Wednesday, November 16, 2011
उस्ताद की कहानी : सुखांत
Saturday, April 30, 2011
मनोज की खोज : 1 - रोक डॉल्टन गार्सिआ की कविताएँ
1992 की बात है. या 1993 की. मार्टिन एस्पादा ने राजनीतिक कविताओं का संग्रह तैयार किया और उसका नाम दिया : रोटी की तरह कविता. कहना न होगा कि यह पंक्ति रोक डॉल्टन की कविता 'तुम्हारी तरह' से ली गई है.
रोक डाल्टन (अल सल्वाडोर, 1935 - 1975) एक कवि, लेखक, बुद्धिजीवी और क्रांतिकारी की हैसियत से लैटिन अमेरिका के इतिहास की महत्वपूर्ण शख्सियत रहे हैं. अपने छोटे से जीवन में उन्होंने कुल मिलाकर 18 किताबें लिखीं. मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारों से प्रभावित डाल्टन ने क्रांतिकारी एक्टिविस्ट बनने का भी काफी प्रयास किया जिसे यह कहते हुए नकार दिया गया कि क्रान्ति में उनकी भूमिका एक कवि के रूप में ही है. मेक्सिको में निर्वासन में रहने के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया और मौत की सजा सुनाई गई लेकिन वे चमत्कारी ढंग से बच निकले. पर उन दिनों लटिन अमेरिका में सोचने समझने वालों के साथ जो सामान्यत: होता था, ठीक उसी तरह 1975 में उनकी हत्या कर दी गई.
हम हिन्दी वाले अक्सर "पोलिटकली चार्ज्ड" कविता की बात करते हैं और साथी मनोज पटेल ने ऐसे कवि को ढूँढ निकाला है जिसकी कविताओं से गुजरते हुए हम "पोलिटकली चार्ज्ड" शब्दयुग्म के भाव को पंक्ति दर पंक्ति महसूस करेंगे. हमारा इरादा, रोक डॉल्टन की कविताओं का धनी हिन्दी समाज से परिचय कराने का, फरवरी का था पर तय हुआ कि इनकी कविताओं के अंग्रेजी संकलन में मौजूद सभी 142 कविताओं का अनुवाद कर लिया जाए. हुआ भी यही.
इस परिचायत्मक मेगा पोस्ट के बाद आपको धड़ल्ले से इनकी कविताएँ पढ़ने को मिलेगी.
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तुम्हारी तरह
तुम्हारी तरह मैं भी
प्रेम करता हूँ प्रेम से, ज़िंदगी,
चीजों की मोहक सुगंध, और जनवरी
के दिनों के आसमानी रंग के भूदृश्यों से.
और मेरा भी खून खौल उठता है
और मैं हंसता हूँ आँखों से
जो जानती रही हैं अश्रुग्रंथियों को.
मेरा मानना है कि दुनिया खूबसूरत है
और रोटी की तरह कविता भी सबके लिए है.
और मेरी नसें सिर्फ मेरे भीतर नहीं
बल्कि उन लोगों के एक जैसे खून तक भी फैली हैं
जो लड़ते हैं ज़िंदगी के लिए,
प्रेम,
छोटी-छोटी चीजों,
प्राकृतिक भूदृश्यों और रोटी के लिए,
जो कविता है हर किसी की.
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आजादी के आंकड़े
सल्वाडोर के लोगों के लिए प्रेस की आजादी की लागत
20 सेंटावो प्रतिदिन बैठती है
केवल उन्हीं लोगों की गिनती करते हुए जो पढ़ सकते हैं
और जिनके पास बीस सेंटावो से ज्यादा बचे रह जाते हैं
बमुश्किल उतना भर खाने के बाद जितना ज़िंदा रहने के लिए जरूरी है.
बड़े उद्योगपतियों और प्रचारकों के लिए
प्रेस की आजादी
एक श्वेत-श्याम पृष्ठ के लिए हजारों और कुछ रेजगारी की कीमत पर बिकती है
और मुझे नहीं पता कि पाठ्य या चित्र के लिए
प्रति वर्ग इंच की किस दर पर.
डान नेपोलियन वियरा अल्टामिरानो
और डतरिज और पिंटो और अल मुंडो के मालिकों के लिए
प्रेस की आजादी लाखों की है :
जिसमें शामिल हैं इमारतें
सैन्य सिद्धांतों पर बनाई गईं
जिसमें शामिल हैं मशीन और कागज़ और रोशनाई
उनके उद्योगों के आर्थिक निवेश
जो वे दिन-प्रतिदिन बड़े उद्योगपतियों और प्रचारकों से पाते हैं
और सरकार और उत्तरी अमेरिका
और दूसरे दूतावासों से
जिसे वे गारते हैं अपने मजदूरों के शोषण से
जिसे वे ऐंठते हैं ब्लैकमेल से ( "सबसे नामी आदमी की निंदा
न छापकर या मौकापरस्ती से ऐसा राज छापकर
जो समुद्र की सबसे छोटी मछली को डुबो देगा" )
जो वे कमाते हैं "एकमात्र अधिकार" की अवधारणा से, उदाहरण के लिए
"लव इज" तौलिए... "लव इज" मूर्तिकाएं...
