Saturday, December 25, 2010

बिनायक सेन को सजा के फैसले का तथ्यपरक विश्लेषण .. ..और पाश की एक कविता..


  (  सत्ता की हर काली करतूत पर एक पोस्ट लिख देना भी अब गलत लगने लगा है. यह एहसास लगातार बना रहता है कि आखिर किससे अपनी बात कही जाय? जैसे कुछ भी करना असम्भव हो गया हो. ठीक इसी तरह का मामला बिनायक सेन और उनके आजीवन कारावास की सजा का है. इस पूरे मामले पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि कुछ और ही वजह है जो बिनायक को यह सजा सुनाई गई है. छत्तीसगढ़ के नये मालिकों और राजाओं के सीने पर कहीं ना कहीं बिनायक सेन और उन जैसे लोग चुभ रहे हैं और उन्हें रास्ते से हटाने के तरीके ईजाद किये जा रहें हैं.. फिर भी यह पोस्ट इसलिये ताकि कुछ तथ्य आपके जेहन में लगातार बसे रहे और जब भी आप गुलाम मीडिया के जरिये कार्पोरेट्स के आग उगलते शुभचिंतको को सुने तो आप उनकी ‘नेकनीयती’ भाँप सकें.... आलेख अनिल का है और उम्मीद की किरण जैसी यह कविता पाश की है..)   

