Thursday, December 16, 2010

दुर्गेश सिंह की पहली कहानी – जहाज


शुभ 16 दिसम्बर के उपलक्ष्य में, नई बात, हिन्दी कहानी के नितांत नये रंगरूट दुर्गेश सिंह का स्वागत करता है. ‘जहाजदुर्गेश की पहली कहानी है और यह उनकी कहानी है, जिन्हे समझने की कोई कोशिश हमारा समाज नहीं कर रहा है. यह उस उम्र की कहानी हैं जब हम सच को दु:स्वप्न की तरह देखना पसन्द करतें है और जाहिर सी बात है, सपने को जरूरी सच की तरह. प्रकारांतर से यह कहानी उस उम्र की याद दिलायेगी जब आपको जीवन में पहली बार अकेला कर दिया जाता है और पूछा जाता है: तुम उदास क्यों हो?

कहानी के डिटेल्स सर्वथा नये हैं. दुर्गेश को बधाई तथा उज्ज्वल भविष्य की शुभकामना.

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जहाज



संभावना है कि कहानी पढ़ते वक्त आपको सारी बातें रूमानी लगे. यकीन मानिए ऐसी ही रही थी हमारी जिंदगी. कहानी को कहानी की तरह पढ़े तो तकलीफ नहीं होगी. साहित्य और सरोकार की तलाश में आप उसे उसी स्तर पर पाएंगे जहां से हम अपने परिवार के दरवाजे की सिटकनी चढ़ाते हुए चरसी रात की चादर ताने प्रेम और रतजगे करते हैं.


तब दो अलग जिंदगियों का मिलना हुआ था कमरा नम्बतर 105 में. अब एक ही जिंदगी बची है. साढ़े तीन सौ कमरे रहे होंगे टर्नर हॉस्टाल में. अब एक भी नहीं है. महज पांच साल पहले की बात . जाने बब्बू. भय्या कहां गए, हमारा पेट वही पालते थे. बाद में सुना था कि होंडा सिटी से चलने वाले हमारे प्रिसिंपल ने उन्हेंल पढे-लिखे मास्ट5रों को पानी पिलाने का काम सौंप दिया था. पुराने पियक्क ड़ तो मेस तक पहुंच जाते थे लेकिन नए जहाजों के कमरे तक खाना वही पहुंचा देते थे. जहाज कॉलेज में नई एंट्री को कहा जाता था. जैसे- जहाज तनि कमे उड़ा.

आलोक नाम था उसका, जो बाद में उसकी सूरत के आधार पर मुन्ना में तब्दील हो गया था. कमरा नम्बेर 105 में उसका बिस्तेर पहले आया था. जुलाई की ही एक ऐसी रात बारिश झकाझक शुरू हो गई थी. सभी जहाजों को लैंड हुए गिनती के सात दिन भी नहीं हुए थे. जहाजों के कमरे पर हुई दस्तकों के बाद तकरीबन दो सौ युवा कच्छा बनियान पहले बाहर निकले. कतार बद्ध हम सभी जहाज बारी आने पर टेक-ऑफ का इंतजार कर रहे थे. पहले एक मेज आई. फिर एक छोटी सी रंगीन टीवी, जो देखने में ही अश्लील लग रही थी. मेज पर टीवी और उसके बगल में वीसीआर, उम्मीद है हम नाम नहीं भूलें होंगे. एक काले रंग का सीनियर हाथ में एक कैसेट उठाकर बोला- बच्चों , यह है ब्लू फिल्म. उस कालिए ने कैसेट वीसीआर में खोंस दी और टीवी ऑन. कई जहाजों की स्ट्रेट फैंटेसी का तो न्यू ईयर था उस दिन. उसके बाद शुरू हुआ पॉस बटन दबाकर रतिक्रिया में लीन गोरे लोगों पर ग्रुप डिस्कंशन और पर्सनल इंटर्व्यू का दौर. सही जवाब देने वाले जहाजों को एक केला ईनाम में देकर तुरंत टॉयलेट जाने को कहा जाता था. इस तरह अडि़यल जहाजों को छोड़कर सब लैंड हो चुके थे. उन अडि़यलों में से ही एक था आलोक.

क्रिश्चियन कॉलेज था. वार्डन थॉमस अब्राहम हिंदी बोले जाने पर ऐसे सुनते थे जैसे इलाहाबाद और जौनपुर के बीच पड़ने वाले जंघई जंक्शयन पर रेलवे एनाउंसमेंट सुन रहे हों. हॉस्ट से बाहर जाते समय जहाज उन्हें थामस सरनमस्ते के बजाय मादर** नमस्ते कहकर निकल जाते. वो हंसकर अंग्रेजी में जवाब देते ‘ गुड मार्निंग ’. भाषाअच्छी थी लेकिन उन दिनों हम पर उतनी हावी नहीं थी कि हमें गालियां भी उसी भाषा की अच्छी* लगे. थॉमस की बीवी को देखकर सभी जहाज क्रैश हो जाते थे. ऐसा सीनियर्स का कहना था कि थॉमस की वाइफ सभी हॉस्टलर्स को लाइन देती है. माल एक, लाइन सबको, इस बात पर परिचर्चा को बेवकूफाना समझा जाता था. क्योंकि तब तक शायद ही किसी जहाज ने ‘ गुनाहों का देवता ’ पढ़ा था. हालांकि बाद में अधिकतर जहाज सुधाओं के प्या में हाईजैक होकर चंदर बनने लगे थे.

सूबे में किसी बहन जी की सरकार बनी थी. कमाल की बात थी कि बच्चे, जवान, बूढे सब उनको बहन जी ही कहकर बुलाते थे. कोई उन्हें मां-बेटी समान नहीं समझ सकता था. भाई तो सब पहले कई बार सुन चुके थे लेकिन बहनगिरी की कहानी नई थी. पूरा शहर नीली झंडियों से पट गया था. एक मुस्लिम नेता के भाई ने युवा विधायक को पूरे शहर भर में दौड़ाकर गोलियां मारी थी. उस विधायक ने बारह दिन पहले ही प्रेम विवाह किया था. शहर का माहौल खराब हो गया था. हम सहम गए थे. जीवन ज्योति अस्पताल की डॉक्टरनी ने तो विधायक को भर्ती तक नहीं किया था. विधायक सिविल लाइंस, मुट्ठीगंज और कीडगंज के इलाकों में तड़प कर मर गया था. बात लखनऊ तक पहुंची थी. बहन जी इलाहाबाद आईं थी और सीबीआई जांच की मांग करके वापस चली गई. बाद में उस विधायक की विधवा पत्नी चुनाव लड़ी और हार गई थी. करेली में पीएसी लग गई थी. आलोक अपनी हीरो होंडा लेकर उस मुस्लिम नेता के घर चला गया था. शर्त यह थी कि है कोई माई का लाल है जो दंगा वाली जगह जा सकता है. आलोक के वापस आने पर सभी जहाजों ने उससे पूछा था कि क्या हुआ? तो उसने अपनी पीठ खोलकर दिखा दी थी. शर्ट के नीचे चमड़ी लटक रही थी, हम वापस उसे जीवन ज्योति ले गए. उसी डॉक्टरनी ने फिरे उसे भर्ती करने से मना कर दिया. एक जहाज ने देसी कट्टा डॉक्टरनी की नाभि से सटा दिया. आलोक ठीक हो गया. कट्टे से जुड़ी कहानी आगे भी जारी रहेगी.

