'कला के तीसरे क्षण ' का अचूक सूत्र तभी सफल दीखता है जब रचना से यह बात भी झाँकती दिखे कि इस रचना में जीवनानुभव की व्याप्ति कितनी है. जीवनानुभव और कला के इस बेहतरीन 'ब्लर' के लिए जो हुनर चाहिए उसकी खातिर कवि की यह ख्वाहिश कि "पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना / फिर तुम्हारी बात लिखूंगा". महेश की कविताओं से गुजरते हुए हम यह अनुभव शिद्दत से करते हैं. अगर कोई कवि रविवार को " यह कविता का दिन है गद्य के सप्ताह में" बताता है तो हम यह बूझ लेते हैं कि बाकी के छ: दिन कितने कठिन बीते या आगामी छ: दिनों के बाबत कवि कितनी तैयारी कर रहा है. प्रस्तुत छ: कविताएँ महेश वर्मा की हैं और हरेक कविता नए सत्य के साथ और नई युक्तियों के साथ जाहिर होती है.
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रविवार
रविवार को देवता अलसाते हैं गुनगुनी धूप में
अपने प्रासाद के ताखे पर वे छोड़ आये हैं आज
अपनी तनी हुई भृकुटी और जटिल दंड विधान
नींद में मुस्कुराती किशोरी की तरह अपने मोद में है दीवार घड़ी
खुशी में चहचहा रही है घास और
चाय की प्याली ने छोड़ दी है अपनी गंभीर मुखमुद्रा
कोई आवारा पहिया लुढ़कता चला जा रहा है
वादियों की ढलुआ पगडण्डी पर
यह खरगोश है आपकी प्रेमिका की याद नहीं
जो दिखा था, ओझल हो गया रहस्यमय झाडियों में
यह कविता का दिन है गद्य के सप्ताह में
हम अपनी थकान को बहने देंगे एड़ियों से बाहर
नींद में फैलते खून की तरह
हम चाहेंगे एक धुला हुआ कुर्ता पायजामा
और थोड़ी सी मौत
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पूर्वज कवि
पूर्वज कवि आते हैं
और सुधार देते हैं मेरी पंक्तियाँ
मैं कहता हूँ कि हस्ताक्षर कर दें जहाँ
उन्होंने बदला है कोई शब्द या पूरा वाक्य
होंठ टेढा करके व्यंग्य में मुस्काते
वे अनसुनी करते हैं मेरी बात
उनकी हस्तलिपि एक अभ्यस्त हस्तलिपि है
अपने सुन्दर दिखने से बेपरवाह
और तपी हुई
कविता की ही आंच में
सुबह मैं ढूँढता उनके पदचिन्ह ज़मीन पर
सपनों पर और अपनी कविता पर
फुर्र से एक गौरय्या उड़ जाती है खिड़की से
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पुराना पेड़
वह दुःख का ही वृक्ष था
जिसकी शिराओं में बहता था शोक
दिन भर झूठ रचती थीं पत्तियाँ हंसकर
कि ढका रह आये उनका आंतरिक क्रंदन
एक पाले की रात
जब वे निःशब्द गिरतीं थीं रात पर और
ज़मीन पर
हम अगर जागते होते थे
तो खिडकी से यह देखते रहते थे
देर तक
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घर
घर वैसा ही होगा जब हम लौटेंगे
जैसे शताब्दियों तक वैसे ही रहते हैं घर किताबों में
हम किताबों की धूल झाड़ेंगे
और घर में प्रवेश करेंगे
वहाँ चूल्हा वैसे ही जल रहा होगा
जैसा कहानी में जलता था और
लकड़ी बुझने से पहले शुरू हो गया था दूसरा दृश्य
वह बुढ़िया अभी भी आराम कुर्सी में
सो रही होगी जो कुछ सौ साल पहले
ऊंघ गयी थी आंच से गर्म कमरे के विवरणों के बीच
इसे एक गोली की आवाज़ ही जगा सकती है
लेकिन मालूम नहीं कब
हम चाहते भी थे कि दुर्भाग्य का वह पन्ना उधड़ कर
उड़ता चला जाए किसी रहस्य कथा में
हम चांदनी से भी आरामदेह एक बिस्तर पर लेट जायेंगे
जहाँ नींद की उपमा की तरह आएगी नींद
और हमें ढक लेगी
हम सपना देखेंगे एक घर का या किताब का
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सामाजिक भाषा में रोना
और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया
दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने
कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ
मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार - तुम्हें मालूम है ना ?
किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुःख ?
पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा
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पत्थर
इतने संतुष्ट थे पत्थर
कि उनकी छाया ही नहीं थी
जो लाखों साल वे रहे थे समंदर के भीतर
यह भिगोए रखता था उनके सपनों को
गुनगुनी धूप थोड़ा और देर ठहरे
इस मामूली इच्छा के बीच
वे बस इतना चाहते हैं
कि कोई अभी उनसे बात न करे
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कवि से सम्पर्क : maheshverma1@gmail.com ; 09425256497
कवि से सम्पर्क : maheshverma1@gmail.com ; 09425256497
36 comments:
बहुत अच्छी कविताएँ हैं. खासकर सामाजिक भाषा में रोना...
बहुत अच्छी कविताएँ हैं. खासकर सामाजिक भाषा में रोना...
बहुत अच्छी कविताएँ। सब की सब...
बहुत खूबसूरत हैं ....
'यह कविता का दिन है गद्य के सप्ताह में', बहुत खूब. महेश जी ने एक बार फिर बहुत प्रभावित किया है.
अनुभूतियों की विविधता के बीच भावों को पिरोना सहज नहीं होता बावजूद इसके ये कविताएँ अपनी यात्रा के साथ जिस सहजता से चीजों को देखती है वो बहुत ही महत्वपूर्ण है... "एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा के भाषा में और देखो/कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया... तलाश की यही परिणति काव्य की सफलता है... कोई मासूम तो कोई खूबसूरत ये छ:कविताएँ दुनिया के रंगो पर चढ़ के अपनी उपस्थिति से एक नए रंग को सृजित करती है... बधाई महेश जी को...
..बहुत बढ़िया ..कहना कठिन है कौन सी सबसे अच्छी लगी ...
mahesh verma ko pahli bar padha. mera durbhaagya ki itne achchhe kavi se abtak naawaakif raha. itni bechaini, itni vyatha, kavi ka mastak phat kaise nahin jaata!
chandan ji ka rini hoon.
जब पहली बार मैने महेश वर्मा की कवितायें पढ़ीं थीं तो सन्न रह गया था…असुविधा के लिये बड़ी मुश्किल से हासिल कर पाया था वे कवितायें और पोस्ट करने से पहले घंटो पढ़ता रहा था। इनके पीछे जो भाषिक और वैचारिक तैयारी है वह साफ़ दिखाई देती है। मुझे सच में 'गर्व' है नेट पर सबसे पहले उनकी कवितायें पोस्ट करने का। बहुत सारी शुभकामनायें।
वाकई लाजबाव रचनाएँ. अर्थ की दृष्टि से गहराई तक उतरती हुईं. महेश जी को आगे पढ़ना होगा हमें. चन्दन भाई का धन्यवाद.
अध्भुत कविताएं....कविता की शक़्ल में जैसे व्यथा-कथा....
सामाजिक भाषा में रोना, सीख लिया पाषाणों ने।
घर की बात सुनाते रहते, बैठे दस्तरखानों में।।
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सभी शब्द चित्र हकीकत बयान करते हैं!
बहुत अच्छी कविताएँ हैं .. प्रभावित करती हुई .. कुछ बिम्ब विलक्षण और बहुत खूबसूरत हैं .. बधाई !
pahli baar nahesh verma ko padhne ka mauka mila... behtreen kavitayen... achhi lagin kavitayen.... mahesh bhai ko badhai...chandan ka abhar...
बहुत अच्छी कवितायेँ हैं.
अच्छी कविताएँ।
एक से बढ़ कर एक सशक्त कविता... चयन मुश्किल... असुविधा पर पढ़ी और आज नयी बात पर... और कहाँ - कहाँ उपलब्ध है चेतना के फूल?
Very Nice.....
ghar vaali kavita bahut achhi hai ....aor "samajik bhasha me rona"...ka sheershak apni aor kheechta hai .
बहुत अच्छी कविताएँ !
शुभकामनायें।
जीवन को कविता के वृत्त में रह कर देखना और जीना... इन कविताओँ में उसकी बानगियाँ जीवंत होती हैं, 'रविवार', 'घर' और 'सामाजिक भाषा में रोना' कविताएँ मुझे अच्छी लगी.
