(१) एक दिन इसी तरह आयेगा---- रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जायेगी-----रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय-----रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजायेगा-----रमेश
(आने वाला ख़तरा)
(२) कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताक़त ही ताक़त होगी
और चीख़ न होगी
(बड़ी हो रही है लड़की)
(३) हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही है
...................…................................
हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो
सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय
(हँसो हँसो जल्दी हँसो)
कि किसी की कोई राय न रह जायेगी-----रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय-----रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजायेगा-----रमेश
(आने वाला ख़तरा)
(२) कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताक़त ही ताक़त होगी
और चीख़ न होगी
(बड़ी हो रही है लड़की)
(३) हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही है
...................…................................
हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो
सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय
(हँसो हँसो जल्दी हँसो)
ये तीनों उद्धरण रघुवीर सहाय के कविता संग्रह "हँसो हँसो जल्दी हँसो"(१९७०-७५) से लिए गए हैं। इन अंशों में दो बातें प्रमुखता से दिखाई पड़ती हैं। एक तो भारतीय लोकतंत्र की फ़ासिस्ट तानाशाही की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति, और दूसरी इस प्रवृत्ति का विरोध करने वाली शक्तियों की अत्यंत निराशाजनक अनुपस्थिति। अगर हम इन कविताओं के रचनाकाल पर ग़ौर करें तो पाएंगे कि एक तरफ़ यह दौर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में तानाशाही शक्तियों के उभार का है तो दूसरी तरफ़ नक्सलबाड़ी आंदोलन के बर्बर दमन और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जबरदस्त छात्र-युवा आंदोलन का भी है। इन्हीं प्रक्रियाओं की परिणति इमर्जेंसी में हुई थी। साफ़ दिखता है कि ऊपर उल्लिखित कविताओं में सत्ता की पहचान तो अचूक है लेकिन जनता के संघर्षों को इनमे पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। नतीजे के तौर पर इन कविताओं में घनघोर निराशावाद और भविष्यहीनता का माहौल दिखाई पड़ता है। सवाल यह है कि रघुवीर सहाय जिन्होंने स्वयं भी दिनमान के संपादक के रूप में उस दौर में महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका निभाई थी, अपनी कविता में कैसे जनता की शक्ति और उसके संघर्षों से पूरी तरह ग़ाफ़िल हो गए। यह सवाल इसलिए निर्णायक है कि इसके जवाब से उनके निराशावाद के स्रोत और उसकी वैधता का पता चलेगा। इसका जवाब ढूंढने के लिए हम उस दौर की उनकी कुछ और कविताओं के माध्यम से उनके भावजगत में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं।
उनकी प्रसिद्ध कविता "आने वाला ख़तरा" की आरंभिक पंक्तियां हैं:
"इस लज्जित और पराजित युग में/ कहीं से ले आओ वह दिमाग़/ जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता/कहीं से ले आओ निर्धनता/जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती/और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो....."
आम लोगों में पाई जाने वाली कमज़ोरियाँ ही इस कविता का प्रतिपक्ष है। इस बात के लिए निस्संदेह रघुवीर सहाय की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने सस्ती लोकप्रियता के लिए लोगों को अच्छी लगने वाली बातें कहने का आसान रास्ता न अपनाकर जनता को उसकी कमज़ोरियों की याद दिलाने की कोशिश की। अफ़सोस यह है कि यह आलोचना उन्होंने जनता का एक सदस्य अथवा हमसफ़र बनकर नहीं, नैतिकता के ऊंचे पायदान पर खड़े अभियोजक के रूप में की। कबीर ने गुरु की जो कल्पना की है उसमें सच्चे आलोचक के भी दर्शन होते हैं:
गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट
अंतर हाथ सहार दै बाहर मारै चोट
अंतर हाथ सहार दै बाहर मारै चोट
प्रेमचन्द ने गोदान के पहले ही पेज पर होरी से कहलवाया था कि "जब दूसरे के पांवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पांवों को सहलाने में ही कुसल है"। लेकिन रघुवीर सहाय को लोग अपनी किसी परिस्थिति के कारण नहीं, "आदतन" ख़ुशामद करते दीख पड़ते हैं। वह भी इतने सर्वव्यापी ढंग से कि ऐसा न करने वाले को मानो दिन में चिराग़ लेकर ढूँढना पड़ता है। मुक्तिबोध भी आम लोगों की कमज़ोरियों को चिह्नित करते हैं लेकिन वे लोग उनकी आत्मा के अंश से गढ़े जाते हैं इसलिए वे कभी अकेले नहीं छूटते। "अँधेरे में" का यह अंश देखें:
"अब तक क्या किया,/जीवन क्या जिया!!/ बताओ तो किस- किस के लिए तुम दौड़ गए/करुणा के दृश्यों से हाय मुँह मोड़ गए,/ बन गए पत्थर;/ बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,/ दिया बहुत-बहुत कम,/ मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!"
