आधुनिक सभ्यता का स्वतंत्रता और समानता लाने का दावा वैसे तो बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते कमज़ोर पड़ने लगा था पर इसके नवें दशक में एक ध्रुवीय दुनिया की स्थापना के साथ ही यह ख़ामख़याली साबित हो गया। विकास और नवनिर्माण के सपनों की जगह येनकेनप्रकारेण मतलबसिद्धि ने ले ली। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और लूटखसोट को स्वीकार्य और कई बार प्रशंसनीय तक माना जाने लगा। ऐसे में मानवीय चेतना का विकास बाधित हुआ और चौतरफ़ा घुटन व्याप्त हो गई। इस परिस्थिति में हमारी चेतना में नकारात्मकता ने सकारात्मकता की जगह लेनी शुरू कर दी। अब हम ख़ुद अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप आगे बढ़ने के बजाय दूसरों की ख़ामियाँ तलाशने और उन्हें असफल करने की कोशिश में लग गए। वर्तमान में इसका सबसे अच्छा उदाहरण आम चुनावों में स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक देखने को मिलता है। इसमें हम प्रत्याशियों और उनकी पार्टियों को उनकी सकारात्मक योजना के आधार पर नहीं बल्कि कोई दूसरा, जिसे हम नापसन्द करते हैं, न जीत जाए इसलिए समर्थन देते हैं। इस नापसन्दगी का कारण व्यक्तिगत रंज़िश से लेकर जाति,धर्म,क्षेत्र,लिंग कुछ भी हो सकता है। यानी कोई भी ऐसा कारण जो मतदाता के रूप में हमें अपने स्वाभाविक सरोकारों और हितों से विमुख कर सकता हो। भारत से लेकर अमरीका तक होने वाले चुनावों में यह बात आसानी से देखी जा सकती है। दैनंदिन जीवन में भी हमारा आचरण इससे कुछ हटकर नहीं होता। शत्रु के शत्रु को मित्र बनाना हमारी समझदारी का चरम तकाज़ा बन गया है, इसलिए न तो हम अपनी सहमतियों में खरे होते हैं न असहमतियों में स्पष्ट। न जाने कब किससे काम पड़ जाये।
भाषा में प्रचलित कहावतें हमारी प्रवृत्तियों की सूचना देते हैं। अंग्रेज़ी की परंपरागत कहावत--- "ए मैन इज़ नोन बाय द कम्पनी ही कीप्स", अब सार्थक नहीं रह गयी है। हमारे साथी अब हमें परिभाषित नहीं करते क्योंकि हमारा साथ अब दूरगामी सहमति और साहचर्य पर आधारित नहीं रहा। अब तो हम किसी संयुक्त दुश्मन को रोकने के लिए तात्कालिक लक्ष्य से संचालित होकर हाथ मिलाते हैं। इसलिए अब हमारे विरोधी ही किसी हद तक हमें परिभाषित करते हैं। आज के दौर की कहावत होनी चाहिए--"ए परसन इज़ नोन बाय हिज/हर एनेमीज़"।
अपने विरोधियों को किसी प्रकार परास्त करने की इस प्रवृत्ति को अपने प्रतिपक्ष का नकारात्मक निषेध कह सकते हैं। ज़ाहिर है कि यह प्रवृत्ति हमें तात्कालिकता के दलदल में फँसा देती है और हम अंततः अपने ही विकास को अवरुद्ध करने लगते हैं। इससे बचने के लिए अपनी विरोधी शक्तियों की पहचान करने और उनसे लड़ने का नया नज़रिया विकसित करना होगा। सौभाग्य से हिंदी साहित्य में स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, लोकतंत्र, न्याय, इहलौकिकता और ऐंद्रियता को लेकर कोई विवाद नहीं है। इन मूल्यों के विरुद्ध खड़े होने वाले विचारों और रचनाओं को ही हमने अपने विरोधियों के रूप में पहचाना है और इसीसे आज हमारी पहचान है। यानी दुश्मनों की पहचान साफ़ है, उनकी क़तारबंदी भी दिख रही है, बस उनसे लड़ने के तरीक़े को तय करना है।
