लिखवा रही हैं. </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कविता की पृथ्वी पर प्रेम एक गोलार्ध है. प्रेम, स्वयं जीवन से बड़ा. प्रेम-कविता के लिखे जाने की शर्त है: शीश उतारे भुईं धरे.… यों भी, महेश की प्रेम कवितायेँ रंगहीन पारदर्शिता का कायल नहीं होतीं. साहस का स्रोत, जीवन में या रचना में, परम्परा है, वरना काल्पनिक क़ासिद, काल्पनिक दूरियों से भिड़ने के लिए सचमुच के तलवार की कल्पना चकित करती है, अगर आपका राब्ता हिन्दुस्तानी कविता से है, तो. </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यहां प्रस्तुत हैं महेश वर्मा के कवितायेँ, विस्मय के पहाड़े की तरह.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhANq4mGbVmHCNNAJY3rq9vb-fdyfFKOhiJgH5JtNs809jeGGdacw4RQ-J-sjZCBREg0YMSRvRzHB8jAZ_9LWxDVIER-EHw1sDalGEMvA7kwCKVhDEcKbk1Kg83WTYpfxPi2KqU_Q61-Pr3/s1600/10505312_10204517043514949_307228483700187851_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="448" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhANq4mGbVmHCNNAJY3rq9vb-fdyfFKOhiJgH5JtNs809jeGGdacw4RQ-J-sjZCBREg0YMSRvRzHB8jAZ_9LWxDVIER-EHw1sDalGEMvA7kwCKVhDEcKbk1Kg83WTYpfxPi2KqU_Q61-Pr3/s640/10505312_10204517043514949_307228483700187851_n.jpg" width="640" /></span></a></div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">( संगत: विनोद कुमार शुक्ल, महेश वर्मा, प्रभात. पार्श्व में, शिव कुमार गांधी )</span><br />
<span style="font-size: large;">..................................................................................................</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><u><span style="color: blue; font-size: large;">इश्क़फ़रेब</span></u></span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="font-size: large;"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तुम उदासी से खेलती हो </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और मैं ढेर सारे टूटते नक्षत्रों में </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बुझ जाता हूँ </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तुम आवाज़ से खेलती हो </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और घुमाकर दूर उछाल देता है मुझे आसमान </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जैसे तुम दिशाओं से खेलती हो </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"> -विमाओं
से </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">एक शाम तुम तीन आवाजों में बोलीं </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मैं सुर न मिला पा रहे </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">संतूरवादक की बेचैनी में ढल गया </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मेरी आवाज़ ने मुझसे कहा : अलविदा !</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मैंने तीन किस्म की हकलाहटों से दोस्ती गाँठ ली </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अब मैं सभी संभव सुरों में चुप रह सकता हूँ </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">फिर एक रात </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तुम मेरी चुप के दरवाज़े की और चुम्बन उछालती चलीं </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मैंने सेलफोन से कहा -</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इश्क़फ़रेब ! </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><span style="color: blue;"><u>बदलना </u></span></span></b><b><o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">नमक , तुम्हारी देह और </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">खुरदुरेपन पर अपना मुंह रगड़ता </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">आग पी रहा था </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">धीरे धीरे बदलते हुए </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कोई दूसरी चीज़ बनते </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मैंने बिलकुल नज़दीक से देखा </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक पालतू जानवर </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक दुश्मन </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">और गुस्सैल आरी में </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अपना बदलना.</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">जब आग मुझे पी चुकी और </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लपटों का रंग पहले की तरह का हो गया </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">शांत और मद्धिम पीला,</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">नमक बदल चुका शांत समंदर में </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">देह के पसीने ने एक मृदुल प्रेमी को सुला दिया, </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अपनी खट्टी गंध में,</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">खुरदुरी जगहें न मिट्टी हुईं </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">न झाड़ियों दीवारों में बदलीं </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अपने भीतर तरल और गुनगुनी </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">वासनाएं रक्खे, वे </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: large;">बहुत समय तक जस की तस रहीं.</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><u><span style="color: blue;">प्रिया मैं </span></u></span></b><b><o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तुम्हारे लिए कर्णफूलों का एक जोड़ा छांट रहा हूँ </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">ढेर सारे सुन्दर जोड़ों में से </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अपने एकांत को सजाना चाहता हूँ </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तुम्हारे सुन्दर पाँवों के लिए मोज़े </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">ताम्बई नेलपालिश, सुनहला इत्रदान </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अपने एकांत में रंग भरना चाहता हूँ ना !</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">इस पायल की रुनझुन गूंजती नहीं मेरे प्रदेश में </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कुछ है जो आवाजों और देखते रहने को सोख लेता है </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक कंघी और घुंघराले बालों के बीच </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तुम्हारे आदिम कबीले का चिन्ह बनाकर </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">प्रेमपत्र क्या भेजूंगा : अपने आप में बुदबुदा रहा हूँ.</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मुझे खाली शब्दों और चमकदार चीज़ों के बीच </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">निस्बत खोजने से ज्यादा आत्मीय कोई चीज़ चाहिए थी </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">इससे तो अच्छा होता कोई बेवजह </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: large;">मेरे हृदय को छेद देता.