जो वे रोज एकत्र करते हैं
सल्वाडोर (और गुआटेमाला) के उन सभी लोगों से
जिनके पास बीस सेंटावो उपलब्ध होते हैं.
पूंजीवादी तर्कशास्त्र में
प्रेस की आजादी बस एक और धंधा है
और सबके लिए इसकी कीमत
इसके लिए उसके द्वारा किए जाने वाले भुगतान के समानुपाती है :
लोगों के लिए बीस सेंटावो प्रति व्यक्ति प्रति दिन
प्रेस की आजादी की कीमत,
वियरा अल्टामिरानो डतरिज पिंटो वगैरह के लिए
लाखों डालर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन
होती है प्रेस की आजादी की कीमत.
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27 साल
सत्ताईस साल का होना
एक संजीदा बात है
दरअसल तमाम मौजूद चीजों के बीच
सबसे संजीदा बातों में से एक
देखते हुए दोस्तों की मौत
और डूबते हुए बचपन को
शक होने लगता है
अपने खुद के अमरत्व पर.
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कविता से
मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ कविता
बहुत शुक्रगुजार हूँ आज तुमसे मुलाक़ात के लिए
(ज़िंदगी और किताबों में)
तुम्हारा वजूद सिर्फ उदासी के चकाचौंध कर देने वाले
भव्य अलंकरण के लिए ही नहीं है
इसके अलावा हमारी जनता के इस लम्बे और कठिन संघर्ष के
काम में मेरी मदद करके
तुम आज मुझे बेहतर कर सकती हो
तुम अब अपने मूल में हो :
अब वह भड़कीला विकल्प नहीं रही तुम
जिसने मुझे अपनी ही जगह से बाँट दिया था
और तुम खूबसूरत होती जाती हो
कामरेड कविता
कड़ी धूप में जलती हुई सच्ची खूबसूरत बाहों के बीच
मेरे हाथों के बीच और मेरे कन्धों पर
तुम्हारी रौशनी मेरे आस पास रहती है.
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यकीन
चार घंटों की यातना के बाद, अपाचे एवं अन्य दो सिपाहियों ने कैदी को होश में लाने के लिए उस पर एक बाल्टी पानी फेंक कर कहा : "कर्नल ने हमें यह बताने का हुक्म दिया है कि तुम्हें खुद को बचाने का एक मौक़ा दिया जाने वाला है. यदि तुम सही-सही यह बता दो कि हममें से किसकी एक आँख शीशे की है, तो तुम्हें यातना से छुटकारा दे दिया जाएगा." जल्लादों के चेहरे पर निगाहें फिराने के बाद, कैदी ने उनमें से एक की तरफ इशारा किया : "वह. उसकी दाहिनी आँख शीशे की है."
अचंभित सिपाहियों ने कहा, "तुम तो बच गए ! लेकिन तुमने कैसे अंदाजा लगाया ? तुम्हारे सभी साथी गच्चा खा गए क्योंकि यह अमेरिकी आँख है, यानी एकदम बेऐब." "सीधी सी बात है," फिर से बेहोशी तारी होने का एहसास करते हुए कैदी ने कहा, "यही इकलौती आँख थी जिसमें मेरे लिए नफरत नहीं थी."
जाहिर है, उन्होंने उसे यातना देना जारी रखा.
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अनुवाद : मनोज पटेल
सम्पर्क : manojneelgiri@gmail.com ; http://padhte-padhte.blogspot.com/
Tuesday, March 29, 2011
दुन्या मिखाईल की पाँच कविताएँ
दुन्या की कविताएँ किसी ऐसे दु:ख या सघन अनुभूति की तरह सामने आती हैं जिनका सामना हम भरसक नही करना चाहते. जैसे यह कविता – कटोरा(अंग्रेजी में इसका शीर्षक ‘द कप’ है). पाखंड को आप नकारते हैं, शगुन – अपशगुन को आसानी से नकारते हैं पर यह कविता आपको गर्दन पर सवार हो जायेगी जहाँ आप चाहकर इस शगुन – अपशगुन के खेल को आसानी से नकार नही पायेंगे.
खेल कविता पढ़ते हुए मीर के एक शे’र “खुदा को काम तो सौपें हैं मैने सब / रहे है खौफ मुझको वाँ की बेनियाजी का” लगातार याद आता रहा. ऐसे ही तीसरी कविता है – एक आवाज़.
इससे पहले भी मनोज जी दुन्या की कविताओं के अनुवाद लगातार करते रहे हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं.
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कटोरा
उस स्त्री ने कटोरे को उल्टा करके रख दिया
अक्षरों के बीच में.
एक मोमबत्ती को छोड़कर बाक़ी सारी बत्तियां बुझा दीं
और अपनी उंगली कटोरे के ऊपर रखी
और मन्त्र की तरह कुछ शब्द बुदबुदाए :
ऐ आत्मा... अगर तू मौजूद है तो कह - हाँ.
इस पर कटोरा हाँ के संकेत स्वरूप दाहिनी तरफ चला गया.
