Wednesday, July 23, 2014

मीडिया के शिकार होते जा रहे डॉ. कृष्णमोहन के मामले का सच

डॉ. कृष्णमोहन और किरण का मुद्दा स्त्री-पुरुष के साथ दो इंसानों का भी है. सीमित समझ की पतित मीडिया ने इसे पीड़ित स्त्री बनाम प्रताड़क पुरुष बना दिया है. यहाँ तक कि प्रशासन भी मक्कार मीडिया के दबाव में कार्र्वाई करने की बात, अप्रत्यक्ष तौर पर, स्वीकार रहा है. इससे शायद ही किसी को गुरेज होगा कि सबको न्याय मिले पर ऐसा भी क्या भय खाना कि आप दूसरे की गर्दन देकर अपनी गर्दन बचाएँ.

ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि सच सामने हो.

यह बात दुहरा देना चाहता हूँ ( ताकि लोग "कौआ कान ले के भागा" वाले अन्दाज में हमला न करें ) कि किसी भी मामले में न्याय ही अंतिम पैमाना होना चाहिए और हम सब उसकी तरफ हैं जो निर्दोष है पर इसका क्या अर्थ कि हम मामले को जाने भी नहीं ? तो आखिर यह फैसला कैसे होगा कि कौन निर्दोष है और कौन दोषी ?

मामला यह है कि इनके बीच अलगाव/ तलाक से सम्बन्धित मुकद्मा न्यायालय में है. किरण घोषित तौर Krishna Mohan से अलग रहती है. इस बाबत उनके बीच समझौता भी हुआ था कि तलाक होने तक वो दोनों अलग रहेंगे. एक निश्चित माहवार भत्ता भी तय हुआ था. कोई भी यह समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि जब अलग रहना तय हुआ है तो क्यों किरण बार बार घर में प्रवेश करने की जुगत लगाती रहती हैं ?

यह कई मर्तबा हो चुका है जब किरण ने मीडिया के सह-प्रायोजन में कृष्णमोहन के घर के सामने धरना प्रदर्शन या घर में भीतर जाने की कोशिश की हैं. ध्यान रहे कि मामला जब अदालत में है तो मेरी समझ के बाहर यह है कि जबरिया घर में घुसने की कोशिश को क्या कहा जाए ? अगर कोई 'हिडेन अजेंडा' न होता तो किरण को मीडिया और पुलिस के लाव-लश्कर के साथ घर में घुसने की कोशिश का कोई मतलब नहीं था. कायदे से उन्हें न्यायालय के निर्णय का इंतजार करना चाहिए. सस्ते सिनेमा के अलावा यह कहीं भी सम्भव नहीं दिखता कि तलाक की अर्जी भी पड़ी रहे और साथ साथ रहा भी जाए. यह भी ध्यातव्य हो कि किरण अपना सारा सामान घर से लेकर बहुत समय पहले ही जा चुकी हैं. अगर उन्हें कोई सुबहा है तो उन्हें पुलिस में शिकायत दर्ज करानी चाहिए. लोमड़ी मीडिया को थानेदार बनाने का शगल गलत है.

मानवाधिकार व्यक्ति के, भी, होते हैं, सिर्फ समूह के ही नहीं.

घर से अलग रहने का निर्णय लेने के बाद, अदालत की कार्र्वाई के दरमियान, घर में घुसने की कोशिश क्या इस कदर निर्दोष है ? वो भी तब जब आप पहले से ही अलग रह रहें हों. या क्या भारतीय व्यव्स्था ने ठान लिया है कि दो ही छोर पर रहना नसीब है, एक छोर जिसमें आप स्त्री को इंसान भी न समझे और दूसरा छोर यह कि स्त्री होना ही निर्दोष होने की निशानी हो.

जिस वीडियो का हवाला मन्द-बुद्धिजीवी, मीडिया और साथी, दे रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि आखिर उस विडियो में कृष्णमोहन के कपड़े फटे हुए हैं. और कोई भी समझ सकता है कि वह वीडियो घर में घुसने की जिद और न घुसने देने की जद्दोजहद की है. यह सारा मामला उन्हें उकसाने के लिए प्रायोजित किया गया था. आखिर वही मीडिया इस बात का जबाव क्यों नहीं देता कि जब अलग रहना तय हुआ था तो किरण वहाँ क्या कर रही थीं ? अगर उन्हें शक था तो क्या उन्हें कानूनी मदद नहीं लेनी चाहिए थी ? घर में घुसकर तमाशा करना भी एक नीयत हो सकती है. वरना जहाँ प्रेम विवाह रहा हो, वहाँ ब्याह के इतने वर्षों बाद दहेज उत्पीड़न के तहत मामला दर्ज करना साफ नीयत का मामला नहीं है.