सारे जहाजों को क्लास से छूटने के बाद कोई कोई असाइनमेंट दिया जाता था. उस दिन संजय लीला भंसाली की देवदास रिलीज हुई थी. हमसे कहा गया कि बिना टिकट खरीदे पिक्च देखकर आना है. टिकट ब्लैाक करने वालाशक्ल से ही निहायती काईंया लग रहा था. हमने एक टिकट का दाम पूछा तो उसने कहा सौ. संजय लीला भंसाली तब तक हम दिल दे चुके सनम से सेलीब्रिटी डायरेक्टर बन चुके थे. उनका यह स्टेटस हमको देवदास देखने पर मजबूर कर रहा था. शाहरुख खान की हकलाती जबान सिर चढ़कर नशा कर गई थी ; बाबू जी ने कहा घर छोड़ दो, मां ने कहा पारो छोड़ दो, एक दिन लोग कहेंगे कि दुनिया छोड़ दो. बांदा से आया अनूप बीच में ही बोल पड़ा ‘ मो ना अइसे दुनिया छोड़ब ’. हमने उस ब्लैक टिकटर से सारी टिकटें छीन ली थी. पैर फैलाकर बॉलकनी में बैठ देवदास का श्राद्ध वाला सीन देख रहे थे. कुछ जहाज तो रोने लगे कि कोई अपना ही श्राद्ध कैसे करवा सकता है. तभी पुलिस का एक कांस्टेाबल आया- बाहर चलिए. पचास लोगों को पैदल थाने ले जाया गया.

दो घंटे थाने में बिठाया गया, थानेदार मोहन किशोर एक नम्बका टाइम पास था. पहले वह आज तक न्यूज चैनल ट्यून कर अपनी आराम कुर्सी पर घंटो सोता रहा. फिर जब उसके अर्दली ने उसको जगाया तो उसने हमारे भविष्य के बारे में इतनी सारी चिंताएं कर डाली कि हमारा मन हल्का हो गया. हम सभी अपने-अपने बेहद कम बचे दिमागों की पोस्टामार्टम रिपोर्ट के बाद कॅरियर को लेकर निश्चिंत हो गए थे. लिखित बयान देने पर हम सभी को छोड़ा जाने लगा और आलोक फिर से अड़ गया. उसका साथ देने के लिए नेता इन वेटिंग राजेश पांडे भी खड़े हो गए. आलोक और राजेश को अगले दिन सुबह छोड़ा गया. सभी के घर खत भेजे गएं कि क्यों फला को कॉलेज से निष्कासित कर दिया जाए. खत राजेश पांडे के घर नहीं पहुंचा, गांव का पोस्ट मास्ट र ‘ गोवा- स्पिरिट ऑव स्मूदनेस ’ की बलि चढ़ चुका था. हालांकि वह गोवा गया नहीं था लेकिन गोवा को उसने उस दिन महसूस किया जब पांडे की दी हुई दारू अंतडि़यों को चीरते हुई निकली थी. गोवा उत्त प्रदेश में नहीं मिलती. मध्य -प्रदेश की सीमा से सटे आस-पास के जिलों में वह रीवा के रास्तेी आती है. बिलकुल प्राची रॉय की तरह सब पर छा जाती है.

प्राची रॉय की वजह से ही बक्सऔर प्लासी का युद्ध भी हमें रोचक लगता था. वो अधिकतर स्लीवलेस पहनकर आती, हम उनके खुरदुरे अंडरआर्म्से को निहारते हुए मध्येकालीन विलासी राजा सा महसूस करने लगते. प्राची रॉय और हमारे दरम्यादन एचओडी रहीम जिंदादिल हमेशा जाते. उनकी जिंदादिली को देखकर सड़क पर भौंकते कुत्तेू भी आंय-आंय करते सोने का नाटक करने लगते. वो साइकिल वाले रिक्शे पर सवार होकर डिपाटमेंट के सामने आकर उतरती. रिक्शा़ वाला माहवारी पर बंधा था. उनके उतरने के बाद हममे से कोई एक उसी रिक्शे पर प्राची रॉय की खुशबू को फील करते हुए गेट के बाहर तक जाता था. जहाजों को सख्ती हिदायत थी कि वे किसी डेलीगेसी वाले से दोस्ती करें. लड़कियों से कर सकते हैं. रेसीडेंशियल इलाकों में किराए पर घर लेकर रहने वालो को डेलीगेसी वाला कहा जाता था. मिड टर्म अभी तीन महीने दूर थे. जहाजों से उम्मीद की जाती थी कि वे पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता हैं.

चुनावी मौसम में जहाजों के अधिकार क्षेत्र बांट दिए जाते थे. हैंडसम और इंटेलिजेंट टाइप्स, लड़कियों को हैंडिल करते. अनूप सिंह प्रकार के लोगों को ट्रक रोककर चंदा वसूली में लगा दिया जाता था. आलोक की बुत बने रहने की आदत की वजह से लोग उसे साइको समझने लगे थे. कुछ लोग सस्ते नारे लिखने में लगे रहते. जैसे- चार चवन्नी थाली में, अपोजिशन नाली में. एक और झेलिए- भय्या जीत के अईंहैं जय हो, भय्या लड्डू खियैंहे जय हो, भय्या पास करिहैं जय हो, भय्या माल देवैंइहे जय हो.

खुशबूदार
पर्चियां छपती थी. कॉलेज के ठीक सामने टेंट लगता था. यूनिवर्सिटी का एक मठाधीश हॉस्टको स्पॉंसर करता. दूसरा डेलीगेसी को. यहां कोई विचारधारा काम नहीं काम करती थी. विचार को धार बनाकर बहा देने वाले ही यूइ्रंग क्रिश्चियन कालेज का चुनाव जीतते थे, ऐसा कहना था कि अवनीश मिश्रा का.

अवनीश मिश्रा नए जहाजों के शौकीन माने जाते थे. जहाजों को पहले से ही आगाह कर दिया जाता था कि ठोंकू पंडित से दूर रहना. पचपन की उम्र तक भी शादी नहीं की थी अवनीश मिश्रा ने. देश के सबसे पुराने कालेजों में से एक इस कालेज से अवनीश मिश्रा का संबंध काफी पुराना था. लोगों का कहना था कि हर साल चुनाव में हॉस्टलर्स की चुनावी फंडिंग अवनीश मिश्रा ही करते हैं. बदले में सिर्फ उन्हे मुंहमांगा जहाज चाहिए होता है. मंजूर हुआ तो पैसा पास अन्यथा, वे कई जिलों से आए ऐसे कई जहाजों में से एक जहाज खोजते थे जो फिल्मी सपना देखता हो. अवनीश मिश्र उसको पूरा शहर अपनी स्कूटर से घुमाते थे. सिविल लाइन्सस में खाना खिलाते थे . पैलेस सिनेमा की बॉलकनी में पिक्चर दिखाते थे. लड़कियां पटाने के लिए नुस्खे बताते थे.

हेवेन्स्
गार्डन का पावडर खरीदते थे. जीन्स जंक्शिन से कार्गो पैंटे खरीदते थे, पनामा का पहला कश लेते हुए कंगारू कैसे गटकी जाए, यह सब अवनीश मिश्र ही बताते थे. एक खेतिहर परिवार से आया लड़का खुद को फरदीन खान समझने लगता. जैसे ही लड़का खुशहाल सा होने लगता वे उससे तड़ से वही रेयर ऑव रेयरेस्ट चीज मांग बैठते. उस दिन विनय सिंह पटेल नाम का एक जहाज दौडत़ा हुआ आलोक के पास आया था और पीछे-पीछे अवनीश मिश्र भी लगे चले आए थे. अवनीश मिश्र के सिर पर आलोक ने ‘बी एंड के’ की बनी हुई र्इंट दे मारी थी.