आलोचना मुक्तिबोध की भी पर्याप्त कठोर है लेकिन वे अपने लोगों से मुख़ातिब होते हैं, उनसे संवाद करते हैं, और उनकी लानत-मलामत करते हुए भी अफ़सोस और दुख महसूस करते हैं।इसीलिए वे अपने पाठकों को रूपांतरण की राह में आगे बढ़ने को प्रेरित कर पाते हैं।
इधर रघुवीर सहाय की कविता में "निर्धनता" है जो "अपने बदले में" कुछ न कुछ मांगती रहती है। ज़ाहिर है, यह शिकायत ग़रीबों से है जो बक़ौल कवि मानो अपना पेट बजाकर हमेशा कुछ मांगा ही करते हैं। बदले में एक बार फिर हमारा कवि ऐसा न करने वालों को "कहीं से" ढूंढ कर लाने की मांग करता है और आत्मसम्मान के सबूत के रूप में उन्हें "एक बार" आंख से आंख मिलाने को कहता है। यह नाज़ुक मसला ग़रीब और दुखी लोगों के प्रति नज़रिए से जुड़ा हुआ है। हर संवेदनशील कवि को इसका सामना करना पड़ता है। लेकिन प्रत्येक कवि इस पर एक जैसी प्रतिक्रिया नहीं देता। यहां हम आधुनिक हिंदी कविता के दो निर्माता कवियों की इसी विषय पर लिखी कविता उद्धृत करके उनकी संवेदना के बीच मौजूद फांक का अनुभव करेंगे। पहली कविता निराला की "भिक्षुक" है और दूसरी पंत की "वह बुड्ढा"। आइए पहले निराला की कविता का आरंभिक अंश देखें:
"वह आता------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता/ पथ पर आता।/ पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,/ चल रहा लकुटिया टेक,/ मुट्ठी भर दाने को----- भूख मिटाने को/ मुँंह फटी पुरानी झोली का फैलाता-------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।"
अब पंत की कविता "वह बुड्ढा" की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें:
"बैठ , टेक धरती पर माथा,/ वह सलाम करता है झुककर,/ उस धरती से पांव उठा लेने को/ जी करता है क्षणभर।...................गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,/ लुंगी से ढाँपे तन,/ नंगी देह भारी बालों से,/ वनमानुष सा लगता वह जन/ भूखा है: पैसे पा, कुछ गुनमुना,/ खड़ा हो, जाता वह नर,/ पिछले पैरों के बल उठ/ जैसे कोई चल रहा जानवर!/ काली नारकीय छाया निज/ छोड़ गया वह मेरे भीतर,/ पैशाचिक-सा कुछ दुखों से/ मनुज गया शायद उसमें मर!"
सम्भव है पन्त की कविता उस गरीब बुड्ढे व्यक्ति के प्रति हमदर्दी से शुरू हुई हो, लेकिन तुरन्त ही उनका आभिजात्य उनके मन में उसके प्रति नफ़रत भर देता है, और अंततःउसे जानवर के स्तर तक गिरा देता है। जबकि निराला की कविता में, भीख मांगने की मजबूरी में भी एक मनुष्य की भावनाओं का आलोड़न और उसको देखने वाले के मन में उसकी प्रतिक्रिया का मार्मिक अंकन हुआ है। यह जनसमुदाय से आत्मिक और भावनात्मक रूप से जुड़े हुए कवि की संवेदना और जनता के प्रति सहानुभूति के बनावटी आग्रह के बीच का फ़र्क़ है। दूसरी श्रेणी के कवि जनता का पक्ष चुनने के अपने निर्णय को इतना अधिक महत्व देते हैं कि मनमाफ़िक परिवर्तन न होने पर वे जनता पर ही खीज और झल्लाहट उतारने लगते हैं। रघुवीर सहाय की कविताएं उनको इसी श्रेणी में ले जाती हैं।
निर्धनता का अपने बदले में कुछ मांगना मूलतः "आत्मदया" की प्रवृत्ति है, यानी अपनी दुरवस्था का प्रदर्शन करके पूरी दुनिया से प्रेम, सहानुभूति वगैरह की अपेक्षा रखना। हमारे समाज की यह एक गहरी समस्या है जिसका सामना हमारे अनेक कवियों ने किया है। इनमे से रघुवीर सहाय से किंचित वरिष्ठ दो कवियों मुक्तिबोध और त्रिलोचन का एक-एक उद्धरण देखते हैं:
"दुखों के दाग़ों को तमगों-सा पहना,/अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,/ असंग बुद्धि व अकेले में सहना,/ ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गई तलघर,/ अब तक क्या किया,/ जीवन क्या जिया!!" (मुक्तिबोध,"अंधेरे में")