उस वीडियो को बनाने वालों से यह क्यों न पूछा जाए कि जिस स्त्री के पक्ष में तुम वीडियो उतार रहे हो, अगर - तुम्हारे अनुसार - उस पर जुल्म हो रहा था तो तुम कैमरा पकड़ने की बजाय उस स्त्री को बचा भी तो सकते थे.

अभी जो आतंकवादी मीडिया को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं उन्हें ध्यान देना चाहिए कि पिछले दिनों इस मीडिया ने खुर्शीद अनवर का क्या किया. बाजार की पतलून के पिछले हिस्से से गिरा यह मीडिया स्त्री-पुरुष मामलों में इतना एकतरफा होता है कि इसके सामने आप अपनी बात भी नहीं रख सकते.

मैं इन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ. अपनी इस उम्र तक मैं जितने भी लोगों से मिला हूँ उसमें शायद ही कोई मिला हो जो कृष्णमोहन के स्तर का हो. गज़ब के इंसान हैं. मैने देखा है कि इंसान तो इंसान अपने कुत्ते की मामूली बीमारी तक में वे अन्दर से परेशान हो उठते हैं. घर के सभी सदस्यों का ख्याल रखना कोई उनसे सीखे. ऐसे में टुकड़े टुकड़े खबरों से किसी को परेशान किया जाता हुआ देखना दु:खद है.

और इतनी तो इल्तिजा कर सकता हूँ कि पुलिस अपनी किसी भी कार्र्वाई में मीडिया के दबाव को कारण न बनाए.

16 comments:

सूरज प्रकाश. Blog spot. In said...

सही बात सामने आनी चाहिये। दूसरे पक्ष को भी अपनी बात कहने का मौका दिया जाये। एक बात और वीडियो ग्राफर ऐसे मामलों में निर्दोष नहीं कहा जा सकता। अगर वह पीडि़ता द्वारा प्रायोजित न होता तो उनकी मदद करता। कई बार हम ऐसे फोटो या वीडियो देखते हैं जहां कैमरामैन पीड़ित या घायल या पिट रहे व्‍यक्‍ित का पक्ष न ले कर अपनी टीअारपी के चक्‍कर में बढिया शाट लेने की फिराक में होता है

श्रीकांत दुबे said...

कल से ही अलग अलग चैनल्स पर हो रहे इस मामले का छीछालेदर देख रहा हूँ, जहाँ विडियो फुटेज के चुने हुए हिस्से बार बार चलाकर रिपोर्टर से लेकर एंकर तक, सारे जज बने हुए हैं. फैसला सुनाकर मौके पर ही प्रो. कृष्णमोहन को सजा सुनवा देने पर उतारू मीडिया लोगों को यह तक नहीं बता रही कि किरण सिंह को बाहर निकालने वाला युवक कोई और नहीं, बल्कि खुद किरण का बेटा है. और कोई बेटा भला अपने पिता की प्रेमिका के बचाव में खुद की माँ के ऊपर आक्रामक क्यों होगा? विडियो फुटेज की शुरुआत में ही कृष्णमोहन के कपड़े फटे दीख रहे हैं, और वह सिर्फ अपने बचाव में किरण को घर से बाहर कर देने की कोशिश कर रहे हैं. जाहिर तौर पर, किरण की मंसा पहले ही से घर के बाहर तैनात कैमरे के सामने हंगामा खड़ा करना था, जिसमें वह कामयाब रहीं. बाकी, मैने जितनी दुनिया देखी है, उसमे किसी व्यक्ति मात्र का सम्मान करने वाले और कृष्णमोहन सरीखे लोकतांत्रिक लोग मुझे विरले ही मिले. कुछ चैनलों पर बाद में आए कृष्णमोहन के बयान की भाषा से भी यह स्पष्ट होता है, जहाँ इतने हंगामे के बाद भी वे किरण के लिए सम्मानपूर्ण भाषा का ही प्रयोग कर रहे थे, जैसा कि मैं उन दोनों के साथ होने के दिनों से ही देखता-सुनता रहा

Surya Narayan said...

