Thursday, November 22, 2012

मृत्युदंड पर : कुछ गौर से कातिल का हुनर देख रहे हैं.


दाग का एक पयाम है : 

" कुछ देख रहे हैं दिल-ए-बिस्मिल का तड़पना 
   कुछ गौर से क़ातिल का हुनर देख रहे हैं." 

आतंकी मीडिया का भय, लोकतंत्र के शवासन वाली राजनीति या कूटनीति या  जनता का अन्धराष्ट्रवाद - इन तीनों में से कोई ऐसी वजह इतनी मजबूत नहीं दिखती जिसे किसी के जान पर बनने दिया जाए. कसाब का अपराध निदनीय और दण्डनीय, दोनों, था. उसकी कार्र्वाई, आज की चालू परिभाषा में,  देश की सम्प्रभुता पर हमला थी, जैसे सत्यजीत राय की फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि वो देश को बदनाम कर नाम कमाते थे. मेरा मधुर तर्क यह है कि जिस देश की आबरू एक फिल्म मात्र से मिट्टी में मिल जा रही हो, उसे मिट्टी में मिलने देना चाहिए. बावजूद इसके, पता नहीं क्यों, ऐसा महसूस हो रहा है कि कांग्रेस ने मृत्युदंड वाली सजा का फायदा उठा लिया. कहा यों जाए, अपने नफे के लिए, हत्या की सत्ताकेद्रित परिभाषा को जरा हिला डुला कर देखें तो, अपराधी के नाम से मशहूर किए गए एक इंसान की हत्या कर दी.

कोई पूछेगा - क्यों ?

अपनी बुलन्द राय यह है कि सजाए-मौत पर तत्काल रोक लगनी चाहिए. बिना किसी लाग लपेट के. आप कैद / उम्र कैद की सजा को कठिन कर दें, बेशक. परंतु अगर फाँसी वाले सजा को ध्यान में रख कर बात करें तो पायेंगे कि देश की सम्प्रभुता पर हमला जितना ही निन्दनीय अपराध राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री आदि की हत्या है. इसी देश की अदालत ने स्वर्गीय श्री राजीव गान्धी की हत्या के लिए तीन तमिल युवकों को आरोपी ठहराया, उन्हें सजाए-मौत मिली, उनकी अपील दर अपील खारिज होती गई, राष्ट्रपति ने भी क्षमा नहीं दी और अंतत: अक्टूबर 2011 के किसी तारीख को उनके फाँसी की तारीख तय हुई. भला हो तमिल जन मानस का जिसने अपने प्रचंड विरोधी स्वभाव के कारण उन्हें फाँसी पर चढ़ने ही नहीं दिया. सरकार बहादुर को मुँह की खानी पड़ी. हू-ब-हू यही किस्सा पंजाब में बेअंत सिंह के हत्यारोपी बलवंत सिंह रजवाना पर भी दुहराया गया. उसके मौत का, गालिबन, वह दिन 30 मार्च 2012 तय हुआ था पर लोगों ने उसे फाँसी नहीं चढ़ने दिया तो फिर नहीं ही चढ़ने दिया. सरकार बहादुर, एकदम मुहाविरे की मानिद, धूल चाट गई. क्यों ऐसा हो सका, क्या इसका अर्थ यह नहीं कि कांग्रेस सरकार के लिए उसके पूर्व प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का कोई मोल नहीं. सामंती शब्दों में, अपने अग्रणी नेताओं का बलिदान व्यर्थ जाने दिया ?

आज दु:ख इस बात का है कि फाँसी की सजा का फायदा कांग्रेस ने वोट बैंक की राजनीति के लिए उठा लिया. गुजरात का चुनाव नजदीक है. शीतकालीन सत्र में विरोधियों को चुप करना है. वोटबैंक की राजनीति अगर सकारात्मक कारणों के लिए है तो एक बार विचार किया भी जा सकता है पर फाँसी देकर, हत्या कर, यह राजनीति करना कहाँ तक उचित है ?

यह सारी बातें इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि भारत में फाँसी की सजा सामान्यत: गरीब या कमजोर तबके के अपराधियों को होती है. अगला निशाना अफजल गुरु होगा. उस पर सारे आरोप साबित भी नहीं हो पाए हैं. वह अपराधी है या नहीं, यह एक विवेचनीय मुद्दा है पर जिन कानूनों का सहारा लेकर आज तक कोई रसूख वाला सजायाफ्ता न हुआ, उन्हीं कानूनी जाल में अफजाल पर सारे आरोप साबित नहीं हो पाए हैं, फिर भी, संसद जैसी जगह पर हमले के आरोप में उसे, आनन-फानन शब्दयुग्म को अर्थ देने मात्र के लिए, फाँसी की सजा सुना दी गई है. यह तय है कि ये सरकारें वैसे किसी भी बहुसंख्यक को कभी भी फाँसी की सजा नहीं सुना पाएगी जिसके साथ गलत या सही कोई राजनीतिक पार्टी जुड़ जाए. धनंजय, जो ईश्वर को मानते हैं उनके ईश्वर धन्नजय की आत्मा को शांति दें, के साथ अगर कोई दल आ गया होता तो उसका जघन्य अपराध भी शायद ये सरकार माफ कर देती.  

फाँसी की सजा बन्द हो,इस विशाल उम्मीद के साथ एक छोटी पर वस्तुपरक उम्मीद यह कि,  इन बदमाश सरकारों का अगला निशाना कहीं अफजल न हो. अपराधियों से कोई सहानुभूति हो न हो, घृणा तो बिल्कुल नहीं. सजा हो, अपराध स्वीकार हो और सर्वाधिक वीभत्स सजा -  अकेले कोठरी में जीवन काटने की सजा, अगर दे ही दी जाए किसी को, तो वो किसी मृत्यु से कम नहीं होगी. 

कसाब की इस लगभग जीत पर ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ी एक कथा याद आ रही है : एक आदमी को सजाए मौत हुई. कयामत के दिन उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछी गई. उसने बताया, अपनी पत्नी से मिलना चाहता हूँ. तत्पर लोग पत्नी लिवा लाए. पत्नी अपूर्व सुन्दरी थी. उसके गले मिलते ही, जब तक लोग कुछ समझ पाते,  पति ने पत्नी की हत्या कर दी. अधिकारी ने वजह जाननी चाही. सजायाफ्ता ने बताया, मैं नहीं चाहता था कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी पत्नी किसी और के साथ रहे, अब मैं सुकुन से मर सकूँगा. अधिकारी ने गौर से सजायाफ्ता के जवाब सुने, फिर, क्योंकि वह समझदार अधिकारी था, उसने सजायाफ्ता की सजा बदल दी, उसके कान काट लिए और उसे देश निकाला दे दिया गया. चूँकि अब वो मरना चाहता था पर उसे मारने वाला कोई नहीं था. 

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Tuesday, July 17, 2012

सत्यमेव जयते ? अगर हाँ, तो आगे क्या ?