स्त्री बोली : क्या तुम सचमुच मेरे पति ही हो, मेरे शहीद पति ?
कटोरा हाँ के संकेत में दाहिनी तरफ चला गया.
उसने कहा : तुम इतनी जल्दी मुझे क्यों छोड़ गए ?
कटोरा इन अक्षरों पर फिरा -
यह मेरे हाथ में नहीं था.
उसने पूछा : तुम बच क्यों नहीं निकले ?
कटोरा इन अक्षरों पर फिरा -
मैं बच निकला था.
उसने पूछा : तो फिर तुम मारे कैसे गए ?
कटोरे ने हरकत की : पीछे से.
उसने कहा : और अब मैं क्या करूँ
इतने सारे अकेलेपन के साथ ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
उसने कहा : क्या तुम मुझसे प्रेम करते हो ?
कटोरा हाँ के संकेत में दाहिनी तरफ चला गया..
उसने कहा : क्या मैं तुम्हें यहाँ रोक सकती हूँ ?
कटोरा नहीं की तरफ के संकेत में बायीं तरफ चला गया..
उसने पूछा : क्या मैं तुम्हारे साथ चल सकती हूँ ?
कटोरा बायीं तरफ चला गया.
उसने कहा : क्या हमारी ज़िंदगी बदलेगी ?
कटोरा दाहिनी तरफ चला गया.
उसने पूछा : कब ?
कटोरे ने हरकत की - 1996.
उसने पूछा : क्या तुम सुकून से हो ?
कटोरा हिचकिचाते हुए हाँ की तरफ चला गया.
उसने पूछा : मुझे क्या करना चाहिए ?
कटोरे ने हरकत की - बच निकलो.
उसने पूछा : किधर ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
उसने कहा : तुम मुझसे क्या चाहते हो ?
कटोरे एक बेमतलब जुमले पर फिरी.
उसने कहा : कहीं तुम मेरे सवालों से ऊब तो नहीं गए ?
कटोरा बायीं तरफ चला गया.
उसने कहा : क्या मैं और सवाल कर सकती हूँ ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
थोड़ी चुप्पी के बाद, वह बुदबुदाई :
ऐ आत्मा... जा, तुझे सुकून मिले.
उसने कटोरा सीधा किया
मोमबत्ती को बुझा दिया
और अपने बेटे को आवाज़ लगायी
जो बगीचे में कीट-पतंगे पकड़ रहा था
गोलियों से छिदे हुए एक हेलमेट से.
* *
खेल
वह एक मामूली प्यादा है.
हमेशा झपट पड़ता है अगले खाने पर.
वह बाएँ या दाएं नहीं मुड़ता
और पीछे पलटकर भी नहीं देखता.
वह एक नासमझ रानी द्वारा संचालित होता है
जो बिसात के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चल सकती है
सीधे या तिरछे.
वह नहीं थकती, तमगे ढोते
और ऊँट को कोसते हुए.
वह एक मामूली रानी है
एक लापरवाह राजा द्वारा संचालित होने वाली
जो हर रोज गिनता है खानों को
और दावा करता है कि कम हो रहे हैं वे.
वह सजाता है हाथी और घोड़ों को
और एक सख्त प्रतिद्वंदी की करता है कामना.
वह एक मामूली राजा है
एक तजुर्बेकार खिलाड़ी द्वारा संचालित होने वाला
जो अपना सर घिसता है
और एक अंतहीन खेल में बर्बाद करता है वक़्त अपना.
वह एक मामूली खिलाड़ी है
एक सूनी ज़िंदगी द्वारा संचालित होने वाला
किसी काले या सफ़ेद के बिना.
यह एक मामूली ज़िंदगी है
एक भौचक्के ईश्वर द्वारा संचालित होने वाली
जिसने कोशिश की थी कभी मिट्टी से खेलने की.
वह एक मामूली ईश्वर है.
उसे नहीं पता कि
कैसे छुटकारा पाया जाए
अपनी दुविधा से.
एक आवाज़
मैं लौटना चाहता हूँ
वापस
वापस
वापस
दुहराता रहा तोता
उस कमरे में जहां
उसका मालिक छोड़ गया था उसे
अकेला
यही दुहराने के लिए :
वापस
वापस
वापस...
नया साल
1
कोई दस्तक दे रहा है दरवाजे पर.
कितना निराशाजनक है यह...
कि तुम नहीं, नया साल आया है.
2
मुझे नहीं पता कि कैसे तुम्हारी गैरहाजिरी जोडूँ अपनी ज़िंदगी में.
नहीं मालूम कि कैसे इसमें से घटा दूं खुद को.
नहीं मालूम कि कैसे भाग दूं इसे
प्रयोगशाला की शीशियों के बीच.
3
वक़्त ठहर गया बारह बजे
और इसने चकरा दिया घड़ीसाज को.
कोई गड़बड़ी नहीं थी घड़ी में.
बस बात इतनी सी थी की सूइयां
भूल गईं दुनिया को, हमआगोश होकर.
* *
झूलने वाली कुर्सी
जब वे आए,
बड़ी माँ वहीं थीं
झूलने वाली कुर्सी पर.