यार महेश जी, बहुत दिनों बाद कविता पढ़ी, इसे अच्छी या बुरी इसलिए नहीं कह रहा हूँ क्योंकि ये कवितायेँ वास्तव में कविता है, जिनसे हिंदी कविता संसार समृद्ध होता है... बहुत प्यारे आदमी भी आप हैं निस्संदेह ...
ye kavitayen bina dhol-nagada bajaaye chupchaap aayin hain aur seedhey dil-dimag per asar kar gayin hain.in kavitaon k peechhe chhipa kavi kitani saralta se apni jatil baat kahta hai ki main fidaa hoon! aap donon ko badhai. bahut der se yahaan in kavitaon ka padha!
ye kavitayen bina dhol-nagada bajaaye chupchaap aayin hain aur seedhey dil-dimag per asar kar gayin hain.in kavitaon k peechhe chhipa kavi kitani saralta se apni jatil baat kahta hai ki main fidaa hoon! aap donon ko badhai. bahut der se yahaan in kavitaon ka padha!
इन दिनों बहुत कम ऐसी कवितायेँ पढी हैं . ये चलन और शोर से कुछ दूरी बनाती हुईं , मद्धिम आवाज़ में किसी 'सालिलाक्विस ' जैसी, अपने आप से/ को संबोधित होतीं कवितायेँ हैं . जब हिंदी में समकालीनता को बनाती हुई बहुत सी कवितायेँ हर रोज़ आ रही हैं , आभासी और उससे बाहर कागज़ी दुनिया में ..और ..जैसे कोई हर रोज़ कविता-सम्मेलन हो रहा हो ....तब महेश वर्मा की ये कवितायेँ (और उनकी पहले की भी कई कवितायेँ ) कुछ इस तरह हैं, जैसे किसी तेज़ आर्क्रेस्ट्रा के बीच सितार या किसी दूसरे तार-वाद्य का फकत एक तार बहुत संभाल कर, निहायत धीरे से छेड़ रहा हो. मन्द्र सुरों में शोर के बाच अपनी अलग जगह और व्यक्तित्व बनाती कवितायेँ .
भाषा में यह भी संभव है का भरोसा एक बार फिर सौंपती कवितायेँ . बधाई .
इन दिनों बहुत कम ऐसी कवितायेँ पढी हैं . ये चलन और शोर से कुछ दूरी बनाती हुईं , मद्धिम आवाज़ में किसी 'सालिलाक्विस ' जैसी, अपने आप से/ को संबोधित होतीं कवितायेँ हैं . जब हिंदी में समकालीनता को बनाती हुई बहुत सी कवितायेँ हर रोज़ आ रही हैं , आभासी और उससे बाहर कागज़ी दुनिया में ..और ..जैसे कोई हर रोज़ कविता-सम्मेलन हो रहा हो ....तब महेश वर्मा की ये कवितायेँ (और उनकी पहले की भी कई कवितायेँ ) कुछ इस तरह हैं, जैसे किसी तेज़ आर्क्रेस्ट्रा के बीच सितार या किसी दूसरे तार-वाद्य का फकत एक तार बहुत संभाल कर, निहायत धीरे से छेड़ रहा हो. मन्द्र सुरों में शोर के बाच अपनी अलग जगह और व्यक्तित्व बनाती कवितायेँ .
भाषा में यह भी संभव है का भरोसा एक बार फिर सौंपती कवितायेँ . बधाई .
एकांत में जैसे चले आते है चुपचाप आंसू बेआवाज वैसी ही बिना नगाड़े पिटे भीतर तक चली आती है ये कविता ,खासकर सामजिक भाषा में रोना .वैसे महेश जी अपनी कवियाये ,रिकार्ड करवाएंगे तो कविता बेहद असरदार होगी .कवि से अनुरोध है .आवाज की तुलना में भाषा और लिपि हमेशा कमतर लगती है .
अद्भुत प्रयोग है बिंबों का...आपके रेखांकन एक दशक से मन में आपके नाम के पर्याय बन कर बसे हुए थे और अब यह कविताएँ...
बधाई महेश भाई ... उम्दा रचनाएं है...
बधाई महेश भाई... उम्दा रचनाएं है..
कविताएँ अपने मुहावरे में है ,बुलाता है यह मुहावरा । यह दर्शाती हैं कि बड़ी मेहनत की गई है इन पर । कई बार सहज रूप से फूटी कविताओं का सीधा प्रवेश होता है जो पाठक पर ,यह उनमें नहीं आतीं ।
काफी दिनोँ बाद एक साथ इतनी अच्छी कविताएँ पढीँ. महेशजी, बहुत बहुत बधाई!
सभी कविताएँ प्रभावशाली हैं लेकिन पत्थर कविता पढ़कर यूं लगा जैसे कि पत्थर भी महसूस कर सकते हैं . आपकी कविता ने ये महसूस करवा दिया कि हाँ कर सकते हैं ..
यह कविता का दिन है गद्य के सप्ताह में
सभी कविताएँ लाजवाब हैं। फिलहाल इतना ही...
"पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा"
nice poem
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