[ इस आलेख को पढ़ते हुए आप बारम्बार यह सोचने पर बाध्य होंगे कि पिछले चार वर्षों से चल रहे इस मामले में मीडिया ने निष्पक्ष भूमिका निभाई होती तो...? मीडिया से उम्मीद तो कुछ स्कारात्मक की रहती है पर निष्पक्षता तो अनिवार्य शर्त होनी चाहिये. छत्तीसगढ़ी मीडिया ने पत्रकार,पुलिस और जज तीनों की शामिल भूमिका निभाते हुए बिनायक सेन को चार साल पहले ही अपराधी घोषित कर दिया था. प्रस्तुत आलेख उसी गन्दे खेल की एक बानगी है.
आलेख मिथिलेश प्रियदर्शी का है. मिथिलेश चर्चित युवा कथाकार हैं. इनके परिचय का एक मजबूत कोना यह भी कि एम.फिल. में इनका शोध विषय यह रहा है : छत्तीसगढ़ के अखबारों में मीडिया ट्रायल ( डॉ. बिनायक सेन के विशेष सन्दर्भ में ). इन्हीं सन्दर्भों को उकेरती हुई मिथिलेश की एक कहानी 'बलवा हुजुम' है जो शीघ्र ही ब्लॉग पर दिखेगी.]
डा.बिनायक सेन का मीडिया ट्रायल
गरीब, आदिवासी, मजलूमों के मोबाईल डाक्टर, डा.बिनायक सेन को ताजिंदगी जेल में रखे जाने की सज़ा मुकर्रर की गयी है. फैसले के बाद सब गंभीरतम चर्चाओं में मशगूल हैं. दोषी और उनकी भूमिकाओं की पडताल जारी है. लोकतांत्रिक ढांचे के तीनों खंभे न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका इसकी जद में हैं. पर चौथा, जो सबसे शातिर है और इस साजिश में बराबर का हिस्सेदार भी, अब तक इन चर्चाओं से बाहर है. इसने बडी चतुराई से उन अज्ञात षड्यंत्रकारियों की भूमिका अख्तियार कर लिया है जो उजाले में स्यापा के दौरान सबसे जोरदार रूदन पसारते हैं. यह स्थानीय मीडिया है, यानी छत्तीसगढ की मीडिया.
आज की तारीख में भले ही देश के कमोबेश हर हिस्से का मीडिया डा.बिनायक सेन के आजीवन कारावास की सज़ा पर अवाक नजर आ रहा हो, पर राज्य मशीनरी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले छत्तीसगढ की मीडिया ने डा.बिनायक सेन को लेकर प्रारंभिक दौर में ही प्रोपगैंडा का एक जबर्दस्त अभियान छेड रखा था. उस दौरान लगभग खबरें पूर्वाग्रह और प्रोपगैंडा से प्रेरित थीं. क्या पत्रकार, क्या संपादक सब के सब डा.सेन के मीडिया ट्रायल में मुब्तिला थे. पत्रकार तिहरी भूमिकाएं निभा रहे थे. वे पत्रकार भी थे, पुलिस भी और जज भी. खबरों के लिये पुलिसिया स्रोत ही पहली और आखिरी स्रोत था. थाने से निकला वक्तव्य सारे सत्यों से ऊपर था. आरोपी को अपराधी लिखने-साबित करने की होड सी मची थी. मामला ठीक से अदालत भी नहीं पहुंच पाया था कि मीडिया ने अपना एकतरफा फैसला सुना दिया था और डा.बिनायक सेन रातों-रात चिकित्सक से खूंख्वार हो गये थे.