सिद्धांतहीन फ़ैसला
 
नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और जाने माने बाल चिकित्सक डॉक्टर बिनायक सेन को देशद्रोह और साज़िश के आरोप में उम्रक़ैद का फ़ैसला सुनाया गया है. उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के अनुसार, ’यह फ़ैसला भारत की निचली अदालतों में लोगों के भरोसे को कमतर करेगा.’ एमनेस्टी इंटरनेशनल ने वक्तव्य ज़ारी करते हुए कहा है कि डॉ. बिनायक सेन के मुक़दमे की सुनवाई के दौरान स्वच्छ न्याय के अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का पालन नहीं किया गया है और इससे तनावग्रस्त इलाक़ों में स्थितियों के और बदतर होने के आसार हैं.
निर्णय की तारीख़ के कुछेक दिनों पहले अभियोजन पक्ष के वकील अदालत में कार्ल मार्क्स के ग्रंथ पूंजी (दास कैपिटल) की प्रति लेकर आए. उस वकील ने अपनी मूर्खता की हद यह बता कर की कि यह दुनिया की सबसे खतरनाक किताब है और माओवादी इससे भी ज्यादा खतरनाक होते हैं. इस आधार पर वे माओवादी ख़तरे को इंगित करते हुए डॉ. बिनायक पर राजद्रोह और साज़िश रचने का दोषी ठहरा रहे थे. हद तो तब हुई जब डॉ. बिनायक की पत्नी प्रो. इलीना सेन द्वारा दिल्ली स्थित इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट को लिखे एक पत्र को अभियोजन पक्ष ने पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के साथ जोड़ दिया. और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय आतंकी नेटवर्क का हिस्सा बताने में जुटा रहा. ये सच्चाईयां भारतीय लोकतंत्र के संकट को और गहरा करती हैं. जहां एक ओर तो घोटालेबाज़ राजनेताओं, आर्थिक अपराधियों, बिचौलियों और व्यवस्थाजन्य नरसंहार के आयोजकों को खुलेआम खेलने की अनंत छूट मिल जाती हैं तो दूसरी ओर मूलभूत ज़रूरतों से वंचित विशाल तबक़े के लिए अपने जीवन और करियर का सर्वश्रेष्ठ लगा देने वाले वाले डॉ. बिनायक सेन जैसे लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा मुकर्रर कर दी जाती है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह निर्णय सरकार की जन-विरोधी नीतियों की आलोचना का मुंह बंद करने और अन्य लोगों को कड़ा सबक़ सिखाने की राजनीतिक मंशा से प्रेरित है.
इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ लोगों में काफ़ी रोष देखने को मिल रहा है. नागरिक अधिकार, मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए अगर यह झटका देने वाला फ़ैसला है तो न्याय व्यवस्था के लिए एक चुनौती भी है कि शोषण और भ्रष्टाचार के कूड़े-ढेर तले दबे भारत के असंख्य लोगों के बीच यह भरोसा कैसे क़ायम रखा जाए कि न्याय के इन ’मंदिरों’ में न्याय सुलभ हो पाएगा? जब शिक्षित, शहरी और नौकरीपेशे वर्ग के लिए समुचित न्याय पाना दिनों दिन एक टेढ़ी खीर साबित हो रहा है तो उन लाखों करोड़ों ग़रीब, ग्रामीणों की कैसी स्थिति होगी जिन्हें छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और आंध्रप्रदेश के गांवों से किसी तरह के क़ायदे क़ानून के पालन के बग़ैर ही गिरफ़्तार किया जाता है? डॉ. बिनायक सेन का मुक़दमा समूची न्याय प्रक्रिया की एक बानगी मात्र है. मई, २००७ में गिरफ़्तार करने के बाद उन्हें निराधार जेल में बंद रखा गया. लोग जानते हैं कि यह क़दम छत्तीसगढ़ सरकार की इस बदनीयती से संचालित था कि वह पुलिस और अपराधियों के गिरोह सल्वा जुडुम के आलोचकों की ज़बान ख़ामोश करना चाहती थी जिसके लिए डॉ. बिनायक को क़ैद करना अहम हो गया था. डॉ. सेन उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से दो साल बाद ज़मानत पर रिहा हुए थे.
रायपुर में शुक्रवार के दिन जिस वक़्त डॉ. बिनायक सेन पर सज़ा सुनाई जा रही थी वहीं उसी वक़्त  एक प्रकाशक असित सेनगुप्ता को भी राजद्रोह और साज़िश के आरोप में ११ साल के कारावास की सज़ा सुनाई गई है. इस सज़ा के क्या मानक हैं इसकी चर्चा जनमाध्यमों में कम हुई है. अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है जो क़ानून ही अवैध हों, जो क़ानून संवैधानिक मान्यताओं के सरासर उल्लंघन की बुनियाद पर टिके हों, उन्हें आधार बनाकर दिए गए फ़ैसले कितने न्यायसंगत होंगे! दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर का यह आक्रोश ग़ौरतलब है कि ’यह धोखाधड़ी है.’ डॉ. बिनायक सेन को न्याय के किसी सिद्धांत के आधार पर राजद्रोह और साज़िश का दोषी नहीं ठहराया गया है. बल्कि अपराध को एक ढीली ढाली, दलदलीय  परिभाषा में ढाल दिया गया और फिर न्याय को पदच्युत करके ऐसा किया गया है. ऐसे कठोर निर्णय के औचित्य पर न्यायाधीश ने जैसा संबंध जोड़ने की कोशिश की है वह हैरत में डालने वाला है. क्योंकि डॉ. बिनायक सेन पर लगे आरोपों के लिए यह वक्तव्य किसी प्रमाणिक साक्ष्य का काम नहीं कर सकता.
न्यायाधीश बी.पी. वर्मा ने एक टिप्पणी में कहा है कि “आतंकवादी और माओवादी जिस तरह से राज्य और केंद्रीय अर्ध-सैनिक बलों और निर्दोष आदिवासियों को मार रहे हैं तथा देश और समुदाय में जिस तरह डर, आतंक और अव्यवस्था फैला रहे हैं उससे अदालत अभियुक्तों के प्रति सहृदय नही हो सकती और क़ानून के अंतर्गत न्यूनतम सज़ा नहीं दे सकती.” ग़ौरतलब है कि न्यायाधीश महोदय की इस टिप्पणी का डॉ. बिनायक सेन के मुक़दमे से कोई लेना देना नहीं है. न्याय का सिद्धांत और शासन इसकी इजाज़त नहीं देता कि घटना कहीं घटे तो उसका अभियुक्त किसी और को कहीं भी बना दिया जाए.
प्रशांत भूषण कहते हैं, “उच्चतम न्यायालय ने साफ़ किया है कि राजद्रोह का दोष तभी लगाया जा सकता है जब अभियोजन पक्ष यह साबित करे कि अभियुक्त हिंसा भड़काने या सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने की कोशिश में था. यह स्पष्ट है कि यह मामला इस मानक पर खरा नहीं उतरता.” इतना ही नहीं, अदालत में पुलिस द्वारा पेश किए गए गवाहों में से कई पहले ही अपने बयान से मुकर गए हैं और बचाव पक्ष ने जब उनके विवरणों की जांच पड़ताल की तो उसकी भी असलियत सामने आ ही गई. जैसे पुलिस का कहना था कि उसने डॉ. बिनायक सेन के काम की तारीफ़ वाली भाकपा (माओवादी) की एक चिट्ठी बरामद की थी. लेकिन बचाव पक्ष ने स्पष्ट किया कि डॉ. सेन को झूठे फंसाने के लिए ख़ुद पुलिस ने यह चिट्ठी बाद में जोड़ी है क्योंकि ज़ब्त किए गए हर सामान की तरह इस चिट्ठी की बरामदगी में न तो डॉ. सेन के हस्ताक्षर हैं और न ही प्रत्यक्षदर्शियों के.
डॉ. बिनायक सेन पर भाकपा (माओवादी) की मदद करने का आरोप पुलिस ने कथित नक्सली नेता अस्सी बर्षीय नारायण सान्याल से जेल में ३० से भी ज़्यादा बार मिलने के आधार पर लगाया है. बचाव पक्ष ने इस आरोप को यह कहते हुए चुनौती दी कि जेल रजिस्टर में इन मुलाक़ातों का स्पष्ट उल्लेख है. डॉ. बिनायक सेन ने पीयूसीएल के उपाध्यक्ष रहते हुए जेल मे बंद आरोपी के स्वास्थ्य कारणों से भेंट की थी जो कि जेल अधीक्षक की उपस्थिति में होती थी और सारी बातचीत हिंदी में होती थी ताकि वहां बैठे दो अन्य निरीक्षक यह समझ सकें कि क्या बात हो रही है.
उपरोक्त तथ्यों को नज़र अंदाज़ कर दी गई उम्रक़ैद की यह सज़ा न्याय की भावना को हीनतम बनाती है. इसके समर्थन में दी गई जिन कमज़ोर और बौनी दलीलों के आधार पर अदालत ने यह फ़ैसला सुनाया है वे न्याय-व्यवस्था से उम्मीद लगाए लोगों को निराशा की खाई में धकेलती हैं.