<o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><span style="color: blue; font-size: large;"><u>सुराख़</u></span></span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसी सुराख़ से समय मेरे कमरे में आता है </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">रात इसी रास्ते उतरता है अन्धकार </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कभी जो अपनी शकल देखनी हो चाँद को </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो फर्श पर खुदे </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसी गोल दरपन में देख पाता है</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">एकबार लेटे लेटे खिसककर </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मैंने उसे ठीक अपने दिल पर ले लिया </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अब याद नहीं ठीक से </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="font-size: large;">वो चांदनी थी, धूप थी, क्या थी</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यकीन मानिये साहब </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हमने चीज़ों के मायने बदल दिए. </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><o:p> </o:p> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><span style="color: blue;"><u>क़ासिद </u></span></span></b><b><o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कभी जो झूठ मिलाये बिन </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="font-size: large;">सुनाया हो पैगामे ज़ुबानी,</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">दस के दस क़ासिद </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">झूठ के सौदागर निकले </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इतने जाले बुन दिए हैं </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सालों ने, मेरे और तुम्हारे दरमियान </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कि इसे सचमुच की तलवार ही काट पायेगी </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कितना दिलचस्प होगा उसका चेहरा देखना </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जब नौ कासिदों की गर्दन उतार चुकी तलवार </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">दिखाके दसवें की रज़ा पूछी जायेगी </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वो फिर एक झूठ गढ़ेगा </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और थोड़ी देर को </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अपनी जान बचा लेगा.</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="color: blue; font-size: large;"><u><b><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तस्वीर</span></b> </u></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="color: blue; font-size: large;"><u><br /></u></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">माशूका की तस्वीर सिरहाने रख के सोया था </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काम पर देर हुई </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो तस्वीर को कहीं रखना था</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मेजपोश के नीचे </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="font-size: large;">या संभालकर कहीं और.<o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वो ख़ाब का तकिया हुआ </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिस तकिये के नीचे </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">रातभर जागी थी तस्वीर </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और रातों-रात सतरंगी हुए </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसमें भरे सफ़ेद पंख.</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: large;">जो हमेशा के लिए ठहर गया वहीं पर</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">एक इन्द्रधनुष, </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कभी बहुत उजाले में </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बेवजह हँसने लगता </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो बारिश से उसका रिश्ता जोड़ने वाले </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हैरान रह जाते, ऊपर देखकर </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आशिक : उदासी से मुस्कुराता.</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">रात इसी तकिये पर सोते </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसे माशूका के बालों की महक बेचैन कर देगी </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और दो बजकर तीस मिनट पर याद आयेगा </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कि सुबह कहाँ रखी थी तस्वीर.</span><span lang="HI"> </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><o:p> </o:p> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><o:p> </o:p><b><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><u><span style="color: blue;">वृक्ष देवता</span></u> </span></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अपने विशाल पंखों से हाँफते</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विचरो आकाश के हृदय में</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शाम ढले लौट आओ</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अंधेरे में खड़े खड़े रोने के लिये।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कलरव से / वीतराग / रहे आओ ।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><span style="color: blue; font-size: large;"><u>जल</u></span></span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सबसे ढंडे चुंबन में</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पथरा चुके हो जल !</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कंठ में उग आए </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कांटों पर</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जल तरंग बजाओ।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भले बाहर</span><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बादल राग गाओ।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="font-size: large;"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="font-size: large;">........</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="font-size: large;">sampark: 09425256497</span></span></div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-35780358042532413882015-03-02T16:41:00.000+05:302015-03-02T16:41:33.180+05:30रहे है खौफ मुझको वाँ की बे-नियाजी का <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इस बीच व्योमेश के निर्देशन में राम की शक्ति पूजा दिखी. आगरा की एक शाम की बात है. कथा याद होने से वो सारे भाव मन में पहले ही आ जा रहे थे जो मंच से उठ कर फैलने वाले होते थे. मसलन, अकेलेपन की स्मृति थी या अकेलेपन की कल्पना यह भेद मालूम नहीं पर एक दृश्य बेतरतीबी से मन में बैठ गया, जबकि मैं मित्रों के बीच था और शोर भी इतना था कि आप चाहे तो भी अकेले नहीं हो सकते.<br />
<br />
कथा यहाँ तक पहुँची थी जहाँ राम शक्ति को फूल चढ़ा रहे हैं. पार्श्व में 'शक्ति की करो मौलिक कल्पना' बज कर खत्म हुआ ही हुआ था. अब मैं सोचता हूँ कि व्योमेश ने जानबूझ कर ऐसा किया या अनायास ही पर पूजा करते करते मंच पर सिर्फ राम ही रह जाते हैं. यह एक मात्र दृश्य है जहाँ सिर्फ एक पात्र मंचस्थ है. मंच बहुत बड़ा था और बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि राम का आखिरी फूल खो गया है. राम बेचैन होते हैं. आखिरी फूल चाहिए और अब उन्हें स्मृति हो रही है कि माँ उनकी आँखो को 'कमल के फूल' सरीखे बताते रही हैं.<br />
<br />
आप, हम और सब को विदित है कि कथा क्या है. राम फूल न मिलने की दशा में अपनी आँख ही अर्पित करना चाहते हैं. फिर देवी आती हैं और फूल उन्हें लौटाती है. सुखांत है. मेरे लिए तो कई सुख थे. बृजराज, प्रेमशंकर और प्रियम अंकित से मिल रहा था, मेले में था और साथ ही बाल-हनुमान के रूप में साखी को देख कर मन प्रसन्न हो गया. इस उम्र के चश्में से नए बच्चों को देखना, गजब है. उसे बाल हनुमान के रूप में देख कर व्योमेश की एक कविता याद आई जिसमें नायक रामलीला देखने गया है और उसकी बेटी किसी एक दृश्य से डर गई है. <br />
<br />
बावजूद इसके, राम को मंच पर अकेला पाकर मैं घबरा गया था. कई सारे भय एक साथ आए. कहीं देवी ने आने में देर कर दी तो ? या कोई 'इम्प्रोवाईजेशन' न हो गया हो ? राम ने कटार निकाल ली थी और संगीत की धीमी लय से अपनी आँखो की तरफ ले जा रहे थे और इस द्र्श्य का कहीं कोई अंत दिख नहीं रहा था. मुझे बहुत बेचैनी हुई. कुछ देर बाद, मंच के पिछले हिस्से में परछाईं दिखी जो फिर शरीर में तब्दील हुई. देवी थी. राहत हुई. लगा कि, इस बार देर नहीं हुई है और राम अपनी आँख निकालने से बच जायेंगे.<br />
<br />
उस वक्त तो हड़बड़ी थी इसलिए राहत को ही महसूस कर पाया पर पिछले तीन दिनों से यह डर सता रहा है कि अगर देवी समय पर न आई होती तो मेरा क्या होता. यह जानते हुए भी कि कथा में विचलन की सम्भावना कम है, फिर भी मैं खुद को यकीन क्यों नहीं दिला पा रहा था कि यह महज एक दृश्य है, जिसे बीत जाना है.<br />
<br />
जीवन ऐसा क्यों होता जा रहा है ?<br />
<br />