तीस साल तक
झूलती रहीं वे...
अब
मौत ने मांग लिया उनका हाथ,
चली गयीं वे
बिना एक भी लफ्ज़ बोले,
अकेला
छोड़कर इस कुर्सी को
झूलते हुए.
अनुवादक से सम्पर्क : 09838599333 ; manojneelgiri@gmail.com
Tuesday, February 8, 2011
भर्तृहरि की शतकत्रयी से कविताएँ
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शतकत्रयी के रचनाकार भर्तृहरि भारतीय काव्य मनीषा के अप्रतिम कवि हैं. भर्तृहरि और उनके समय के बारे में संस्कृत के अध्येताओं में लगातार विवाद बना रहा है : संस्कृत वांग्यमय में भर्तृहरि नाम के दो साहित्य मनीषियों का उल्लेख मिलता है. एक भर्तृहरि व्याकरणाचार्य है और दूसरे शतकत्रयी के रचनाकार. तीनों शतक अधिकांशतः साधारण धार्मिक पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित होते रहे हैं इन पुस्तिकाओं में भर्तृहरि के परिचय के नाम पर जो कथा मिलती है उसमें भर्तृहरि उज्जयिनी के महाराज हैं, गोरखनाथ के शिष्य हैं और विक्रमादित्य उनके छोटे भाई बताये गए हैं. यही कथा मालवा, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ से लेकर हरियाणा और अनेक अंचलों में लोकनाट्य, लोकगीतों, लोककथाओं में खेली और गायी जाती है. “अमरफल” की कथा के नायक को ही अधिकांशतः व्याकरणाचार्य और शतकत्रयी का रचनाकार भी माना जाता रहा है. लेकिन “अमरफल” की लोककथा के नायक राजा भर्तृहरि से शतकत्रयी की रचना का संबंध जोड़ने का कोई तार्किक आधार नहीं है. यहां तक कि इस कथा गायन में उनकी रचना का कोई स्पष्ट उल्लेख तलाशना भी दूभर है. विक्रमादित्य और गोरखनाथ से भर्तृहरि के संबंध का भी कोई ठोस आधार नहीं है. भर्तृहरि की पूरी रचना में व्यापार और कृषि का वर्णन तकरीबन नगण्य है. मात्र नीतिशतक में एकाध स्थान पर संकेतरूप में इसका उल्लेख मिलता है.
डी.डी. कोशाम्बी का मानना है कि भर्तृहरि का अनुमानित काल ज़्यादा से ज़्यादा तीसरी शताब्दी के अंत का माना जा सकता है. यह भारतीय सामंतवाद का उदय काल था और किसी भी प्रकार की समर्थ राजशाही उस वक़्त अस्तित्व में नहीं थी. यह काल गुप्तवंश के उदय के पूर्व का है. उस वक़्त भारतीय समाज में एक नया वर्ग उदित हो रहा था. वर्ग समाज में पूर्व व्यवस्था के गर्भ से जन्म लेने वाल हर नया वर्ग, नये विचारों, नये कला रूपों और नये सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों को लेकर पैदा होता है. उसके लिए संघर्ष करता है और उन्हें स्थापित करता है. इसलिए वर्ग समाज में कला के जितने उन्नत और उत्कृष्ट रूप नई वर्ग व्यवस्था के उदय काल में प्रकट होते हैं उतने उस विशिष्ट व्यवस्था के विकसित हो जाने पर संभव नहीं होते. सामंतवाद का उदय न केवल हमारे सामाजिक ढांचे में एक क्रांतिकारी परिवर्तन था बल्कि उसने संभवतः पहली बार सभी कलाओं को गुणात्मक रूप से परिवर्तित कर दिया. समस्त कलाओं को पहली बार विराटत्व और वैभव प्रदान किया.
इस तरह भर्तृहरि पुरानी व्यवस्था के विध्वंस और नई व्यवस्था के उदय के संधि स्थल पर खड़े एक संक्रमण काल के कवि हैं. इसलिए उनके व्यक्तित्व के अंतर्विरोध और उनकी रचना में विरोधाभास तीव्रता के साथ उजागर हुए हैं. शतकों ( नीति शतक, श्रृंगारशतक और वैराग्य शतक ) की कविता और लोककथा में वर्णित भर्तृहरि के व्यक्तित्व में यही एक मात्र समानता का बिंदु है. लोककथा का नायक भर्तृहरि एक बेचैन मन का व्यक्ति है. ऊहापोह में झूलता, निर्णय लेने में असमर्थ सा व्यक्ति. वह कई बार सन्यास लेता है, जंगल की ओर चला जाता है लेकिन बार बार वापस अपनी राजसत्ता में लौट आता है. धन, राज्य और विशेष रूप से नारी को लेकर भर्तृहरि की कविता में अनेक विरोधाभासी वक्तव्य हैं. ये विरोधाभास किसी वर्ग विशेष के विरोधाभास नहीं हैं जितना कि वे एक समय के संक्रमण और उसमें मूल्यों के विघटन में उजागर करते हैं. इसी कारण भर्तृहरि की कविता न केवल उनकी वर्गीय सीमाओं का बल्कि अपने समय का भी अतिक्रमण करती हुई अमरता को प्राप्त कर गई है.