बी एंड के का पूरा नाम बच्चवन एंड कंपनी था जिसका अमिताभ बच्चन से सीधा संबंध था. अल्लापुर में रहने वाले खुरभुर राम यादव काला पत्थर देखकर इतने भावुक हो गए कि अपने तबेले का नाम बी एंड के रख दिया. अमिताभ बच्चन जब इलाहाबाद से चुनाव लड़ें तो खुरभुर ने महीना भर अल्ला पुर में मुफ्त में दूध बांटा. अमिताभ का सबको पता है लेकिन खुरभुर का हम बता रहे हैं. धंधा चौपट हुआ तो उन्हों ने ईंट बनाना शुरू किया जिसकी प्रेरणा उन्हें मजबूर से मिली थी. धंधा चल निकला, इलाहाबाद में खुरभुर की बी एंड के कंपनी का नाम हो गया. लोग यह तक कहते हैं कि बंबई की बरसात में एक बार उन्होने अमिताभ के बंगले प्रतीक्षा की एक दीवार ढहने की खबर सुनी थी. पांच ट्राली ईंट लेकर मुम्बगई से सटे ठाणे जिले तक वे पहुंच गए थे लेकिन ट्रैफिक पुलिस के जवानों ने उन्हें आगे जाने नहीं दिया. ठाणे के ही एक खाड़ी में पूरी इंटे गिरवा दी और ऐसा मान लिया कि वे बहकर प्रतीक्षा तक पहुंच जाएंगी. खुरभुर अक्सकर गंगा माई के ब्रिज पर से गुजरते हुए लोगों को सिक्के फेंकते देख चुके थे.

आलोक के इस कदम ने हमारी लुटिया डूबो दी. अवनीश मिश्र ने पैसा डेलीगेसी पर लगा दिया और हम चुनाव हार गए. हम चुनाव हारकर अपने टेंट में ही खड़े थे कि तभी सामने से नवनिर्वाचित अध्यक्ष की रैली निकली. आलोक ने गोली चला दी जो अध्यंक्ष को बगल से छूकर निकल गई. हम भाग खड़े हुए और प्रॉक्टर की रेड में सीनियर्स को हॉस्टल से निकाल दिया गया.

मिड टर्म में अभी भी दो महीने बचे थे. वह इतवार की बनावटी दोपहर थी जब छह फीट दो इंच का विवेक अपने साथ पूर्णिमा को लेकर हॉस्टल पहली बार आया. वह उसकी दोस्त थी, ऐसा वह कहता था. दोनों पूरी रात कमरे में बंद रहे. विवेक का रूममेट रीडिंग रूम में पढ़ता रहा, बाद में वहीं पांच फीट ऊंची टेबल पर सो गया. सुबह हमारी नींद उसकी चीख से खुली. वह टेबल से गिर गया था. वारदात स्थल पर उसका हाथ जींस के अंदर टेढी अवस्था में पाया गया. सब उस पर हंसे थे और पूर्णिमा डिसगस्टिंग कहकर विवेक के कमरे में फिर से सोने चली गई थी. प्राचीन इतिहास का छात्र विवेक पूरे साल पूर्णिमा के शरीर का भूगोल का पता करता रहा.

समय
आया, जब हम सबके अंदर का दिल बच्चाग होने से मना करने गला था. परीक्षाएं नजदीक आने के बावजूद प्यार का फीवर हावी होने लगा था. कुछ जहाज हॉस्टल आना बंद कर चुके थे. वे शाम होते ही अपनी प्रेमिकाओं के घर रोमिला थापर की किताबें पढ़ने चले जाते थे. पढ़ते क्या थे, ये बताने की जरूरत थी लेकिन गर्लफ्रेंड धर्म का पालन करने वाले अधिकतर जहाज मिड टर्म में पास हो गए. राजेश पांडे मिड टर्म परीक्षा में फेल हो गए. अनूप अगले चुनाव पर आने वाले खर्चों की जानकारी देने नैनी सेंट्रल जेल चला गया था. 307 में बिताए गए तीन महीनों में उसने गजब की दाढी बढा ली थी. राजेश पांडे ने तो नकली मार्कशीट का इंतजाम तक कर लिया था अवनीश मिश्रा के मार्फत. जब हमने उसे हेय दृष्टि से देखा तो उसने रेयर ऑव रेयरेस्ट चीज के सुरक्षित होने की बात कही. आलोक का पास होना किसी को समझ में नहीं आया.

छुट्टियां अपने घरों पर बिताकर आने के बाद सबने आलोक का बदला रूप देखा. उसे शायद किसी लड़की से प्यार हो गया था. वह हम सबसे प्यार करने लगा था और एट पीएम पीने लगा था. उसके पैसों से हमने पहली बार ग्रीन लेबल पी थी. जिसके बारे में चियर्स करते समय उसने कहा था कि अपना लेबल ग्रीन लेबल. दूसरी साल हम सीनियर जहाज हो गए थे. हममें से कुछ ने तो मैच्योरिटी झलकाने के लिए अग्रवाल चश्में वाले के यहां से पॉवर वाले दिखने वाले चश्में भी खरीद लिए थे.

राजेश
पांडे ने धीरूभाई अंबानी की गाल पर रखी उंगली को गंभीरता से लेते हुए कर लो दुनिया मुट्ठी में करने की ठान ली थी. मानसून के आने से ठीक पहले ही रिलायंस के मानसून हंगामे का फायदा उठा लिया. गाजीपुर जिले के लोगों का भविष्य इंश्योर करने वाले पिता को बेटे का भविष्य का अंदाजा हुआ. महीने के पंद्रह सौ में पांच सौ वह मुट्ठी खोलकर कभी खुलने वाली मुट्ठी में डाल देता था. पैसे की कमी होने पर हमसे उधार ले लेता था. कीडगंज की मोबाइल रिचार्ज करने वाली दुकान पर उसका प्रजेंस ऑव माइंड देखकर हम उसको बिना कुछ कहे उधार दे देते थे.

हुआ यूं था कि रिचार्ज कूपन लेने राजेश पांडे दुकान पर पहुंचा. दुकान में दकानदार का सिर खा जाने वाली भीड़ थी. राजेश के ठीक आगे वाला चोदूभगत अपना कार्ड स्क्रैकर रहा था. इससे पहले कि वह चौदह अंको की डिजिट डायल करने से पहले स्टा़र और हैज के बीच के सर्विस प्रोवाइडर के तीन अंक डायल करता, राजेश पांडे वह काम की-पैड पर अनमने तरीके से कर चुके थे. इस तरह उसके चौदह अंक बारी-बारी से देख डायल करने से पहले राजेश अपना मोबाइल जेब में डाल चुके थे. दिमागी रूप से खत्म हो चुके दुकानदार और ग्राहक के झगड़ों के बीच राजेश पांडे कब खिसक लेते किसी को पता भी चलता था. राजेश पांडे का खिसकना हम सबके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हुआ करता था. उनके खिसकने के किस्से हमारे बीच गुरू घंटाल के किस्सों जितने चर्चित हुआ करते थे. संगीत सिनेमा में प्रियदर्शन की सदा की तरह कोई रीमेक की हुई फिल्म 'हलचल' चल रही थी. इंटरवल से ठीक पहले करीना की दादी पान खाकर बॉलकनी में आई कि तभी हमारे सामने वाली कतार में बैठे एक इलाहाबादी बकैत ने कहा ‘ ले अरशद वारसी पे थूकिस ’. बक्ससे आईएएस बनने आए गौरव ने कहा भाई, आगे-आगे बोलिए ना. गौरव सिनेमा को सब्जेक्ट मानकर चलता था, कोई और ऑब्जेक्ट उन दोनों के बीच में आए, यह उसको बर्दाश्त नहीं था. खैर, पलटकर बकैत ने कहा- कस अमे, तुमको का पिराबलम है. राजेश पांडे रजनीकांत वाली स्टाबइल में अपनी सीट से उठे और बकैत की कनपटी पर एक चाटा रख दिया. बयालीस किलो वाले राजेश पांडे के चाटे का पॉवर यामाहा आर एक्स हंड्रेड जैसा निकला. बहता खून देखकर टिकट चेक करने वालों ने मेन गेट लॉक कर दिया. थियेटर कंपाऊंड में पेलम-पेलाई जारी रही.