[ सत्यमेव जयते का पहला 'सीजन' समाप्ति की ओर है. 'विजुअल मीडिया' की आलोचना के दो ही आसन हैं : पहला 'क्या खूब !' और दूसरा ' सब कूड़ा है' का भाव. हुल्लड़बाजी पसन्द की जा रही है और पैसे के दिखावे वाले चकाचौंध से पगलाए स्वनामधन्य आलोचक यह समझ ही नहीं पाते कि जिसे जनता अति पसन्द करती है ( सन्दर्भ : दबंग सिनेमा, तमाम धारावाहिक आदि ) उसकी भी आलोचना सम्भव है क्या ? 'पॉपुलर एलेमेंट' और 'पॉपुलर अप्रोच' में फर्क न जानने वाले इन अतिचर्चित विषयों की आलोचना से घबरा जाते हैं. 


प्रस्तुत आलेख सत्यमेव जयते के शुरुआती चार सिलसिलों की सुघढ़ आलोचना है. जिन मुद्दों को, यूफोरिया में बँध कर, हम हवा में उड़ा दे रहे थे और फेसबुक गोंज रहे थे, उन पर 'तूलिका' का यह आलेख पर्याप्त रौशनी डालता है. 'फेसबुक काल' के चलन से उलट यह लेख लम्बा और सूचना - परहेजी है. ]  
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सत्यमेव जयते :  टी.वी. शो, कुछ सवाल, कुछ संदेह

मध्यवर्ग के अलावा पढ़े लिखे और बुद्धिजीवी तबके के बीच भी 'सत्यमेव जयते' को लेकर उत्साह काबिले-तारीफ है. जब हिंदू अखबार का सोमवार का एक कॉलम और बी.बी.सी. का एक पेज भी जब इस कार्यक्रम पर केंद्रित दिखा तो लगा कि स्टार प्लस के इस कार्यक्रम  को  गहराई में देखना और समझना चाहिए. पहली बार देखा तो काफी प्रभावित हुई. आमिर खान की मुद्दों को लेकर गम्भीरता, बिना किसी अतिरिक्त ताम-झाम के प्रस्तुति का सीधा और सटीक तरीका, बेबाकीपन, पीड़ितों के साथ दयामिश्रित सहानुभूति की जगह स्वाभाविक मानवीय सहयोग. बेहद तार्किक तरीके से मसले की एक-एक परत को जतन से अलग करता हुआ. सनसनी के इस दौर में जब दर्शकों में रोमांच पैदा करना समस्या केंद्रित कार्यक्रमों का पहला लक्ष्य होता है, इस तरह पीड़ित और समाज के रिश्तों को समझने की कोशिश सुकून देती है. साथ ही मध्यवर्ग के बीच आम तौर भुला दिए गए विषयों पर कम से कम बात करना भी, आज के दौर में बड़ी हीबात  है.
     
पर कुछ ऐसा था जिसकी कमी लग रही थी ,कुछ था जो बिना किसी शेार-शराबे के इस सुकूनदेह कार्यक्रम में भी पूरी तरह नहीं खुल रहा था. पहला एपीसोड कन्या भ्रूण हत्या पर केंद्रित था, दूसरा बच्चों के यौन उत्पीड़न पर, तीसरा दहेज और चौथा चिकित्सा जगत की गड़बड़ियों पर. सारे ही हमारे सामाजिक ताने-बाने के लिए बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे.

कन्या भ्रूण हत्या का ग्राफ हाल की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक अब तक का सबसे खराब रिकॉर्ड है- प्रति 1000 लड़कों पर मात्र 914 लड़कियाँ. राजस्थान, हरियाणा, पंजाब ,मध्य-प्रदेश, तमिलनाडु वो राज्य हैं जिनकी हालत शोचनीय है. बच्ची और उसकी मां होने का अभिशाप कितना भयावह हो सकता है, समाज की प्रचलित परंपराएं कितनी वीभत्स स्थितियां पैदा कर सकती हैं इस बारे में कार्यक्रम बेहद संवेदनशील और मानवीय दिखा. कार्यक्रम में इसके कानूनी पक्ष का भी एक हद तक तार्किक विश्लेषण दिखा.

जो बात लगातार साल रही थी वह यह कि लोग संवेदित तो हो रहे थे पर ऐसा लग रहा था मानो सामाजिक कुरीतियों के प्रति मध्यवर्ग की लापरवाही या ऐसा ही कुछ है जो इन सबके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है हमारा समाज जिसमें लड़कियों में पूरी तरह जान पड़ने से पहले ही हत्या करने का चलन चल पड़ा हो , बच्चों का भयानक यौन शोषण, सबसे महफूज जगह उनके अपने घर में ही हो रहा है, करोड़ों का दहेज देश के लगभग हर हिस्से की सच्चाई हो, बीमारी और ईलाज सबसे फायदे का धंधा साबित हो रहा हो उसकी नब्ज मात्र संवेदना और नेकनीयति से तो नहीं पकड़ी जा सकती है. यह जानना बेहद जरूरी है कि वह समाज किन नियमों से संचालित होता है, या उस संचालन की प्रत्यक्ष और परोक्ष की ताकतें कौन सी हैं. इनके आर्थिक-सामाजिक निहितार्थ क्या हैं ? पूंजी की वह कैसी रफ्तार है जो ऐसी व्यवस्था को न सिर्फ चलाने में सहयोग दे रही है बल्कि इस तरह के नित नए सामाजिक प्रयोगों को शुरू करके इसे लगातार और मजबूत भी करती जा रही है.

कार्यक्रम में यह साफ था कि भ्रूण हत्या के लिए जिम्मेदार तबका गरीब या ग्रामीण आबादी नहीं है बल्कि इनमें से अधिकांश शहरों के पढ़े-लिखे संभ्रांत लोग हैं. मतलब शिक्षा से इसका कोई सीधा लेना-देना नहीं है.  फिर आखिर जड़ है क्या? यह बात तो समझ में आती है कि लड़कियां अवांछित हैं पर क्यों? जब देश में कानूनन बराबरी मिली है, योजनाएं आगे बढ़ने के मौके दे रही हैं ,अतिरिक्त राजनीतिक अधिकार ऐतिहासिक गैरबराबरी को मिटाने में सहयोग दे रहे हैं फिर भी इतनी घृणा क्यों ? जवाब शायद सत्ता के ढांचों में है. व्यवस्था की फायदा उन्मुख नीति शक के घेरे में आती है.