१४ मई २००७ को डा.सेन के गिरफ्तारी के बाद से ही स्थानीय मीडिया प्रोपगैंडा के सुनियोजित काम में लग गया था. १५ मई २००७ को स्थानीय अखबारों ने मोटे-मोटे शिर्षक के साथ खबर लगायी, ‘ पुलिस के हत्थे चढा नक्सली डाकिया’. इसी दिन स्थानीय अखबार हरिभूमि ने लिखा, ‘जिस नक्सली डकिये की तलाश में रायपुर पुलिस दिन-रात जुटी थी, उसे मुखबिर की सूचना पर तारबाहर पुलिस को पकडने में सफलता हासिल हुयी है. बिनायक सेन नामक इस व्यक्ति की तलाश रायपुर पुलिस को ६ मई से थी. माना जा रहा है कि वह जेल में बंद और शहर में गोपनीय रूप से रह रहे नक्सलियों का पत्र वाहक था. उनकी सूचनाओं को बस्तर और दूसरी जगहों में तैनात खूंखार नक्सलियों तक पहुंचाने के लिये इसने अपना अलग तंत्र तैयार कर रखा था. घेराबंदी कर नक्सलियों के इस प्रमुख डाकिए को पुलिस ने धर दबोचा. शुरु से ही यह आशंका थी कि नक्सलियों का ये प्रमुख डाकिया बिलासपुर जिले में कहीं छिपा हुआ है.’
इस खबर के बीच में ही उपशीर्षक देकर एक और खबर थी, ‘ नक्सली देखने थाने में लगी भीड’- ‘तारबाहर पुलिस के हत्थे चढने के बाद बिनायक सेन की नक्सलियों के प्रमुख डाकिये के रूप में पहचान हुई. यह खबर पूरे शहर में फैल गई. तारबाहर थाना में नक्सली डाकिये को देखने के लिये लोगों की भीड एकत्र हो गई. लोग उसकी एक झलक पाने के लिये काफी समय तक खडे रहे.’
ऐसी तमाम खबरों में डा.बिनायक सेन के लिये हर जगह ‘नक्सली डाकिया’, ‘नक्सली मैसेंजर’, ‘नक्सली हरकारा’ जैसे विशेषण ही इस्तेमाल किये गये. खबर की भाषा और लहजे को ऐसे बरता गया, मानों गिरफ्तार किये गये शख्स की सार्वजनिक पहचान से सारे अखबार अनजान हों. कई शीर्षकों में बस ‘बिनायक सेन’ भर लिखा गया, ‘बिनायक सेन की पुलिस को तलाश’ या ‘बिनायक सेन गिरफ्तार’. उनके नाम के आगे न ‘डाक्टर’ था, न ‘मानवाधिकार कार्यकर्ता’. एक अपरिचित पाठक के लिये बिनायक सेन का मतलब चोर, बलात्कारी, चाकूबाज कुछ भी हो सकता है. पूरे दो हफ्ते तक डा. बिनायक सेन की चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकर्ता की पहचान सुनियोजित तरीके से छिपाई गई.
यह कितनी भारी विडंबना है कि १५ मई २००७ से पहले तक डा.बिनायक सेन को उनकी समाजसेवा और मानवाधिकारों के लिये निर्भिकतापूर्वक संघर्ष के लिये स्थानीय मीडिया में कोई जगह नहीं मिली, और जब उन्हें दुर्भावनावश गिरफ्तार कर लिया गया तो स्थानीय मीडिया इस मामले को लेकर अचानक इस तरह से सामने आया जैसे उसने डा.सेन के नक्सली होने की पूरी पडताल पहले से ही कर रखी हो. यह वाकई अप्रत्याशित था कि विगत तीन दशकों की उनकी सार्वजनिक पहचान का उल्लेख किये बगैर उनपर खबरें लिखी जा रही थीं. खबरों के शीर्षक को अस्पष्ट रखा जा रहा था. और यह सब सचेतन किया जा रहा था.
कई अखबार इनकी गिरफ्तारी के पहले से ही पीयूष गुहा (१ मई २००७ को पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यवसायी) के लिये ‘नक्सली मैसेंजर’ लिख रहे थे. बाद में यही विशेषण डा.सेन के लिये भी प्रयोग किया जाने लगा. ‘छत्तीसगढ’ अखबार १० मई २००७ को लिखा कि बिनायक सेन के खिलाफ पुलिस को राजधानी में नक्सली गतिविधियां संचालित करने की बहुत ठोस जानकारी मिली है. इसी तरह अगले दिन ‘हरिभूमि’ भी पुलिसिया रिपोर्ट के आधार पर यह घोषणा करने में जुटा था कि पीयूसीएल के नेता नक्सली मैसेंजर से मिले हुए हैं. ये अखबार छत्तीसगढ पुलिस के नक्शेकदम पर चल रहे थे. क्योंकि जेल में दस्तावेजों में डा. बिनायक सेन को हार्डकोर नक्सली दर्ज किया गया था. हालांकि तब कई संगठनों ने इसका विरोध किया था कि न्याययिक फैसलों के पूर्व इस तरह के दुष्प्रचार सर्वथा अनुचित हैं.