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-33866350120082515942014-07-25T23:31:00.000+05:302014-07-26T11:44:14.023+05:30दो दिन और तीन एफ.आई.आर : एक वो हैं जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">22 जुलाई की 'निन्दनीय और दु:खद' घटना के बाद कृष्णमोहन की गिरफ्तारी हुई. एफ.आई.आर ( प्राथमिकी ) दर्ज हुआ. विधान सम्मत धारा 151 लगाई गई. शाम होते-न-होते उनकी जमानत और रिहाई हो गई.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">खिलाड़ी, दर्शक और खेल के नियंता पहले से तय थे लेकिन असल खेल इस रिहाई के बाद शुरु हुआ.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सिर्फ मीडिया ही नहीं प्रशासन भी कृष्णमोहन किरण प्रकरण में कृष्णमोहन से बेहद नाराज था और वह चुस्त और मुस्तैद प्रशासन न्याय का ऐसा पक्षधर निकला कि शाम साढ़े सात बजे पुलिस उनके घर फिर आ धमकी. इस बार पुलिस दल के अगुआ ने 'ऊपर' के दबाव की बात स्वीकारी और यह भी बताया कि दूसरा एफ.आई.आर दर्ज हुआ है. इस बार जो धाराएँ लगाई गई थी वे क्रमश: 107/16 और 151 हैं. चुस्त और मुस्तैद प्रशासन ने शाम साढ़े सात बजे कृष्णमोहन को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया. इस चुस्त और मुस्तैद प्रशासन ने सार्वकालिक महान मीडिया को यह नहीं बताया कि इस बार जो एफ.आई.आर दर्ज हुआ है, उसका आधार निरा काल्पनिक है. आधार यह था कि शाम को अपनी रिहाई के बाद दोनों पक्षों में पुन: मारपीट हुई है. जबकि सच यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था और मीडिया को न बताने के पीछे का राज भी यही कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. लेकिन चुस्त और मुस्तैद प्रशासन को अपने आकाओं का दिल भी रखना था जिन आकाओं का दिल और दिमाग ईलाहाबाद और लखनऊ से संचालित हो रहा था.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जबकि 151 के मसले में गिरफ्तारी भी नहीं हो सकती, यह सुप्रीम कोर्ट तक कह चुका है. फिर भी उस रात चुस्त और मुस्तैद प्रशासन ने कृष्णमोहन को जेलखाने में डाल दिया. चुस्त और मुस्तैद प्रशासन निश्चिंत था कि अगले दिन ये जमानत नहीं ले पायेंगे और उसके आगे तीन दिनों की छुट्टी है. जो समूह कृष्णमोहन के पीछे लगा है, उसका उद्देशय पूरा होता दिख रहा था. उद्देशय संख्या 1: कृष्णमोहन को विश्वविद्यालय से निलम्बित कराना. ऐसा हो गया होता अगर वो अड़तालीस घंटे कैद में रह गए होते.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">चुस्त और मुस्तैद प्रशासन को बड़ा सदमा पहुँचा जब उन्हें लगा कि जमानत मिल सकती है. जमानत मिल जाने की सम्भावना प्रशासन पक्ष और विपक्ष के लिए ऐसी विस्मयकारी थी कि उन लोगों ने कृष्णमोहन पक्ष के वकीलों से हाथापाई तक की नौबत खड़ी कर दी थी. किसी तरह जमानत हुई, दिन के दो बजे. आदेश जिला जेल तक पहुँचा.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस बीच लखनऊ और इलाहाबाद फिर सक्रिय हुए और आनन फानन में चुस्त और मुस्तैद प्रशासन ने तीन ऐसी धाराओं में मुकदमा दर्ज किया जिनमें रिहाई की सम्भावनाएँ शून्य हैं या उससे भी कम. वे धाराएँ हैं : 494, 498 (A) तथा 506. ज्यादातर 'शोरबाज' बुद्धिजीवियों, जिन्होने अपने घर आँगन में गाली गलौज करना ही सीखा है, के लिए ये सब एक संख्याँ भर है. उनका इनदिनों मीडिया पर अथाह और अगाध विश्वास उमड़ आया है. वो निर्भया केस का उदाहरण दे रहे हैं, कह रहे हैं कि आखिर इसी मीडिया ने उस केस को 'कवर' किया. उन्हें यह कोई न समझाए कि निर्भया जैसे मामले मीडिया के 'मैनुपुलेशन' से बाहर हो जाते हैं. मीडिया चाहकर भी इन खबरों से छेड़छाड़ नहीं कर सकता. लेकिन जहाँ मीडिया का बस चलता है, वहाँ मीडिया क्या करता है, ये कोई उनसे पूछे जो इसके शिकार हैं. कोई छत्तीसगढ़ की मीडिया से पूछे कि बिनायक सेन और साथियों के साथ उसने क्या किया था. </span><br />
<span style="font-size: large;">( http://nayibaat.blogspot.in/2010/12/blog-post_30.html )</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">चुस्त और मुस्तैद प्रशासन का दुर्भाग्य यह कि वो कभी सच में चुस्त रहे ही नहीं. वजह कि जब तक इन तीन नई धाराओं वाला मामला जेलअधिकारी तक पहुँचा, वो दूसरे केस में कोर्ट के आदेश पाकर कृष्णमोहन को रिहा कर चुका था.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कुछ लोग अपने गुस्से और चालाकी के घोल में यह कहते हुए पाए गए हैं - वे लोग कृष्णमोहन को इतना मजबूर कर देंगे कि KrishnaMohan आत्महत्या कर लेगा ! जी हाँ. यह तथ्य है. </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">दूसरी तरफ मेरे कुछ मित्र मुझे इस बात की सलाह दे रहे हैं कि मैं इस मुद्दे पर कुछ न लिखूँ. क्योंकि इस मुद्दे पर कृष्णमोहन का पक्ष रखना भी 'पोलिटकली इनकरेक्ट' होना है. वो मेरे शुभचिंतक हैं जो कह रहे हैं कि इससे मेरा लेखक - जीवन खराब हो सकता है. वे मित्र उन लोगों की दुहाई दे रहे हैं जो चुप हैं. मेरे मना करने के बावजूद मुझे वो सब उल्टा सीधा सुना रहे हैं जो मेरे बारे में कहा जा रहा है और फेसबुक आदि पर लिखा जा रहा है. और मैं मजाक करते हुए इनसे कहता हूँ कि ये तो अच्छा है जो कुछ लोग मेरी बातों के सहारे अपना दिन यापन कर रहे हैं पर सच में इनकी बातें सुनते हुए इतना भर सोच पा रहा हूँ कि क्या ये लोग सचमुच में मेरे मित्र हैं ? क्या सच का दामन हम इस डर से छोड़ दें क्योंकि कुछ लोग हमारी खिलाफत करते हैं ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह तो नहीं होने जा रहा है.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अगर मेरा लेखन डिजर्व करता होगा तो समय उस पर फैसले देगा. लेकिन भविष्य में भी मैं मीडिया या पोलिटिकल करेक्टनेस से डरकर नहीं लिखने जा रहा. मैं सच के साथ रहूँगा. </span></div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-70297699037136982522014-07-23T13:58:00.000+05:302014-07-23T20:18:34.292+05:30मीडिया के शिकार होते जा रहे डॉ. कृष्णमोहन के मामले का सच <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">डॉ. कृष्णमोहन और किरण का मुद्दा स्त्री-पुरुष के साथ दो इंसानों का भी है. सीमित समझ की पतित मीडिया ने इसे पीड़ित स्त्री बनाम प्रताड़क पुरुष बना दिया है. यहाँ तक कि प्रशासन भी मक्कार मीडिया के दबाव में कार्र्वाई करने की बात, अप्रत्यक्ष तौर पर, स्वीकार रहा है. इससे शायद ही किसी को गुरेज होगा कि सबको न्याय मिले पर ऐसा भी क्या भय खाना कि आप दूसरे की गर्दन देकर अपनी गर्दन बचाएँ.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि सच सामने हो.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह बात दुहरा देना चाहता हूँ ( ताकि लोग "कौआ कान ले के भागा" वाले अन्दाज में हमला न करें ) कि किसी भी मामले में न्याय ही अंतिम पैमाना होना चाहिए और हम सब उसकी तरफ हैं जो निर्दोष है पर इसका क्या अर्थ कि हम मामले को जाने भी नहीं ? तो आखिर यह फैसला कैसे होगा कि कौन निर्दोष है और कौन दोषी ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मामला यह है कि इनके बीच अलगाव/ तलाक से सम्बन्धित मुकद्मा न्यायालय में है. किरण घोषित तौर Krishna Mohan से अलग रहती है. इस बाबत उनके बीच समझौता भी हुआ था कि तलाक होने तक वो दोनों अलग रहेंगे. एक निश्चित माहवार भत्ता भी तय हुआ था. कोई भी यह समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि जब अलग रहना तय हुआ है तो क्यों किरण बार बार घर में प्रवेश करने की जुगत लगाती रहती हैं ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह कई मर्तबा हो चुका है जब किरण ने मीडिया के सह-प्रायोजन में कृष्णमोहन के घर के सामने धरना प्रदर्शन या घर में भीतर जाने की कोशिश की हैं. ध्यान रहे कि मामला जब अदालत में है तो मेरी समझ के बाहर यह है कि जबरिया घर में घुसने की कोशिश को क्या कहा जाए ? अगर कोई 'हिडेन अजेंडा' न होता तो किरण को मीडिया और पुलिस के लाव-लश्कर के साथ घर में घुसने की कोशिश का कोई मतलब नहीं था. कायदे से उन्हें न्यायालय के निर्णय का इंतजार करना चाहिए. सस्ते सिनेमा के अलावा यह कहीं भी सम्भव नहीं दिखता कि तलाक की अर्जी भी पड़ी रहे और साथ साथ रहा भी जाए. यह भी ध्यातव्य हो कि किरण अपना सारा सामान घर से लेकर बहुत समय पहले ही जा चुकी हैं. अगर उन्हें कोई सुबहा है तो उन्हें पुलिस में शिकायत दर्ज करानी चाहिए. लोमड़ी मीडिया को थानेदार बनाने का शगल गलत है.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मानवाधिकार व्यक्ति के, भी, होते हैं, सिर्फ समूह के ही नहीं.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">घर से अलग रहने का निर्णय लेने के बाद, अदालत की कार्र्वाई के दरमियान, घर में घुसने की कोशिश क्या इस कदर निर्दोष है ? वो भी तब जब आप पहले से ही अलग रह रहें हों. या क्या भारतीय व्यव्स्था ने ठान लिया है कि दो ही छोर पर रहना नसीब है, एक छोर जिसमें आप स्त्री को इंसान भी न समझे और दूसरा छोर यह कि स्त्री होना ही निर्दोष होने की निशानी हो.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिस वीडियो का हवाला मन्द-बुद्धिजीवी, मीडिया और साथी, दे रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि आखिर उस विडियो में कृष्णमोहन के कपड़े फटे हुए हैं. और कोई भी समझ सकता है कि वह वीडियो घर में घुसने की जिद और न घुसने देने की जद्दोजहद की है. यह सारा मामला उन्हें उकसाने के लिए प्रायोजित किया गया था. आखिर वही मीडिया इस बात का जबाव क्यों नहीं देता कि जब अलग रहना तय हुआ था तो किरण वहाँ क्या कर रही थीं ? अगर उन्हें शक था तो क्या उन्हें कानूनी मदद नहीं लेनी चाहिए थी ? घर में घुसकर तमाशा करना भी एक नीयत हो सकती है. वरना जहाँ प्रेम विवाह रहा हो, वहाँ ब्याह के इतने वर्षों बाद दहेज उत्पीड़न के तहत मामला दर्ज करना साफ नीयत का मामला नहीं है.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">उस वीडियो को बनाने वालों से यह क्यों न पूछा जाए कि जिस स्त्री के पक्ष में तुम वीडियो उतार रहे हो, अगर - तुम्हारे अनुसार - उस पर जुल्म हो रहा था तो तुम कैमरा पकड़ने की बजाय उस स्त्री को बचा भी तो सकते थे.</span><br />