अस्तबल लॉज के रहनुमा कहे जाने वाले भूपेंद्र सिंह अपनी पार्टी लेकर थिएटर के सामने से सही वक्त पर निकले. अस्तबल लॉज की भी अपनी एक अलग कहानी थी. कोई रसूखदार पंडा था जिसने तीन माले की इमारत के ग्राउंड फ्लोर पर कुछ मरियल से दिखने वाले घोड़े पाल रखे थे. घोड़ों के लीद की खुशबू दूसरे माले पर रहने वाले स्टूडेंट्स के कमरों तक जाती थी चूंकि पढ़ना उनका उद्देश्य नहीं था इस वजह से गंदगी कोई खास मैटर नहीं था उनके लिए. भूपेंद्र सिंह की पर्सनैलिटी गजब की थी. उनकी संगत में आते ही जिंदगी आसान सी लगने लगती. भूपेंद्र सिंह का कान्फिडेंस देखकर अस्तबल लॉज के लड़कों का स्वप्नदोष भी कैटरीना कैफ से कम के स्त पर नहीं होता. अस्तबल लॉज और भूपेंद्र सिंह की जोड़ी दसियों साल पुरानी थी. बीए पार्ट वन में लगातार पांच साल फेल होने के बाद घर से पैसे मिलने बंद हो गए थे. इलाहाबादी संघर्षों ने उन्हें गजब का डीलर बना दिया था. बुलट से चलते, वॉन ह्यूजन की पैंटे पहनते और अमीषा पटेल का पोस्टर अपने बिस्तर के नीचे रखते. उस लॉज के दस-बीस कमरों में रहने वालों के लिए भी अपने बिस्तरों के नीचे किसी किसी कमसिन अदाकारा के पोस्टर रखना अनिवार्य हो जाता था.

संजय राय अस्तबल लॉज और भूपेंद्र सिंह के सबसे खास छर्रो में से एक था. हवा में उड़ने का शौक भी उसे अस्तबल लॉज की वजह से ही लगा था. यहां फिर से देसी कट्टे का जिक्र करना अनिवार्य हो जाता है. किसी कमजोर जहाज को हड़काने के लिए वह अपने जींस में उसे खोंसकर निकला लेकिन कट्टा आत्म घाती साबित हुआ. अंदर ही मिसफायर हो गया और गोटियां जॉकी की अंडरवियर में बिखर गईं. तिस पर ताव इतना कि हस्पाताल ले जाते वक्त जहाज को घूरते हुए संजय राय ने कहा- रूक एइजे, तोरी महतारी भोसड़ा. इतना कहने के साथ ही एक तेज झोंका आया और संजय राय के निजी अंगों को ढ़कने वाला तौलिया हवा की सैर करने चला गया. भूपेंद्र सिंह ने अपने सिर पर बंधे गमछे से राय साहब की आबरू बचाई थी उस दिन.

सब कहीं कहीं ‘यूनीक’ थे लेकिन हम सबके भविष्य का पता किसी को था.

हम जो करने इलाहाबाद आए थे वही नहीं कर रहे थे. दूसरे साल के चुनाव नजदीक गए थे, अनूप सिंह हॉस्ट को रिप्रजेंट कर रहे थे. पचास बार लिखकर रटने के बाद भी अनूप की फाइनल स्पीच प्रभावी नहीं रही. किसी भी तरह से हमें इस बार का चुनाव जीतना ही था और हम जैसे-तैसे जीत भी गए. सेकंड ईयर की फाइनल परीक्षाओं के बाद राजेश पांडे का साथ हमसे छूट गया था, वो पिछली क्लास में ही रह गए थे. मसखरापन और मासूमियत हममें से एक-एक कर जाने लगी थी. वजह किसी को नहीं पता थी. आलोक और नेहा का रिश्ता पूरे कॉलेज के सामने खुली किताब सा हो गया था. बिलकुल प्रियंका गांधी की ट्रू कापी लगती थी नेहा बॉब कट बालों में. ऐसा आलोक एट पीएम के नशे में बोलता था. दोनों एक दूसरे के साथ बैठ घंटो सीढि़यों पर बात करते, हमको जलन होती थी लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं था. तीसरा साल बीतने को था, हम सब अपने आगे की कक्षाओं में दाखिले के लिए नए कॅरियर सपनों में तलाशने लगे थे. हममें से कोई भी जेएनयू के नीचे की सोचता तक नहीं था. लेकिन गया सिर्फ अंजनि कुमार सिंह, जो एक नम्बर का एरोगेंट था. आज उसका किसी को पता नहीं है, क्या पता कहीं आम हिन्दुस्तानी की तरह छद्म मार्क्सवाद के चक्क में पड़ गया हो.

दिन गया था, जब हम अपनी तीन सालों की दुनिया को हंसी-खुशी उजाड़ने लगे थे. तख्ते्, कुर्सी-मेज, पंखे और गैस चुल्हे को औने-पौने दाम में बेच हम सब बारी-बारी से इलाहाबाद शहर से रवाना होने लगे. जो बच गए थे उन्होंने मुटठीगंज और कीडंगज की गलियों को छोड़कर कटरा चौराहे का रूख कर लिया था. कहा जाता है कि इलाहाबाद में जिंदगी देखनी है तो कटरा चौराहे पर शाम को चले आइए. संजय राय भी उनमें से एक था. राजेश पांडे नए जहाजों में दोस्ता तलाशने लगे थे. कुछ दिल्ली , कुछ मुंबई तो कुछ अपने घरों को चले गए थे. अपने घरों को लौटने वालों में विपिन था जो आज भी गांव में शीतकालीन टूर्नामेंट का कप्तान है और रामलीला में चंदा वसूलने वाला सीनियर कार्यकर्ता है.

इलाहाबाद क्यां छूटा हमसे हमारी पुरानी जिंदगीयां ही छूट गई. नया जीवन, नया दोस्तक और नया शहर सब हमको इतने अच्छे लगने लगे कि हम पुरानी सारी चीजों को बारी-बारी से भूलने लगे. सरकार, पॉलिटिक्स, सिस्टम और सरोकार हमारे लिए ना के बराबर मायने रखते थे. लेकिन इलाहाबाद से निकलने के बाद हमें अपनी कमियां पता लगने लगी. इलाहाबाद हमारे पीछे छूट गया था या फिर इलाहाबाद ने हमको आगे ढकेल दिया था. आलोक से एक साल जूनियर थी नेहा और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी. आलोक को इसका कोई कॉम्प्लेक्स नहीं था. एक सरकारी अधिकारी पिता का इकलौता बेटा था आलोक.