स्थानीय अखबारों में प्रोपगैंडायुक्त खबरों का सिलसिला चल पडा था. संबंधित हर खबर का ‘फालोअप’ लिखा जाता था. यह अदालती ट्रायल के पहले का ट्रायल था, जिसकी बुनियाद पूर्वाग्रह, भ्रम, दुष्प्रचार और तथ्यहीनता पर केंद्रित थी. प्रोपगैंडा का अभियान चलाने वाले अखबारों में बडे समझे जाने वाले नाम भी शामिल थे. १७ मई २००७ को ‘नई दुनिया’ लिखता है- ‘नक्सली सूची में कई बडे लोग.’ यह खबर किसी कोण से तथ्यात्मक नहीं थी बल्कि एक मुहिम का हिस्सा थी. आगे ३ जून को इसी अखबार ने लिखा, ‘एनजीओ की दो युवतियां लापता.’ यह डा.सेन की छवि को ध्वस्त करने की एक और कोशिश थी. पुलिस ने इसे जबर्दस्ती एक गंभीर मामला बताया था और कहा था कि इस आधार पर इलिना सेन के खिलाफ भी जुर्म साबित किया जा सकता है. गौरतलब है कि जिस एनजीओ (रूपांतर) में काम करने के लिये दोनों लडकियां दिल्ली गयी थीं, उसे इलिना सेन चलाती थी. और तथ्य यह है कि दोनों लडकियों को जिन्हें लापता बताया जा रहा था, वे बालिग थीं. और यदि वे रूपांतर छोडकर कहीं अन्य जगह चली गयीं थीं तो यह सर्वथा उनका फैसला था. पर इस खबर को जिस तरीके से बिनायक सेन और उनके परिवार के खिलाफ गढा गया, वह शर्तिया दुराग्रहपूर्ण और प्रोपगैंडा का हिस्सा था.
१७ मई को ही ‘हरिभूमि’ की खबर थी-‘नक्सली समर्थकों की खैर नहीं’. इसमें खबर जैसा कुछ भी नहीं था. बस बातें बनाकर माहौल को गर्म बनाए रखने की एक कवायद भर थी. खबर के भीतर एक कहानी थी, जिसमें सलवा जुडूम के शुरुआत को उस दिन से माना गया था, जब २००५ में बस्तर में भगवान गणेश की मूर्ति को नक्सलियों ने तोडा-फोडा था और गणेश बिठाने का विरोध कर हिंदू धर्म पर हमला बोला था और अपने खिलाफ स्वंय ही माहौल तैयार कर लिया था.’ सलवा जुडूम की स्थापना की यह एक हास्यास्पद कथा थी. खबर में आगे सफेदपोश नक्सलियों पर ‘राजसुका’ के तहत कार्रवाई की बात कही गयी थी. यानी अखबार भी साफ तौर पर अपना यह मत जाहिर कर रहा था कि डा.सेन पर ‘राजसुका’ के तहत राजद्रोह लगे. इससे स्थानीय अखबारों की मंशा समझी जा सकती है और इनके द्वारा निष्पक्षता बरते जाने की संभावना की प्रतिशतता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है.