Shruti, Kiran ekdam nirdosh nahi hain. par vedio me jo dikh raha hai usame Kiran ko Loktantrik Pita-Putra jaanwaron jaise ghaseetate hue,laat maarate hue aur ghar ke baahar sadak par dhakka dekar girate hue ,ghar se danda lekar nikalate hue dikhai de rahe hain. kiran ka aparadh-alag rahane ke daur me ghar me ghusana-is kritya se bada hai kya ! abhi in logo ka divorce nahi hua hai-kewal alag rahane ka nirnay hai.ve ghar kabja karane to gayi nahi theen. ve to kewal ghar me Shilpi ki maujoodagi par aitraaz jatane gayi theen. Krishn Mohan ka kanooni paksh ekdam sahi aur majboot bhi ho to bhi kisi mahila ko is tarah peetane,latiyane va dhakka dene ka mardanagi bhara karya kya shobhaneey hai !

Anonymous said...

सही है. कई वकील उभर आए हैं इस बीच जो यह मांग कर रहे हैं कि कृष्णमोहन का यह कर दो ...वह कर दो. एक वीडियो देखकर पूरे मामले पर फैसला सुना रहे हैं. कई लोग व्यक्तिगत दुश्मनी निकाल रहें हैं, ऐसे साहबों को क्या कहा जाये? निगाहें कहीं पे निशाना कहीं पे..'तीन ग्राम' के लेखकों को ज्यादा तकलीफ है.

Rohini Gupte said...

आप साहित्यकार हैं शायद इसीलिए आप तथ्य और तर्क की जमीन से कम लफ्फाजी के आसमान से ज्यादा बात करते हैं। आप या तो बताना नहीं चाहते या फिर सब कुछ जानते हुए छिपा रहे हैं। न्याय और इंसानियत जैसे शब्दों के जाल में सच को उलझाया नहीं जा सकता है। सच चिल्ला-चिल्ला कर बोलता है। तीन तथ्य हैं जिन्हें मैं आपके सामने पेश करना चाहता हूं। जिन तथ्यों को झुठलाकर आपने अपने तर्कों का हिमालय खड़ा किया है। उसका एक तीर ही उसे धराशाही करने के लिए काफी है। आखिरकार शरुआत किसने की ? किसी सभ्य समाज में प्रोफेसर की बात तो छोड़ दीजिए कोई सामान्य इंसान भी ऐसा नहीं करता जो 'साहित्यकार' कृष्ण मोहन सिंह ने किया है। बजाय आमने-सामने बैठकर बात करके अलग होने का फैसला करने के उन्होंने अपनी पत्नी किरन को उनके मायके जाने के बाद वहीं तलाक का कागज भिजवा दिया। और फिर जब किरन मायके से लौटींं तो उन्हें घर में ही नहीं घुसने दिया गया। दूसरा, दोस्तों की मध्यस्थता में जो समझौता हुआ उसमें अस्थाई गुजारा भत्ता के तौर पर15 हजार रुपये प्रति माह के हिसाब से कृष्ण मोहन द्वारा किरन को दिया जाना था। कोर्ट में फैसला होने तक इसको जारी रखना था। लेकिन दो चार महीने देने के बाद उसे 15 हजार से घटाकर 10 हजार कर दिया गया और फिर उसे भी बंद कर दिया गया। तीसरा तथ्य ये कि जब मामला कोर्ट में चल रहा हो तो यथास्थिति बनाए रखने की जिम्मेदारी केवल एक की नहीं बल्कि दोनों पक्षों की होती है। ऐसे में एक दूसरी महिला को घर में लाकर रखने की कोशिश क्या अदालत की अवमानना नहीं है?

चन्दन said...

रोहिनी गुप्ते जी,

जैसे विशेषण आपने मेरे लिए इस्तेमाल किए हैं, वैसा मैं आपके लिए न करूँ, यह उचित है. फिर भी जिन सवालों के आप जवाब जानना चाहती हैं, आपको क्या लगता है कि वे प्रश्न निरुत्तर कर देने वालें हैं ? हर्गिज नहीं. सर्वप्रथम मैं बता दूँ कि मुझे लिखने की नौबत तब आई जब वीडियो फुटेज को आधार बना कर कृष्णमोहन को घेरने की तैयारी रची गई. कोई निरा ही होगा जो उस वीडियो में प्रत्यक्ष की निन्दा नहीं करेगा, पर इसका क्या मतलब कि जो अप्रत्यक्ष है उसकी चर्चा ही न हो. किरण, खुदा करें निर्दोष हों पर क्या आपको यकीन है कि वो सब, मीडिया ले जाना, पुलिस ले जाना, सेट-अप नहीं था ?