भर्तृहरि बेहद संवेदनशील और अद्भुत कल्पनाशील कवि थे. बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने, बहुत सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त कर जाने की, अद्भुत कला उनके पास है. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कविता, कला और संगीत के प्रति उनमें गहरी आस्था है. वे न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि राजा और राज्य के लिए कला को अनिवार्य मानते हैं. कला, संगीत से विहीन मनुष्य उनके लिए बिना सींग और पूंछ वाला जानवर है. कला के प्रति ऐसी आस्था विरल है.
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नीतिशतक
महामूर्ख
मगर की दाढ़ से मणि निकाल कर
ला सकता है आदमी
मचलती लहरों में तैरता
समुद्र पार कर सकता है आदमी.
आदमी फूलों की माला–सा पहन सकता है
सर पर क्रोधित सांप को
पर नहीं बदल सकता वह
महामूर्ख का मन ! ॥4॥
रेत को पेर कर
तेल निकाल सकता है आदमी
मरीचिका में भी
पी सकता है पानी
बुझा सकता है प्यास.
शायद !
भटक-भटकाकर आदमी
खोज कर ला ही सकता है
सींग ख़रग़ोश के.
पर नहीं बदल सकता
ख़ुश नहीं कर सकता वह
महामूर्ख का मन. ॥5॥
एक दुष्ट को
मीठी मीठी बातों से
लाना रास्तों पर?
यानि
नाजुक मृणाल के डोरों से बांधकर
रोकने की कोशिश करना हाथी को
हीरे को छेदने की कोशिश
शिरीष के फूलों की नोक से
यानी
समुद्र को मीठा करने की कोशिश
शहद की एक बूंद से ! ॥6॥
पतन
उतरी स्वर्ग से पशुपति के मस्तक पर
पशुपति के मस्तक से उतरी
ऊंचे पर्वत पर
उतरी ऊंचे पर्वत से
नीचे धरा पर
पृथ्वी से उतर कर
समुद्र में समा गई गंगा.
विवेकहीन मनुष्य का
इसी तरह सौ तरह
होता है पतन. ॥10॥
दवा
बुझाया जा सकता
आग को पानी से
छाते से रोका जा सकता है
धूप को.
नुकीले अंकुश से मदमत्त हाथी को
और गाय और गधे को
किया ही जा सकता है बस में
पीट-पाट कर.
रोग की दवाओं से
और ज़हर को उतारा जा सकता है
मंत्रों से.
बताई है शास्त्रों ने हर चीज़ की दवा
पर दवा कोई नहीं
कोई नहीं है दवा
महामूर्ख की. ॥11॥
बिना सींग और पूंछ वाला जानवर
बिना सींग और पूंछ वाला
जानवर है वह
वह जो शून्य है
साहित्य कला और संगीत से
बिना घास खाए
जो जीता है वह
तो यह भाग्य ही है
इस नराधाम के जानवरों का ! ॥12॥
संग
दुर्गम पहाड़ों में
वनचरों के साथ साथ
घूमना अच्छा.
पर बैठना अच्छा नहीं
मूर्खों के साथ साथ
इन्द्र-भवन में भी. ॥14॥
मणियों का क्या दोष
जिस राजा के राज में
भटकते हों निर्धन ऐसे कवि
कविता जिनकी सुंदर
शास्त्रों के शब्दों सी
कविता जिनकी ज़रूरी
बहुत ज़रूरी शिष्यों के वास्ते
तो राजा ही है मूर्ख
समर्थ है विद्वान तो बिना धन के भी
हक़ है उसे करे निन्दा
अज्ञानी जौहरी की
गिरा दिया है जिसने मूल्य मणियों का
इसमें दोष क्या है भला मणियों का ! ॥15॥
राहु
वृहस्पति और पांच छह ग्रह
और भी हैं
आकाश गंगा में
पर किसी से नहीं लेता दुश्मनी मोल
वह पराक्रमी राहु
पर्व में वह ग्रसता है
सिर्फ़ तेजस्वी सूर्य और चंद्रमा को
जबकि सिर्फ़
सिर ही बचा है
उसकी देह में. ॥34॥
कांचन
बस धनवान ही हैं कुलीन
धनवान ही हैं पण्डित
वही है
सारे शास्त्रों और गुणों का भण्डार
वही है सुंदर
वही है दिखलौट
सारे गुण क्योंकि
बसते हैं कांचन में ! ॥41॥
कल्पतरू
हे राजन
दुहना है अगर तुम्हें
इस पृथ्वी की गाय को
तो पहले हष्ट-पुष्ट करो
इस लोक रूपी बछड़े को
अच्छी तरह पाला पोषा जाए
जब इस लोक को
तभी फलता फूलता है
भूमि का यह कल्पतरू. ॥46॥
ओ चातक
ओ चातक !