इस बिंदु तक आते आते हमारा विमर्श किसी युद्ध में आमने सामने खड़ी सेनाओं के रूपक में बदल गया है। युद्ध का यह रूपक वैसे तो उचित और कारगर है, लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए हमारा मैदाने-जंग साहित्य और संस्कृति है। इटली के प्रसिद्ध विचारक ग्राम्शी ने एक बात कही थी जो इस मोड़ पर हमें रास्ता दिखा सकती है। उन्होंने कहा था कि सैनिक संघर्ष में दुश्मन के सबसे कमज़ोर मोर्चे पर वार करना चाहिए और वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष में उसके सबसे मज़बूत मोर्चे पर। वे मानते हैं कि सैनिक शक्ति के बल पर केवल दमनकारी सत्ता का निर्माण किया जा सकता है जिसके माध्यम से सामंती युग में तो शासन किया जा सकता था, लेकिन आधुनिक युग में नागरिकों की सहमति किसी भी सत्ता के लिए अनिवार्य है और यह सहमति सांस्कृतिक -वैचारिक वर्चस्व से निर्मित होती है।
अब इस बात पर ग़ौर करें कि साहित्य, संस्कृति, विचार अथवा कला के मोर्चे पर दुश्मन के सबसे मज़बूत पक्ष से मुक़ाबला करने का क्या मतलब है। सैनिक संघर्ष में तो सबको पता है कि दुश्मन जहाँ कमज़ोर है वहीं प्रहार करके उसकी शक्ति को नष्ट करने की कोशिश होती है , अन्यथा मुंह की खानी पड़ती है और अपने सफाए का ख़तरा भी पैदा हो जाता है। लेकिन विचारों के क्षेत्र में ऐसा क्या है जो इसका उल्टा करने को विवश करता है।
रोज़मर्रा की बहसों में हम देखते हैं कि बहुत से लोग अपने प्रतिद्वंदी की बात का अन्यथाकरण करके या उसकी सबसे ओछी व्याख्या करके अपने औचित्य का प्रतिपादन करते हैं। मिसाल के लिए अगर आपने उनसे कहा कि राज्यसत्ता और उसके सशस्त्र बलों को नागरिकों के लोकतान्त्रिक अधिकारों का सम्मान करना चाहिए तो वे इसके वास्तविक सन्दर्भों के बारे में बात करने के बजाय सशस्त्र बलों की कुर्बानियों की चर्चा करते हुए आपकी बात को आतंकवाद समर्थक और देशद्रोही की कोटि में डाल देते हैं। इसी प्रकार अगर आप अतीत के किसी बड़े लेखक पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं तो उनका कोई समर्थक आपके तर्क पर विचार करने और उसका जवाब देने के बजाय आपके अपने योगदान की छानबीन करके आपको हैसियत बताने लगता है। सरकार की किसी अनुचित बात की आलोचना का जवाब देने के बजाय उसे देश को बदनाम करने की साज़िश के रूप में देखना भी ऐसी ही प्रवृत्ति का काम है।
बहुत पहले रेणु ने कहा था कि विचारों की दीवार में अगर हाथी की पूँछ के बराबर भी छेद छूट गया तो उस छेद से पूरा हाथी निकल जाता है। आशय यह कि कला, दर्शन, और विचार के क्ष्रेत्र में अगर कोई छोटी-सी असंगति या झोल हो तो उस विचार से वांछित नतीजे निकलना तो दूर अनर्थ होने की संभावना ही अधिक है। मसलन, अगर आप फ़ासीवाद का विरोध कर रहे हैं और उनको चोट भी पहुँचा रहे हैं, पर उनके अंधराष्ट्रवाद को लेशमात्र भी स्वीकार कर रहे हैं तो, आपको देरसवेर उनके सामने समर्पण करना होगा या उनसे निर्णायक पराजय झेलनी होगी।