इसी तरह ९ जुलाई २००७ को ‘दैनिक भास्कर’ ने लिखा- ‘धर्मांतरण के आरोप में युवकों की पिटाई’. यह खबर भी सीधे तौर पर प्रोपगैंडा के तहत ‘प्लांट’ किया गया था. इस खबर में लिखा गया था कि डा.बिनायक सेन अपने प्रभाव वाले गांवों में धर्मांतरण करवा रहे थे. इसके लिये उन्होंने कई युवकों को पैसे दिये थे. साथ ही बगरूमनाला में क्लीनिक चलाने के पीछे भी धर्मांतरण ही इनका मुख्य मकसद था. इस कार्य में संलग्न लोग उनसे जुडे हुए हैं. लगातार विभिन्न ग्रामों में इलाज, तालाब, खुदाई एवं पैसे का लालच ग्रामिणों को दिया जाता है. इस बेबुनियाद खबर की कोई सीमा नहीं थी. जाहिर है, इस खबर को डा.बिनायक सेन के चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ता वाली छवि को खंडित करने के लिये प्रकाशित किया गया था.
प्रोपगैंडा की इसी कडी में ‘नवभारत’ ने ३ अगस्त २००७ को खबर बनायी-‘बस्तर में बिजली टावरों को उडाने का षड्यंत्र सान्याल ने जेल में रचा’. इस खबर के बीच में एक पासपोर्ट साईज तस्वीर डा.बिनायक सेन की लगी थी. इस खबर में उपरोक्त शीर्षक से संबंधित केवल एक पंक्ति लिखी गयी, शेष लगभग चार कालमों वाले इस खबर में पूरी बात डा.सेन पर केंद्रित थी जिसमें लिखा गया था कि डा.सेन और श्रीमती सेन नक्सलियों से मिले हुए हैं. उनके बीच इनका सक्रिय घुसपैठ है. खबर में डा.सेन के चिकित्सक होने को भी झूठलाया गया था. खबर के बीच में उनकी तस्वीर कुछ इस प्रकार चस्पां की गयी थी जैसे टावर डा.सेन ने ही उडाया हो. यानी कि शीर्षक कुछ, खबर कुछ और तस्वीर कुछ.
स्थानीय अखबार शुरू में डा.सेन को फरार और भगोडा तक घोषित कर चुके थे. जबकि वे कोलकाता के पास कल्याण में अपनी मां से मिलने, बच्चों के साथ गये हुए थे. उन्हें मित्रों से यह जानकारी मिली कि पुलिस के साथ-साथ मीडिया भी उन्हें फरार बता रही है. इसपर उन्होंने फौरन अखबारों से सम्पर्क कर अपनी स्थिति स्पष्ट की थी. अपना मोबाईल नं. भी प्रकाशित करवाया था कि जिन्हें कोई शंका हो, वो बात कर लें.
इस किस्म की खबरों से स्थानीय अखबारों की मंशा साफ जाहिर होती है कि किस तरह डा.बिनायक सेन के खिलाफ शुरूआती दौर से ही माहौल बनाया जा रहा था. ‘हरिभूमि’ अपनी खबरों में एक कदम आगे बढकर यह माहौल तैयार कर रहा था कि इलिना सेन को भी गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए क्योंकि ये सारे जनवादी खतरनाक हैं.
स्थानीय मीडिया की भूमिका पर डा.बिनायक सेन ने भी सवाल उठाया था. स्थानीय मीडिया खासकर अखबार वाले राज्य सरकार से वफादारी निभाने के लिये किसी ऐसे ही मौके की तलाश में थे. और उनका यह रवैया केवल इस मामले में ही नहीं बल्कि इस किस्म के सभी मामलों में स्थायी रूप धर चुका है. जनआंदोलनों, मानवाधिकारों के लिये संघर्ष के प्रति स्थानीय अखबार न केवल उदासीन रहते हैं, बल्कि कई दफा इनके विरुद्ध जाकर बेहद आक्रामक रूख भी अपना लेते हैं. लोकतंत्र और स्वस्थ पत्रकारिता की सेहत के लिये यह कतई चिंतनीय है.