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;">अभी जो आतंकवादी मीडिया को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं उन्हें ध्यान देना चाहिए कि पिछले दिनों इस मीडिया ने खुर्शीद अनवर का क्या किया. बाजार की पतलून के पिछले हिस्से से गिरा यह मीडिया स्त्री-पुरुष मामलों में इतना एकतरफा होता है कि इसके सामने आप अपनी बात भी नहीं रख सकते.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैं इन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ. अपनी इस उम्र तक मैं जितने भी लोगों से मिला हूँ उसमें शायद ही कोई मिला हो जो कृष्णमोहन के स्तर का हो. गज़ब के इंसान हैं. मैने देखा है कि इंसान तो इंसान अपने कुत्ते की मामूली बीमारी तक में वे अन्दर से परेशान हो उठते हैं. घर के सभी सदस्यों का ख्याल रखना कोई उनसे सीखे. ऐसे में टुकड़े टुकड़े खबरों से किसी को परेशान किया जाता हुआ देखना दु:खद है.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और इतनी तो इल्तिजा कर सकता हूँ कि पुलिस अपनी किसी भी कार्र्वाई में मीडिया के दबाव को कारण न बनाए.</span><br />
<br /></div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-37257258961603961412014-05-23T10:21:00.000+05:302014-05-23T10:21:12.203+05:30रविशंकर उपाध्याय: वह नायक की तरह जिया और कवि की तरह मरा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzjAHXEj5v3cra1QQ9ssmqHe7yRMZodbfXFruDaKzaRdca_Iq4j7IOSgKGPaJSicMtICUlFd2mNAsnAMhUubaFxp47pQ6h6YwjzvTRHDW1rLgr2vAQs16qkeCG_NmWjTxte2YziQbEGZBE/s1600/ravishankar.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzjAHXEj5v3cra1QQ9ssmqHe7yRMZodbfXFruDaKzaRdca_Iq4j7IOSgKGPaJSicMtICUlFd2mNAsnAMhUubaFxp47pQ6h6YwjzvTRHDW1rLgr2vAQs16qkeCG_NmWjTxte2YziQbEGZBE/s1600/ravishankar.jpg" height="320" width="320" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
इनदिनों परिचितों की मृत्यु अखबार हो गई है. कभी रोज चली आती है तो कभी पाक्षिक या मासिक. साहित्य जगत में प्रवेश से जो दायरे बढ़े उनमें इसका अन्दाजा न था कि जितने अधिक लोगों को जानना होगा, उतनी ही दफा मृत्यु की दु:खद खबर से गुजरना होगा. और सच कहूँ तो डर लगता है. लगता है, अगली रशीद अपनी तो नहीं ! इनमें कई ऐसे देशी विदेशी लेखक भी हैं जिनसे कोई परिचय/बात सम्भव भी नहीं पर, मुरीद होने के नाते, उनकी मौत की खबरें भी वैसा ही दु:ख देती हैं जैसे किसी परिचित की...<br />
<br />
रविशंकर का जाना दु:खद के साथ डरावना भी है. मतलब 'शॉक' की स्थिति है. जैसे अब भी मन में एक आवाज उछल रही हो कि तय तो यह नहीं हुआ था. मृत्यु आग की तरह चोर है. सब खत्म कर दे, ऐसा.<br />
<br />
उसके कवि रूप से परिचय कम और देरी का है पर वो गजब का 'ऑर्गेनाईजर' था.<br />
<br />
कविता सम्बन्धित दो बड़े आयोजन तो प्रचलित होने के नाते लोगों के जेहन में हैं. चार वर्ष पहले का एक वाकया मेरी स्मृति में है: कृष्णमोहन और मैं मधुबन ( बी.एच.यू ) में थे तभी कहीं से रविशंकर आता दिखा. बातचीत के दौरान भाई ने बताया कि वो समीक्षा पर कोई सेमिनार या कार्यशाला का आयोजन कराना चाहता है. यह बात महज दिल्लगी के लिए नहीं कही गई थी. भाई ने तुरंत रजिस्टर निकाला जिसमें कार्यक्रम की रूपरेखा थी, उन किताबों के नाम थे जो इस समीक्षा कार्यशाला का आधार बनने वाले थे. उस वक्त की स्मृति ऐसी नहीं कि सम्वाद भी याद रहें पर साहित्य क्षेत्र पहली बार ऐसा कमिटेड बन्दा देख रहा था. अपनी जो दुनिया है उसमें खुद से 'इनिशियेटिव' लेने वालों की इतनी पूछ है, इतना मान है कि क्या कहिए ! <br />
<br />
( यह इत्तेफाक की हद है कि जो, मैं, कई बड़े मौकों पर बनारस नहीं पहुँच पाया वो दिसम्बर 2011 में जब बनारस पहुँचा तो मालूम पड़ा, आज उस कार्यशाला का समापन है. मैं घूमते-घामते वहाँ पहुँच गया ).<br />
<br />
हो सकता है यह सही मौका न हो पर आयोजन का जिक्र मैं इसलिए भी करना चाहता हूँ कि जितनी भी मेरी दुनिया है,उसमें मैने पाया है, आयोजनकर्ता या जिम्मेदारी उठाने वाले अक्सर किसी मुकाम पर अकेले छूट जाते हैं. बाहर से चाहें जैसे भी दिखतें हो लेकिन अन्दर ही अन्दर हम गुमसुम होते जाते हैं. वजह है. वजह यह है कि बड़ी जिम्मेदारियों में रोजाना के दोस्तों मित्रों अभिभावकों का भी सच हमारे सामने खुलता है, मसलन, हम सबसे मदद की अपेक्षा करते हैं. आर्थिक, शारीरिक, सामयिक, तमाम. और यह सच है कि यही मौका होता है जब वह ( आयोजनकर्ता ) लोगों के दो या तीन आयामों से परिचित होता है. हो सकता है, दोनों चेहरे सकारात्मक हो ( मैं किसी सस्ते निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहता ). क्योंकि कार्यक्रम में सबसे महत्वपूर्ण होता है - निर्धारित समय. वो हमें बाँध देता है. कार्यक्रम से पहले हम मरे जाते हैं कि कैसे तो सब निबटे और कार्यक्रम के बाद - वह भयावह खालीपन !
<br />
<br />
ऐसा होता है कि आयोजनों में सफलताएँ सामूहिक मान ली जाती हैं और असफलताएँ जैसे आर्थिक कर्ज, अथिति का न आना, कुछ गलत हो जाना आदि कई मर्तबा व्यक्ति पर थोप दी जाती हैं. मैं तहे-दिल से यह मानना चाहता हूँ कि रविशंकर के सारे अनुभव अच्छे रहे होंगे. मगर ऐसा होता है-यह सच है.<br />
<br />
दो वर्ष पहले भी जब वाशरूम में गिर गया था, तब ही यह खबर आई थी कि भाई के मस्तिष्क में कुछ गम्भीर दिक्कत है. इलाज भी चला. या 'शायद' चला. किताबों के शौक और अनेक जिम्मेदारियों में यह इलाज कितना निभ पाया होगा, इसका अनुमान मुझे नहीं है.<br />
<br />
मित्रों से मालूम पड़ा कि कुछ दिनों पहले ही पी.एच.डी जमा की थी. भाई का स्वप्नशील और अनेक सुन्दर व्यक्तिगत जीवन भी रहा होगा, जो इस दुनिया की तरह अधूरा ही रहा गया.<br />
<br />
रविशंकर के चाहने वाले बहुत थे / हैं. यह उसके जीवन काल में भी देखा जा सकता था और अब, जब वह खुद नहीं है, तब भी. लोगों को ऐसे रोते हुए देखा-सुना तब ताज्जुब हुआ कि एक आदमी, जो रिश्तों की दायरे में भी न हो, कितना करीब हो सकता है. ऐसे जैसे वह आदमी एक जज्बा था.<br />
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.......................... <br />
<br />
( शीर्षक मारीना त्स्वेतायेवा के एक आलेख से, जो उन्होने मायकोवेस्की के न रहने पर लिखा था )</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-9920466303211970662014-05-19T10:31:00.000+05:302014-05-19T10:32:49.924+05:30अच्छे दिन - 1: नमो ब्रिगेड ने यू.आर.अनंतमूर्ति को कराची तक का हवाई टिकट भेजा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-5WtVViH2CGM/U3mNjH3rf0I/AAAAAAAAAf4/SVTLT5ydolM/s1600/ananthamurthy-630.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-5WtVViH2CGM/U3mNjH3rf0I/AAAAAAAAAf4/SVTLT5ydolM/s1600/ananthamurthy-630.jpg" height="213" width="320" /></a></div>
<br />
उपर: यू. आर. अन्नतमूर्ति ( यस डियर, यू रियली आर अन्नंतमूर्ति ! )<br />
<br />
नीचे: नमोब्रिगेड की मंगलौर शाखा की वो "आम जनता", जिसने टिकटादि का इंतजाम किया.<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-hubtP6kqvwg/U3mP7urxUcI/AAAAAAAAAgE/R5LyKchMntw/s1600/namobrigade.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-hubtP6kqvwg/U3mP7urxUcI/AAAAAAAAAgE/R5LyKchMntw/s1600/namobrigade.jpg" height="240" width="320" /></a></div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-6001220345098802512014-05-05T21:44:00.000+05:302014-05-05T21:44:00.816+05:30सनद - 2: तो क्या भारत पर विजय पाने में भाजपा कामयाब हो पायेगी ? ( सन्दर्भ: भारत विजय रैली ) <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 18px;">बीजेपी आज गया में भारत विजय रैली कर रहीे थी।इतिहास में किसी भारतीय समूह द्वारा भारत विजय का उदाहरण नहीं मिलता।यह अभियान हमेशा विदेशी हमलावरों के जिम्मे होता था।लेकिन बीजेपी आरएसएस के सर तो भारत को हड़पने का नशा चढ़ा हुआ है।उनको भला अपने देश को रौंदने की भाषा से क्या तकलीफ हो सकती है।उनका एक नेता है जो मेंढक की तरह गला फुलाकर जगह जगह टर्रा रहा है और उसके सामने चीखती चिल्लाती और सीटी बजाती लफंगों की भीड़ है।पूरी दुनिया को जान लेना चाहिए कि हेडगेवार और गोलवलकर की परंपरा की असलियत क्या है।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 18px;"><br /></span>