सत्ता अपने मूल चरित्र में कम से कम तबकों की भागीदारी कराना चाहती है. वे वर्ग जिनकी हजारों सालों से मुख्यधारा में किसी भी किस्म की सीधी हिस्सेदारी नहीं रही हैं उनकी वास्तविक बराबरी के सवाल से भी परेशानी तो आएगी ही. गरीब कमजोर ,दबाए गए दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिला, बूढ़े, बच्चे सभी इस श्रेणी में आते हैं, अंतर उनकी सत्ता के लिए खतरा बनने की डिग्री का है. मतलब सत्ता की मूल अवस्थिति को बरकरार रखने के लिए चुनौती स्वरूप खड़े तबकों के एक छोटे हिस्से की भागीदारी कराकर उनके बीच वर्गीय खाका खड़ा करना और साथ ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मुनादी पीटना. इसमें जैसे-जैसे कोई तबका एक, दो या तीन समूहों में कोई शामिल होता जाएगा उसकी स्थिति बद से बद्तर होती जाएगी. मसलन गरीब, दलित-आदिवासी महिला या छोटी बच्ची शोषण के लिए सर्वाधिक सुलभ तबका है. अधिकारों से इनकी ही सर्वाधिक दूरी रहेगी.

आमतौर पर तो आर्थिक पेचीदगी ही इस स्तरीकरण का आधार है पर जब इस पेचीदगी में लैंगिक आयाम जुड़ता है तो स्थिति ज्यादा जटिल हो जाती है. कन्या भ्रूण को दुनिया में, परिवार में आने से रोकने के पीछे भी संभवतः यही सच्चाई मूल रूप से काम करती है. कोई नहीं चाहता कि उसके आस-पास, घर-परिवार में सत्ता से दूर के लोग बसें.  क्योंकि भविष्य के ये लोग उनके खुद के सत्ता-संबंधों को परिभाषित करेंगे. शहरी नव संभ्रांत वर्गों के बीच सर्वाधिक घटने वाली ये सच्चाई उनकी ताकत को दीर्घकालिक और टिकाऊ बनाने की कोशिश की नजर से देखा जा सकता है. नई तकनीकों तक इनकी सुलभ पहुंच है. नए पैसे ने नई महत्वाकांक्षाएं पैदा की है. महिला को असलियत में आज तक इस देश की नागरिक का दर्जा हासिल नहीं मिला है. न्याय,पुलिस जैसी संस्थाएं अपनी मूल संकल्पना में सत्ता के ढांचों की सुरक्षा के लिए हैं तो स्वाभाविक रूप से उसी के हित के लिए कार्य करेंगी.

आमिर खान के इस पूरे कार्यक्रम के दौरान जो एक चीज नदारद थी वह थी :  मूल कारण (ओं )की शिनाख्त. कानून बनाने में सत्ता को कभी भी बहुत परेशानी नहीं होती है. ऐसा भी नहीं कि व्यवस्था किसी भी कानूनी मांग को तुरंत ही बिल्कुल सहजता से मान लेती है, क्योंकि अनेकों बार देखा गया है कि किसी भी शासन के हित से सीधे-सीधे न जुड़ने वाले कानून को लागू कराने में कितनी दिक्कत आई है. फिर चाहे वह घरेलू हिंसा निरोधक कानून हो या फिर अभी भी लटका लोकसभा और राज्य सभा में महिला आरक्षण विधेयक. पर फिर भी कानून बना देना अपेक्षाकृत आसान रास्ता है जिससे सरकार की जन और लोकतंत्र पक्षधर छवि भी पुख्ता होती है और मूलभूत सवालों को पूछते तबकों को थेाड़ी देर के लिए चुप कराने का बहाना भी मिल जाता है.

कन्या भ्रूण हत्या के लिए जो फास्ट ट्र्रैक कोर्ट बनाने की बात है उसे मान लेने में सरकार को कोई बहुत दिक्कत नहीं आने वाली है. इसके पहले भी विभिन्न मसलों पर फास्ट ट्रैक कोर्ट बने हैं उनसे कितने मामले निपटे हैं इसे भी देखने की जरूरत है. लिंग जांच के लिए दोषी डॉक्टरों पर कार्रवाई की तो बात आई पर उन बड़े -बड़े अस्पतालों के मालिकों का क्या? हम और आप तो जिम्मेदार होंगे पर राष्ट्रीय चिकित्सा संस्थान जैसी तमाम प्रशासनिक संस्थाओं की जवाबदेहियों का क्या ? स्वास्थ्य मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय जैसे मंत्रालयों के आकाओं का क्या ? उस राजनीति का क्या जो खुद ही लड़की को देश का नागरिक मानने से पहले उसे बेटी, मां, और बहन की परिभाषाओं से पहचानती हो. जहां लड़की का अर्थ किसी न किसी पुरूष से रिश्ता होता है वही उसकी पैदा होने वाले दिन की पहचान है और वही अंतिम दिन की। तो जब आमिर खान यह कहते हैं कि ‘भारत माँ अपनी बेटियों के खून से लाल हो चुकी है’,तब मध्य वर्ग बेतरह संवेदित तो होता है पर इसके निहितार्थ कहीं गहरे उसी व्यवस्था को पुख्ता करते है जिसमें कन्या अपने भ्रूण के चरण से जीवन के हर स्तर पर समाज के लिए अपनी पहचान के साथ अवांछित ही रहती है.

देश को जब माँ का दर्जा मिल गया तब बेटे  सपूत हुए जो उसकी लाज बचाने के लिए कुर्बानी देते हैं पर बेटियां उसी श्रेणी क्रम में द्वितीय स्तर की नागरिक होंगी. इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए बेटे इनके लिए कानून बनाएगें जिन्हें इन बेटियों को मानना पड़ेगा क्योंकि बेचारे बेटों पर तो पहले ही मां की लाज बचाने की जिम्मेदारी है तो पहली जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए बेटी उन बेटों की राह में रोड़ा कभी नहीं बनना चाहेगी और खुद ब खुद ‘सहयोगी’ या दूसरे शब्दों में द्वितीय स्तरीय भूमिका में आ जाएगी. समाज की मुख्यधारा के लिए इस ‘बोझ’ को उठाने की अनिच्छा स्वाभाविक  है.

गौरतलब है कि कार्यक्रम के दौरान ही बात सामने आई कि आदिवासी या बेहद गरीब समुदायों में यह चलन बेहद कम देखने को मिला. स्वाभाविक है उन समुदायों में वे पुरूषों की ही तरह समुदाय की संपदा हैं जिनकी जरूरत समुदाय को उनकी उत्पादन और पुनरूत्पादन क्षमता दोनों के नाते है. वर्चस्व पर आधारित तथाकथित सभ्य समाज में सारा जतन तो इस बात के लिए होता है कि कैसे सत्ता में कम से कम हिस्सेदारी हो.