यह बात ध्यान रखने की है कि हम विशुद्ध तर्कशास्त्रीय प्रविधी की चर्चा यहाँ नहीं कर रहे हैं। यहाँ प्रसंग सत्य और असत्य तथा न्याय और अन्याय की शक्तियों के बीच होने वाले सांस्कृतिक-वैचारिक संघर्ष का है। हिंदी साहित्य सत्य और न्याय की पक्षधर शक्तियों के साथ है, इसलिए उसे इन मुद्दों का ध्यान रखने की ज़रूरत है। असत्य और अन्याय की पक्षधर शक्तियाँ सही मायने में न तो कोई तर्क देती हैं , न बहस करती हैं। वे केवल गाल बजाना जानती हैं और निहित स्वार्थी तत्वों को एकजुट करके बलपूर्वक ख़ुद को सही ठहराने की कोशिश करती हैं। इसलिए यह विश्लेषण उनके किसी काम का नहीं है। हाँ, सत्य और न्याय की पक्षधर शक्तियों को यह जान लेना चाहिए कि उनकी दीवार के छेद से उनके विरोधी तो अपना हाथी निकल लेंगे लेकिन ख़ुद उन्हें अपने विरोधियों की दीवार की सबसे मज़बूत ईंट निकालनी होगी और उसे ध्वस्त करना होगा, अन्यथा हाथी तो क्या चूहा भी नहीं निकल सकता।
दूसरे शब्दों में, असत्य और अन्याय की शक्तियों के साथ चलने वाली इस सतत बहस में हमें अपने विपरीत पक्षों और विचारों के सर्वश्रेष्ठ को सामने लाकर उनका अतिक्रमण करना होता है। तभी हम सही मायने में उनका निषेध कर पाते हैं। अगर विरोधी पक्ष के तर्कों में तनिक भी संभावना शेष रह जाती है तो वह हमारी कमज़ोरी का साक्ष्य होती है, और उसके चलते हमारे सामने विरोधी विचारों की शक्ति बढ़ती चली जाती है। वे हमारी कमज़ोरी से शक्ति पाते हैं लेकिन हम उनकी कमज़ोरी से कोई शक्ति नहीं पाते। हम उनकी शक्ति और क्षमता से प्रतिस्पर्द्धा करके ही विचारों के संघर्ष में बढ़त हासिल करते हैं।
इस संबंध में एक बात और ध्यान रखने की है कि जब हम न्याय और अन्याय की शक्तियों के बीच विचार या कला के क्षेत्र में संघर्ष की बात करते हैं तो उसका आशय यह नहीं होता कि हमारे सामने हमेशा सचेत रूप से हमारा विरोध करने वाली शक्तियां ही होती हैं। प्रायः ऐसी शक्तियां अत्यन्त भोंडे स्तर पर सक्रिय होती हैं और विचारों के क्षेत्र में कोई वास्तविक चुनौती पेश नहीं कर पातीं। उनका ज़ोर जिसकी लाठी उसकी भैंस पर होता है और उसी के बल पर वे बहस का दिखावा करती हैं। विचारों के क्षेत्र में वास्तविक संघर्ष हमें ख़ुद अपने भीतर मौजूद, अपने पक्ष में पाई जाने वाली कमज़ोरियों, भ्रमों और भटकावों से चलाना पड़ता है। यही भ्रम और भटकाव हमारी वैचारिक दीवार में दरार बनाते हैं और अंततः हमें निहत्था करने के काम आते हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी प्रमुख संघर्ष इसी प्रवृत्ति से है। जैसा कि मुक्तिबोध ने कहा था:
बुरे अच्छे बीच के संघर्ष से भी उग्रतर
अच्छे और उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
अच्छे और उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि सांस्कृतिक क्षेत्र के संघर्ष की प्रकृति पर समुचित ढंग से विचार किया जाए। हमारा इस संबंध में प्रस्ताव यही है कि विचार और रचना के क्षेत्र में हम जिस प्रवृत्ति को निशाना बनाते हैं अगर उसके सर्वश्रेष्ठ रूप को इस काम के लिए नहीं चुनते तो ग़लती करते हैं और हमारा निशाना चूक जाता है। अपने प्रतिपक्ष को उसकी समूची शक्ति और संभावना के साथ विचार या रचना का विषय बनाने पर ही हम उसका अतिक्रमण कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में प्रतिपक्ष की यत्किंचित सकारात्मकता हमारे अपने एजेंडे का अंग बन जाती है और प्रतिपक्ष पूरी तरह चुक कर निःसार हो जाता है। इसी प्रक्रिया को "प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध" करना कहते हैं।
