Friday, January 7, 2011

सात सौ सत्तर लोगों की कैद के बारे में

( कविता के सम्पूर्ण वितान को छूने वाला यह आलेख चन्द्रिका का है. इस आलेख का प्रभाव और इसमें शामिल सूचनायें क्रमश: इस कदर घातक और अनिवार्य हैं कि इसकी ‘चन्द लाईनी’ भूमिका लिखने के मेरे सारे प्रयास असफल रहे..)  

पेशा कुछ नहीं है...

बिनायक सेन के बारे में उतना कहा जा चुका है जितना वे निर्दोष हैं और उतना बाकी है जितना सरकार दोषी है. ९२ पेज के फैसले में तीन जिंदगियों को आजीवन कारावास दिया जा चुका है. अन्य दो नाम पियुष गुहा और नारायण सान्याल, जिनका जिक्र इसलिये सुना जा सका कि बिनायक सेन के साथ ही इन्हे भी सजा मुकर्रर हुई, वरना अनसुना रह जाता. पर जिन नामों और संख्याओं का जिक्र नहीं आया वे ७७० हैं, जो बीते बरस के साथ छत्तीसगढ़ की जेलों में कैद कर दी गयी, इनमें हत्याओं और यातनाओं को शामिल नहीं किया गया है. जिनमे अधिकांश आदिवासी हैं पर सब के सब माओवादी. छत्तीसगढ़ का आदिवासी होना थोड़े-बहुत उलट फेर के साथ माओवादी होना है और माओवादी होना अखबारी कतरनों से बनी हमारी आँखों में आतंकवादी होना. यह समीकरण बदलते समय के साथ अब पूरे देश पर लागू हो रहा है.
सच्चाई बारिश की धूप हो चुकी है और हमारा ज़ेहन सरकारी लोकतंत्र का स्टोर रूम. दशकों पहले जिन जंगलों में रोटी, दवा और शिक्षा पहुंचनी थी, वहाँ सरकार ने बारूद और बंदूक पहुंचा दी. बारूद और बंदूक के बारे में बात करते हुए शायद यह कहना राजीव गाँधी की नकल करने जैसा होगा कि जब बारूद जलेगी तो थोड़ी गर्मी पैदा ही होगी. दुनिया की महाशक्ति के रूप में गिने जाने वाले देश की सत्ता से लड़ना शायद और यकीनन आदिवासियों की इच्छा नहीं रही होगी, पर यह जरूरत बन गयी, कि जीने के लिये रोटी और बंदूक साथ लेके चलना और जंगलों की नई पीढ़ियों ने लड़ाईयों के बीच जीने की आदत डाल ली.  

अब तो बस देश की जनता अपनी जरूरतें पूरी कर रही है. मसलन आदिवासियों को जीने के लिये जंगल की जरूरत है और जंगल को पेड़ों की जरूरत, पेड़ों को उस जमीन की जरूरत जिसकी पीठ पर वे खड़े रह सकें, उस पीठ और जमीन की जरूरतें है कि उन्हें बचाया जा सके उखड़ने और खोदे जाने से और इन सारे बचाव व जरूरतों को पूरा करने के लिये के लिये जरूरी है माओवादी हो जाना. कार्पोरेट और सरकार की जुगलबंद संगीत को पहाड़ी और जंगली हवा में न बिखरने देना. सरकार की तनी हुई बंदूक की नली से गोली निकाल लेना, अपनी जरूरतों के लिये जरूरत के मुताबिक जरूरी हथियार उठा लेना. शहर के स्थगन और निस्पन्दन से दूर ऐसी हरकत करना कि दुनिया के बुद्धिजीवियों की किताबों से अक्षर निकलकर जंगलों की पगडंडियों पर चल फिर रहे हों.