ठीक इसी तरह जब बच्चों के यौन शोषण का मामला आता है तो फिर से मसले को हमारी और आपकी कमजोरी के तौर पर दिखाया जाता है जहां हम अपने बच्चों की रक्षा नहीं कर पाते ,उनका भरोसा नहीं जीत पाते और न ही उन पर भरोसा कर पाते हैं. यह बात सच है पर हम इस समस्या को समझें, सुलझाएँ कैसे इसका कोई रास्ता नहीं. समाज के कुछ लोग हैं जो ऐसा करते हैं पर समाज उन्हें बेहद सामान्य तरीके से स्वीकारता कैसे है इसकी कोई शिनाख्त नहीं.  हर कोई अगर ईमानदारी से अपने आस-पास के लोगों का विश्लेषण करे तो बेहद आसानी से उसे वे शक्लें दिख जाएंगी जो इस तरह की न जाने कितनी घटनाओं को अंजाम देती हैं पर सर्वमान्य तौर पर उन पर कोई बात भी नहीं करना चाहता है.

पूरे एपीसोड में सुरक्षात्मक आयाम ही दिख रहा था कि कैसे इस तरह की घटनाओं को होने से रोकें. समाज के इस चेहरे को बेनकाब करने की कोई इच्छा नहीं दिखी. ऐसे लोगों को समाज बर्दाश्त नहीं करेगा यह स्वर लगभग नदारद था. पीड़ित बच्चों के प्रति आंसू बहाते लोग तो दिखे पर यह जानने की कोशिश नहीं दिखी कि क्या अब भी उन लोगों का उन घरों में आना जाना है. ताकत पर आधारित हमारी सामाजिक संरचना में आम तौर पर ये लोग परिवार के भीतर इज्जत और रसूख वाले लोग होते हैं. तो क्या हकीकत खुलने के बाद सजा के साथ-साथ इनका सामाजिक निष्काषन एक रास्ता नहीं हो सकता. मां बाप और बच्चों में दूरी कम होनी चाहिए यह बात तो समझ में आती है पर कैसे यह नहीं दिखा.  मामला यहाँ भी सत्ता समीकरण का है जिसे बच्चे भी समझते हैं. सही मायने में दूरी कम करने की बात ऐसे ही महज सदिच्छा से तो संभव नहीं. इस विषय में कठोर कानून तो होना ही चाहिए पर क्या कोई मां बाप अपने ही पिता, भाई के खिलाफ सामाजिक, आर्थिक हैसियत आदि के बहुतेरे संबंधों और हितों के रहते कोई कदम उठा पाएंगे.

 दहेज पर केंद्रित कड़ी - देश भर में दहेज की अलग-अलग शक्लों में फैला यह रोग इतना आम है कि इसमें लोगों को संवेदित करने के लिए बहुत अवकाश नहीं था. लोगों की संवेदना के कुंद होने की ही बात नहीं है. वास्तव में जब कार्यक्रम के दौरान लड़कों से यह कहा जाता है कि ‘कहां गई आप लोगों की खुद्दारी कि आप लड़की वालों से दहेज लेंगे’ तो चाहे-अनचाहे उसी मर्दानगी को धिक्कार दूसरे तौर पर गौरवगान है जिसके नाते लड़का होना अपने आप में सबसे बड़ी दौलत होना होता है, जिसकी कीमत दहेज के तौर पर लगती है. एक ऐसा समाज जो लड़की के पैदा होने के दिन से ही उसे दूसरे की अमानत मानता हो और पराए धन का कन्यादान उसके तारण का रास्ता हो, वहां महिला की दोयम स्थिति से जुड़ी अनेकोनेक परंपराएं और रीतियां शर्तिया आम होंगी. पूरे कार्यक्रम के अंत में जब दर्शकों से उनकी राय पूछी गई तो जवाब था कि हमें अपने मां-बाप के पैसे से शादियों में ताम-झाम नहीं करना चाहिए बल्कि लड़का-लड़की अपने पैसों से जो चाहे वो करें. मतलब विवाह में पैसे तो खर्च होंगे ही यह बात तो तय है ही हां लड़के-लड़की अपने पैसे खर्च करें तो कोई दिक्कत नहीं. विवाह को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण चरण तो मान ही लिया गया जहां से विशेष तौर पर लड़की के नए जीवन की शुरूआत होती है. विवाह से पहले के 25-30 सालों को महज इस दिन की तैयारी मानें. जब पढ़ाई,नौकरी या दूसरी अन्य घटनाओं की तरह जीवन का एक चरण न मानकर नया जीवन मानने लगते हैं तो व्यवहार,उम्मीदें,दिनचर्या,महत्वाकांक्षाएं सब कुछ इस दूसरे एपीसोड के मुताबिक चलने की स्वाभाविक मांग होती है.

 चौथी कड़ी में डॉक्टरों और अस्पतालों के मरीजों के प्रति गैरसंवेदनात्मक, मुनाफाखोर प्रवृत्ति की ओर संकेत था. जिसके नतीजे में कभी-कभी मरीज की मृत्यु भी हो जाती है. अस्पतालों, डॉक्टरों, मेडिकल काउंसिलों के रवैये को काफी बेबाकी से दिखाने की कोशिश की गई पर अंत में जो सवाल पूछा गया उसमें प्राइवेट कंपनियों की दवाईयों के साथ-साथ ‘जेनरिक’ मेडिसिन की दुकानों के खोलने पर केंद्रित था ताकि लोगों को सस्ती दवाइयां मिल सकें. सरकार की जवाबदेही के बारे में कोई बात नहीं, निजी कंपनियों की दवाइयों के मनमाने दाम पर नियंत्रण पर कोई विचार नहीं, निजी अस्पतालों के मनचाहे कायदों और फीस पर किसी प्रभावी सरकारी पहल की अपील आदि का कोई जिक्र नहीं.
   
यह कार्यक्रम एन.जी.ओ. और निजी कंपनियों के सहयोग से बना / जुड़ा है.  ‘सत्यमेव जयते’ के लोगो के उपर एयरटेल और नीचे एक्वागार्ड का लोगो, मानो सत्य की जीत की एयरटेल के ‘एक्स्प्रेस योरसेल्फ’ और एक्वागार्ड के ‘ग्लोबल रीच लोकल सॉल्यूशन’ के रास्ते ही संभव है. जहां व्यक्ति की आत्माभिव्यक्ति का अधिकार वहीं तक है जहां तक वह व्यवस्था पर प्रश्न न करे, फैशनेबल तरीके से विकास ,बदलाव और सभ्यता की बात करे, कुल मिलाकर इंसान के व्यैक्तिक अहम् की पुष्टि हो. जैसे ही उसकी बात सामाजिक ढांचों या भोजन-पानी जैसे ‘पिछड़े किस्म’ के मुद्दों की राजनीति पर होने लगेगी वहीं से परेशानी शुरू हो जाएगी.  


कार्यक्रम की हर कड़ी के अंत में किसी न किसी एन.जी.ओ. के खाते में रकम डालने का अनुरोध किया जाता है जिसे रिलाएंस फाउंडेशन दोगुना करेगा. बाजार के मद्देनजर निजी कंपनियों का इतना हस्तक्षेप तो स्वाभाविक ही है , यह तर्क चहुंओर व्याप्त है. निजी सहयोग केा नकारने को कहना तो बहुत ज्यादा मांग कही जाएगी पर यह बात भी निःसंदेह उतनी ही सच है कि इनके सहयोग के बल पर बदलाव की उम्मीद और दिशा हमेशा उतनी ही संदेहास्पद रहेगी.  