बात 2006 के मार्च महीने की है, मार्च बीतने बीतने को था और चेचक ने पूरे पूर्वी उत्तप्रदेश में कहर मचा रखा था. हम सबके घरों के नंबर कॉलेज की डायरेक्टेरी से निकाले गए और लैंडलाइन नंबरों पर कॉलेज प्रशासन की तरफ से गए फोन घनघना उठे. सबको एक हफ्ते के अंदर कॉलेज प्रशासन को रिपोर्ट करने को कहा गया. हमको और ही हमारे घरवालों को समझ में आया कि कालेज खत्म होने के एक साल बाद हमें दुबारा इलाहाबाद वापस क्योंर बुला रहा है. राजेश, संजय राय, गौरव सिंह, अनूप, भूपेंद्र सिंह, विनय सिंह पटेल और भी कई जहाज जिनके घर फोन गया था, कालेज पहुंच गए थे. हमें कालेज प्रशासन की तरफ से मुट्ठीगंज थाने पहुंचने को कहा गया. मोहन किशोर प्रमोट होकर सी.ओ. बन चुके थे. राजेश पांडे को आते ही उन्हों ने नेता जी कहकर संबोधित किया था. इसी संबोधन के बाद राजेश के अंदर कुछ ताकत आई तो उसने मोहन किशोर से पूछ ही लिया कि हमें यहां आखिरकार बुलाया क्यों गया है. मोहन किशोर ने कहा कि आलोक सिंह गौड़ ने आत्महत्या कर ली है. आप सबके बयान दर्ज करने हैं. जितने लोगों को यहां बुलाया गया है, उन सभी के नाम 25 पन्नों वाली सुसाडड नोट में हैं.

थाने के बगल वाले कबूतरखाने से गेंहू चबाकर कबूतरों का एक झुंड फर्र से आकाश में उड़ा. हमारा मौन टूटा. अर्दली पढ़ता जा रहा था और हम सुनते जा रहे थे. मादरचोदों मैं मर नहीं रहा हूं, तुम सब मुझे मार रहे हो. रूममेट पांडे विष्णु मित्रम को जींस लाने भेज दिया है, कोठापार्चा वाले जींस जंक्शन पर. उसी पुराने म्यूजिक सिस्टम की बीट फिर से बढ़ा दी है. याद करना हम फेक बर्थडे्ज पर कितना हंगामा काटते थे उसका वॉल्यूम बढ़ाकर. रस्सी कल ही खरीद ली थी. छोटे बालों वाली प्रियंका गांधी ने गाड़ मार ली है. एक हजार बार हाथ जोड़ चुका हूं. लेकिन अब बात करना भी पसंद नहीं करती. पास आऊट होने के बाद सिर्फ उसी की वजह से इलाहाबाद रूका रहा. जिंदगी कांप्ली़केटेड हो गई है. एट पीएम भी अच्छीं नहीं लगती. कटघर वाले कमरे से यमुना की तरफ खुलने वाली खिड़की से तंग हवा आती है. दम घुटता है . कुछ भी ऐसा नहीं बचा, जिससे मन बहलाया जा सके. रूममेट एक नंबर का फट्टू है, मेरे कहने से चबाई जा रही राजश्री भी थूक देता है. आई हेट हिम एंड आई हेट माइसेल्फ . तुम सब कायर हो जो मौत के इंतजार में जीवन जी रहे हो. मेरा अंत सिर्फ मेरा होगा. उसमें कोई भी भागीदार नहीं होगा. मेरे मरने के बाद मेरी सीडी डीलक्स मोटरसाइकिल को नेहा के घर के सामने फूंक दिया जाए. जीवन को दिया जाने वाला सबसे बड़ा धोखा मौत है. और हां यह बात सत्य है कि मौत से पहले आदमी को बीती बातें याद आती हैं, मुझे याद रही हैं. एक फिल्म चल रही है, जिसमें कुछ लोग स्वातर्थवश रो रहे हैं. अट्टहास करती नेहा है. मोहन किशोर का अर्दली रूटीन की तरह उस आत्महत्या पत्र को पढ़ता जा रहा था. हममें से सभी अलग मनस्थितियों का शिकार होते जा रहे थे. पूरे 25 पन्नों को पढ़ने में उस साधारण से अतिविशिष्ट में तब्दीहो रहे अर्दली को दस मिनट से अधिक का समय नहीं लगा. मोहन किशोर राजेश की तरफ देखते हुए ने पूछा- नेता जी, क्या फैसला किया जाए.
राजेश पांडे- सर, हम क्या बताएं, हमारी तरफ देखते हुए.

राजेश पांडे को देखकर कोई भी कह सकता था कि दुनिया के सबसे दुखी व्यक्ति की संकल्पना उस के वर्तमान रेखाचित्र को देखकर आसानी से की जा सकती है. जिस तरह से हंसी-खुशी की तलाश में आए दिन नए-नए अमरीकी हथकंडों को हिन्दुस्तानी अपना रहे थे, उससे लगता था कि वह दिन दूर नहीं जब उदास चेहरे वाले आदमी के खिलाफ अदालतों में मुकदमा दर्ज होने लगे. हमारी पूरी डिटेल्स लेकर हमें थाने एक हफ्ते तक आने के लिए कहकर इलाहाबाद से बाहर ना जाने के लिए कहकर थाने से बाहर जाने की अनुमति दे दी गई. बैरंग थाने से बाहर आकर हमने मुंडा की दुकान पर जाने का निर्णय लिया. हम भीड़ भरे गउघाट चौराहे पर खुद को अकेला पा रहे थे. हमने चाय पी और बतियाते रहे.

राजेश पांडे यारों की उस टोली में से कब गायब हुआ, पता नहीं चला. वह थाने की तरफ बेतहाशा भाग रहा था. आलोक की सीडी डीलक्सा थाना परिसर में वैसे ही खड़ी थी. सच्ची यार हमने बहुत मजे किए थे. उसने किक मारते ही बाइक राजरूपपुर की तरफ मोड़ दी. नेहा के घर के सामने हमने नारेबाजी के साथ बाइक ही नहीं अपनी आत्माओं में भी आग लगा दी. पुलिस की जीप में हम सब बैठकर जा रहे थे, आलोक हमारे साथ था. बिलकुल उस परिंदे की तरह जो जहाज बनकर नहीं रहना चाहते थे. उड़ना चाहते थे, खुली, हरहराती हवा में. पैदल जाते वक्त हमारे कदमों की ताल भौतिकी की अनुनाद थियोरी को मात दे रही थी, फिर भले ही फार्मूले के सत्यापन के लिए तारों के सहारे लटके नैनी ब्रिज का सहारा क्यो लिया जाता. जॉनसेनगंज में जमे बिक्रम के धुएं जैसी परतें हमारे सीने से छंटने लगी थी. सब साफ हो रहा था, पवित्र और छलकता हुआ बिलकुल गंगा मैया के पानी की तरह.

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कथाकार से सम्पर्क: 09987379151 ( singh.durgesh27@gmail.com)
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37 comments:

shesnath pandey said...

एक कमपैक्ट कहानी... अद्दभुत तरीके से कथा का निर्वाह किया गया है... सुसाइडर नोट तो अपने आप में सटायर होता है लेकिन इस कहानी के सुसाइडर नोट को भुलाया नहीं जा सकता... कहानी में हास्य के साथ भाषा की जो रवानगी है वो भी लाजवाब है...बधाई दिग्गी...
इस कहानी को बहुत लोग मांग रहे थे चंदन ने नई बात पर इसे देकर दुर्गेश का बोझ कुछ हल्का कर दिया... आशा है लोग पढ़कर अपनी राय देंगे...
एक बात और... चंदन तुम्हें गालियों को हटाना नहीं चाहिए था... कहानी का जो देशकाल है वहाँ गालिया एक हद तक सांस्कृतिक साझेदार रही है... अगर स्वाभव वस और फ़्लो में आ रही है तो उसे रोकना नहीं चाहिए... बहरहाल तुमने एक अच्छी कहानी को एक अच्छा मंच दिया है... शुक्रिया...