पुलिस और सरकार के लिये किसी भी व्यक्ति को अपराधी घोषित करना बेहद आसान होता है. इस प्रक्रिया में यदि मीडिया की पर्याप्त मिलीभगत हो तो मनमाफिक परिणाम हासिल किये जा सकते हैं. डा.बिनायक सेन के केस में पुलिस और सरकार ने मीडिया की सहायता से यही काम किया. प्रोपगैंडा के लिये ऐसी आधारहीन खबरें ‘प्लांट’ की गयीं, जिससे डा.बिनायक सेन के व्यक्तित्व, छवि और सार्वजनिक कार्यों को न केवल जबर्दस्त क्षति पहुंचे, बल्कि उन्हें सीधे तौर पर नक्सली साबित कर न्यायालय पर भी पर्याप्त दवाब बनाया जा सके. और आज साढे तीन साल बाद जब डा.सेन को आजीवन कारावास की सजा अदालत ने सुनायी है तो इसे राज्य सरकार, पुलिस और वहां की ब्यूरोक्रेसी के षड्यंत्र के साथ-साथ स्थानीय मीडिया के ट्रायल, प्रोपगैंडा और उसके पूर्वाग्रह के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए. और जहां तक न्यायालय की भूमिका का सवाल है, अदालतें राजनीतिक समीकरणों और मीडियाई प्रभाव से निरपेक्ष नहीं होती हैं.
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लेखक से सम्पर्क: 09096966510 ; askmpriya@gmail.com
मंडेला, सू की और बिनायक की तस्वीर गीत चतुर्वेदी के ब्लॉग 'वैतागवाड़ी' से.
8 comments:
important stuff to understand the role of media.. .. here in Madhya Pradesh also we could see the very same situation. what i have realised that Political parties and governments has learned skill how to manage media. Rather, they have endorsed their people in media organisation for taking help of this fourth pillar of democracy. But, still there is hope as few media organisation are doing remarkable work including Indian Express and NDTV 24*7 in this regard..
जानकारी के लिए सुक्रिया!
आपको नव वर्ष मंगलमय हो!
चलिये हमने मान लिया कि पिछले तीन सालों से डॉ. सेन के छवि को छत्तीसगढ़ की पुलिस, सरकार व मीडिया नें सत्य से परे बिगाड़ दिया. किन्तु इसके पूर्व डॉ. सेन के महानतम उपलब्धियों को जनता के बीच क्यों नहीं लाया गया, उनके समर्थन में जुटने वाली भीड़ गिनतियों में क्यों रही, एनजीओ के काजल की कोठरी में उन्होंनें हाथ क्यूं डाला, क्या समूचे छत्तीसगढ़ के समस्त मीडियाकर्मी इतने भावहीन हो सकते हैं, डॉ. सेन के सदकार्यो को छत्तीसगढ़ की जनता क्यों नहीं जान पाई बल्कि संपूर्ण दुनिया जान गई, छत्तीसगढ़ के शोषित व दमित समाज का सबसे बड़ा झंडाबरदार कोई हुआ है तो वह था, शंकर गुहा नियोगी. जिसके पीछे हुजूम बिना प्रोपोगंडे के भी चलती थी, उनका कार्य छत्तीसगढ़ के लोगों को क्यू नजर आता है, ऐसे बहुत सारे प्रश्न है हम छत्तीसगढि़यों के मन में.
संभव हो तो डॉ.सेन के छत्तीसगढ़ में किए गए कार्यों को (जिसके सहारे उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले) हिन्दी भाषा में तथ्यात्मक रूप से जनता के सामने लावें, डॉ.सेन पर आया फैसला कोई अंतिम न्यायिक फैसला नहीं है.
आपको नव वर्ष मंगलमय हो!
विचारणिय पोस्ट लिखी है।
लोकतंत्र के चौथे खम्बे को रिपिएयर की जरुरत है .......
नमस्कार!
अपने चित्र में मणिपुर की इरोम शर्मिला को भी शामिल कर लें
zara ye bhi bata de ki doctor binayak kiska aur kahan ilaaz karte the,cmc se nikalane ke bad we kahan kahan rahe aur chhattisgarh aane ke pehle kahan kahan logon ka ilaaz kiya.aakhir we chhattisgarh aaye kaise?aur unke mahan kamon ko chhttisgarh ka media jaan kyon nahi paya?sawal to bahut se hai,kabhi fursat me.
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