1. आप इस तथ्य पर यकीन करती हैं कि यों ही किरण, बिना किसी बात के, मायके गईं और उन्हें तलाक की नोटिस पहुँच गई ? यह कोई निरा ही सोच सकता है कि तलाक जैसे मुद्दे किसी दम्पत्ति के बीच एक दिन अचानक निकल आते हैं. कभी आपने यह जानने की कोशिश की कि वो घर क्यों गईं थी ? मैं किसी को भी दोषी नहीं ठहरा रहा क्योंकि सबके अपने पक्ष हैं. पर मीडिया या वो बुद्धिजीवी जो अपनी सामान्य बातचीत में स्त्रियों को अपमानित करते रहते हैं, उनका उत्साह देखते ही बन रहा है.
2. आपको लगता है कि भत्ता अनायास ही रोक दिया गया ? भत्ता दिया जा रहा था पर किरण जी की तरफ से अचानक ही उसे बढ़ाने की माँग की गई जो कि तय हुए से अधिक था. कोर्ट का हवाला दिया गया.
3. मैने पहले भी कहा है कि मामला दो मनुष्यों का है. हर मसले को स्त्री पुरुष के मसले में रिड्यूस कर के देखने की जुगाली पुरानी पड़ चुकी है.
4. दूसरी स्त्री को लाकर रखना ? यह तो कमाल का अभियोग है. मतलब, मित्रताएँ और रिश्तेदारियाँ ताक पर रख दी जाएँ ?

आप इकतरफा हो रही हैं. आपने खुद ही कहा कि शुरु किसने किया ? क्या आप यह बता सकती हैं कि शुरु किसने किया ? नहीं बता सकती हैं. यह मामले इतने सरल और सीधे नहीं होते.

baajve said...

असहमति के साथ ........
एक सच यह भी / Majdoor Jha
डॉ. कृष्णमोहन का सच चाहे जो भी हो, जिस तरह से उन्होने अपनी पत्नी को सरे-आम पीटा है, इसकी वकालत करना वहशी समाज का समर्थक होना है। चन्दन पांडे ने जिस चालाकी के साथ उनकी वकालत की है, आश्चर्य से कम नहीं है। मैं उनसे कहना चाहूँगा कि आप निर्दोष और दोषी की तलाश जिस लोकतान्त्रिक ढांचे में रहकर करना चाहते हैं, उनका पीटना क्या इसी लोकतान्त्रिक अधिकार के दायरे में आता है? आपने कहा कि दोनों के बीच तलाक का फैसला होना है, भत्ता बंद इसलिए किया गया क्योंकि वो ज्यादा पैसे मांगने लगी... समूची घटना को आपने घटिया पुरुष मानसिकता के नज़रिए से देखा है। ये तलाक देने कि कोई उम्र-सीमा होनी चाहिए कि नहीं? एक परिवार में पढ़ने-लिखने का मौका या अन्य सुविधाएं पुरुष को पहले दी जाती है, वह उन सुविधाओं के दम पर व्यवस्थित होता है, तब जाकर उसे अपने लेबल के लोग ज्यादा पसंद आते हैं, तलाक कि प्रक्रिया डॉ. कृष्णमोहन जी के उम्र में ऐसे ही शुरू होता है, फिर जब आपकी पत्नी या घर वाले आपको बनाने में लगे होने के कारण किसी लायक नहीं बचते हैं, तब आप उनको तलाक देते हैं या किनारा कर लेते हैं। ये कौन सा न्याय है चन्दन बाबू? जब गुजारा भत्ता आप दे रहे थे, तो अचानक बंद क्यों कर दिया. 'और ज्यादा मांगने लगी' तो आपने बंद ही कर दिया। यह तर्क बेवकूफ़ों को भी बेवकूफ बनाने में कारगर साबित नहीं होगा। मामला जब कोर्ट में था, जब तलाक की पूरी प्रक्रिया समाप्त नहीं हुई थी तब आपने किस अधिकार से अपनी प्रेमिका को अपने घर में रहने दिया या रख लिया। और यहीं मैं आपको यह भी बताना चाहूँगा कि जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती कानूनन आपकी पत्नी उस घर में आ जा सकती है। चलिये यहाँ तक भी ठीक है अब आप ये बताइये कि---आपने मारा क्यों, घसीटा क्यों?? आ गए न अपने फूहड़ मर्दानगी की औक़ात पे। और चन्दन बाबू, जितनी संभावना इस बात की है कि महिला ने धक्का-मूक्की में उनका बनियान फाड़ा तो क्या इस बात की संभावना नहीं है कि--बचाव या मार खाती एक महिला की स्वाभाविक प्रतिक्रिया में ऐसा हुआ हो? खैर, छोड़िए मैं तो आप जैसे लोगों से इस बात के लिए भी तैयार रहता हूँ कि दामिनी प्रकरण में, ईंट, छड़ इस्तेमाल करने वाला बलात्कारी सज्जन आपका कोई संबंधी नहीं निकला नहीं तो माशाअल्लाह आपके तर्क देखने लायक होते और उन गरिमामयी तर्कों को शेयर करते हमारे दूसरे कहानीकार मनोज पांडेय क्या खूब जँचते.... ख़ैर, खेमेबाज़ कहानीकारों की अंतिम परिणति यही होती है।

baajve said...