<span style="color: #37404e; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><span style="background-color: white; font-size: 12.727272033691406px; line-height: 18px;">( कृष्णमोहन )</span></span></div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-17830674797973183172014-05-04T10:18:00.001+05:302014-05-04T10:20:40.089+05:30सनद - 1 : मर्दवादी मुहावरों की प्रासंगिकता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 18px;">सलमान खुर्शीद ने मोदी को 2002 के क़त्लेआम को न रोक पाने के लिए नपुंसक कहा जिस पर आज न्यूज़ चैनलों पर घमासान छिड़ा हुआ है। राजनीती में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल गलत है क्योंकि इससे मुद्दे पीछे चले जाते हैं और व्यर्थ की बहसें शुरू हो जाती हैं।बहरहाल अगर कोशिश करें तो इस बात से भी वास्तविक मुद्दों तक पहुंचा जा सकता है।अधिक दिन नहीं हुए जब मोदी ने यूपी को गुजरा</span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 18px;">त बनाने के लिए 56 इंच के <span style="font-size: 12.800000190734863px;">सीने की ज़रुरत पर बल दिया था।भाषा में छिपे मर्दवादी स्वर पर ध्यान दें।इस मुहावरे में स्त्रिओं के लिए उतनी ही भूमिका है जितनी कि RSS के किसी अन्य एजेंडे में हो सकती है। गुजरात बनाना मर्दानगी का काम है । अब अगर सचमुच बात किसी आर्थिक विकास की हो रही होती तो ऐसे किसी मुहावरे की ज़रूरत ही न पड़ती। परंपरागत रूप से हम जानते हैं कि ऐसी मर्दानगी का इस्तेमाल करने की डींग उन्ही किस्म के कामों के लिए हांकी जाती है जिनके चलते 2002 का गुजरात नेकनाम रहा है। इस सन्दर्भ में देखें तो खुर्शीद ने मोदी को इसी मर्दानगी के दावे पर खीज भरी चुनौती देने की कोशिश की है।दोनों की मानसिकता स्त्रीविरोधी और अलोकतांत्रिक है।यहीं से हमारे समाज की वास्तविक मुश्किल की शुरुआत होती है।</span></span><br />
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 18px;"><br /></span>
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 18px;">इस मामले में अन्य पार्टिओं की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। आम आदमी पार्टी ने तो अपने नाम से ही स्त्रिओं का बहिष्कार कर रखा है। उनके लिए किसी महिला के सम्मान और गरिमा का मुद्दा मायने नहीं रखता। इस बाबत सवाल उठने पर वे भी सड़कछाप शोहदों के अंदाज़ में उन्हें चरित्रहीन वगैरह बताने लगते हैं। वामपन्थी भी जब सत्ता में होते हैं तो टाटा जैसों के लिए अपनी जनता पर;विशेषकर स्त्रिओं पर वैसे ही ज़ुल्म ढाने में नहीं हिचकते जिसके लिए वे सामंती पूंजीवादी शक्तिओं को कोसते रहते हैं।सत्ता से हटने के बाद महिला मुख्यमंत्री के खिलाफ उनके नेताओं की जुबान भी मर्दवादी चाशनी में लिथड़ कर ही चलती है।क्या लोकतंत्र का एक और त्यौहार भी महज़ तमाशा बनकर गुज़र जायेगा ? लोकतंत्र के वास्तविक मुद्दों पर बहस करने के लिए हम अपने नेताओं को बाध्य कर सकेंगे या टीवी पर होने वाली जुगाली से तृप्त हो जाना ही हमारी नियति है?</span><br />
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 18px;"><br /></span>
<span style="color: #37404e; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><span style="background-color: white; font-size: 12.727272033691406px; line-height: 18px;">( क़ृष्णमोहन )</span></span></div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-9844310633578193862014-04-30T08:54:00.001+05:302014-04-30T08:54:04.399+05:30जिनके मुँह में कौर माँस का, उनको 'बनारसी' पान ? <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-JWGBRh2PIlM/U2Br1sDNMsI/AAAAAAAAAfQ/JKWYB9Umqnk/s1600/kejriwal-ajay-rai-modi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-JWGBRh2PIlM/U2Br1sDNMsI/AAAAAAAAAfQ/JKWYB9Umqnk/s1600/kejriwal-ajay-rai-modi.jpg" height="221" width="320" /></a></div>
<br />
सुप्रसिद्ध काव्यपंक्ति "जिनके मुँह में कौर माँस का उनको मगही पान" के साथ जरा मौजूँ खिलवाड़. इस प्रश्न के वस्तुनिष्ठ उत्तर की प्रतीक्षा में. हाँ या ना. </div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-10241640678898467822014-04-29T14:24:00.000+05:302014-04-29T14:24:03.025+05:30इन दिनों की मुश्किल <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-Z0Xt5O4hJJY/U19oVMjhU8I/AAAAAAAAAfA/Lg8Dvj2wCPU/s1600/back+space.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-Z0Xt5O4hJJY/U19oVMjhU8I/AAAAAAAAAfA/Lg8Dvj2wCPU/s1600/back+space.jpg" /></a></div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-58095446454588617462014-04-14T16:08:00.002+05:302014-04-14T16:17:45.790+05:30इस महीने की किताब: अजाने मेलों में <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-wFcQLOoMyIU/U0u30geBouI/AAAAAAAAAeg/7VxO8OyBiOQ/s1600/ajane+melon+mein+dump.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-wFcQLOoMyIU/U0u30geBouI/AAAAAAAAAeg/7VxO8OyBiOQ/s1600/ajane+melon+mein+dump.jpg" height="240" width="320" /></a></div>
<br />
<div>
<br /></div>
<div>
प्रमोद जी की भाषा में कहें या यों कह लें कि कहने की कोशिश करे तो बात कुछ यों होगी: <i>कईसे एगो मुहाविरा जीवन में सच होते दिखता है एक्कर निमन नमूना है परमोद जी की किताब. मुहावरा ई है कि बटुली के एगो चावल टोअल जाला. एक्दम्म से अईसे ही</i>..... प्रमोद जी की एक ही कहानी हंस में पढ़ी थी और मुरीद हो गया. <span style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial;">तभी से इनकी एकाधिक कहानियाँ या संकलित कथेतर गद्य पढ़ने का इंतजार था. </span>बाद में उसी कहानी का जिक्र बेहद आदरणीय ( उनका ज्ञान तो इतना है कि उन्हें प्रात: स्मरणीय भी कहें तो अतिशयोक्ति न हो ) श्री वागीश शुक्ल ने किया. उसी प्रमोद जी की किताब अजाने मेलों में को "हिन्दी युग्म" ने प्रकाशित किया है. </div>
<div>
<br /></div>
<div>
इस किताब की मेरी प्रति, दुआ की तरह, रास्ते में है. <a href="http://www.homeshop18.com/ajane-melon-mein/author:pramod-singh/isbn:9789381394809/books/reference/product:31635665/cid:10941/">मार्फत होम शॉप 18</a>. </div>
</div>
चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-33389377250316653612014-03-17T11:27:00.002+05:302014-03-17T11:29:10.951+05:30आधुनिक 'विकास' नसबन्दी कार्यक्रम की तरह हो गया है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/03/140316_modi_kejriwal_varanasi_analysis_vr.shtml<br />
<br />
मैं उम्मीद करता हूँ कि उपर के लिंक में जो बातें काशीनाथ सिंह के नाम से छपी हैं वो, काश, उनकी बातें न हों.<br />
<br />
सड़कछाप विकास ( जिसमें सड़के और इमारतें बनाना भर ही शामिल हो, शिक्षा, गरीबी या अन्य जरूरी मुद्दे नहीं ) हर जगह हो रहा है. यह नसबन्दी कार्यक्रम की तरह जबरा हो गया है. इसके तर्क इतने तगड़े और लूट इतनी शानदार हैं लोग चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर पा रहे. जहाँ कुछ् भी नहीं हैं वहाँ भी विकास के नाम पर सड़के हैं. सड़के विकास का पैमाना कब से हो गईं इसकी जाँच होनी चाहिए. आज अगर कॉर्पोरेट्स का मुनाफा इस इंफ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री में कम हो जाए तो ये सारे 'विकास' झटके में बन्द हो जायेंगे. जिन्हें लगता है कि सरकारें इस सड़कछाप विकास की कर्ता धर्ता हैं उनकी मृत समझ के लिए मेरी ओर से दो फूल रखें. कनेर के फूल. <br />
<br />
नरेन्द्र का बनारसी संकल्पना से अरसा पहले बनारस के प्रशासन ने जो सड़्क चौड़ीकरण और अन्य अभियानों में जो मुस्तैदी दिखाई है वह मैं समझता हूँ पर्याप्त है और काबिल-ए-तारीफ भी. बनारस हो या कटक, इन बेहद पुराने शहरों की अपनी काबिलियत और अपनी मुश्किलें है. <br />
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परंतु बी.बी.सी-हिन्दी ( website ) की इस छिछोर रिपोर्ट की माने तो शायद अब नरेन्द्र बनारसी गलियों को ही नेस्तनाबूद कर बनारस का विकास करेंगे. हो सकता है, गंगा के किनारे को, घनी और आबाद आबादी से खाली कराकर वहाँ, अहमदाबाद की मरती हुई साबरमती के किनारे शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की तर्ज पर, विकास कराने की उम्मीद वरिष्ठ रचनाकार काशीनाथ सिंह ने लगा रखी हो.<br />