इस बिना पर इतिहास की परवाह न करना कि लिखा हुआ इतिहास लैंप पोस्ट के नीचे चलते हुए आदमी की परछाईं भर है, बदलते गाँवों के साथ अपने नाम बदलना और पुलिस के पकड़े जाने तक बगैर नाम के जीना, या मर जाना, कई-कई नामों के साथ. नीली पॉलीथीन और एक किट के साथ जिंदगी को ऐसे चलाना कि समय को गुरिल्ला धक्का देने जैसा हो. उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के विगत वर्षों के संघर्ष, जिनका माओवादियों ने नेतृत्व किया, जीवन जीने के लिये अपनी अस्मिता के साथ खड़े होने के सुबूत हैं. जिसे भावी प्रधानमंत्री की होड़ में या निर्विरोध चुना जाने वाला, सनसनीखेज यात्रायें करता कांग्रेस का युवा नेता हाल के एक बड़े अधिवेशन में एक तरफ उड़ीसा के आदिवासियों की जीत करार देता है और कहता है कि आम आदमी वो है जो व्यवस्था से कटा हुआ है. तो दूसरी तरफ देश की लोकतांत्रिक संरचना उन्हें माओवादी कहकर जेल में या सेना के शिकारी खेल में खत्म कर रही है.

इस पूरी परिघटना के एक विचारक नारायण सान्याल, उर्फ नवीन उर्फ विजय, उर्फ सुबोध भी हैं इसके अलावा इनके और भी नाम हो सकते हैं जिनका पुलिस को पता नहीं भी हो. पोलित ब्यूरो सदस्य माओवादी पार्टी, कोर्ट के दस्तावेज के मुताबिक उम्र ७४ साल और पेशा कुछ नहीं. बगैर पेशे का माओवादी. शायद माओवादियों की भाषा में प्रोफेशनल रिवोल्यूशनरी कहा जाता है और माओवादी होना अपने आप में एक पेशा माना जाता है. उर्फ तमाम नामों के साथ नारायण सान्याल को कोर्ट में पेशी के लिये हर बार ५० से अधिक पुलिस की व्यवस्था करनी पड़ती है. तथ्य यह भी कि नारायण सान्याल किसी जेल में २ माह से ज्यादा रहने पर जेल के अंदर ही संगठन बना लेते हैं. देश के जेलों में बंद कई माओवादियों के ऊपर ये आरोप हैं और उन्हें २ या तीन महीने में जेल बदलनी पड़ती है. बीते २५ दिसम्बर को चन्द्रपुर जेल के सभी माओवादी बंदियों को नागपुर जेल भेजना पड़ा क्योंकि पूरी जेल ही असुरक्षित हो गयी थी. प्रधानमंत्री का कहना है कि पूरा देश ही असुरक्षित है और माओवादी उसके सबसे बड़े कारक हैं.

लिहाजा बिनायक सेन के आजीवन कारावास पर बहस का केन्द्रीय बिन्दु माओवादी हो रहे देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों व बुद्धिजीवियों की भूमिका है. नारायण सान्याल, कोबाद गांधी, अभिषेक मुखर्जी जैसे बुद्धिजीवियों के माओवादी हो जाने का प्रश्न है. कि आखिर तेरह भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का स्कालर छात्र माओवादी क्यों बना? एक मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में आज अपनी भूमिका कैसे अदा करे? क्या यह सलवा-जुडुम की सरकारी हिंसा को वैध करके या फिर इसके प्रतिरोध में जन आंदोलन के साथ खड़े होकर. क्या इन जनांदोलनों को इस आधार पर खारिज किया जा सकता है कि यह माओवादियों के नेतृत्व में चल रहे हैं?

यह खारिजनामा ६ लाख छत्तीसगढ़ के आदिवासी विस्थापितों को भी खारिज करना होगा. जिसे रमन सिंह यह कहते हुए पहले ही खारिज कर चुके हैं कि जो सलवा-जुडुम में नहीं है वो सब माओवादी है और अब सलवा-जुडुम कैंप में गिने चुने ही लोग बचे हैं, बाकी आदिवासी जंगलों में लौट चुके हैं.

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लेखक से संपर्क : 09890987458 ; chandrika.media@gmail.com 
  

7 comments:

नया सवेरा said...

... gambheer maslaa !!

गौरव सोलंकी said...

बहुत अच्छा लिखा है चन्द्रिका। बहुत ज़रूरी भी।

डॉ .अनुराग said...