रचना के क्षेत्र में यह प्रक्रिया तब घटित होती है जब रचनाकार अपने प्रतिपक्ष को भी सहानुभूति देता है, उसे अपनी आत्मा के अंश से रचता है। तभी पाठक अपने दिलो-दिमाग़ में छिपी उस बुराई को पहचानता है और उससे लड़ पाता है। यही रचना का उद्देश्य भी है। रचनाकार न्याय के पक्ष में होते हुए भी न्यायाधीश के ऊँचे आसन पर नहीं बैठता। सज़ा नहीं सुनाता। उसकी भूमिका एक ऐसे वक़ील की है जिसे अपराध के प्रति नफ़रत पैदा करने के साथ-साथ किसी इंसान के अपराधी बनने की प्रक्रिया की छानबीन करके उसे दुनिया के सामने लाना होता है ताकि इसकी पुनरावृत्ति से यथासंभव बचा जा सके।
कहते हैं कि आग में तपकर सोना कुंदन बनता है। संघर्ष के माध्यम से विकास प्रकृति का बुनियादी नियम है। इसलिए रचना में न्याय के पक्ष की सशक्त मौजूदगी के लिए आवश्यक है कि अन्याय भी सशक्त रूप में मौजूद हो। यहाँ सशक्त का मतलब भौतिक रूप से बलशाली और अत्याचारी किसी व्यक्ति से नहीं है। सांसारिक जीवन में शक्ति का यह अर्थ हो सकता है, लेकिन रचना में शक्ति व्यक्तित्व और चरित्र की ख़ूबियों से आती है। इन ख़ूबियों के बावजूद किसी व्यक्ति की कोई दुर्बलता उससे निकृष्टतम कोटि का अपराध करा सकती है। और तब वह हमारी घृणा का पात्र बने बिना हमारी रचना और हमारे सरोकार का विषय बन सकता है। उससे जूझते हुए, ख़ासकर उसकी ख़ूबियों से पार पाने के क्रम में हमारा अपना पक्ष भी विकसित होता है। जीवन में न्याय के पक्ष की वास्तविक कामयाबी इस बात पर निर्भर है कि वह अपने प्रतिपक्ष में मौजूद लेकिन तनिक सा भी न्यायोचित दृष्टिकोण रखने वालों को अपने पक्ष में जीत ले। रचना में इसके समानांतर चलने वाली प्रक्रिया प्रतिपक्ष के समस्त सकारात्मक पहलुओं को निचोड़कर उसे अतिक्रमित कर जाने वाली दृष्टि से ही संभव है।
लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ इस दृष्टि का स्वाभाविक रिश्ता बनता है। प्रतिपक्ष का सम्मान, उसे पूरा मौक़ा देना और उसमें मौजूद रंचमात्र सचाई को भी स्वीकार करना लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की बुनियादी अनिवार्यताएं हैं। कोई कह सकता है कि किसी गर्हित अन्याय को रचना का विषय बनाते हुए हम उसके कर्ताधर्ताओं के साथ सहानुभूति कैसे रख सकते हैं। असल में, यह दृष्टिकोण इसी समझ से जूझते हुए विकसित होता है। सामाजिक जीवन में तो गर्हित अपराधियों के प्रति घृणा का कुछ न कुछ औचित्य है, लेकिन रचना में हम इस दृष्टिकोण से संचालित होते हैं कि इंसान होने के कारण किसी दुसरे इंसान के पतन की कुछ ज़िम्मेदारी हम पर भी आयत होती है। इसलिए रचना में अपनी कल्पना से रचे गए पात्र में हम उन समस्त संभावनाओं का निवेश करते हैं जो उस पात्र को इंसान के दर्जे पर क़ायम रख सकती थीं। इसके बावजूद उसकी व्यक्तिगत, सामाजिक, पारिवारिक या मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों की कोई ऐसी ख़ासियत होती है जो उसे मनुष्यता के दर्जे से नीचे गिराने में कामयाब हो जाती है। इस तरह वह पात्र त्रासद विडम्बना का शिकार बनता है, और हम उसके पतन पर अट्टहास नहीं कर पाते, दिल ही दिल में दुखी होते हैं।बक़ौल गोरख पांडेय:
हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं
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हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं
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