"जिस समाज मे तुम रहते हो/यदि उसकी करुणा ही करुणा/ तुमको यह जीवन देती है/ जैसे दुर्निवार निर्धनता/ बिल्कुल टूटा-फूटा बर्तन घर किसान के रक्खे रहती/ तो यह जीवन की भाषा में/ तिरस्कार से पूर्ण मरण है।" (त्रिलोचन, "जिस समाज में तुम रहते हो")
इन दोनों कविताओं में लोगों की आत्महीनता और आत्मदया की प्रवृत्ति को पहचानकर उसका प्रतिवाद किया गया है, लेकिन इस प्रवृत्ति के शिकार लोगों के प्रति हमदर्दी के साथ। यह हमदर्दी इस समझ से आती है कि ये कमज़ोरियाँ आम लोगों में उनकी परिस्थितियों के चलते आती हैं और मानव समाज के एक सदस्य के रूप में कहीं न कहीं हम भी उन परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन कमज़ोरियों में साझा करते हैं। मुक्तिबोध की कविता का पात्र "दुखों के दाग़ों को तमगे सा" पहनता है लेकिन समाज से कटे होने के कारण (असंग बुद्धि ) अपने मानसिक उद्वेलन को अकेले में सहता है जिससे उसकी ज़िन्दगी तहख़ाने में बदल जाती है।
त्रिलोचन की कविता में समाज की करुणा पर पूरी तरह से आश्रित व्यक्ति का जीवन भी "मरण" के ही समान माना गया है। लेकिन ऐसी परिस्थिति के शिकार व्यक्ति पर कोई आक्षेप न करते हुए उसे सहारा देकर सचाई बताने का यत्न किया गया है। इधर रघुवीर सहाय की कविता में जो मनोवृत्ति सक्रिय है उसे ग़रीबों और भिखारियों में कोई फ़र्क़ नहीं मालूम पड़ता। ग़रीबों से सिर्फ़ एक बार आंख मिलाने की मांग कुछ इस तरह की गई है जैसे आजकल कुछ लोग मुसलमानों से देशभक्ति प्रदर्शित करने का आग्रह करते हैं। अच्छा! तो आप ग़रीब होने के बावजूद आत्मसम्मान रखते हैं। ठीक है, एक बार आंख से आंख मिलाकर दिखाइए।
दरअसल, ये अतिसरलीकरण के दोष से ग्रस्त वक्तव्य हैं, जिनकी वास्तविक चोट उन्हीं लोगों पर पड़ती है जिनकी तरफ़दारी का दम कवि भरता है। यह कहने पर कि लोगों में शर्म, ग़ैरत और प्रतिरोध जैसे गुणों का ख़ात्मा हो गया है, चोट उन्हीं पर पड़ती है जो इन मानवीय गुणों को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे होते हैं। जो सचमुच बेग़ैरत और चाटुकार हैं उन्हें तो इस विचार से राहत ही मिलती है कि हम्माम में सभी नंगे हैं। जिस तरह सभी भारतीयों को भ्रष्ट कहने पर भ्रष्टाचारी की तो बांछें खिल जाती हैं और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जो व्यक्ति इन प्रलोभनों से परहेज कर रहा है, वह अपने को अकारण लांछित होता हुआ पाता है। इसी तरह आमलोगों को आदतन ख़ुशामद करने वाला, ग़रीबी का सौदा करने वाला, और आत्मसम्मान से हीन कहने पर जनसमुदाय में व्याप्त इन प्रवृत्तियों को बच निकलने की राह मिल जाती है-----जब सभी ऐसे ही हैं तो कोई क्या कर सकता है-----और इन प्रवृत्तियों से जूझने वाले लोग अन्यायपूर्ण ढंग से ख़ुद को कटघरे में खड़ा पाते हैं। इस प्रकार तमाम सदिच्छा के बावजूद ऐसे अतिसरलीकृत वक्तव्यों के निहितार्थ जनविरोधी होते हैं।
इस संबंध में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि आम लोगों में व्याप्त "ख़ुशामद" की जिस कमज़ोरी को यह कविता अपना निशाना बनाती है, उसके एक निकृष्ट रूप "आदतन ख़ुशामद" को अपने प्रतिपक्ष के रूप में चुनती है। यह चुनाव ही तय कर देता है कि कविता कोई नई ऊंचाई नहीं पा सकेगी। ख़ुशामद करने का आदी होने का अर्थ है, उसीमें संतुष्टि व सुख पाना, ग़ुलामी की मानसिकता में रच-बस जाना। ऐसे लोग भला किस सम्मान के योग्य होंगे? इस तरह अपने प्रतिपक्ष के हीनतर रूप को हमले के लिए चुनकर कविता अपने पतन की राह ख़ुद चुन लेती है।
(जारी)
(जारी)
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