Monday, January 2, 2012

2011: साहित्य के आईने में

 ( बीते वर्ष 2011 की महत्वपूर्ण साहित्यिक गतिविधियों पर यह टीप ख्यात आलोचक डॉ. कृष्णमोहन की है. )


हिंदी साहित्य में वर्ष 2011 की एक ऐतिहासिक घटना शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आस्माँ’ का प्रकाशन रही। मूल रूप से उर्दू में लिखे गए इस उपन्यास का रूपांतर स्वयं लेखक ने पंक्ति-दर-पंक्ति कराया है, इसलिए इसे पढ़ते हुए हिंदी की लगभग मौलिक कृति का आभास होता है। उन्नीसवीं सदी के पूवार्द्ध को अपना मुख्य विषय बनाने वाले इस ऐतिहासिक उपन्यास में तत्कालीन भारत की राजनीतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक सच्चाई कुछ इस कदर जिन्दा हो गई हैं कि इसे पढ़ते समय हम उस युग में ही जीने लगते हैं। छपते ही यह उपन्यास सुरुचि सम्पन्न पाठकों के बीच चर्चा का विषय बन गया और इसकी बढ़ती हुई मांग के कारण दुकानों पर इसकी नई खेप का आना, यानी इसकी उपलब्धता भी एक सूचना की तरह फैलती रही। बनारस में तो विद्यार्थियों के बीच यह कथन ही प्रचलित हो गया कि यह पहली किताब है जिसे पढ़ते पहले हैं, खरीदते बाद में है। यानी, किसी से मांग कर पढ़ लेने के बाद उसे अपने पास रखने के लिए खरीदते हैं। लगभग सात सौ पचास पृष्ठों के उपन्यास के सजिल्द संस्करण की कीमत (475 रू0, पेंग्विन प्रकाशन) को देखते हुए यह कोई मामूली बात नहीं। समीक्षकों ने भी आम तौर पर इसे विश्व-साहित्य के गौरवग्रंथों के समतुल्य माना। उल्लेखनीय यह भी है कि हिंदी की त्रिमूर्ति कहे जाने वाले नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेई ने इस उपन्यास पर अपना चिरपरिचित ‘गरिमामय’ मौन बनाए रखा और इस तरह अपनी प्राथमिकताओं और प्रासंगिकता की खबर दी।

जिस वजह से इस साल चर्चा-परिचर्चा का बाजार गर्म रहा वह है हिंदी-उर्दू के कुछ प्रसिद्ध रचनाकारों की जन्मशती का इसी साल पड़ना। फै़ज़ अहमद फै़ज़, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, भुवनेश्वर, गोपालसिंह नेपाली और मजाज लखनवी के जन्म के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में समारोहों की धूम रही। पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले। खूब समां बंधा। ऐसा लगा कि हम अपने रचनाकारों को भूले नहीं हैं, क्योंकि उन्हें भूलने वाली कौमों का कोई भविष्य नहीं होता। बहरहाल, समारोही मानसिकता के तहत होने वाले इन आयोजनों में नए विचार किसी की प्राथमिकता में नहीं दिखे। जिसके नाम पर मौका मिला उसे सबसे प्रासंगिक बताने की रस्म अदायगी ही ज्यादा होती दिखी। अपवादस्वरूप अगर किसी ने इन माननीय रचनाकारों की पुनर्व्याख्या करने या इनकी एकाध कमी दिखाने की कोशिश भी की तो अन्य महानुभावों ने उससे कतराकर निकलने का सुरक्षित रास्ता अपनाना ही ठीक समझा।

सर्वानुमति के इस पाखंड को थोड़ा बहुत खरोंच अज्ञेय के बहाने हुई चर्चाओं से लगी। अज्ञेय को लेकर एक बिल्कुल नया मूल्यांकन सामने आया। एक नमूना देखें। ‘कथादेश’ के सितम्बर 2011 अंक में अशोक वाजपेई अज्ञेय के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- ‘जिस प्रवृत्ति को हिन्दी में नई कविता कहा जाता है उसको पूरी जटिलता और बहुलता में रूपायित करने में अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर की भूमिका केन्द्रीय और निरपवाद थी। अग्रणी तो इसमें यानी इस भूमिका में अज्ञेय रहे पर बाकी दो ने भी अपने काव्य-व्यवहार और आलोचनात्मक चिन्तन से नई कविता परिसर बनाने-पोसने में बड़ा योगदान किया।’ मुक्तिबोध और शमशेर पर ‘बढ़त’ हासिल हो जाने के बाद शेष दो कवियों नागार्जुन और त्रिलोचन को अलग-थलग करने की विलक्षण युक्ति देखें- ‘अगर अज्ञेय मुक्तिबोध, नागार्जुन और त्रिलोचन के प्रतिलोम हैं तो मुक्तिबोध अज्ञेय, नागार्जुन और त्रिलोचन के और शमशेर नागार्जुन, त्रिलोचन और अज्ञेय के। यह अलक्ष्य नहीं किया जाना चाहिए कि वैचारिक साम्य या वैषम्य के बावजूद तीनों ही नागार्जुन और त्रिलोचन के प्रतिलोम हैं, परस्पर एक दूसरे के प्रतिलोम होने के साथ।’ हिन्दी के पांच बड़े कवियों के बारे में इसी प्रकार के आप्तवाक्य उच्चरित करते हुए अशोक वाजपेई ने अपनी स्थापनाएं दी हैं। एक और नमूना देखते चलें- ‘अज्ञेय में कालबोध और युगबोध दोनों ही प्रबल हैं, मुक्तिबोध में युगबोध प्रबल-प्रखर है पर कालबोध न्यून है। शमशेर के यहां ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ के चलते, कालबोध प्रबल है पर, कुल मिलाकर, युगबोध शिथिल।’