असहमति के साथ ........
एक सच यह भी / Majdoor Jha
डॉ. कृष्णमोहन का सच चाहे जो भी हो, जिस तरह से उन्होने अपनी पत्नी को सरे-आम पीटा है, इसकी वकालत करना वहशी समाज का समर्थक होना है। चन्दन पांडे ने जिस चालाकी के साथ उनकी वकालत की है, आश्चर्य से कम नहीं है। मैं उनसे कहना चाहूँगा कि आप निर्दोष और दोषी की तलाश जिस लोकतान्त्रिक ढांचे में रहकर करना चाहते हैं, उनका पीटना क्या इसी लोकतान्त्रिक अधिकार के दायरे में आता है? आपने कहा कि दोनों के बीच तलाक का फैसला होना है, भत्ता बंद इसलिए किया गया क्योंकि वो ज्यादा पैसे मांगने लगी... समूची घटना को आपने घटिया पुरुष मानसिकता के नज़रिए से देखा है। ये तलाक देने कि कोई उम्र-सीमा होनी चाहिए कि नहीं? एक परिवार में पढ़ने-लिखने का मौका या अन्य सुविधाएं पुरुष को पहले दी जाती है, वह उन सुविधाओं के दम पर व्यवस्थित होता है, तब जाकर उसे अपने लेबल के लोग ज्यादा पसंद आते हैं, तलाक कि प्रक्रिया डॉ. कृष्णमोहन जी के उम्र में ऐसे ही शुरू होता है, फिर जब आपकी पत्नी या घर वाले आपको बनाने में लगे होने के कारण किसी लायक नहीं बचते हैं, तब आप उनको तलाक देते हैं या किनारा कर लेते हैं। ये कौन सा न्याय है चन्दन बाबू? जब गुजारा भत्ता आप दे रहे थे, तो अचानक बंद क्यों कर दिया. 'और ज्यादा मांगने लगी' तो आपने बंद ही कर दिया। यह तर्क बेवकूफ़ों को भी बेवकूफ बनाने में कारगर साबित नहीं होगा। मामला जब कोर्ट में था, जब तलाक की पूरी प्रक्रिया समाप्त नहीं हुई थी तब आपने किस अधिकार से अपनी प्रेमिका को अपने घर में रहने दिया या रख लिया। और यहीं मैं आपको यह भी बताना चाहूँगा कि जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती कानूनन आपकी पत्नी उस घर में आ जा सकती है। चलिये यहाँ तक भी ठीक है अब आप ये बताइये कि---आपने मारा क्यों, घसीटा क्यों?? आ गए न अपने फूहड़ मर्दानगी की औक़ात पे। और चन्दन बाबू, जितनी संभावना इस बात की है कि महिला ने धक्का-मूक्की में उनका बनियान फाड़ा तो क्या इस बात की संभावना नहीं है कि--बचाव या मार खाती एक महिला की स्वाभाविक प्रतिक्रिया में ऐसा हुआ हो? खैर, छोड़िए मैं तो आप जैसे लोगों से इस बात के लिए भी तैयार रहता हूँ कि दामिनी प्रकरण में, ईंट, छड़ इस्तेमाल करने वाला बलात्कारी सज्जन आपका कोई संबंधी नहीं निकला नहीं तो माशाअल्लाह आपके तर्क देखने लायक होते और उन गरिमामयी तर्कों को शेयर करते हमारे दूसरे कहानीकार मनोज पांडेय क्या खूब जँचते.... ख़ैर, खेमेबाज़ कहानीकारों की अंतिम परिणति यही होती है।

baajve said...

