[ सत्यमेव जयते का पहला 'सीजन' समाप्ति की ओर है. 'विजुअल मीडिया' की आलोचना के दो ही आसन हैं : पहला 'क्या खूब !' और दूसरा ' सब कूड़ा है' का भाव. हुल्लड़बाजी पसन्द की जा रही है और पैसे के दिखावे वाले चकाचौंध से पगलाए स्वनामधन्य आलोचक यह समझ ही नहीं पाते कि जिसे जनता अति पसन्द करती है ( सन्दर्भ : दबंग सिनेमा, तमाम धारावाहिक आदि ) उसकी भी आलोचना सम्भव है क्या ? 'पॉपुलर एलेमेंट' और 'पॉपुलर अप्रोच' में फर्क न जानने वाले इन अतिचर्चित विषयों की आलोचना से घबरा जाते हैं.
प्रस्तुत आलेख सत्यमेव जयते के शुरुआती चार सिलसिलों की सुघढ़ आलोचना है. जिन मुद्दों को, यूफोरिया में बँध कर, हम हवा में उड़ा दे रहे थे और फेसबुक गोंज रहे थे, उन पर 'तूलिका' का यह आलेख पर्याप्त रौशनी डालता है. 'फेसबुक काल' के चलन से उलट यह लेख लम्बा और सूचना - परहेजी है. ]
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सत्यमेव जयते : टी.वी. शो, कुछ सवाल, कुछ संदेह
मध्यवर्ग के अलावा पढ़े लिखे और बुद्धिजीवी तबके के बीच भी 'सत्यमेव जयते' को लेकर उत्साह काबिले-तारीफ है. जब हिंदू अखबार का सोमवार का एक कॉलम और बी.बी.सी. का एक पेज भी जब इस कार्यक्रम पर केंद्रित दिखा तो लगा कि स्टार प्लस के इस कार्यक्रम को गहराई में देखना और समझना चाहिए. पहली बार देखा तो काफी प्रभावित हुई. आमिर खान की मुद्दों को लेकर गम्भीरता, बिना किसी अतिरिक्त ताम-झाम के प्रस्तुति का सीधा और सटीक तरीका, बेबाकीपन, पीड़ितों के साथ दयामिश्रित सहानुभूति की जगह स्वाभाविक मानवीय सहयोग. बेहद तार्किक तरीके से मसले की एक-एक परत को जतन से अलग करता हुआ. सनसनी के इस दौर में जब दर्शकों में रोमांच पैदा करना समस्या केंद्रित कार्यक्रमों का पहला लक्ष्य होता है, इस तरह पीड़ित और समाज के रिश्तों को समझने की कोशिश सुकून देती है. साथ ही मध्यवर्ग के बीच आम तौर भुला दिए गए विषयों पर कम से कम बात करना भी, आज के दौर में बड़ी हीबात है.
पर कुछ ऐसा था जिसकी कमी लग रही थी ,कुछ था जो बिना किसी शेार-शराबे के इस सुकूनदेह कार्यक्रम में भी पूरी तरह नहीं खुल रहा था. पहला एपीसोड कन्या भ्रूण हत्या पर केंद्रित था, दूसरा बच्चों के यौन उत्पीड़न पर, तीसरा दहेज और चौथा चिकित्सा जगत की गड़बड़ियों पर. सारे ही हमारे सामाजिक ताने-बाने के लिए बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे.
कन्या भ्रूण हत्या का ग्राफ हाल की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक अब तक का सबसे खराब रिकॉर्ड है- प्रति 1000 लड़कों पर मात्र 914 लड़कियाँ. राजस्थान, हरियाणा, पंजाब ,मध्य-प्रदेश, तमिलनाडु वो राज्य हैं जिनकी हालत शोचनीय है. बच्ची और उसकी मां होने का अभिशाप कितना भयावह हो सकता है, समाज की प्रचलित परंपराएं कितनी वीभत्स स्थितियां पैदा कर सकती हैं इस बारे में कार्यक्रम बेहद संवेदनशील और मानवीय दिखा. कार्यक्रम में इसके कानूनी पक्ष का भी एक हद तक तार्किक विश्लेषण दिखा.