रिलाएंस इस कार्यक्रम का सामाजिक बेहतरी ( फिलॉंथ्रोपी) का पार्टनर है. वही रिलाएंस जो तेल शेाधन और सेवा क्षेत्र की देश की इस दौर की शीर्ष कंपनियों में से एक है. इसके प्रमुख मुकेश अंबानी देश के सबसे अमीर आदमी हैं. पर आखिर सामाजिक स्तर पर इस तरह की तब्दीली से रिलाएंस का क्या हित सधेगा? तो एक जो मोटी बात समझ में आती है, वह यह है कि अकूत संपत्ति का मालिक बनने के बाद अब वह एक जन कल्याणकारी कंपनी की  छवि चाहता है, जैसा जिन्दल छतीसगढ़ में कर चुके हैं / कर रहे हैं. वहाँ अच्छी सड़कों को देखते ही 'लोकल' आदमी आपकी जिज्ञासा कुछ इस तरह शांत करता है - यह जिन्दल की सड़क है.  यह छवि सत्ता के समीकरणों में सक्रिय सहयोग को और मजबूत करेगा और सामाजिक स्वीकारोक्ति की और चौड़ी राह खोलेगी इसके साथ ही भविष्य के सारे असंतोष को खुद ही मंच देकर उसकी धार और दिशा को पीछे से नियंत्रित करने का बेहद सुगम तरीका. 


इसमें व्यवस्था की किसी भी इकाई को अंततः क्या परेशानी होगी ? हां तात्कालिक तौर पर सरकारी तंत्र, कुछ अपेक्षाकृत छोटे उद्योग-समूहों ,क्षेत्रीय स्तर के सामाजिक-राजनीतिक समूहों को कुछ समस्याएं आ सकती हैं. पर ये ऐसे समूहों की बात है जिन्हें बड़ी पूंजी के चलन के अनुसार एक हद के बाद अपने को बदलना ही होगा. राज्य और केंद्र स्तर पर सरकार के साथ विभिन्न कंपनियों का ‘जन-कल्याणकारी’ जुड़ाव इसी ओर का कदम है. स्वास्थ्य,शिक्षा,विकास आदि योजनाओं का एन.जी.ओ. के माध्यम से क्रियान्वयन और सामाजिक पहल का चलन 90 के दशक से ही महिला समाख्या जैसी योजनाओं के आने से शुरू हो गया था. उसके बाद तो लगभग सभी क्षेत्रों के समाज उन्मुख दायित्वों के निर्वाह की जिम्मेदारी सरकारों ने बेहद सहूलियत के साथ निजी हाथों को उनके बड़े-बड़े कर्जों को माफ करते हुए,बेहद नाम मात्र की दर से जमीनों और खनिजों का सौदा करते हुए बांट दी.


इस तरह निजी कंपनियों और तमाम गैर सरकारी संगठनों ने भारतीय समाज की बेहतरी का बीड़ा उठाया है. मुनाफा केंद्रित विकास और सभ्यता की दिशा में, समाज का कौन सा स्वरूप भविष्य का ज्यादा बेहतर उपभोक्ता हो सकता है, मानवीय मूल्यों का कौन सा स्तर बाजार के वर्तमान या ज्यादा टिकाऊ स्वरूप को नैतिक वैधता दे सकता है, यही एकमात्र प्रस्थान और प्रस्थापना बिन्दु हैं. ऐसे में किसी व्यक्ति या समूह की मंशा पर संदेह की बात ही नहीं है, बात है सामाजिक बदलाव के मॉडल और उसके रास्ते की, प्राथमिकताओं की और इन सबसे जरूरी जो बात है वह यह है कि जिन समस्याओं को अब तक आम समाज भी व्यवस्था की कमियों के रूप में देखता था उन्हें उनकी कड़ियों से अलग-थलग करके देखना. 


दहेज या कन्या भ्रूण हत्या को व्यवस्थागत स्तर पर महिला की दोयम दर्जे की स्थितियों के नतीजे के तौर पर न देखते हुए उसे महज सामाजिक समस्या मानते हुए उसके हल के लिए मध्य वर्ग की नैतिकता को झकझोरने की कोशिश. व्यव्स्था के मूल ढांचे को बगैर छेड़े उसकी नई तकनीकों से मरम्मत की वकालत. इस तरह के सुकून भरे रास्ते से रिलाएंस के सहारे बदलाव की कोशिश शहरी मध्यवर्ग के लिए अपने अस्तित्व की पुष्टि एक नया और आसान रास्ता है जिसके सहारे के रूप में  मुकेश और नीता अंबानी नए युग के प्रणेता के बतौर मुस्कुराते हुए खड़े हैं. 


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तूलिका. इलाहाबाद के विश्वविद्यालयी जीवन के दौरान आईसा की सदस्य. अब एप्वा ( AIPWA - ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेंस अशोसिएशन ) के साथ. 
सम्पर्क : tulikaaipwa@gmail.com

Tuesday, May 22, 2012

आशुतोष की कहानी : पिता का नाच


हम पूरबियों, खासकर भोजपुरियों, के मन में नाच के अनेक संस्करण हैं. कोई एक चीज जिसके लिए पक्ष और विपक्ष के सर्वाधिक तर्क हमने सुने वो 'नाच' ही था. नचनिये का धर्म या मरजाद हमेशा से चर्चा का विषय रहा है, इसके किस्से रहे हैं. प्रस्तुत कहानी भी उन्हीं स्मृतियों का एक शानदार संस्करण है.
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यूँ तो वह समय सुबह का था पर नन्दू को उनके  बड़े बेटे जग्गी और छोटे सत्तू ने इतने सख्त लहजे में धमकाया कि झोपड़ी के आसपास का समय गर्म दोपहरी में बदल गया था. नन्दू हतप्रभ थे. दोनों बेटे नन्दू की ऐसी तैसी कर नन्दू की ही कमाई से खरीदी गयी स्कार्पियो में बैठकर धडधड़ाते  हुए निकल गए.

नन्दू के नाचने-गाने को लेकर उनके बेटों का यह रवैया आम बात है, पर आज जिस तरह से वे उनके साथ पेश आये इतने की उम्मीद नन्दू को नहीं थी. पर नन्दू तो नन्दू हैं. उन्हें कुछ नहीं चाहिए. चाहें दुःख हो या सुख वे सिर्फ गायेंगे और नाचेंगे. तुरन्त ही सब कुछ भुला कर नन्दू ने खंजड़ी उठाया और एक चइता शुरु किया. 'सोवत पिया को जगावे हो रामा .........कोयल  बड़ी पापी'....