मन की कुंठा जब बाहर आती है तब उसकी परिणति सार्थक नहीं होती। कुछ लोग चेतन अवस्था में करते हैं तो कुछ अवचेतन अवस्था में। लेकिन परिणति हमेशा असामाजिक ही होती है। वह चाहे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर साहब हो या उनके वरदहस्त चन्दन पाण्डेय। चन्दन पाण्डेय अपने पोस्ट पर जिस पुरुष पक्षधरता की बात करते हैं उससे बहुतायत लोगों का असहमत होना स्वभाविक भी है। सरेआम पिता-पुत्र द्वारा एक पत्नी और माँ को मारना क्या सामाजिक न्याय की श्रेणी में आता है ? क्या कानूनन गुजारा-भत्ता माँगना किसी के स्वाभिमान से बढ़कर है ? क्या अपने प्रति हो रहे अन्याय को समाज के सामने लाना सामाजिक रूप से गुनाह है ? अपने वाजिब हक के लिए किसी अन्य माध्यम का सहारा लेना क्या कानूनन जुर्म है ? आदि सवाल हैं जिसके तह में जाने की जरूरत थी। शायद ! चन्दन पाण्डेय की दृष्टि इस ओर नहीं गयी। वरना इस तरह की ओछी बाते नहीं करते। साहित्य का मर्मज्ञ (पता नहीं कितना सच है) व्यक्ति आधुनिक युग में एक स्त्री की छवि जिस रूप में गढ़ रहा है ये तो आने वाला समय ही बताएगा । लेकिन एक बात तो तय है कि इस तरह के व्यक्ति से समाज का हित होने वाला नहीं है।

Anonymous said...

What i know that he fuelled his son aganiat his mother. Its a team work. It was a love marriage and the wife never ever wanted sepration. There is a third lady involved. Its a shame. Dont judge two different angles of an individual.

चन्दन said...

बाजवे जी, भत्ता बन्द नहीं हुआ. जो तय हुआ था वह दिया जाता रहा. बात उसकी हो रही है जो अतिरिक्त माँगा जाता रहा. मसलन 15 तय हुआ था वह दिया जाता रहा, पर पच्चीस वाली बात पर राजीनामा नहीं हुआ.

महोदय, तलाक की उम्र क्या हो, उसकी बहस का मंच अदालते या संसद है. आपसे ही अगर पूछा जाए कि आपको अभी क्यों सूझी यह उम्र की बात तो आप जवाब नहीं दे पायेंगे. अगर तलाक की उम्र पर बहस करनी है तो उसे सकारात्मक तौर पर शुरु कीजिए.

आप, मुझे जो भला बुरा कहना है, कह लीजिए, आखिर दिन भर की थकान और मानसिक परेशानियों के बाद आप सबको भी कोई शिकार चाहिए..पर यह गलत है कि मैने कृष्णमोहन का कोई बचाव किया है. मैने समूची स्थिति को स्पष्ट करने की कोशिश की है. मैने तो किसी के लिए अपशब्द आदि का प्रयोग नहीं किया है. न ही नकारात्मक जुमलों की मदद ली है. ऐसे में महोदय आप भी अपनी बात, अगर भाषा आती हो तो, सकारात्मक तौर पर कह सकते हैं. हर बात में यह सब जुमले घुसेड़ना कि अलाँ पुरुषवादी है, फलाँ कुंठित है, जलाँ खेमेबाज हैं ..यह सब शब्दों पर आपके कम विश्वास को दर्शाता है.

baajve said...

चन्दन पांडे ------मैं आपसे सिर्फ यह कहना चाहूँगा कि उम्र या इस तरह की किसी भी घटना के प्रति संवेदनशील व्यवहार पर किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है साथ ही यह भी मान लूँ कि आपकी भाषा हम सबसे बहुत अच्छी है, होनी भी चाहिए, भाई कहानीकार जो ठहरे। लेकिन अभी आप इतने उस्ताद नहीं हुए हैं भाई साहब कि आप चालाकी भी कर लें और हम समझें भी नहीं। दुख आपको इस बात का नहीं है कि लोग वैचारिक होकर नहीं सोच रहे हैं बल्कि इस बात से ज्यादा है कि आपकी चालाकी को लोगों ने पकड़ लिया है। मैं फिर से बार-बार आपके कहे को दुहराना नहीं चाहता हूँ, इसलिए दुबारा अपने लिखे को फिर से पढ़ लें। एक और बात मैं देख रहा हूँ कि आप अपने ऊपर प्रश्न करने वालों पर बार बार भाषा संबंधी असहमति जाता रहे हैं। प्रेमचंद ने गाली शीर्षक से एक संपादकीय लिखा---कि किसी भी सूरत में भाषा तीखी या अव्यवहारिक नहीं होनी चाहिए। फिर कुछ समय बाद कहा कि----समाज जैसे जैसे विकृत होगा शिकायत करने वालों की भाषा उतनी ही उग्र होगी... इसके आगे वो एक जगह लिखते हैं कि---"ये पापी लोग इसलिए नहीं मरे क्योंकि ये ईश्वर के बहनोई हैं।'' तो उग्र भाषा और गाली में पहले आप अंतर करना सीख लें। और कभी फुर्सत मिले तो भाषा के समाजशास्त्र पर बहस कर लीजिएगा। आपको पता चल जाएगा कि ----''हम भी मुंह में जुबान रखते हैं गालिब, काश पूछो कि मुद्दा क्या है।'' बावजूद इसके आपको किसी ने गाली नहीं दी है.... आगे आपके जवाब पर। - https://www.facebook.com/majdoor.jha?fref=ts

चन्दन said...

