Friday, December 3, 2010

सूरज की कविता

(यों तो कवि सूरज की यह कविता “भाषासेतु” पर प्रकाशित हो चुकी है, फिर भी इच्छा हुई कि इसे नई बात के साथियों से साझा किया जाये... और यह भी “भाषासेतु” के को-मॉडरेटर श्रीकांत से पूछ कर ही)

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मेरे खरीददार

(किसी ढाबे से रात का खाना पैक करा रही सुन्दरतम युवती के लिये, जो उस दरमियान तन्दूर के पास खड़ी अपने कोमल हाथ सेंक रही है और शर्तिया मुझे याद कर रही है, जबकि मैं हूँ कि वहीं हूँ – उसी तन्दूर में..)

तुमने मेरी कीमत नींद लगाई थी
जो हमने स्वप्न देखे वो सूद थे
जब स्वप्न चूरे में बिखर गया
तुमने मुझे समुद्र के हाथों बेच दिया

मेरी स्त्री!
बिकना मेरे भाग्य का अंतिम किनारा रहा
पर तुम ऐसा करोगी इसका भान नहीं था,
लगा तुम गुम हो गई हो
किसी बिन-आबादी वाले इलाके में

मैने समुद्र से लड़ाई मोल ली
उसे पराजित किया
तुम्हारे लिये तोड़ लाया समुद्र से चार लहरें
जैसे मैं जानता था तुम्हारे सलोने
वक्षों को होगा इन लहरों का इन्तजार

तब,
मेरी स्मृतियों को औने पौने में खरीद
तुमने मुझे बर्फ को बेच दिया
जो तुम्हारी लम्बी उंगलियों के
पोरों की तरह ठंढी थी

बर्फ के लिये मैं बेसम्भाल था
उसने मुझे पर्वत को बेच दिया
पर्वत ने शाम को
शाम ने देवदार को
देवदार ने पत्थरों को
और पत्थरों ने मुझे नदी को बेच दिया

स्मृतिहीन जीवन के लिये धिक्कारते हुए
नदी ने मुझे पाला अपने गर्भ की मछलियों,
एकांत,
और शीतल आसमान के सामियाने के सहारे

नदी को आगे बहुत दूर जाना था
उसने मुझे कला को बेच दिया
मात्र एक वादे की कीमत पर

कला के पास रोटी के अलावा देने के लिये सबकुछ था
कला ने साँस लेने की तरकीब सिखाई
फाँकों में सम पर बने रहने का सलीका
और तुम्हे याद कर सकूँ इसलिये कविता सिखाई

अनुपलब्ध रोटी के लिये कला उदास रहती थी
उसने विचार से सौदा किया
और जो मौसम उनदिनों था
उस मौसम ने विचार के कान भरे
विचार ने मुझे अच्छाईयों का गुलाम बनाना चाहा
मैने यह शर्त अपने पूरेपन नामंजूर की

मेरे इंकार पर विचार ने मुझे गुलाम
बताकर बाज़ार को बेच दिया

बाजार ने मुझे रौँदा
शत्रु की तरह नही
मिट्टी की तरह और ऐसा करते हुए
वो आत्मीय कुम्हार की धोती बान्धे था
जिसमें चार पैबन्द थे

चार पैबन्द से
चार लहरों की स्मृति मुझे वापस मिली
जिसकी सजा में बाजार ने
मेरा सौदा आग से कर लिया

बाजार को कीमत मिली और
मुझे अपने नाकारा नहीं होने का
इकलौता सबूत

तब मुझे तुम्हारी बहुत याद आई

आज शाम जब आग मुझे
तन्दूर में सजा रही थी
मैं तुम्हे याद कर रहा था

उपलों के बीच तुम्हारी याद सीझती रही
सीझती रही
सीझती रही...

जिसकी आंच में सिंक रहे थे
तुम्हारे कोमल हाथ
और सिंक रही थीं
तुम्हारे लिये रोटियाँ

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8 comments:

harendra singh rawat said...

dil chhune vaalee kavita. jivan ka disa bodh.

नया सवेरा said...

... sundar prastuti !!!

Aparna Mishra said...

Its always feel blessed to read Suraj!!!! Its one the best poem of Suraj..... Suraj, if u permit, can i plz write this poem in my collection.....

A single word for this poetry "WOW"

shesnath pandey said...

nayi bat par bhi suruj ki kavita dekh kar achha laga... ek sath do blog par yani kavita hit hai... maine is kavita ke sath yahi aash lagaye tha...

santosh chaturvedi said...

EK BEHTARIIN KAVITA. SAHI BAAT HAI BAJAR HAMARA DOHAN KUCHHA IS TARAH KARTA HAI HUME ISKA Pata hi nahi chalne pata.

लीना मल्होत्रा said...

vacharik dharatal par एक updrv ki sthiti paida kar deti hai. . bahut सुन्दर. sabhaar http://lee-mainekahablogspot.com/

पारुल "पुखराज" said...

चार पैबन्द से
चार लहरों की स्मृति मुझे वापस मिली …

आभार इस नयेपन के लिये …बेहतरीन कविता

Anonymous said...

Suraj ka jawab nahi. Kavaita dil ko chhu gai. Badhayee. Shubh kamnayen.

(Arun Yadav)
Jabalpur (M.P.)