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यह सबको मालूम होना चाहिए कि शहर का विकास नगर निगम या पालिका के हाथों होता है. <br />
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रही पहचान की बात तो यह सबको समझ लेना चाहिए कि नरेन्द्र तो फिर नरेन्द्र हैं, खुद ओबामा भी बनारस से चुनाव लड़े तो इससे उनकी ही पहचान पुख्ता होगी. बनारस की पहचान जिन पैमानों पर बननी बिगड़नी है, वो सौभाग्य से 'राजनीति' नहीं है.<br />
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जिसे भी शहर से प्यार है उसे मुख्तार अंसारी या उसके समकक्ष नरेन्द्र मोदी जैसों के झाँसे में नहीं आना चाहिए.<br />
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चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-32356267773659391332014-03-16T09:34:00.000+05:302014-03-16T09:36:58.257+05:30नरेन्द्र मोदी बनारस पर आरोप की तरह लगे हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बनारस, स्वप्न द्वारा यथार्थ को लिखा हुआ प्रेमपत्र है. मुचड़ा हुआ, उनींदा, गुम हुआ चाहता हुआ प्रेमपत्र. तारीख ने, बनारस की मर्जी के बगैर, फिर से उसे खोज निकाला है.<br />
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नरेन्द्र मोदी बनारस पर आरोप की तरह लगे हैं. लोग (कुछ लोग ) ऐसे मतवाले हुए जा रहे हैं कि मोदी के बजाय बनारसियों को बधाई दे रहे हैं. ऐसे अन्दाज में कि मानो कह रहे हों, बहुत बनारस बनारस किए रहते थे, लग गए न किनारे ? रविवार की सूनी सुबह, दो बधाई सन्देशों के बाद मैं जब खुद को शर्मिन्दा और निरुत्तर पा रहा हूँ तो एक ख्याल यह भी आ रहा है कि बनारस को कैसा लग रहा होगा ?<br />
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गनीमत है कि यह अभी आरोप है. कलंक नहीं. किसी न किसी नगर को यह जहर पीना था इसलिए भी शायद बनारस ने खुद को आगे किया हो. बनारस का समय अगर शरीर धर ले तो शर्तिया चुनाव का दिन उस शरीर का कंठ बनेगा. बनारस ने सबक सिखा दिया तो वह दिन नए जमाने का नीलकंठ कहा जायेगा. लोग ( कुछ ) नीलकंठ को समय की संज्ञा सरीखे याद रखेंगे.<br />
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चुनाव के समय तक, तीस हजार करोड़ के अनुमानित चुनावी खर्चे ( व्यवसाय ) पर नजर टिकाए <strike>शिकारी कुत्तों</strike> ( सम्पादित, कृपया इसे पढ़े - नजर टिकाए मीडिया कॉर्पोरेट्स ) ने अगर अरविन्द केजरीवाल की असामयिक सामाजिक हत्या न कर दी तो वो, अपनी सीमाओं के बावुजूद, नरेन्द्र से बेहतर विकल्प हैं. <br />
<br />
तस्वीर नाग नथैया की है. बनारस के प्रमुख उत्सवों में से एक यह, कृष्णलीला का एक अंश है, जिसे हर वर्ष मनाया जाता है.<br />
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<a href="http://1.bp.blogspot.com/-Ed5_1QqI9vg/UyUhxwRE_2I/AAAAAAAAAdg/XidxTQrCyeY/s1600/nag+nathaiya+1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-Ed5_1QqI9vg/UyUhxwRE_2I/AAAAAAAAAdg/XidxTQrCyeY/s1600/nag+nathaiya+1.jpg" /></a></div>
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चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-2828598581662518679.post-29119854898683029242014-01-22T12:19:00.001+05:302014-01-22T12:19:23.961+05:30मेक्सिको सिटी के कोने - अँतरे. <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-8wAfkrOPKdI/Ut9ol41PrOI/AAAAAAAAAa8/hfswXsXj4Xc/s1600/Cycling.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-8wAfkrOPKdI/Ut9ol41PrOI/AAAAAAAAAa8/hfswXsXj4Xc/s1600/Cycling.jpg" height="240" width="320" /></a></div>
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<a href="http://2.bp.blogspot.com/-WMvgJ2U3H3I/Ut9ow5co9_I/AAAAAAAAAbE/HGtp12blYik/s1600/Monumento+De+la+Revolucion.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-WMvgJ2U3H3I/Ut9ow5co9_I/AAAAAAAAAbE/HGtp12blYik/s1600/Monumento+De+la+Revolucion.jpg" height="320" width="240" /></a></div>
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<a href="http://2.bp.blogspot.com/-tSEMPiKwfOo/Ut9o3k7UDfI/AAAAAAAAAbM/a7GUiORE6kw/s1600/Revolution+Pictographic.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-tSEMPiKwfOo/Ut9o3k7UDfI/AAAAAAAAAbM/a7GUiORE6kw/s1600/Revolution+Pictographic.jpg" height="320" width="240" /></a></div>
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-XwsAiptgRIs/Ut9o7oXGaII/AAAAAAAAAbU/JURbUijy81g/s1600/Templo+Mayor+1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-XwsAiptgRIs/Ut9o7oXGaII/AAAAAAAAAbU/JURbUijy81g/s1600/Templo+Mayor+1.jpg" height="240" width="320" /></a></div>
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-uO7F-on-3Qo/Ut9pLS9lzvI/AAAAAAAAAbc/qkJH_wlIKjg/s1600/Templo+Mayor+2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-uO7F-on-3Qo/Ut9pLS9lzvI/AAAAAAAAAbc/qkJH_wlIKjg/s1600/Templo+Mayor+2.jpg" height="240" width="320" /></a></div>
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<a href="http://1.bp.blogspot.com/-OQ8AHv5xEoY/Ut9pN2aZ0GI/AAAAAAAAAbk/NL3vVMoZZsI/s1600/Zocalo.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-OQ8AHv5xEoY/Ut9pN2aZ0GI/AAAAAAAAAbk/NL3vVMoZZsI/s1600/Zocalo.jpg" height="240" width="320" /></a></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अगले दो दिन, यानी शनि और रविवार हमने मेक्सिको सिटी की ज्यादातर
महत्वपूर्ण चीजें-जगहें देख लेने में खर्च किये. ऐसा इसलिए भी था की हम जल्द से
जल्द ‘मेक्सिको सिटी’ के दायरे से बाहर निकल इकतीस प्रान्तों में बंटे असल
‘मेक्सिको’ से भी मिलना चाहते थे, जो दूर दराज तक छोटे शहरों, कस्बों व गावों के
रूप में फैला पड़ा है. मैक्सिको सिटी का क्षेत्रफल लगभग दिल्ली के ही बराबर ठहरता
है, और इसे भी एक राज्य का दर्जा प्राप्त है, जिसे ‘दिस्त्रितो फेदेराल दे
मेक्सिको’ अथवा ‘सिउदाद दे मेक्सिको (मेक्सिको सिटी)’ के नाम से जानते हैं. यूं,
इस शहर को घूमने के लिए हमने यात्री बस से लेकर मेट्रो, टैक्सी, साइकिल तथा ढेर
सारी पदयात्रा तक का सहारा लिया. लेकिन ख़ास तौर पर साइकिल का. जैसा कि मैं पहले भी
जिक्र कर चुका हूँ, विकसित से लेकर भारत जैसे छद्म विकसित देशों तक के बड़े शहरों
में, जबकि यात्रा का पारंपरिक साधन ‘साइकिल’ लुप्तप्राय है और चार, आठ और सोलह लेन
की चमचमाती सड़कों के खुमार में मशगूल सरकारें साइकिल सवारों को तीन फीट चौड़ी पट्टी
तक दे पाने में आना-कानी किये जा रही हैं, मेक्सिको सिटी इस मामले में एक मिसाल की
तरह है. मसलन मेरे दफ्तर के तीन सहकर्मी, जो 5 से लेकर 10 किमी तक की दूरियों के
बीच कहीं रहते हैं, काम करने के लिए हर रोज साइकिल से आते हैं. जाहिर है, साइकिल
की सवारी इस शहर में वर्ग-विशेष से ताल्लुक नहीं रखती. जबकि हमारे भारत में साइकिल
को अपने यातायात का प्रमुख साधन मानने वालों में नगरपालिकाओं के सफाई-कर्मी,
विद्युत् –विभाग, एमटीएनएल - बीएसएनएल एवं अन्य सरकारी-अर्धसरकारी संस्थानों में
एक-दो साल के कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कर्मचारी, घर-घर घूम कर चिट्ठियां देने
की मजबूरी से त्रस्त डाकिये और कुरियर बॉयज आदि वर्ग मात्र शामिल हैं, जिनकी
साइकिलें भी अक्सर इतनी पुरानी होती हैं, मानो वे जल्द ही बीती सदियों के
वैज्ञानिक विकास को दर्शाने वाले किसी म्यूजियम में पहुंचकर सज जाना चाहती हों.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">खैर, तो हमने भी कम दूरियों को घूम लेने के लिए साइकिलें चुनी. यूं तो
यहाँ के लोग एक तयशुदा सुरक्षा राशि देकर साइकिलों की वार्षिक सदस्यता ले लेते हैं
और हरेक एक दो चौराहे के अंतराल पर बने साइकिल स्टैंड्स में से किसी से भी एक
साइकिल लेकर अपने गंतव्य के करीब वाले साइकिल स्टैंड पर छोड़ देते हैं. जाहिर तौर
पर, साइकिलें सरकार मुहैय्या कराती है. हमारे पास वार्षिक सदस्यता के लिए जमा किये
जाने वाले सुरक्षा राशि नहीं थी, इसलिए हमने किसी और विकल्प के बारे में पूछा, तो
पता चला कि कुछ विशेष स्टैंड्स ऐसे भी होते हैं जो आपके किसी सरकारी पहचान पत्र को
गिरवी रखकर दिन भर के लिए एक साइकिल आपको दे सकते हैं. हमने इस तरह का अपना करीबी
साईकिल स्टैंड खोजा और स्टैंड इंचार्ज के पास अपने पासपोर्ट रखकर साइकिलें उठा
लीं.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">तकरीबन पांच किलोमीटर की साईकिल यात्रा, जिसके लिए हर सड़क के किनारे
एक सुरक्षित पट्टी बनी हुई है, के बाद हम फिर से ‘सोकालो’ नामक चौक पर पहुंचे.