घड़ी भर को
ज़रा कान देकर सुनो मेरी बात
बहुत से बादल हैं आकाश में
पर एक से नहीं हैं
सारे बादल
कुछ हैं बरसते
जो भिगो डालते हैं सारी पृथ्वी को
और कुछ हैं जो
सिर्फ़ गरजते ही रहते हैं लगातार
ओ मित्र
मत मांगो हर एक से दया की भीख ! ॥51॥
दोस्ती
दूध ने दे डाला सारा दूधपन
अपने से मिले पानी को
गर्म हुआ जब दूध
पानी ने जला डाला अपने को
आग में.
दोस्त पर आयी जब आफ़त
तो उफ़न कर गिरने लगा दूध भी
आग में.
पानी से ही हुआ वह फिर शांत
ऐसी ही होती है दोस्ती
सच्ची और खरी. ॥76॥
आफ़तें
हाथ से फेंकी गई गेंद
फिर उछलती है
टप्पा खा कर
आफ़तें स्थायी नहीं होतीं
अच्छे लोगों की. ॥86॥
गंजा
धूप ने तपा डाली
जब चांद गंजे को
तो छाया की तलाश में
पहुंचा वह एक ताड़ के नीचे
ताड़ से गिरा फल
और तड़ाक से फोड़ दिया
उसने गंजे का सर
जहां कहीं जाता है भाग्य का मारा
आफ़तें साथ साथ जाती हैं
उसके. ॥91॥
ललाट पर लिखी
करील पर न हों पत्ते
तो बसंत का क्या दोष
नहीं टिपे उल्लू को दिन में
तो सूरज का क्या दोष
पानी की धार न गिरे चातक के मुंह में
तो बादल का क्या दोष
बिधना ने जो लिख दी है ललाट पर
कौन मेट सकता है उसे ! ॥94॥
कर्म
ब्रह्माण्ड का घड़ा रचने को
जिसने कुम्हार बनाया ब्रह्मा को
दशावतार लेने के जंजाल में
डाल दिया जिसने विष्णु को
रुद्र से भीख मंगवाई जिसने
हाथ में कपाल लेकर
जिसके आदेश से हर रोज़
आकाश में चक्कर लगाता है सूर्य,
उस कर्म को
नमस्कार !
नमस्कार ! ॥96॥
राजपाट क्या है
लाभ, लाभ क्या है
गुनियों की संगत है लाभ.
दुख, दुख क्या है
संग, मूर्खों का संग है दुख,
हानि, हानि क्या है
समय चूकना है हानि.
क्या है, क्या है निपुणता.
धर्म और तत्व को जानना है निपुणता
कौन है, कौन है वीर
वीर है, जो जीत ले इंद्रियों को
प्रेयसी, प्रेयसी कौन है
पत्नी, पत्नी ही है प्रियतमा
धन है, धन क्या है
ज्ञान, ज्ञान ही है धन
सुख, सुख क्या है
यात्रा, यात्रा ही है सुख
तो फिर राजपाट क्या है !! ॥104॥
Saturday, January 29, 2011
अफ़ज़ाल अहमद सैयद की कविताएँ
अफ़ज़ाल अहमद सैयद : जिन्होंने “शायरी ईज़ाद की”.
आधुनिक समय की विश्व कविता अगर कोई संसार है तो अफज़ाल अहमद सैयद उस प्यारे संसार की राजधानी हैं. प्रसंग विशिष्ट सम्वेदना के अटूट चित्रण के लिये विख्यात यह कवि/ शायर कविता के जादुई ‘डिक्शन’ और प्रभावशाली कहन (बयान) के अन्दाज का मास्टर है. जिस संग्रह की कवितायें यहाँ प्रस्तुत हैं ( रोकोको और दूसरी दुनियायें ) उसके पन्नों से गुजरते हुए अफज़ाल की विलक्षण विश्वदृष्टि और इतिहासबोध का पता चलता है. अगर इनका नाम पाकिस्तान और समूचे विश्व के अप्रतिम कवियों की सूची में शुमार होने लगा है तो इसकी ठोस वजह है : पाकिस्तानी समाज में फैल चुकी धर्मान्धता, जातिगत लड़ाईयाँ, सांस्कृतिक क्षरण, क्रूरता और राज्य – प्रायोजित आतंकवाद से कवि की सीधी मुठभेड़. वर्तमान समय के सर्वाधिक रचनाशील और उर्वर कवि अफ़ज़ाल, दरअसल अपने पूरे ढब में भविष्य के (FUTURISTIC) कवि हैं.
1946 (गाजीपुर) की पैदाईश अफ़ज़ाल के नाम कुल चार किताबे और ढेरों अनुवाद हैं. नज्मों की तीन किताबें क्रमश: छीनी हुई तारीख़ (1984) दो ज़ुबानों में सजाये मौत (1990) तथा रोकोको और दूसरी दुनियायें (2000) हैं. गजलों का एक संग्रह – खेमा-ए-स्याह( 1988). वैसे इनका रचना समग्र “मिट्टी की कान” नामक संग्रह में समाहित है.
लिप्यंतरण के बारे में : अफ़ज़ाल का रचना समग्र हमें कैसे मिला, यह बेहद लम्बा और रोमांचक किस्सा है और जिसे फिर कभी बताऊंगा. समूची रचनाओं के अनुवाद/ लिप्यंतरण की इज़ाज़त हमें अफ़जाल साहब ने कुछ यह लिख कर दिया:
Dear Chandan,
I wish I could meet you and your friends Manoj and krishan.