नन्दू गरीब माँ-बाप के इकलौते  बेटे थे. बचपन से ही उनको गाने का शौक था. भैंस की पीठ पर बैठ कर जब नन्दू मुक्त कंठ से अलाप लेते तब ऐसा लगता कि वह भैंस की पीठ नहीं बादशाह का दरबार हो और वे खुद नन्दू नही तानसेन हों. गाने के इसी जुनून  के चलते नन्दू घर से भागकर एक नाच पार्टी में शामिल हो गये. कुछ दिनों के प्रशिक्षण के बाद नाच के पक्के नचनिया बन गये.

बेतिया के रामउजागिर बाबू की बेटी की बारात में नन्दू पहली बार पूरे मेकअप के साथ स्टेज पर उतरे. खिलता हुआ नाक नक्श, होठों  में फंसी हुयी आधी हँसी ने घराती-बाराती सभी के ऊपर कहर ढा दिया. नगाड़े और हारमोनियम की जुगलबन्दी की लहर में नन्दू ने सतगजी आजमगढिया लहँगा और गोरखपुरी टिकुली के साथ स्टेज पर जब पहला फेरा लिया तो नाच देखने वालों के दिल शामियानें के चारों ओर बंधे कनात से टकराने लगे.


नन्दू ने अपने जीवन के उस पहले बेमिसाल परफारमेंस के आखिर में जब 'इन्हीं लोगों ने ले लिन्हा दुपट्‌टा मेरा' गाया तो स्वयं रामउजागिर बाबू स्टेज पर आ गए. उन्होंने अपनी गोपालगंज वाली पाही नन्दू के नाम करने की घोषणा की साथ ही नन्दू का नाम मीनाकुमारी रख दिया. लोग जान गये थे, रामउजागिर बाबू आज होश में नहीं हैं.

नन्दू के नाम के साथ ही उस नाच पार्टी का नाम ''मीना कुमारी  नाच पार्टी'' हो गया. लोग अपने घर के शादी-ब्याह में मीना कुमारी का नाच कराने को अपनी शान मानने लगे थे. उन दिनों न जाने कितनों ने अपनी मुराद पूरी होने पर काली माई, हनुमान जी के सामने मीनाकुमारी का नाच कराने की मनौती मानी थी.

समय के साथ नन्दू की शोहरत और समृद्धि बढ़ती गई. कई पीढियों की दरिद्रता दूर हो रही थी. नाच के डेढदार की बेटी से नन्दू की शादी हुई. अपनी ही शादी में नन्दू पहले जी भर कर नाचे तब जाकर कहीं फेरे लिए. समय के साथ नन्दू का घर दो बेटों और एक बेटी से भर गया. नन्दू  के मीना कुमारी नाच पार्टी का रूतबा बढता ही जा रहा था. लोग बताते हैं कि एक बार रामउजागिर बाबू ने संजय गाँधी को प्रसन्न करने के लिए पटना हवाई अड्‌डे पर नन्दू का नाच कराया था, जिसके एवज में रामउजागिर बाबू को एम.एल.ए. का टिकट मिला था.
अब  नन्दू बहुत व्यस्त रहने लगे थे. नाच ही उनके लिए सब कुछ था. बच्चे बड़े हुए. दोनों बेटों की शादी हुई.  नन्दू इनमें मेहमान के ही तौर पर शामिल हुए.

वैसे यदि नन्दू याद करें तो उन्हें मुश्किल से याद आयेगी कि जब उनके बाबूजी गुजरे तो वे बलरामपुर में नाच रहे थे. माई की मृत्यु के समय सुल्तानपुर के बड़ागाँव के दिग्गज वकील विजय बहादुर सिंह के घर सोहर गा रहे थे और जब उनकी पत्नी उनके जीवन से जा रही थीं तब वे बगहा में सासंद जी की बहू के स्वागत में बधाई गा रहे थे. नन्दू का बड़ा बेटा जग्गी नन्दू के ही रूपये को पानी की तरह बहा कर जिला पंचायत सदस्य और छोटा बेटा सत्तू सरपंच बन गया था.


बेटों की सामाजिक हैसियत बदल गई. अब उन्हें नन्दू का नाचना-गाना अच्छा नहीं लगता था. वे नचनिया का बेटा कहा जाना पसन्द  नहीं करते. इसके लिए वे कई बार नन्दू को समझा चुके थे. बेटों की गाली-गलौंज चुपचाप सुनते और नाचते रहते. परेशान होकर बेटों ने उन्हें उनकी ही बनायी हवेली से बाहर निकाल दिया. बिना किसी शिकवा शिकायत के नन्दू गाँव के बाहर बगीचे में बने झोपड़े में रहने लगे. वहीं से नाच का शौक पूरा करते थे. नाच की ही कमाई से तीन गाँवों में पाही बनाई, हवेली बनाया और सबकुछ छोड दिया जैसे कुछ था ही नहीं. अब वस एक साध रह गयी थी कि बिटिया का ब्याह हो जाए तो फिर आखिरी दम तक नाचते गाते रहें.

लडकों का ब्याह तो नन्दू के धन-दौलत के बल पर हो गया पर लड़की के ब्याह में नन्दू का नचनिया होना बाधा बन गया. यही वह बात थी जिसने जग्गी, सत्तू की नजरों में नन्दू को साँप बना दिया. नन्दू को अपनी प्रतिष्ठा पर कलंक मानते हुए दोनों बेटे उन पर अक्सर अपना गुस्सा उतारने लगे थे. नन्दू भी समझ नहीं पा रहे थे कि न जाने कितने लोगों की बेटियों के ब्याह में वे नाचते रहे हैं, पर उनकी ही बेटी के ब्याह में उनका नचनिया होना बाधा कैसे बन गया. जग्गी तो अब गुस्से में नन्दू पर हाथ भी उठाने लगा था. नन्दू चुपचाप मार खाते और अकेले पड ने पर रोते.

अब नन्दू स्टेज पर अपनी बेटी के ब्याह के लिए तपस्या करते तो लोगों को लगता कि नन्दू नाच रहे हैं. बेटी  के सुख के लिए दुआ करते तो लोगों को लगता कि नन्दू पाठ खेल रहे हैं. अपनी बेटी के दुःख में रोते तो लोगों को लगता कि नन्दू गा रहे हैं. गुजरते समय के साथ, नन्दू के बेटों ने उनसे अपने सारे संबंध तोड  लिये. अब नन्दू बहुत अकेले पड  गये थे.

किसी तरह जग्गी ने पड़ोस के जिले में अपनी बहन की शादी की बात चलाई. उसने लड़के वालों से बताया कि लडकी के माँ-बाप दोनों मर चुके हैं.  लड़के वाले कुछ तो बिना माँ-बाप की लड़की पर दया कर और कुछ रूपये की माया से तैयार हो गए.