सोकालो तक पहुँचने में हमें यातायात की भारतीय पद्धति के विपरीत, सड़क की दायीं ओर
चलने की ज़रा सी आदत हुई, जो कि बहुत जरूरी थी. शायद यूरोप और अमेरिका के सभी देशों
में यातायात संबंधी शिक्षा देते हुए बच्चों को यही सिखाया जाता होगा, ‘सड़क पर
हमेशा दायें चलें’, जिसका भारतीय रूप ‘बाएं चलें’ होता है.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">‘सोकालो’ यानी ‘शहर के मुख्य चौक’ का विस्तृत मैदान अपने चारों ओर
क्रमशः कैथेड्रल (प्रमुख गिरजाघर), नेशनल पैलेस, फ़ेडरल डिस्ट्रिक्ट बिल्डिंग, एवं
पोर्ताल दे मेर्कादेरेस नामक स्थापत्य से घिरा है, जिनसे सटी सडकें अपने विकास के साथ
दूर तक अपनी दोनों तरफ दूसरी अनेक उल्लेखनीय चीज़ें लिए हुए हैं. जिनसे गुजरते हुए जिस
पहली चीज से हम रूबरू हुए, वह था ‘पालासिओ दे बेय्यास आर्तेस’. यह पड़ोस के
‘आल्मेंद्रा सेन्ट्रल पार्क’ से सटा श्वेत रंग का विशालकाय स्थापत्य है. यह
मेक्सिको सिटी के पुराने ‘तेआत्रो नसिओनाल’ यानी ‘नेशनल थिएटर’, जो कि सन 1901 में
ध्वस्त हो गया था, के विकल्प के तौर पर इतालियन वास्तुकार आदामो बाओरी द्वारा
बनाया गया, जिसका उद्घाटन ‘मेक्सिकन क्रांति’ की अनेक लहरों के कारण सन 1934 में
हो सका. यह पैलेस कलात्मक प्रदर्शनियों के अलावा थिएटर, दृश्य कला, संगीत,
स्थापत्य एवं साहित्य से जुड़ी गतिविधियों के लिए भी विख्यात है. यूं तमाम अन्य
दर्शनीय चीज़ों के अलावा जो चीज़ यहाँ सर्वाधिक उल्लेखनीय लगी, वो थी थिएटर के
प्रमुख मंच में लगा कांच का पर्दा था, जो खुलने के बाद अपनी सतह पर मेक्सिको की
घाटी के साथ यहाँ के ‘पोपोकातेपेत्ल’ तथा ‘इस्तक्चिउआत्ल’ नामक दो ज्वालामुखियों
के चित्र दिखाता है, तथा जिसे मोड़कर छोटा भी किया जा सकता है.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इसके बाद हम सोकालो के एक कोने से शुरू होते ‘तेम्प्लो मायोर’ (भव्य
मंदिर) में प्रवेश किये, जो कि मेक्सिको के स्पानी उपनिवेश बनने से पहले की
‘आस्तेक’ सभ्यता का अवशेष है. आस्तेक काल में भी इस सभ्यता की राजधानी मेक्सिको
सिटी वाली जगह पर ही थी, जिसे ‘तेनोच्तित्लान’ नाम से जानते थे. यहाँ उल्लेखनीय है
कि मेक्सिको की मूल भाषा ‘नाउआत्ल’ का कोई ताल्लुक यहाँ के वर्तमान में बोली जाने
वाली स्पैनिश भाषा से नहीं है. यहाँ के प्राचीन शहरों, कस्बों, प्रसिद्द नदियों,
शिखरों और ज्वालामुखियों आदि के आस्तेक (नाउआत्ल) नाम से भी यह स्पष्ट होता है. सोलहवीं
सदी के आरम्भ में स्पानियों के द्वारा हुई आस्तेक लोगों की पराजय के बाद तेजी से
यहाँ की मौलिक जिन्दगी पर औपनिवेशिक रंग चढ़ता रहा. हालांकि, ‘आस्तेक लोगों की
पराजय’, आसानी से नहीं हुई, बल्कि इसमें अनेक चरणों में हुए घनघोर संघर्ष शामिल
रहे. ‘तेम्प्लो मायोर’ के अवशेष कहीं न कहीं से उस दीर्घकालिक संघर्ष की दास्ताँ
भी हैं.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">‘तेम्प्लो मायोर’ वैसे तो आस्तेक लोगों के धार्मिक अनुष्ठानों और
बलियों की जगह हुआ करती थी. आस्तेक लोगों के प्रमुख देवताओं में युद्ध के देवता
‘उइत्सिलोपोत्च्ली’ तथा वर्षा के देवता ‘त्लालोक’ थे, जिनके लिए तेम्प्लो मायोर के
पिरामिड के शीर्ष पर अलग अलग सीढ़ियों से पहुंचे जा सकने वाले दो चौरे (चबूतरे) आज
भी सुरक्षित हैं. ‘तेम्प्लो मायोर’ का निर्माण पहले पहल सन १३२५ में हुआ, जिसमें
बाद में छः चरणों में विकास कार्य हुए. यह विकास कार्य अगले राजा की प्रसिद्धि एवं
प्रताप का सूचक होता था. इस प्रकार अंत में सन 1521 में स्पानी आक्रमणकारियों ने
इसे ध्वस्त कर दिया, लेकिन अवशेष फिर भी रहे. यूं, तेम्प्लो मायोर के विकास और
विनाश के सभी महत्वपूर्ण चरण अलग-अलग स्थानों पर अगंरेजी और स्पैनिश भाषा में लिखे
हुए हैं.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">आस्तेक मिथक के अनुसार ‘तेम्प्लो मायोर’ पृथ्वी नहीं, बल्कि समूचे
ब्रह्माण्ड के केंद्र में स्थित है, जहां से ब्रह्माण्ड त्रिविमीय रूप में चार
भागों में विभक्त होता है. मिथक के अनुसार ‘मेक्सिका’ अथवा ‘आस्तेक लोगों’ को इस
बारे में उनके युद्ध के देवता उइत्सिलोपोत्च्ली ने बताया और साक्ष्य के रूप में
नोपाल (मेक्सिको में खाए जाने वाला एक तरह का कैकटस) के ऊपर बैठी चील, जिसकी चोंच
से सांप लटक रहा हो, दिखाया. तेम्प्लो मायोर के अन्दर उइत्सिलोपोत्च्ली, जोकि मानव
रूप में कभी आस्तेक समुदाय में पैदा हुए थे, के जीवन की विभिन्न अवस्थाएं भी दिखती
हैं. न सिर्फ ‘तेम्प्लो मायोर’, बल्कि आधुनिक मेक्सिको सिटी के अनेक हिस्सों में चील
के मुंह से लटकती सांप वाली संरचनाएं आज भी दिख जाती हैं. मेक्सिकन स्वतंत्रता के
बाद प्रस्तावित संसद भवन के शीर्ष पर भी इस तरह की आकृति रखी जानी थी, लेकिन
किन्हीं कारणों से वह निर्माण कार्य अधूरा ही रह गया, जिसका जिक्र बाद में कभी.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">यूं, ‘तेम्प्लो मायोर’ के अन्दर पहुंचे जाने की अनुमति वाले हरेक कोने
से भरपूर दो-चार हो लेने के बाद हम उससे सटे म्यूजियम में गए, जहां मंदिर के
अनावरण के लिए की जाने वाली खुदाई के जिक्र से लेकर खुदाई के विभिन्न चरणों में
मिली अस्थियों तथा पत्थरो की विभिन्न संरचनाएं देखने को मिलती हैं. म्यूजियम के
अन्दर आस्तेकों द्वारा चट्टान को काटकर बनाई एक ऐसी मूर्ति भी रखी है जो मनुष्य के
तरह की शरीर पर चील की मानिंद पंजे, डैने और चोंच लिए है, तथा आस्तेक मिथक के एक
और देवता को दर्शाता है. आस्तेक संगतराशी के अन्य नमूनों में भी चील और साँपों के
धड़ के साथ मेंढकों की अधिकता है. मेंढक वर्षा के देवता का प्रतीक था, जो की आस्तेक
लोगों के मुख्य रूप से कृषि पर आश्रित होने की पुष्टि करता है.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">म्यूजियम से निकल हमने कैथेड्रल यानी प्रमुख चर्च देखा, जो किसी भी
दूसरे चर्च की ही तरह की संरचाओं को थोड़ा भव्यतर रूप में संजोये था. इतिहास में इस
जगह आस्तेक लोगों द्वारा तेम्प्लो मायोर के अन्दर बलि का शिकार हुए नरमुंडों को
सजाया जाता था. सोकालो से उत्तर दिशा की ओर जाती सड़क पर ‘सान्तो दोमिंगो’ नाम के
चर्च के अलावा आस पास के एक किलोमीटर के दायरे में कम से कम पांच चर्च और मिले.
मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारों की तुलना में जो एक चीज़ मुझे चर्च के अन्दर तक हो
आने की सहूलियत देती है, वो यह कि चर्च में जाने से पहले आपको जूते नहीं उतारने
पड़ते. यह चीज़ हिन्दुस्तान से लेकर मेक्सिको तक एक जैसी लगी और हमने सारे चर्चों के
स्थापत्य देख उन्हें डेढ़ से दो सौ साल पहले के काल में लगभग एक ही जैसी संरचना में
बना पाया.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">आगे हमने सान इल्देफोंसो कॉलेज देखा, जो कि मैक्सिकन म्यूरलिस्ट
आन्दोलन का केंद्र हुआ करता था तथा सन 1978 में बंद होने के बाद वर्तमान में एक
म्यूजियम और सांस्कृतिक केंद्र भर है. सोकालो के भ्रमण के दौरान हम लगातार जिस एक
अन्य चीज़ से गुजरते रहे, वो था सस्ती और अनेक नायब चीज़ों का गतिमान बाजार. हर सड़क
के दोनों किनारों पर कोई चटाई आदि बिछाकर सामान बेच रही अनगिन दुकानें, और कान
फाड़ती स्पैनिश ध्वनियों में उनकी सस्ती दरों की बोलियाँ. गतिमान इसलिए, कि समय के
छोटे अंतरालों पर शहरीय प्रशासन की गाड़ियों की ध्वनि मात्र सुनते ही उस सड़क के
दुकानदार चंद सेकेंड्स में अपनी दूकान को समेटकर पीठ पर बोझ लिए जा रहे सामान्य
राहगीर बन जाते, और थोड़ी ही देर में किसी अन्य सड़क पर उनकी दूकान सज जाती. चीज़ों
की विविधता के आकर्षण में फंसे मेरे साथी मोल भाव और खरीदारियों में व्यस्त हो गए,
और मैं उनसे विदा लेकर सोकालो की अन्य खूबियाँ देखने के लिए उनसे विदा लिया.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इस क्रम में मैंने म्यूजियम ऑफ़ नेशनल आर्ट, पालासियो पोस्ताल दे
मेक्सिको (प्रमुख डाक घर), देखते हुए ‘तोर्रे लातिनो आमेरिकानो’ पहुंचा. जिस वक्त
मैं तोर्रे अमेरिकानो के 182 मीटर ऊंचे टावर से मेक्सिको सिटी देखने के लिए टिकट
ले रहा था, शाम बस ढल जाने वाली थी. आस पास के लोगों ने बताया की रात के पहले पहर
में ही लोग यहाँ से शहर को देखना चाहते हैं. बहरहाल, लिफ्ट की मदद से टावर के
शीर्ष पर पहुँचने के बाद हर ओर जो दृश्य दिख रहा था उससे मष्तिष्क में बस एक ही
शब्द पैदा होता, ‘अद्भुत’. पूरे शहर पर बिखरी रौशनी मुझे कुछ ऐसा एहसास दे रही थी,
मानों हम बेशुमार नक्षत्रों से भरे ब्रह्माण्ड से चंद मीटर ऊपर खड़े हों. शहर चारो
ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ, और पहाड़ों की ढलानों पर भी दूर ऊपर तक टिमटिमाते घर. न
जाने कितनी देर तक इस विहंगम खूबसूरती से सराबोर होने के बाद मैं साइकिल लेकर
अकेले वापस अपने होटल की ओर रुख किया, जहां के करीबी साइकिल स्टैंड का इनचार्ज
दूकान बंद कर घर अपने घर जा चुका था. मुझे निर्धारित समय तक साइकिल वापस न कर पाने
के प्रावधान के बारे में नहीं पता था. मैं अपने पासपोर्ट के लिए चिंतित सा साइकिल
के साथ होटल आया और साइकिल की सुरक्षा के आश्वासन पाकर उसे पार्किंग में रख छोड़ा. रात
भर मुझे पार्किंग में खादी साइकिल अपने पासपोर्ट की जगह याद आती रही.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अगली सुबह हुई, नाश्ता पानी हुआ और हम फिर से निकल लिए. जाहिर तौर पर,
सबसे पहले साइकिल स्टैंड तक. इस नए दिन के एजेंडा में जो जगहें थीं, उनके लिए
मेट्रो, टैक्सी अथवा बस ही लेना पड़ता, इसलिए साइकिल जमा ही कर देनी थी. मेरा
पासपोर्ट स्टैंड इनचार्ज के बैग में सुरक्षित था, लेकिन दिन रहते साईकिल वापस न कर
पाने के लिए मुझे दो सौ पेसो का अर्थदंड देना पड़ा. दो सौ पेसो का लगभग अनुवाद
भारतीय मुद्रा में नौ सौ रुपयों के आस पास ठहरता है. हमारे अगले लक्ष्य
‘मोन्यूमेंतो दे ला रेवोलुसिओन’ यानी ‘मोन्यूमेंट ऑफ़ रेवोलुशन’ की ओर बढ़ते हुए
काफी देर तक मेरे मुह में नीम के पत्ते का स्वाद भरा रहा.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">जैसा की नाम से ही जाहिर है, मोंयूमेंतो दे ला रेवोलुसिओन मेक्सिकन
क्रान्ति के स्मृति चिह्न स्वरुप बना स्मारक है. स्मारक के रूप में जो चीज़ दूर से
ही दिखाई देती है, वो एक उत्तल भूखंड के बीच खड़ी एक द्वार जैसी संरचना है, जो कि
उस ‘पालासियो नासिओनाल फेदेराल’ (नेशनल फ़ेडरल पैलेस) अथवा प्रस्तावित मेक्सिकन
संसद का एक हिस्सा भर है, जो पूरा बन नहीं पाया. मोन्यूमेंट के पास तक जाने का
रास्ता बीसियों अस्थाई टेंट्स के बीच से होकर जाता था. ये टेंट्स मेक्सिको के
विभिन्न प्रान्तों से अलग अलग मसलों को लेकर आये लोगों के अस्थायी निवास थे, जो हर
ओर विश्वविख्यात क्रांतिकारियों के यादगार नारों से सजे पोस्टर लगे हुए थे. चे
गेवेरा, सल्वादोर दाली, कार्ल मार्क्स, फिदेल कास्त्रो, नेल्सन मंडेला आदि की
तस्वीरों और नारों के बीच महात्मा गांधी भी जहाँ तहाँ दीखते रहे. गांधी के चित्र
के साथ उनके एक नारे, जो मुझे लगता है की सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय बुलंद किया
होगा, का पोस्टर लगा हुआ था, जिसका हिन्दी अर्थ यह था: ‘यदि क़ानून गलत हो, तो उसकी
अवज्ञा ही सही है.’ </span><o:p></o:p></div>
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<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">यूँ इन आस्थाई डेरों में रात गुजारने के बाद सारे प्रदर्शनकारी शहर के
विभिन्न हिस्सों में अपनी मांग के साथ निकल जाते हैं. मेक्सिको के एक प्रांत
‘सोनोरा’ से आये एक समूह से बात करने पर पता चला कि प्रदर्शनकारी समूहों में से
ज्यादातर सेवा, शिक्षा एवं रोजगार से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों का सरकार द्वारा किये
जाने वाले निजीकरण के खिलाफ वहां जमा होते हैं. काफी समय तक, यूं विभिन्न
क्षेत्रों से आये लोगों से बात कर बहुत कुछ जानते-बताते रहने के बाद हम स्मारक के अन्दर
प्रवेश किये, जहां जाकर यह पता चला कि मेक्सिको का इतिहास अनवरत क्रांतियों का
इतिहास है, जिसकी संस्कृति को पिछले चार-पांच दसकों में बनीं अमेरिका-परस्त
सरकारें अब लगभग समाप्त कर देने की कगार पर हैं. सन 1810 में शुरू हुए स्वतन्त्रता
संग्राम के बाद मिली मेक्सिकन आजादी के बाद जारी सरकारों के विरुद्ध व्यवस्था में
आमूल परिवर्तन लाने वाली कम से कम पांच महत्वपूर्ण क्रांतियाँ यहाँ हो चुकी हैं.
‘मोंयूमेंतो दे ला रेवोलुसिओन’ उनमें से सन 1910 में हुई क्रान्ति के नायकों, उनकी
मांग और योजनाओं, तथा योजनाओं के अंशतः क्रियान्वयन की ज़िंदा दास्ताँ है. नई
नीतियों वाली नई संसद की योजना इसी क्रांति की देन थी, जिसके अवशेष रूपी स्मारक के
नीचे बने म्यूजियम में इस क्रान्ति के नायकों की प्रतिमाओं के साथ उनके छोटे-बड़े
संघर्षों की चित्रात्मक प्रस्तुति मौजूद है. म्यूजियम से ही सटे एक हिस्से में
प्रस्तावित संसद की पड़ चुकी नींव के हिस्से भी जस के तस सुरक्षित हैं और संकरे
गलियारों से गुजरते हुए उसकी नींव भर में खर्च की गयी कारीगरी एवं कोशिशों को देख सहज
ही आश्चर्य महसूस किया जा सकता है.</span><o:p></o:p></div>
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चन्दनhttp://www.blogger.com/profile/06676248633038755947noreply@blogger.com5