I do hereby give Mr. Manoj Patel my permission to translate and publish my poems in Hindi including those published in " Roccoco and the Other Worlds".
Best regards
Afzal Ahmed Syed.
और सबसे जरूरी यह कि साथी मनोज पटेल ने सिर्फ और सिर्फ अफ़ज़ाल साहब की रचनाओं के अनुवाद/ लिप्यंतरण के लिये उर्दू सीखी. मनोज के उर्दू सीखने और इन नज्मों के लिप्यंतरण में शहाब परवेज़ ने भरपूर सहयोग दिया. मनोज अब तक अफ़ज़ाल साहब के दो संग्रह क्रमश: रोकोको और दूसरी दुनियायें तथा दो ज़ुबानों में सज़ाये मौत का लिप्यंतरण कर चुके हैं और छीनी हुई तारीख़ पर जुटे हैं. नज्मों की ये तीनों संग्रह, एक ही जिल्द में, शीघ्रातिशीघ्र प्रकाश्य.
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हमें बहुत सारे फूल चाहिए
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
मारे जाने वाले लोगों के क़दमों में रखने के लिए,
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
बोरियों में पाई जायी जानेवाली लाशों के चेहरे ढाँकने के लिए,
एक पूरी सालाना फूलों की नुमाईश
ईधी सर्दखाने में महफूज कर लेनी चाहिए
नामजद मरने वालों की
पुलिस कब्रिस्तान में खुदी कब्रों के पास रखने के लिए,
खूबसूरत बालकनी में उगने वाले फूलों का एक गुच्छा चाहिए
बस स्टाप के सामने
गोली लग कर मरने वाली औरत के लिए,
आसमानी नीले फूल चाहिए
येलो कैब में हमेशा की नींद सोए हुए दो नौजवानों को
गुदगुदाने के लिए,
हमें खुश्क फूल चाहिए
मस्ख किए गए जिस्म को सजाकर
असली सूरत में लाने के लिए,
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
उन जख्मियों के लिए
जो उन अस्पतालों में पड़े हैं
जहां जापानी या किसी और तरह के रॉक गार्डन नहीं हैं,
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
क्योंकि उनमें से आधे मर जाएंगे
हमें रात को खिलने वाले फूलों का एक जंगल चाहिए
उन लोगों के लिए
जो फायरिंग की वजह से नहीं सो सके,
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
बहुत सारे अफ्सुर्दः लोगों के लिए,
हमें गुमनाम फूल चाहिए
बेसतर कर दी गई एक लड़की को ढांपने के लिए
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
बहुत सारी रक्स करती बेलों पर लगे
जिनसे हम इस पूरे शहर को छुपाने की कोशिश कर सकें
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सर्दखाने - कोल्ड स्टोरेज, मुर्दाघर
मस्ख - विकृत
अफ्सुर्द : - उदास
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हमारा कौमी दरख़्त
सफ़ेद यास्मीन की बजाए
हम कीकर को अपनी शिनाख्त करार देते हैं
जो अमरीकी युनिवर्सिटियों के कैम्पस पर नहीं उगता
किसी भी ट्रापिकल गार्डेन में नहीं लगाया जाता
इकेबाना खवातीन ने उसे कभी नहीं छुआ
नबातात के माहिर उसे दरख़्त नहीं मानते
क्योंकि उसपर किसी को फांसी नहीं दी जा सकती
कीकर एक झाड़ी है
जिससे हमारे शहर, रेगिस्तान
और शायरी भरी है
काँटों से भरा हुआ कीकर
हमें पसंद है
जिसने हमारी मिट्टी को बहिरा-ए-अरब में जाने से रोका.