शादी की बात कर लड़के सीधे नन्दू के झोपड़े पर आये. जग्गी ने सख्त लहजे में समझाया कि तुम्हें इस शादी से कोई मतलब नहीं रखना है. लड़के वालों से बता दिया गया है कि लड की के माँ-बाप दोनों मर चुके हैं.  नन्दू झटका खा गए.  वे सिर्फ इतना बोल पाये कि 'लेकिन हम तो जिंदा हैं, बस सत्तू ने लपक कर उनका गर्दन पकड  लिया 'तुम मरोगे लेकिन हम सबको मार कर....'. नन्दू के गले से गों-गों की आवाज आ रही थी. सत्तू गुस्से में था - 'चाहते क्या हो तुम लड की सारी उमर कुँवारी बैठी रहे, नचनियां का बेटा बनकर तो हम जी रहे हैं पर नचनिया की बेटी से कोई ब्याह नहीं करना चाहता.' यह कहते हुए सत्तू ने जोर से नन्दू के पेट में लात मारी. नन्दू दर्द से कराहते हुए वहीं दुहरे हो गए.

जग्गी ने नन्दू को घसीटते हुए झोपड़ी से बाहर कर दिया. फिर एक-एक कर नाच का सारा समान झोपड़ी के बीचों-बीच में इकट्‌ठा करने लगा. नाल, नगाड़ा, हारमोनियम, नाच के पर्दे, कपड़े सबकुछ.अन्त में सत्तू ने नन्दू का मेकअप बॉक्स उठाया, जिसके जादू से नन्दू मीनाकुमारी में बदल जाते थे. नन्दू ने अपनी आँखें बंद कर ली। जग्गी ने झोपड़े में आग लगा दिया. सत्तू ने वह बक्सा भी आग में फेंक दिया. नन्दू चेतना शून्य हो गये थे. वे अपनी जिंदगी की एक-एक आस को राख में बदलते देख रहे थे.


लड़के वालों के घर बरिच्छा की शानदार तैयारी की गई थी. जलपान के बाद बरिच्छा का कार्यक्रम शुरु हुआ. मंत्रोचार के बीच जैसे ही जग्गी ने लड़के को तिलक लगाने के लिए उठा वैसे ही लड़ेके के दादा ने उसे टोका ''अभी ठहरो बेटा, पहले आपको मेरी एक शर्त पूरी करनी होगी''

जग्गी घबरा गया ''लेन-देन की सारी बात हो चुकी है  अब कैसी शर्त ? दादा ने कहा ''मेरा यह इकलौता पोता है, इसके जन्म पर इसकी दादी ने एक  मन्नत मांगी थी, पहले उसे आप पूरा करने का वचन दीजिए तभी यह शादी हो पायेगी''

जग्गी अपने रूतबे और पैसे के गुरूर में बोला '' दादा! आप शर्त बताइये''

दादा ने पूरे अभिमान के साथ कहा कि ''शर्त यह है कि मेरे पोते की शादी में मीनाकुमारी का ही नाच होना चाहिए. ''

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आशुतोष. पड़रौना - कुशीनगर - रामकोला - गोरखपुर - गजब की दिल्ली और वर्धा में रहते, पढ़ते आजकल सागर में. एकेड्मिक्स में गहरी रुचि. अस्सी और नब्बे के दशक वाले लोक के अनुभवों से गहरे परिचित. पहली कहानी ' रामबहोरन की अनात्मकथा'  प्रतिष्ठित पत्रिका 'तद्भव' में प्रकाशित. प्रस्तुत कहानी दैनिक भाष्कर के रविवारीय परिशिष्ट रसरंग में प्रकाशित.  कहने का अपना अन्दाज. फिल्म 'छपरहिया' के लिए कथा लेखन. कई कहानियाँ शीघ्र प्रकाश्य की स्थिति में.

सम्पर्क :   09479398591 तथा prominentashu@rediffmail.com






Monday, January 2, 2012

2011: साहित्य के आईने में

 ( बीते वर्ष 2011 की महत्वपूर्ण साहित्यिक गतिविधियों पर यह टीप ख्यात आलोचक डॉ. कृष्णमोहन की है. )


हिंदी साहित्य में वर्ष 2011 की एक ऐतिहासिक घटना शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आस्माँ’ का प्रकाशन रही। मूल रूप से उर्दू में लिखे गए इस उपन्यास का रूपांतर स्वयं लेखक ने पंक्ति-दर-पंक्ति कराया है, इसलिए इसे पढ़ते हुए हिंदी की लगभग मौलिक कृति का आभास होता है। उन्नीसवीं सदी के पूवार्द्ध को अपना मुख्य विषय बनाने वाले इस ऐतिहासिक उपन्यास में तत्कालीन भारत की राजनीतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक सच्चाई कुछ इस कदर जिन्दा हो गई हैं कि इसे पढ़ते समय हम उस युग में ही जीने लगते हैं। छपते ही यह उपन्यास सुरुचि सम्पन्न पाठकों के बीच चर्चा का विषय बन गया और इसकी बढ़ती हुई मांग के कारण दुकानों पर इसकी नई खेप का आना, यानी इसकी उपलब्धता भी एक सूचना की तरह फैलती रही। बनारस में तो विद्यार्थियों के बीच यह कथन ही प्रचलित हो गया कि यह पहली किताब है जिसे पढ़ते पहले हैं, खरीदते बाद में है। यानी, किसी से मांग कर पढ़ लेने के बाद उसे अपने पास रखने के लिए खरीदते हैं। लगभग सात सौ पचास पृष्ठों के उपन्यास के सजिल्द संस्करण की कीमत (475 रू0, पेंग्विन प्रकाशन) को देखते हुए यह कोई मामूली बात नहीं। समीक्षकों ने भी आम तौर पर इसे विश्व-साहित्य के गौरवग्रंथों के समतुल्य माना। उल्लेखनीय यह भी है कि हिंदी की त्रिमूर्ति कहे जाने वाले नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेई ने इस उपन्यास पर अपना चिरपरिचित ‘गरिमामय’ मौन बनाए रखा और इस तरह अपनी प्राथमिकताओं और प्रासंगिकता की खबर दी।

जिस वजह से इस साल चर्चा-परिचर्चा का बाजार गर्म रहा वह है हिंदी-उर्दू के कुछ प्रसिद्ध रचनाकारों की जन्मशती का इसी साल पड़ना। फै़ज़ अहमद फै़ज़, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, भुवनेश्वर, गोपालसिंह नेपाली और मजाज लखनवी के जन्म के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में समारोहों की धूम रही। पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले। खूब समां बंधा। ऐसा लगा कि हम अपने रचनाकारों को भूले नहीं हैं, क्योंकि उन्हें भूलने वाली कौमों का कोई भविष्य नहीं होता। बहरहाल, समारोही मानसिकता के तहत होने वाले इन आयोजनों में नए विचार किसी की प्राथमिकता में नहीं दिखे। जिसके नाम पर मौका मिला उसे सबसे प्रासंगिक बताने की रस्म अदायगी ही ज्यादा होती दिखी। अपवादस्वरूप अगर किसी ने इन माननीय रचनाकारों की पुनर्व्याख्या करने या इनकी एकाध कमी दिखाने की कोशिश भी की तो अन्य महानुभावों ने उससे कतराकर निकलने का सुरक्षित रास्ता अपनाना ही ठीक समझा।

