प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना कहा था।इसका एक अभिप्राय यह भी है कि साहित्य जीवन के तमाम पहलुओं के बारे में कुछ कहता है। इन पहलुओं का एक वर्गीकरण "आत्म" और "पर" के रूप में भी हो सकता है, यानी "अपने" और "दूसरों" के बारे में कुछ कहना। अपने बारे में बात करने के अपने ख़तरे हैं। आत्मदया, आत्मश्लाघा और आत्ममोह तक इनमें से तमाम ख़तरों की पहचान की जा चुकी है। फ़िलहाल हम यहां दूसरों के बारे में कही जाने वाली बात यानी परचर्चा की कुछ विशेषताओं पर ध्यान देंगे ताकि ऐसा करने वालों का ख़ुद का मूल्यांकन हो सके।
जब हम दूसरों के बारे में कुछ कहते हैं तो दूसरों से अधिक अपने बारे में बता रहे होते हैं। दूसरों के बारे में हम जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके बारे में हमारी राय होती है। इस राय के पीछे हमारा दृष्टिकोण होता है और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा होती है। हमारी राय किसी के बारे में पूरी तरह ग़लत भी हो सकती है, लेकिन उस राय में निहित हमारा दृष्टिकोण और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा हमारी असलियत को उजागर करने वाले प्रामाणिक और विश्वसनीय माध्यम होते हैं। कौवा और कोयल एक जैसे लगते हैं लेकिन जैसे ही मुँह खोलते है अपनी पहचान करा देते हैं।
इससे पहले "प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध" के प्रसंग में हमने ज़िक्र किया था कि जब हम किसी की आलोचना करते हैं तो उस समय हमारी अपनी शक्ति की भी परीक्षा होती है। अगर हम किसी सबल प्रतिपक्षी को मनमाने तर्कों से अत्यधिक कमज़ोर,हास्यास्पद अथवा अप्रासंगिक बताने लगते हैं तो इससे यही पता चलता है कि हमारी अपनी सामर्थ्य विरोधी के घुटनों तक ही पहुंच पाने की है इसलिए हम उसके पूरे क़द का अंदाज़ा न पाकर उसके घुटनों पर ही वार कर रहे हैं।
इस नज़रिये का रिश्ता हमारे लोकतांत्रिक रवैये से भी है। किसी वैचारिक संघर्ष में जब हम अपने विरोधी को उसकी समस्त शक्ति और संभावना के साथ देखते हैं तो उसके दृष्टिकोण में स्थित यत्किंचित सकारात्मकता को पहचानने और उसकी सराहना करने में सक्षम होते हैं।यहां तक कि इस दौरान कभी हम विरोधी के विचारों से प्रभावित होकर अपने दृष्टिकोण को बदलने को भी प्रेरित हो सकते हैं।यही वैचारिक बहस की ख़ूबसूरती है।अगर हम दोनों में से किसी भी एक पक्ष के रूपांतरण की संभावना को सिद्धांत रूप में स्वीकार नहीं करते तो सार्थक और ईमानदार बहस नहीं कर सकते। दूसरी तरफ़ अगर हम प्रतिपक्षी के संभावित प्रबलतम पक्ष से टकराते हुए उसका निषेध करने में सफल होते हैं तो उसका समूल विनाश हो जाता है। पुराने शत्रु की वापसी असंभव हो जाती है और संस्कृति के क्षेत्र में संघर्ष अगले चरण में पहुंच जाता है।
हिंदी कविता का इस दृष्टि से अध्ययन करने पर कुछ रोचक नतीजे निकलते हैं। अब तक रचनाकार के बयान के आधार पर ही उसके उद्देश्य और उसकी पक्षधरता की पहचान की जाती रही है। फिर इसी आधार पर बड़ी आसानी से रचना की अंतर्वस्तु खोज ली जाती है। उस अंतर्वस्तु की समाज में क्या भूमिका है यह पता लगाकर रचना की सामाजिक भूमिका की पड़ताल भी पूरी हो जाती है। दूसरे शब्दों में, अब तक हिंदी आलोचना ने रचना के अपने बारे में दिए गए वक्तव्य यानी रचनाकार की मंशा को एकांगी रूप से अत्यधिक महत्व दिया है। अगर हम रचना में दूसरों के प्रति व्यक्त किये गए नज़रियों, ख़ासकर विरोधी प्रवृत्तियों से संघर्ष के तौर-तरीक़ों पर ध्यान केंद्रित करें तो कई चौंकाने वाले परिणाम मिलते हैं। "काव्यशास्त्रविनोद" की आगामी कड़ियों में यही छानबीन की जाएगी।
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