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इकेबाना - फूल सजाने का जापानी तरीका
नबातात - जमीन से उगने वाली चीजें
बहिरा - ए- अरब - अरब सागर
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एक इफ्तेताही तकरीब
फ्लोरा लक
लहरिएदार स्कर्ट
नीम बरहना शानों
और काली क्रोशिया की बेरेट में
मुख़्तसर जुलूस के साथ
केमाड़ी तक गई
वह स्काच चर्च में रुकी
उसने गैर दिलचस्प तकरीरें सुनीं
सुबह उसे
ट्रालियों के
गैल्वनाइज्ड लोहे की छतों वाले गोदाम
और साठ घोड़ों के अस्तबल का दौरा कराया गया
ट्राम वे की इफ्तेताही तकरीब में
कराची की सबसे खूबसूरत लड़की
खुश नजर आ रही थी
अगर उसका कोई महबूब होता
वह उसे उस दिन बहुत बोसे देती
उसकी खुशी के एहतिराम में
कराची ट्राम वे
नौवें साल तक पटरियों पर दौड़ती रही
और जब
मजबूत ट्रांसपोर्टरों ने
ट्राम की पटरियां उखाड़ दीं
शहर उजड़ना शुरू हो गया
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इफ्तेताही तकरीब - उद्घाटन समारोह
नीम बरहना शानों - अर्धनग्न कन्धों
बेरेट - टोपी
मुख़्तसर - संक्षिप्त
तकरीरें - भाषण
एहतिराम - सम्मान
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हिदायात के मुताबिक़
वजीरे आजम जोनूब की तरफ नहीं जाएंगी
सदर
सिर्फ अमूदी परवाज करेंगे
सिपाही
ढाई घर चलेंगे
जलावतन रहनुमा
साढ़े बाईस डिग्री पर घूमेंगे
लोग घरों से नहीं निकलेंगे
एक्बुलेंस जिग जैग चलेंगे
तारीख
पहले ही एंटी क्लाक वाइज चल रही है
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जोनूब - दक्षिण
अमूदी - लम्बवत, वर्टिकल
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एक लड़की
लज्जत की इन्तेहा पर
उसकी सिसकियाँ
दुनिया के तमाम कौमी तरानों से ज्यादा
मौसीकी रखती हैं
जिन्सी अमल के दौरान
वह किसी भी मलिकाए हुस्न से ज्यादा
खूबसूरत करार पा सकती है
उसके ब्लू प्रिंट का कैसेट
हासिल करने के लिए
किसी भी फसादजदा इलाके तक जाने का
ख़तरा लिया जा सकता है
सिर्फ उससे मिलना
नामुमकिन है
पाकिस्तान की तरह
हाला फारुकी भी
पुलिस की तहवील में है
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कौमी तराना - राष्ट्र गान
तहवील - कस्टडी, अभिरक्षा
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लिप्यंतरण का सारा दारोमदार मनोज पटेल का रहा जिनसे manojneelgiri@gmail.com ( दूरभाष - 09838599333) पर सम्पर्क किया जा सकता है. अफ़ज़ाल की दूसरी कवितायें/ नज्में और गजले समय समय पर मनोज पटेल के ब्लॉग पढ़ते पढ़ते पर प्रकाशित होती रहेंगी.
Friday, December 24, 2010
महाकवि नाजिम हिकमत की कवितायें

( महाकवि नाजिम हिकमत को पढ़ते हुए यह एहसास लगातार बना रहता है कि जैसे “जीना हमारी जिम्मेदारी है”. इनकी कविता में जो उम्मीद के स्वर हैं वे किन्ही वायवीय स्वप्न सरीखे नहीं हैं. यह उम्मीद गूलर का फूल भी नहीं है जो आज तक किसी को दिखे ही नहीं. उनकी कविता की दिखाई उम्मीद - राह बहुत खास परंतु प्राप्य लक्ष्यों की तरह होती है. अपने अदना से ब्लॉग पर नाजिम को पोस्ट करते हुए मैं बे-इंतिहा खुश हूँ.)
अनुवादक का नाम बार बार बताना कहाँ जरूरी होता है....
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दिल का दर्द : नाजिम हिकमत
अगर मेरे दिल का आधा हिस्सा यहाँ है डाक्टर,
तो चीन में है बाक़ी का आधा
उस फौज के साथ
जो पीली नदी की तरफ बढ़ रही है..
और हर सुबह, डाक्टर
जब उगता है सूरज
यूनान में गोली मार दी जाती है मेरे दिल पर .
और हर रात को डाक्टर
जब नींद में होते हैं कैदी और सुनसान होता है अस्पताल,
रुक जाती है मेरे दिल की धड़कन
इस्ताम्बुल के एक उजड़े पुराने मकान में.
और फिर दस सालों के बाद
अपनी मुफलिस कौम को देने की खातिर
सिर्फ ये सेब बचा है मेरे हाथों में डाक्टर
एक सुर्ख़ सेब :
मेरा दिल.
और यही है वजह डाक्टर
दिल के इस नाकाबिलेबर्दाश्त दर्द की --
न तो निकोटीन, न तो कैद
और न ही नसों में कोई जमाव.
कैदखाने के सींखचों से देखता हूँ मैं रात को,
और छाती पर लदे इस बोझ के बावजूद
धड़कता है मेरा दिल सबसे दूर के सितारों के साथ.
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दरअसल, यह कुछ इस तरह से है
खड़ा हूँ मैं राह दिखाती हुई रोशनी में,
भूखे हैं मेरे हाथ, खूबसूरत है दुनिया.
बाग का बड़ा हिस्सा नही पातीं मेरी आँखें
कितने आशापूर्ण हैं वे, कितने हरे-भरे .
एक चमकीली सड़क गुजर रही है शहतूत के पेड़ों से होकर
कैदखाने के अस्पताल की खिड़की पर खड़ा हूँ मैं.
दवाओं की गंध नहीं ले पा रहा मैं --
जरूर गुलनार के फूल खिल रहे होंगे कहीं आस-पास.
इस तरह से है यह :
गिरफ्तारी तो दीगर मसला है,
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अनुवादक से सम्पर्क: 09838599333; manojneelgiri@gmail.com
शुरुआती पंक्तियों में कोट की हुई पंक्ति "जीना हमारी जिम्मेदारी है" कवि मित्र सूरज की आगामी कविता की पंक्ति है.