दिलचस्प है कि अज्ञेय की स्थापना के इस तर्कातीत अभियान का प्रभाव जबर्दस्त पड़ा। हिंदी में सक्रिय, कलावाद से लेकर हिंदुत्ववाद तक के समर्थक रंग-रंग के दक्षिणपंथियों में यह उम्मीद जग गई कि अब उनका अपना कवि ही आजाद भारत का सबसे प्रतिष्ठित कवि बन सकता है। भारतीय समाज, राजनीति और अर्थनीति में दक्षिणपंथ का जो विजय-अभियान चल रहा है, उसकी अभिव्यक्ति साहित्य में भी हुई। लेकिन इस अभियान को विश्वसनीयता तब मिली जब वामपंथ के नेता नामवर सिंह ने घूम-घूमकर अज्ञेय की महिमा का बखान करना और उन्हें विगत अर्धशती का ‘सबसे बड़ा’ कवि बताना शुरू कर दिया। इस प्रकार हिंदी में दक्षिणपंथ के सामने वामपंथ के आत्मसमर्पण का दृश्य संपूर्ण हुआ। स्वाभाविक रूप  से,शरणागत की मुद्रा में सामने आए वामपंथी नेता की आवाभगत हुई और साल बीतते न बीतते इसका इनाम भी उन्हें मिला। नामवर सिंह के प्रिय कथाकार काशीनाथ सिंह को साहित्य अकादमी पुरस्कार देने का धुर वामविरोधियों का निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि हिंदी में वाम प्रतिरोध की धारा का सौदा किया गया है। यह पुरस्कार ‘रेहन पर रघ्घू’ नामक एक ऐसी किताब के बहाने मिल सका जिसे काशीनाथ सिंह के समर्थकों ने भी बुढ़भस का नमूना मानकर भूल जाना ही उचित समझा था। महिलाओं के प्रति अपमानजनक दृष्टिकोण के साथ लम्पटों में प्रचलित मुहावरों का चटखारे ले-लेकर इस्तेमाल उनके इधर के लेखन की विशेषता बन चुका है। हाल ही में प्रकाशित ‘महुआ चरित’ नामक कहानी भी इसी मानसिकता के कारण साहित्य जगत में क्षोभ का विषय बनी हुई है। बहरहाल, साहित्य अकादमी के लिए भी ऐसे नाशुक्रे लेखक को पुरस्कृत करने का निर्णय ‘गुनाह बेलज्जत’ ही मालूम पड़ता है, जो अब खुद ही गला फाड़-फाड़कर कह रहा है कि यह पुरस्कार तो उसे दस साल पहले मिल जाना चाहिए था। पिछले साल जब उदय प्रकाश को यह पुरस्कार मिला था तो यही बात हिंदी जगत में व्यापक रूप से महसूस की गई थी, जबकि उनकी उम्र 60 से भी कम थी। इधर काशीनाथ सिंह 75 की उम्र में इसे हथियाने के बाद खुद ही चीख-पुकार मचाने में लगे हैं ताकि लोग जान जायं कि वे भी लंबे समय से इसके दावेदार थे। जैसे इस दावेदारी की वजह का किसी को पता ही न हो।

किस्सा कोताह यह कि विगत वर्ष हिंदी की दुनिया समारोही तो रही लेकिन ‘जजमान की जय हो’ की भावना ही बलवती रही। पण्डे-पुरोहितों की बहार रही। कहानी, कविता, उपन्यास, आलोचना में लीक से हटकर किसी ऐसी कृति की आहट नहीं सुनी गई जो बरबस ही ध्यान खींच ले। यह इन पंक्तियों के लेखक की सीमा भी हो सकती है। साहित्यकारों के बीच थोड़ी बहुत सक्रियता अन्ना हजारे के लोकपाल ने भी पैदा की लेकिन साल बीतने के साथ ही वह पटाखा भी फुस्स हो गया। सबक यही मिला कि सक्रियता अच्छी बात है लेकिन आलोचनात्मक विवेक के साथ हमें अपने प्रिय नायकों और विचारों पर सवाल उठाने और बहस करने का प्रयत्न करना चाहिए। इन सवालों का महज रस्मी स्वागत करने से भी काम नहीं चलेगा। इसी प्रक्रिया में हमारी जड़ता टूट सकती है और इस अग्निपरीक्षा से गुजरकर कुंदन की तरह निखरे हुए वे विचार और नायक  मिल सकते हैं जो हमारे साहित्य और समाज को अगली मंजिल तक ले जाने की क्षमता रखते हों।

3 comments:

रामजी तिवारी said...

आपने जिस विषय को उठाया है ,वह महत्वपूर्ण है लेकिन पूरे वर्ष की गतिविधियों के नहीं समेटता |काश इसका और विस्तार होता..|

pallav said...

कहाँ छपी यह टीप?

Ek ziddi dhun said...

एक तरह से यह साल हिंदी साहित्यकारों में व्यापक एकता का रहा। अज्ञेय को लेकर भी औऱ अन्ना को लेकर भी कलावादी, दक्षिणपंथी, प्रगतिशील और क्रांतिकारी खासे एकजुट दिखाई दिए। औरतों को लेकर अश्लील टिप्पणियां साहित्यिक boldness का तमगा बन चुकी हैं। फिर अस्सी घाट का लेखक...