(काशी इन दिनों दु:खद कारणों से चर्चा में है जहाँ चीजों को कई कई नजर से देखने की जरूरत है. इसी बीच सूरज की यह कविता याद आई.)
अभिलाषा
सिगरेट के कश खींचती हुई
दो नौ-उम्र खफीफ सुन्दरियाँ कर रहीं
घाट की सीढ़ियों का सुन्दरतम उपयोग;
उनकी मुदित
आंखों के बाहर यह संसार
यों ही पड़ा है..
यों ही पड़ा हुआ है..
वो पथ नहीं रहा
ना ही वे पथिक
ना ही पुष्प की तरह बिछ जाने की
वह अलौकिक काव्य अभिलाषा;
वर्तमान की प्रस्तुत दीवाल के पार
स्पष्ट नहीं दीखता
उन राहों से कौन गुज़रा था,
सुलगती सिगरेट बन जाने की अभिलाषा
लिये देखता हूँ इन दोनों वसुन्धराओं की ओर
यह आत्महंता अभिलाषा
इनके होठों के स्निग्ध स्पर्श के लिये नहीं ;
वैसे उपलब्धि यह भी कम नहीं होगी कि
पा सकूँ उन रेशमी होठों के स्पर्श जहाँ से
फूटे हुए शब्द ग्रंथ बनेंगे
जहाँ चुम्बन के बाद आई तरलता
नदी का आविष्कार करेगी और
चुम्बन का आवेग तय करेगा
नदी की रफ्तार
इन्ही होठों से उठी किसी पुकार पर
प्रार्थनाओं की सुरीली धुनें तैयार होगी
फिर भी ...फिर भी...फिर भी
सिगरेट बनने की आकांक्षा इसलिये
कि जला दिया जाना चाहता हूँ
प्रकृति की सर्वोत्तम कृति के निर्दोष हाथों...
.......
4 comments:
बेहद गहन और चिन्तनशील भावाव्यक्ति।
wah. bus yahi ehsaas ka bayan hai.
संवेदनशील मनोभावों की सुंदर अभिव्यक्ति ....
... sundar va bhaavapoorn rachanaa !!!
Post a Comment