Aparna Mishra said...

A very welcome to Durgesh at the Blog & also as a Writer..... Its a nice story, especially the last paragraph.... You need to work out at the presentation a bit, otherwise you have a gud language which compel reader to read at a shot.... God Bless you....

saurabh singh said...

hi i am saurabh singh i am very impress to read this story because this story of those student who have gone on a wrong way and they are not thinking about their life.........
its a good thoughts of writer for students who is bone of country....after that i will say that
this story is very good. every one should be read ....


saurabh singh
student of b.tech(civil)3rd sem
gyan vihar
jaipur(rajsthan)

Bodhisatva said...

बहुत ढेर सारे आयाम लेती कहानी और फिर भी बहुत मासूम तरीके से कुछ बहुत जरुरी कहने के लिए दुर्गेश को बधाई ....और चन्दन आपको भी 'नयी बात' पर हमेशा की तरह खूबसूरत ख्याल बाटने के लिए....

Mithilesh said...

दुर्गेश की पहली कहानी ‘जहाज’ वाकई दिलचस्प है। कहानी में इलाहाबाद में कॉलेज के दिनों का जिक्र करते हुए दिग्गी ने एक ऐसा तारतम्य रखा है जो शुरू से अंत तक इसे रोचक बनाए रहता है। कॉलेज में सीनियर्स, जूनियर, प्यार, लफंगई, सब शामिल है इस कहानी में। जिन्हें इलाहाबाद में कॉलेज के दिनों की याद ताजा करनी हो उनके लिए यह मुफिद खुराक है और जो इलाहाबाद के कॉलेजी माहौल से परिचित होना चाहते हैं उनके लिए एक झलक। दुर्गेश को बधाई!!!

विशाल श्रीवास्तव said...

badhiya kahani
bahut dino baad.
shilp ke agrah se mukta...

dhanyawad..

Pradeep said...

ज़न्दगी में हुई कुछ घटनाये अगर पन्नो पर आ जाये तो यक बार दिल फिर से जवान हो जाता है,
यही कुछ नए युवा कहानीकार दुर्गेश सिंह ने अपनी "जहाज" कहानी में किया है!
शुक्रिया दोस्त आशा है आगे भी हमे इस तरह दिल को छू लेन वाली कहानिया मिलेगी.

Best of luck for your future.

Anonymous said...

Wonderful story.

Brajesh Kumar Pandey said...

जहाज एक ऐसी कहानी जिसने अपने समय के यथार्थ को न सिर्फ ज्यों का त्यों रखा है बल्कि उसे इस पूरे कालखंड का बड़ी सादगी से खाका बनाया है.भाषाई स्तर पर तो गजब प्रभावशाली .प्रवाह गजब का है.कहानी खूब गुदगुदाती है. राकेश मिश्र इस तरह की कहानियों के विशेषज्ञ माने जाते है ,लेकिन जहाज की बात ही अलग है .परिकथा में छपी अधूरी रात के पूरे सपने के बाद दुर्गेश की दूसरी कहानी पढ़कर अच्छा लगा .चन्दन भाई इस प्रस्तुति हेतु बधाई के पात्र हैं .

Unknown said...

THE BESTEST STORY EVER,,,
HOPE NEXT WILL COME SOON,,,
GOODLUCK DURGESH JI,,
N THANK FOR SUCH A NICE STORY,,, WE CAN FEEL IT.

Anonymous said...

nice

Pratap said...

sabse pahle to main durgesh ji ko kahani ke liye badhai doonga...aur dhanyawaad bhi itni achhi kahani ke liye...Kahani bahut hi khoobsurat hai...pata nahi kyon padhte waqt aisa lag raha tha ki ye to hakiqat hai zindagi ki...aisa lagta hai ki ye to kahin na kahin hamare zindagi se judi hui hai...lekin hamne usse theek se anubhav nahi kiya tha...lekin aaj durgesh naam ke ek mahaan bhavi kathakaar ke madhyam se wo saari batein bade hi khoobsurat andaz me sunne ko mili...agar ye kaha jaaye ki bahut kuchh dekhne ko mila..to koi ghalat nahi hai ...kyonki kahani ki bunawat aur kehne ki style aisi hai ki sab kuchh saamne nazar aata hai...bahut dino baad aisi kahani padhne ko mili...kahani ka ant bahut hi achchha aur ek maayne mein bahut sahi hai...kyonki aksar aisi kahaaniyon ka ant bada nirash aur udas kar jata hai lekin iss kahani me to shrota ke dil se ye awaaz uthati hai ..."aur kuchh sunao bhai mujhe baahar mat karo itni khoobsurt duniya se..."durgesh ji ki sabse achhi baat ye hai, jo inhe bahut door tak le jaayegi..wo hai inki bhasha aur shaili...jo aaj kal ke writers me bahut kam dekhne ko milti hain..
agar iss kahaani pe pura din bhi charcha kiya jaaye to kam hai...kyonki isme patron se lekar eent, ashtbal lodge aadi nirjeev cheezen bhi hamaare saamne ek romanchak tarike se aur kuchh na kuchh le kar aate hain...durgesh ko ek baar phir badhai...aur issi josh se lekhan kaary me jute rahen jisse hamein samay-samay par acchi rachnayein padhne ko milti rahein..chandan ji ko bhi badhai itnee acchhi kahani padhne ke liye dene ko...Lekin kahani me star continuity ko todte hain...kripya usse hatayein aur patron ko apni baat khul kar kehne dein..haan, agar writer ne khud hi sitaare lagayen hain to unse bhi guzarish hai ki use hatayein...

Arbendra pratap said...

sabse pahle to main durgesh ji ko kahani ke liye badhai doonga...aur dhanyawaad bhi itni achhi kahani ke liye...Kahani bahut hi khoobsurat hai...pata nahi kyon padhte waqt aisa lag raha tha ki ye to hakiqat hai zindagi ki...aisa lagta hai ki ye to kahin na kahin hamare zindagi se judi hui hai...lekin hamne usse theek se anubhav nahi kiya tha...lekin aaj durgesh naam ke ek mahaan bhavi kathakaar ke madhyam se wo saari batein bade hi khoobsurat andaz me sunne ko mili...agar ye kaha jaaye ki bahut kuchh dekhne ko mila..to koi ghalat nahi hai ...kyonki kahani ki bunawat aur kehne ki style aisi hai ki sab kuchh saamne nazar aata hai...bahut dino baad aisi kahani padhne ko mili...kahani ka ant bahut hi achchha aur ek maayne mein bahut sahi hai...kyonki aksar aisi kahaaniyon ka ant bada nirash aur udas kar jata hai lekin iss kahani me to shrota ke dil se ye awaaz uthati hai ..."aur kuchh sunao bhai mujhe baahar mat karo itni khoobsurt duniya se..."durgesh ji ki sabse achhi baat ye hai, jo inhe bahut door tak le jaayegi..wo hai inki bhasha aur shaili...jo aaj kal ke writers me bahut kam dekhne ko milti hain..
agar iss kahaani pe pura din bhi charcha kiya jaaye to kam hai...kyonki isme patron se lekar eent, ashtbal lodge aadi nirjeev cheezen bhi hamaare saamne ek romanchak tarike se aur kuchh na kuchh le kar aate hain...durgesh ko ek baar phir badhai...aur issi josh se lekhan kaary me jute rahen jisse hamein samay-samay par acchi rachnayein padhne ko milti rahein..chandan ji ko bhi badhai itnee acchhi kahani padhne ke liye dene ko...Lekin kahani me star continuity ko todte hain...kripya usse hatayein aur patron ko apni baat khul kar kehne dein..haan, agar writer ne khud hi sitaare lagayen hain to unse bhi guzarish hai ki use hatayein...