विनायक सेन की गिरफ़्तारी से ज्यादा परेशां करने वाली चीज़ ...देश के एक बड़े हिस्से में पढ़े लिखे वर्ग का उस गिरफ्तारी को सहमति देना है ..म विकास तो चाहते है पर इस विकास का एक बराबरी का हिस्सा उस तबके को देने के लिए बनायीं गयी योजनाओं के क्रियावरण का सारा जिम्मा सरकार ओर उसके नुमाइंदो पर छोड़ देते है ....वही तंत्र जिससे हम भली भाँती वाकिफ है .....आप विनायक सेन को दोषी मानते है मानिये .....सजा देनी है दीजिये ...पजिन कमियों पर वे संशय रखते है उन्हें ख़ारिज न करिए ..
सामाजिक व्यवस्था के उस ध्रुवीकरण का एक पहलु भी भी देखिये जिसमे राजा नीरा राडिया कलमाड़ी जैसे लोग टी वी कैमरों के सामने मुस्कराते है ...ओर पीछे बेकग्रायुंड में कोई शोकगीत नहीं बजता
देशभक्ति के कम्बल को फिर हमारी ओर चतुराई से फेंका जाएगा ओर हम कई बुनियादी सवालों को भावावेश में भूल जायेगे .ओर देश के कई हिस्से आहिस्ता आहिस्ता हमसे अलग थलग महसूस करने लगेगे


लोकतान्त्रिक ढांचे में जहाँ तमाम किस्म के सच मौजूद है ..प्रायोजित यथार्थ ओर प्रायोजित सच के मुलम्मे में जिस तरह माओवादी "शोषण" का इस्तेमाल सरकार के खिलाफ कर इस लोकतंत्र के खिलाफ करते है ....सत्ता तंत्र" देशभक्ति" का इस्तेमाल कर .बुनियादी सवालों को पीछे छोड़ने में करता है ......"पोलिस ओर सेना के जवान' ओर "आदिवासी" टूल की तरह फिर इस्तेमाल होते है .......होते रहेगे

डॉ .अनुराग said...

see here.....
http://chitthacharcha.blogspot.com/2010/12/blog-post_31.html

addictionofcinema said...

Gaurav se sehmat

shesnath pandey said...

क्या किसी की जिंदगी की कीमत इतनी कम है हमारी कंट्री में...?

Anonymous said...

without malaise,
if Mr ( rather comrade)Kodbad G is scale on which intellectual will be measured in our society , then perhaps your blog is soft ( very soft) justification for the affairs in a large part of our country(Please read insurgency/law order problem/maoism /racket of extortion worth more than 2000 crore per yr etc). and joseph stalin was biggest exponent of democracy in world ever had. you tried to say democracy is failing ( more expressive in many comment), but most of us had failed to suggest the alternative. many political scientist will agree that democracy is best form of governance we humans know.your worry may be geniune for 770 person ( if that no. is correct what is source), but what about countless who were killed by these"innocent intellectuals" in land mines, on suspicion of being police informer . remember dantewada and CRPF 76 souls . I am at pained to point there was no protest in india anywhere , no meeting, no blogs, no foreign observers for court proceeding to nab accused, no body dreamed to have protests offshore.
dear frds, Few of you will be younger than me and few of you will be elder but I have same question for all, how many cases we have seen in which head and and body of human at a distance 6 ft as seen as in case of inspector francis.(will you deny that these "innocent intellectual' were involved in It). where was our blogs that time.
May i accuse you of pseudo-intellectualism or opportunitism.

Having said so any right minded person will agree lot need to done for income equality . and providing equal opportunity to all. but only few will agree with methods adopted by these " innocent intellectuals". voilence is poorest form of human response , if at all it has to be excercised this is strictly state monopoly.

If still you not convinced take out your phone call a dozen of frds to rank these innocent intellectuals , judiciary and police. prefernce will be juidiciary ( despite of delays)
Followed by police ( despite of ill mannered, poorly trained). and "innocent intellectuals will be poor third.

so let vinayak sen face justice. we all should wait for final verdict. he must not get prefereential treatment. it will be simply bad precedence.
Regards
Ek Ajnabi