( यह आलेख डॉ. कृष्णमोहन का है. 26 जनवरी के शुभ – उपलक्ष्य पर प्रस्तुत यह आलेख कई कई स्तरों पर खुलता है. अबोध पीढ़ी के लिए यह कक्षा में पढ़ाये जाने वाले जरूरी निबन्धात्मक पाठ की तरह है तो हमारी उम्र के लिये त्रासद व्यंग्य और बुजुर्गवारों के लिये अफसोस का चिट्ठा है. )
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इंडिया – डैट इज भारत
भारत के संविधान को लागू हुए यानी भारत को गणतंत्र बने 61 वर्ष हो चुके हैं. संविधान के मुताबिक हमारा देश एक संप्रभु, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है. अपनी जनता का कल्याण करना इसका परम पवित्र कर्तव्य है और यह उस मार्ग पर उत्तरोत्तर अग्रसर है. गुटनिरपेक्षता और विश्वशांति के लिये हमारी प्रतिबद्धता निर्विवाद है. जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी के मार्गदर्शन और राहुल गांधी के आने तक मनमोहन सिंह के दूरदर्शी नेतृत्व में हमारी आने वाली पीढ़ियों तक का भविष्य सुरक्षित है.
समाज में हर तरह की सामाजिक विषमता और भेदभाव के विरूद्ध हमारी कार्यपालिका प्रतिबद्ध है. छुआछूत को तो हमने अपराध की मान्यता दे रखी है, जिससे प्राय: सभी घृणा करते हैं. हमें आश्चर्य होता है कि कभी हमारे महान देश में ऐसी प्रथाएँ भी प्रचलित थीं. दलितों पर अत्याचार के खिलाफ हमारी पुलिस विशेष रूप से सक्रिय है. जहाँ कहीं भी उनके प्रति किसी अन्याय की सूचना मिलती है, प्रशासन अपराधियों के विरूद्ध सक्रिय हो जाता है और उन्हें सजा दिला कर ही छोड़ता है. यही हाल महिलाओं का है. दलितों और महिलाओं के प्रति हमारे प्रशासन के प्रतिनिधियों में अतिशय संवेदनशीलता है और वे अपने – अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने के लिए पूरी तरह सजग रहते हैं. बच्चों के प्रति हम कितने ममत्व से भरे हैं इसका पता इसी बात से चलता है कि हर वर्ष हजारों की तादाद में बच्चे अपने माँ – बाप को छोड़कर पूरी तरह स्वेच्छा से गायब हो जाते हैं. पूरा देश उनके खेल का मैदान बन जाता है.
विधायिका और न्यायपालिका की वस्तुगत प्रंशसा के बगैर यह चर्चा अधूरी रहेगी. हमारी संसद और विधानसभाओं में जनसमस्याओं पर विचार विमर्श की अभूतपूर्व परम्परा है. चर्चा का स्तर हमारे महान जनतंत्र के अनुरूप ही है. इनके सदस्यों की विद्वता, मृदुभाषिता और सच्चरित्र के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती. कह सकते हैं कि हमारे संविधान के रूप में वर्षों पहले जो बीज लगाया था, अह अब वृक्ष बन चुका है और हम उसके फल चख रहे हैं. आने वाली पीढ़ियाँ हमारी आभारी होंगी कि हमने उनके लिए न केवल इसे सुरक्षित रखा, बल्कि पर्याप्त विकसित भी किया.
इतने बड़े देश के संचालन में जब कोई समस्या आती है तो हमारा ध्यान न्यायपालिका की ओर जाता है. हमारे न्यायधीशों की न्यायप्रियता और निष्पक्षता में किसी को सन्देह नहीं हो सकता. किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार और भाईभतीजावाद से ये कोसों दूर हैं. बल्कि भ्रष्टाचार को तो ये देशद्रोह के समतुल्य मानते हैं और उम्रकैद से लेकर फांसी तक देने में देर नहीं करते. इनकी इसी महत्ता को देखते हुए इन्हें किसी भी जबावदेही से मुक्त रखा गया है. इनकी आलोचना संगीन अपराध है जो जनतंत्र के मूलभूत सिद्धांत अभिव्यक्ति की आजादी के पूरी तरह अनुरूप है. हमारा विश्वास है कि न्याय के ये पुतले जब तक सार्वजनिक आलोचना से बचे रहेंगे, हमारा जनतंत्र फलता - फूलता रहेगा.
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हमारे संविधान की देखरेख में हमारे जनतंत्र के चारो खम्भे मजबूती से टिके हुए हैं और विश्व की एक महाशक्ति बनने वाले हैं.
( डॉ. क़ृष्णमोहन. साहित्यालोचक और निबन्धकार. आलोचना की तीन पुस्तकें प्रकाशित - 'मुक्तिबोध: स्वप्न और संघर्ष'; 'आधुनिकता और उपनिवेश', और 'कहानी समय'. बनारस की रिहाईश. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन. हिन्दी कहानी की सारगर्भित पड़ताल करता हुआ एक आलोचनात्मक आलेख शीघ्र प्रकाश्य.
सम्पर्क : krishnamohanbanaras@gmail.com )
7 comments:
वाह ! अच्छी पड़ताल है हमारे गणतंत्र की. इतने सरल लगते वाक्य मगर कितने वेधक......
जय हो ..;अच्छा है बंधु....चारों स्तम्भ के बहुत से ईमानदार, निष्ठावान पुर्जे...जय हो...।
गणतंत्र का आत्मवलोकन कराता एक जरूरी आलेख...
गणतन्त्र दिवस की 62वीं वर्षगाँठ पर
आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
Vicharottejak!
Vicharottejak!
Vicharottejak!
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