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पाश की कविता 
मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
बना दो हॉस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
...
मुझे क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी
दो साल दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है

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9 comments:

Ashok Kumar pandey said...

ये सारे वाकयात स्पष्ट तौर से एक फासीवादी दौर की पदचाप सुना रहे हैं। हाब्सबाम की वह बात बेतरह याद आती है कि 'लोकतंत्र हमारे जेनुइन प्रतिरोध को स्पेस नहीं देता'।

डॉ .अनुराग said...

डेमोक्रेसी की हत्या ....सच में तो हुई है

Satish Chandra Satyarthi said...

मैं अपने दिल में नक्सलियों के प्रति ज़रा भी सहानूभूति नहीं रखता.. पर विनायक सेन को दी गयी यह सजा निहायत ही शर्मनाक है...
कोरिया में क्रिसमस

Anonymous said...

पोस्ट के साथ पाश जी की रचना सुन्दर है!

meemaansha said...

नागरिक अधिकार, मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए अगर यह झटका देने वाला फ़ैसला है तो न्याय व्यवस्था के लिए एक चुनौती भी है कि शोषण और भ्रष्टाचार के कूड़े-ढेर तले दबे भारत के असंख्य लोगों के बीच यह भरोसा कैसे क़ायम रखा जाए कि न्याय के इन ’मंदिरों’ में न्याय सुलभ हो पाएगा? ...nice questionmark.....certainly this is disgusting..

सुशीला पुरी said...

विनायक सेन की सजा हर उस नागरिक के लिए सजा की तरह है ... जो हक़ के लिए खड़ा है और निहत्था है ।

नया सवेरा said...

... gambheer maslaa !!!

Fauziya Reyaz said...

thanx 4 sharing...good collection

photo said...

yaha aakar sahi chejo ko jano dosto aap logo nay aankho may kala kapda bandh rakaha hay