बाजवे जी, अब आप मुद्दे से भटक रहे हैं. अब यह नई बहस: भाषा का समाजशास्त्र !!

आपके पहले कमेंट में जो तथ्यपरक बात थी गुजाराभत्ता वाली, उसका जवाब देने के बाद मैने एक टीप की कि हम चाहें तो शालीन भाषा में भी बात कर सकते हैं. पर अगर आपको लगता है कि मेरी टिप्पणी इतनी खराब है जिससे आप उग्र भाषा अपनाने पर मजबूर हो गए तो फिर आप वही भाषा कहिए. अब यह क्या कि हर बात पर आप बहस ही करते रहें !!

आप तलाक की उम्र वाली बात करते हैं, अब यह निर्धारित करना कितना सम्भव है यह तो बहस का ही मुद्दा है न !

इस पूरे मामले में मैं आपकी इतनी भर मदद कर सकता हूँ कि एक रिपोर्ट पढ़ा सकता हूँ उससे शायद आपको इस सारी लड़ाई का खेल समझ आए ( कृपया मदद और समझ आदि शब्दों का अन्यथा न लें )

यह लिंक देखे: http://nayibaat.blogspot.in/2014/07/blog-post_25.html

चन्दन said...

और बाजवे जी, अब आप चालाकी का भी आरोप मढ़ रहे हैं ! यह तो ज्यादती है न !

देखिए, हो सकता है आपके हिसाब से मैं कोई जघन्य अपराध कर रहा होऊँ. अगर ऐसा है तो आप इस पूरी घटना को ( सन्दर्भ का दायरा भी आप तय कर लीजिए ) दर्ज कीजिए. आप खामखाँ मेरे कन्धे पर रख कर बन्दूक चला रहे हैं.

माना कि मैं इतना बड़ा अपराधी हूँ पर बाकी दुनिया तो सही होगी. आप उसे सच से अवगत कराईये. यह तो बड़ा पुराना और असफल तरीका है कि खुद कुछ मत लिखिए और जैसे ही कोई तीसरा कुछ लिखे, उसके बाल की खाल निकालने लगिए.

Anonymous said...

डिअर चन्दन जी ,
माना की एक बार आपकी कॉलेज की फीस के एम ने दी थी ,जिसका कर्ज आप उतरने की कोसिस कर रहे है ,और उतारना भी चाहिए ,चाहे वो कर्ण -(दुर्योधन )का ही क्यों न हो,
आपके हर सवाल का जवाब में जितने महीन तरह से दे सकता हु उतना कोई नहीं,,
कृस्न मोहन ने दूसरी ओरत के चक्कर में पड़कर अपनी पत्नी किरण सिंह की पिटाई २ साल पहले की थी, जिससे दुखी होकर कुछ दिन के लिए वो मायके चली गई थी ,उसके ब्रैस्ट में गांध पद गई थी जिसका उसने कानपूर आकर होमिओपथिक से सफल इलाज करवाया था,इन्ही २ माह में कृस्न मोहन की बहन बेबी उर्फ़ किरण-२ ने किरण-१ को कहा की अब तुम मेरे भाई के घर में घुस नहीं सकती ,कोई की तुमको तलाक का नोटिस भेजा जा चूका है ,किरण तुरंत लौट कर बनारस आई और एक प्रोफेशर के घर में अपने जाने -अनजाने कार्यो की माफ़ी मांगती रही ,गिडग़ड़ाती रही लेकिन पाषाढ़ हिरदय कृष्ण मोहन हस्त रहा और चुटकी लेता रहा,इस बात की गवाह बी यह यू का वो प्रोफेशर-एंड पत्नी मौजूद है,लेकिन वो किरण को कोर्ट में आने के लिए मजबूर करता रहा,
दूसरे दिन उसने पुलिस की सरन ली ,इंस्पेक्टर ऐ के सिंह ,लंका ठाणे में क्रस्ना मोहन रात के २ बजे अपनी पत्नी को छोड़ कर भागने लगे ,किसी तरह वो एकेली कार में घुस गई तो क्रस्ना मोहन ने उसको बी एच यू के हॉस्टल में छोड़ कर भगा,
अगले दिन कुछ महिलाओ को लेकर धरने में बैठ गई, सायद उसको घर में घुसने की उम्मींद थी,साड़ी रात दंड में मोहल्ले की महिलाओ की मदद से दरवाजे के सामने गुजारी, अगले दिन सामाजिक दबाव से कृष मोहन ने १५ हजार हर माह देने का वडा और तलाक में कोर्ट के निर्णय को मैंने पर किरण को धरने से उड़ा दिए,, अब किरण बनारस में हॉस्टल में रह कर कोर्ट की तारीखों पर जाना शुरू किआ,, वस्ने कृष्ण मोहन के किसी भी परिवार के खिलाफ कोई बयान नहीं दिए, बल्कि कहती रह की कुछ क.एम को कन्फुसिओन है ,