सर्वानुमति के इस पाखंड को थोड़ा बहुत खरोंच अज्ञेय के बहाने हुई चर्चाओं से लगी। अज्ञेय को लेकर एक बिल्कुल नया मूल्यांकन सामने आया। एक नमूना देखें। ‘कथादेश’ के सितम्बर 2011 अंक में अशोक वाजपेई अज्ञेय के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- ‘जिस प्रवृत्ति को हिन्दी में नई कविता कहा जाता है उसको पूरी जटिलता और बहुलता में रूपायित करने में अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर की भूमिका केन्द्रीय और निरपवाद थी। अग्रणी तो इसमें यानी इस भूमिका में अज्ञेय रहे पर बाकी दो ने भी अपने काव्य-व्यवहार और आलोचनात्मक चिन्तन से नई कविता परिसर बनाने-पोसने में बड़ा योगदान किया।’ मुक्तिबोध और शमशेर पर ‘बढ़त’ हासिल हो जाने के बाद शेष दो कवियों नागार्जुन और त्रिलोचन को अलग-थलग करने की विलक्षण युक्ति देखें- ‘अगर अज्ञेय मुक्तिबोध, नागार्जुन और त्रिलोचन के प्रतिलोम हैं तो मुक्तिबोध अज्ञेय, नागार्जुन और त्रिलोचन के और शमशेर नागार्जुन, त्रिलोचन और अज्ञेय के। यह अलक्ष्य नहीं किया जाना चाहिए कि वैचारिक साम्य या वैषम्य के बावजूद तीनों ही नागार्जुन और त्रिलोचन के प्रतिलोम हैं, परस्पर एक दूसरे के प्रतिलोम होने के साथ।’ हिन्दी के पांच बड़े कवियों के बारे में इसी प्रकार के आप्तवाक्य उच्चरित करते हुए अशोक वाजपेई ने अपनी स्थापनाएं दी हैं। एक और नमूना देखते चलें- ‘अज्ञेय में कालबोध और युगबोध दोनों ही प्रबल हैं, मुक्तिबोध में युगबोध प्रबल-प्रखर है पर कालबोध न्यून है। शमशेर के यहां ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ के चलते, कालबोध प्रबल है पर, कुल मिलाकर, युगबोध शिथिल।’

दिलचस्प है कि अज्ञेय की स्थापना के इस तर्कातीत अभियान का प्रभाव जबर्दस्त पड़ा। हिंदी में सक्रिय, कलावाद से लेकर हिंदुत्ववाद तक के समर्थक रंग-रंग के दक्षिणपंथियों में यह उम्मीद जग गई कि अब उनका अपना कवि ही आजाद भारत का सबसे प्रतिष्ठित कवि बन सकता है। भारतीय समाज, राजनीति और अर्थनीति में दक्षिणपंथ का जो विजय-अभियान चल रहा है, उसकी अभिव्यक्ति साहित्य में भी हुई। लेकिन इस अभियान को विश्वसनीयता तब मिली जब वामपंथ के नेता नामवर सिंह ने घूम-घूमकर अज्ञेय की महिमा का बखान करना और उन्हें विगत अर्धशती का ‘सबसे बड़ा’ कवि बताना शुरू कर दिया। इस प्रकार हिंदी में दक्षिणपंथ के सामने वामपंथ के आत्मसमर्पण का दृश्य संपूर्ण हुआ। स्वाभाविक रूप  से,शरणागत की मुद्रा में सामने आए वामपंथी नेता की आवाभगत हुई और साल बीतते न बीतते इसका इनाम भी उन्हें मिला। नामवर सिंह के प्रिय कथाकार काशीनाथ सिंह को साहित्य अकादमी पुरस्कार देने का धुर वामविरोधियों का निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि हिंदी में वाम प्रतिरोध की धारा का सौदा किया गया है। यह पुरस्कार ‘रेहन पर रघ्घू’ नामक एक ऐसी किताब के बहाने मिल सका जिसे काशीनाथ सिंह के समर्थकों ने भी बुढ़भस का नमूना मानकर भूल जाना ही उचित समझा था। महिलाओं के प्रति अपमानजनक दृष्टिकोण के साथ लम्पटों में प्रचलित मुहावरों का चटखारे ले-लेकर इस्तेमाल उनके इधर के लेखन की विशेषता बन चुका है। हाल ही में प्रकाशित ‘महुआ चरित’ नामक कहानी भी इसी मानसिकता के कारण साहित्य जगत में क्षोभ का विषय बनी हुई है। बहरहाल, साहित्य अकादमी के लिए भी ऐसे नाशुक्रे लेखक को पुरस्कृत करने का निर्णय ‘गुनाह बेलज्जत’ ही मालूम पड़ता है, जो अब खुद ही गला फाड़-फाड़कर कह रहा है कि यह पुरस्कार तो उसे दस साल पहले मिल जाना चाहिए था। पिछले साल जब उदय प्रकाश को यह पुरस्कार मिला था तो यही बात हिंदी जगत में व्यापक रूप से महसूस की गई थी, जबकि उनकी उम्र 60 से भी कम थी। इधर काशीनाथ सिंह 75 की उम्र में इसे हथियाने के बाद खुद ही चीख-पुकार मचाने में लगे हैं ताकि लोग जान जायं कि वे भी लंबे समय से इसके दावेदार थे। जैसे इस दावेदारी की वजह का किसी को पता ही न हो।

किस्सा कोताह यह कि विगत वर्ष हिंदी की दुनिया समारोही तो रही लेकिन ‘जजमान की जय हो’ की भावना ही बलवती रही। पण्डे-पुरोहितों की बहार रही। कहानी, कविता, उपन्यास, आलोचना में लीक से हटकर किसी ऐसी कृति की आहट नहीं सुनी गई जो बरबस ही ध्यान खींच ले। यह इन पंक्तियों के लेखक की सीमा भी हो सकती है। साहित्यकारों के बीच थोड़ी बहुत सक्रियता अन्ना हजारे के लोकपाल ने भी पैदा की लेकिन साल बीतने के साथ ही वह पटाखा भी फुस्स हो गया। सबक यही मिला कि सक्रियता अच्छी बात है लेकिन आलोचनात्मक विवेक के साथ हमें अपने प्रिय नायकों और विचारों पर सवाल उठाने और बहस करने का प्रयत्न करना चाहिए। इन सवालों का महज रस्मी स्वागत करने से भी काम नहीं चलेगा। इसी प्रक्रिया में हमारी जड़ता टूट सकती है और इस अग्निपरीक्षा से गुजरकर कुंदन की तरह निखरे हुए वे विचार और नायक  मिल सकते हैं जो हमारे साहित्य और समाज को अगली मंजिल तक ले जाने की क्षमता रखते हों।