Akanksha said...

दुर्गेश , यकीन नहीं होता ये आप की पहली लिखी हुई कहानी है. किसी मझे हुए लेखक की तरह लिखने की ओर आप प्रगतिशील है. कोई अच्छा हिंदी लेख पड़े बहुत दिन बीत गए थे, आपकी लिखी कहानी ने कसर पूरी कर दी. अलाहाबाद मै कभी रही नहीं पर, कहानी का बहाव मुझे उसी टाइम पिरिअड में वहाँ ले गया. बहुत ही जीवंत लिखा है . प्लीस कीप ईट अप.

Rajesh Ojha said...

साहित्य की बारीकियों का मुझे ज्ञान नहीं। उन दुरूह मानदंडों से भी मैं अनभिज्ञ हूं, जिनके आधार पर साहित्यकार बिरादरी किसी कहानी विशेष की वाह-वाही करती है, तो किसी की छिछालेदर। पर, जब भी युवा कथाकारों की उन रचनाओं की चर्चा होगी, जो आम पाठकों से बहुत ही घनिष्ठता से जुड़ सकी हैं और जिन्होंने ने उनके मनो-मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है, तो वह चर्चा “जहाज़” के बिना अधूरी होगी, ऐसा मेरा मानना है। दुर्गेश की यह कहानी मेरे द्वारा पढ़ी गई उन चुनिंदा कहानियों में से एक और शायद नई पीढ़ी के लेखकों की कहानियों में से सबसे पहली कहानी है, जिसने मेरे मानस पटल पर हमेशा-हमेशा के लिए अपनी अलग पहचान कायम की है। मेरे लिए यह भी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस कहानी ने एक नई अच्छी कहानी पढ़ने की वर्षों की मेरी उत्कंठा को शांत किया है। सहज, सरल, सुबोध और सरस शैली में लिखी गई यह कहानी सचमुच बेजोड़ है और नवलेखन को एक नई दशा-दिशा देती प्रतीत होती है। मैं यह सोचकर ही अभिभूत हो जाता हूं कि जिस युवा कहानीकार की पहली ही रचना इतनी उम्दा है, वह आगे...। शुभकामनाएं।

Rajesh Oza said...

साहित्य की बारीकियों का मुझे ज्ञान नहीं। उन दुरूह मानदंडों से भी मैं अनभिज्ञ हूं, जिनके आधार पर साहित्यकार बिरादरी किसी कहानी विशेष की वाह-वाही करती है, तो किसी की छिछालेदर। पर, जब भी युवा कथाकारों की उन रचनाओं की चर्चा होगी, जो आम पाठकों से बहुत ही घनिष्ठता से जुड़ सकी हैं और जिन्होंने ने उनके मनो-मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है, तो वह चर्चा “जहाज़” के बिना अधूरी होगी, ऐसा मेरा मानना है। दुर्गेश की यह कहानी मेरे द्वारा पढ़ी गई उन चुनिंदा कहानियों में से एक और शायद नई पीढ़ी के लेखकों की कहानियों में से सबसे पहली कहानी है, जिसने मेरे मानस पटल पर हमेशा-हमेशा के लिए अपनी अलग पहचान कायम की है। मेरे लिए यह भी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस कहानी ने एक नई अच्छी कहानी पढ़ने की वर्षों की मेरी उत्कंठा को शांत किया है। सहज, सरल, सुबोध और सरस शैली में लिखी गई यह कहानी सचमुच बेजोड़ है और नवलेखन को एक नई दशा-दिशा देती प्रतीत होती है। मैं यह सोचकर ही अभिभूत हो जाता हूं कि जिस युवा कहानीकार की पहली ही रचना इतनी उम्दा है, वह आगे...। शुभकामनाएं। राजेश ओझा

kanupriya said...

yakinan ye kahani ek aaine ki tarah lagti hai,college ke dino main allahabad k jo kisse apne sahpathiyon ki yadon main vichran karte hue pae the lagta hai jese sare ke sare kagaj ke kuch panno main moti bankar utar gae.wo bhi anmol moti jinhe mahsoos karein to amrit ke jese lagenge.
durgesh ko badhai aur dher sari shubhkamnae.khuda aapko ase hi jindagi bhar jindagi likhne ki prerna de

DS Rajawat - Madhav said...

baatnayi hai ki aap ne pahli kanhi publish ki hai but kahani likna aapke liye nai baat nahi hai durgesh ji hum aapke kahani ki tarif me bus yahi kahenge ki hum bahut kam logo or unke articles or stories ki tarif karte hai .. aapke .. umdaaa.


www.ekhabar.in

Somil Chhaya said...

Sir subse pahle to aapki pahli kahani ke liye dhar sari badhai....is kahani ko padh kr sbse pahle to college k wo din yaad aa gaye...wo sari masti or kisi exam ki taiyari....
kahani ko likhne k liye sadharan shabdo ka istemaal sabse achhi baat hai...is kahani k shabd aapko baandh kr rakhte hai...
meri oor se aapko dher sari shubhkaamnaye.... hume aage bhi aapki kahaniya padhne ko milti rahe....

laxman said...

vakiye iss kahani ne nishbd kar diya hai....lage raho bhai aur ek din behatar kahanikar bano, shubhkamnaye.

Ritesh Purohit said...

युवा कहानीकार दुर्गेश सिंह को इतनी अच्‍छी कहानी लिखने के लिए हार्दिक बधाईा काफी दिनों बाद इतनी अच्‍छी कहानी पढी हैा मुझे पूरा विश्‍वास है कि दुर्गेश आगे चलकर हिंदी साहित्‍याकाशम में एक बहुत बडे कहानीकार के तौर पर स्‍थापित होंगेा

Ravi Rao said...

subah-subah nind khuli to ek bargi ye pta hi na chala ki aakhir main kahan hun...kuchh der pahle hi to apne un sathiyon ke sath tha jinhone meri zindgi ko mujhse bhi kareeb se dekha...sangam, katra, naini brije aur na jane kya-kya sab behad kareeb tha...khwab tha...par jahaj kahani isi khwab ke dastawej kaisi hai...ek koshish...jisne dil ko chhuaa...shayad iske mukmmal hone ke liye ye ahsaas hi kafi hai....

mahesh yadav said...

ab rajendra yadav ko sanyaas le lena chahiye.

mahesh

amar ujala, noida

9910337538

pradeep said...

durgesh ki nai kahani. mere ECC k aas-paas ghumti. kai log jane pahchane hai. khani k kuch shabdo par meri aapti jarur hai par kahani achhi hai. durgesh ubharta hua samvedanshil kahanikaar hai....:) aur achhe k intezaar me....

"अर्श" said...

दुर्गेश की अगर यह पहली कहानी मात्र है तो फिर और भी बधाई दिल से ! वाकई एक तारतम्यता है हर एक पात्र में , कहीं से कोई लोच नहीं मिली इस कहानी में ! जिस अवस्था में यह कहानी लिखी गई है और जिस अवस्था की चर्चाएँ हैं वो वाकई तारीफ़ के क़ाबिल है ! सच कहूँ तो यह कहानी दूर तलक खुद जाएगी और दुर्गेश को भी साथ ले जाएगी ! बहुत बहुत बधाई

अर्श

shesnath pandey said...