अब बात आती है तुम्हारे सरे स्टेट मेंट की,,
१- आपकी जानकारी के लिए बता दू की कृष्ण मोहन ने सिर्फ एक बार १५ हजार दिए था, इसके बाद १० हजार ,वो कहता रहा की सामान ले जाओ तब दूंगा,,सारे सर्टिफिकेट ,कपडे ,जेव्लारी,,तब उसकी मकारी को भांपते उहे किरण ने मैन्टीनेन्स का मुकदमा १ साल बाद लगाया,, क्यूंकि सारे प्रोफेशर की विनती को वो नकार चूका था,आप चाहे तो पास बुक की फोटो मई आपको मेल कर सकता हु ,
२-जिस ओरत के चक्कर में कृस्न मोहन ने किरण की पिटाई की थी वो ओरत अपने पति (अनिल यादव-एडिटर-पायनियर न्यूज़ पेपर)को अलविदा कह कर सारे सामान और एक बच्चे के साथ कृस्न मोहन के घर में आ कर रहने लगी,,इसका उस परिवार के सब लोगो ने स्वागत किआ,
अब एक ओरत जिसको विस्वास था की एक दिन झूढ़ के बादल हटेंगे तब के एम उसको घर ले जाएगा, वो भ्रम टूट गया, भिर वो अपने और अपने बच्चे के भविस्य के लिए उसदूसरी ओरत शिल्पी यादव की खिलाफत करने घर में गुस गई,, बाकि आप सब लोगो की जानकारी में है ,,उस दिन रात में शिल्पी क्रेन मोहन के कमरे में पकड़ी गई,,
३-तीसरा मुकदमा बिना तलाक के दूसरी ओरत को घर में रखने पर अर्रेस्टिंग होने वाली है,
४-अभी एक सच का खोलना बाकी है जिसको किरण खोलना नहीं चाहती थी, लेकिन मै आपको हिंट्स दे दू की वो किरण/ दामनी का रोल ही था जिसमे घर के लोगो ने किरण को एक लापरवाह बहु के रूप में बार -बार सिद्ध करने की कोसिस की गई, एक जूठ जब १०० बार बोला जय तो के एम ने सच मान लिए और घर वालो के कहने पर१८ साल सुखमय जीवन से तलाक ले लिए,
५-आपकी सिस्टर की भी शादी अभी कुछ माह पहले हुई है ,,भगवान से विनती करूँगा वो //??????????

चन्दन said...

अनॉनिमस जी, अब यह कर्ज उतारने की बात कहाँ से आ गई ? के.एम और किरण, दोनों से अपना वास्ता है. मैं यह कत्तई नहीं चाहूँगा कि किसी के साथ भी अन्याय हो, पर जिस दिन यह सब घटना हुई, उसी दिन मेरे बोलने के पीछे मकसद कोई कर्ज उतारना न था. अगर ऐसा होता तो पहले भी कई ऐसे मौके आए हैं.

जब कृष्णमोहन को दुबारा पुलिस ले गई और तीबारे की तैयारी करने लगी तब मुझे लगा कि उनका भी पक्ष रखना जरूरी है.

अब अगर आपको लगता है कि तलाक होने तक कोई भी जोड़ा साथ रह सकता है और वो भी जब तलाक की अर्जी पड़ी हुई हो, तो यह दीगर बात है.

महोदय, जब नौबत तलाक तक आ गई है तो इसकी जिम्मेदारी, क्या आपको लगता है, किसी एक की हो सकती है ?

आप यों न समझे कि किरण के खिलाफ कोई भी है. पर इसका मतलब यह भी नहीं कि कृष्णमोहन का पक्ष भी न जाना जाए. हमें तो इन दोनो को बेहद करीब से जानने का मौका मिला है. के.एम और किरण दोनो से करीब का राब्ता रहा है और दोनों के साथ न्याय हो: यही कामना है. हाँ, पर ध्यान रहे, दोनों के साथ.