कही ऐसा तो नहीं हो रहा है कि दुर्गेश की कुछ ज्यादा वाहवाही हो रही है... वाहवाही करना बुरी बात नहीं है... लेकिन इतना भी न कर दिया जाय कि कथाकार अपनी कमियों से सर्वथा अनभिज्ञ ही रह जाय और वही का वही बैठ के रह जाय... इस कहानी में लेखक बिना मतलब मार्क्स्वाद को छद्मता के आवरण में डाल देता है... इसका क्या मतलब है इस पर बात होनी चाहिए... मुझे लगता है कि यह कहानी मार्कस्वाद को लेकर बॉयस्ड है... और लेखक यह मान चुका है कि इंडिया में छद्मम मार्क्स्वाद ही है...जैसे लेखक कहानी में एक जगह कहता है... “तीसरा साल बीतने को था, हम सब अपने आगे की कक्षाओं में दाखिले के लिए नए कॅरियर सपनों में तलाशने लगे थे. हममें से कोई भी जेएनयू के नीचे की सोचता तक नहीं था. लेकिन गया सिर्फ अंजनि कुमार सिंह, जो एक नम्बर का एरोगेंट था. आज उसका किसी को पता नहीं है, क्या पता कहीं आम हिन्दुस्तानी की तरह छद्म मार्क्सवाद के चक्क र में न पड़ गया हो.” मैं जानना चाहता हूँ कि अगर आम हिंदुस्तानी अगर छ्द्मता में है तो महोदय बताएंगे कि कौन हिंदुस्तानी रियल मार्कस्वादी है...? कुला मिलाकर मैं विनम्रता पूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि इस कहानी में जो कमियाँ दिखाई दे रही है उसे भी बताया जाय... नहीं तो हम सब इस लेखक के दुशमन ही होंगे... “कहा भी जाता है कि निंदक नियरे राखिए...” दुर्गेश में बहुत बड़ी संभावना है... हमें उन्हें वाहवाहियों के आवरण में कैद कर उनके संभावना पर ग्रहण नहीं लगाना चाहिए... आशा है आप लोग हमारी बातें पर खुन्नस खाएँ बगैर सही राय देंगे...

Dinesh K Mishra said...

You have written a great live story. I was one year junior than you and i know the whole story. You have given them a proper feelings. Your command over hindi language is tremendous. I have remembered that night again when i had seen the dead body of Alok. I had touched a dead body first time in my life. After the postmortem, me and one more person had packed the body in the polythene. You have made your friend alive again. Really heart touching story. Wish you a great future in this field.

Anonymous said...

hiiiiiii
this is shakti.

sabse pahle to mai apne dost durgesh ko bahot dher saari badhayiyaan dena chahta hu jisne is kahani ka jivant citran kiya hai.
jis tarah tumne ghatnaon ka ullekh kiya hai wo kaabile taarif hai. aalok zahaz ka sucide letter, sanjai rai ka katta, rajesh pandey ki dhurtbaazi, bhupendra singh ka confidence aur degree, aur hostel ki ghatnaon ka bakhubi kikha gaya hai.
is kahani ne hamari pichli yaadon ko taaza kar diya. isi tarah aage badhta raho dost.

hamari shubhkaamnaye tumhare sath hain.

shakti singh

Shaurya said...

Like : 100%

What a nice story, its well narrated. I Enjoyed reading the story. Hatz off towards your command over HINDI Language. All the aspects of story wre present- It made me laugh, It made me go back to ma days at ma Lucknow University - where I encountered the similar story. Suicide kiye mere dost k mujhe yaad aayi. The slangs you used were simply rocking man!!! Wo College me tafri, Wo naarebazi, wo Hostel Life, Wo Sitiyabaazi, and more.....

It was a touching story, the characters you described - It seems Pehle se kissi story me likkha jaane ke liye hi Mille the sab. Shayad Issi Blog Par!!!

Wish You luck for your Future...pls keep updating abt the new ones

Sunil Kr Dwivedi said...

Friends this is real story of our life we had during our graduation. I really appreciate Durgesh that he spent his precious time to put all into words. He did it so wonderfully and precisely that he could not left any important event. After reading the picturesque description, it seems to me that I am in my college. Well done friend, keep it up we all are with you........!!!!!!!!!!

addictionofcinema said...

Mukhatib ke sansthapak sadasyon me se ek rahe Shri Ranvijay Singh Satyketu ne mujh par Mukhatib ke apahran karne ka arop lagaya hai aur kaha hai ki aise ayojan ki wo mujhe anumati nahi dene wale. Mukhatib na to koi NGO hai na hi trust, sirf kuchh mitron ne ek nirpeksh aur vicharvaan gosthi ki shurat ki thi aur ye naam diya tha isliye iske naam pe dava karne se achha hai kuchh kaam karna...

addictionofcinema said...

Adarniya Ranvijar Singh Satyaketu ji,
kuchh batein main apko spasht kar dena chahta hoon. Pehli baat to yeh ki maine Mukhatib ka koi apahran nahi kiya hai kyonki jis tarah aap iske sansthapak sadasyon mein se hain, waise hi main bhi hoon au......r agar aapko yaad ho to mere diye gaye teen namon 'Mubahisa, Roobaroo aur Mukhatib' me se humne ye naam final kiya tha. Avval to ye ki Mukhatib koi register sanstha nahi hai ki main iske naam pe koi karyakram karne se pehle iske sabhi sadasyon se koi likhit anumati loon, kyonki mera maksad sirf kuchh imandaar sahtyik gatividhiyan karana hi tha jo ajkal kam si ho gayi hain. Mujhe laga ki agar main yahan Mumbai me koi sahtyik prayas shuru karta hoon to aap sab log jo meri tarah mukhatib se sarokaron ke liye jude rahe hain, unhe khushi hogi, aur hui bhi, is beech Murlidhar jee se baat hui to maine unhe apne is chhote se prayas ke barein me bataya to unhone iski tareef ki. apke rosh ka karan main samajh nahi pa raha hoon kyonki agar apko ye lagta hai ki is naam se agar sirf Allahabad me hi goshthiyan ayojit ki jani chahiye to main yah kaam mumbai me bade aram se doosre naam se kar sakta hoon aur aap jante hain naam nahi kaam hi mahatva rakhta hai akhirkaar. Agar aap nahi chahenge to main Mumbai me kisi aur naam se shuru karunga ye gosthi kyonki mujhe kaam karna hai lekin saath me ek jankaari apse ye bhi chahoonga ki mere allahabad se transfer ho jane ke baad Mukhatib ki kitni goshthiyan hui hain aur ek sansthapak sanyojak ke nate apne is beech yaha faceboop par likhne ke atirikt aur kya kya kaam kiye hain Mukhatib ke liye?

Asha hai kisi baat ko anyatha nahi lenge..
Apka anuj
Vimal Chandra Pandey

raghuvendra singh said...

allahabad ki kai yaadein taaza ho gayin. aati sunadar aur anand dayak kahani. badhai. aapki agali kahani ki pratiksha rahegi.

स्व: बानी said...

इलाहाबाद शहर, कालेज लाइफ और छात्र राजनीति का आईना लगी इस कहानी के लिए दुर्गेश, आपको बधाई. बहुत कुछ कहते हुए भी भोलापन बचाए रखना, बड़ी बात है.

Unknown said...

वाक्य मे बहुत अच्छी लगी आप की कहानी

Unknown said...

वाक्य मे बहुत अच्छी लगी आप की कहानी

RAJESH PANDEY said...

इस कहानी का एक किरदार मैं स्वयं को पाकर अभिभूत हूँ मित्र दिग्गी तुम्हे बहुत ढ़ेर सारी बधाई,प्रगति के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते रहो यही शुभकामना है हमारी ।
इस कहानी के माध्यम से तुमने हमारे अभिन्न मित्र आलोक को हमारे बीच जिन्दा कर दिया ।
यार तुस्सी ग्रेट हो............
राजेश पाण्डेय-9415313485