जो बात लगातार साल रही थी वह यह कि लोग संवेदित तो हो रहे थे पर ऐसा लग रहा था मानो सामाजिक कुरीतियों के प्रति मध्यवर्ग की लापरवाही या ऐसा ही कुछ है जो इन सबके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है हमारा समाज जिसमें लड़कियों में पूरी तरह जान पड़ने से पहले ही हत्या करने का चलन चल पड़ा हो , बच्चों का भयानक यौन शोषण, सबसे महफूज जगह उनके अपने घर में ही हो रहा है, करोड़ों का दहेज देश के लगभग हर हिस्से की सच्चाई हो, बीमारी और ईलाज सबसे फायदे का धंधा साबित हो रहा हो उसकी नब्ज मात्र संवेदना और नेकनीयति से तो नहीं पकड़ी जा सकती है. यह जानना बेहद जरूरी है कि वह समाज किन नियमों से संचालित होता है, या उस संचालन की प्रत्यक्ष और परोक्ष की ताकतें कौन सी हैं. इनके आर्थिक-सामाजिक निहितार्थ क्या हैं ? पूंजी की वह कैसी रफ्तार है जो ऐसी व्यवस्था को न सिर्फ चलाने में सहयोग दे रही है बल्कि इस तरह के नित नए सामाजिक प्रयोगों को शुरू करके इसे लगातार और मजबूत भी करती जा रही है.
कार्यक्रम में यह साफ था कि भ्रूण हत्या के लिए जिम्मेदार तबका गरीब या ग्रामीण आबादी नहीं है बल्कि इनमें से अधिकांश शहरों के पढ़े-लिखे संभ्रांत लोग हैं. मतलब शिक्षा से इसका कोई सीधा लेना-देना नहीं है. फिर आखिर जड़ है क्या? यह बात तो समझ में आती है कि लड़कियां अवांछित हैं पर क्यों? जब देश में कानूनन बराबरी मिली है, योजनाएं आगे बढ़ने के मौके दे रही हैं ,अतिरिक्त राजनीतिक अधिकार ऐतिहासिक गैरबराबरी को मिटाने में सहयोग दे रहे हैं फिर भी इतनी घृणा क्यों ? जवाब शायद सत्ता के ढांचों में है. व्यवस्था की फायदा उन्मुख नीति शक के घेरे में आती है.
सत्ता अपने मूल चरित्र में कम से कम तबकों की भागीदारी कराना चाहती है. वे वर्ग जिनकी हजारों सालों से मुख्यधारा में किसी भी किस्म की सीधी हिस्सेदारी नहीं रही हैं उनकी वास्तविक बराबरी के सवाल से भी परेशानी तो आएगी ही. गरीब कमजोर ,दबाए गए दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिला, बूढ़े, बच्चे सभी इस श्रेणी में आते हैं, अंतर उनकी सत्ता के लिए खतरा बनने की डिग्री का है. मतलब सत्ता की मूल अवस्थिति को बरकरार रखने के लिए चुनौती स्वरूप खड़े तबकों के एक छोटे हिस्से की भागीदारी कराकर उनके बीच वर्गीय खाका खड़ा करना और साथ ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मुनादी पीटना. इसमें जैसे-जैसे कोई तबका एक, दो या तीन समूहों में कोई शामिल होता जाएगा उसकी स्थिति बद से बद्तर होती जाएगी. मसलन गरीब, दलित-आदिवासी महिला या छोटी बच्ची शोषण के लिए सर्वाधिक सुलभ तबका है. अधिकारों से इनकी ही सर्वाधिक दूरी रहेगी.
आमतौर पर तो आर्थिक पेचीदगी ही इस स्तरीकरण का आधार है पर जब इस पेचीदगी में लैंगिक आयाम जुड़ता है तो स्थिति ज्यादा जटिल हो जाती है. कन्या भ्रूण को दुनिया में, परिवार में आने से रोकने के पीछे भी संभवतः यही सच्चाई मूल रूप से काम करती है. कोई नहीं चाहता कि उसके आस-पास, घर-परिवार में सत्ता से दूर के लोग बसें. क्योंकि भविष्य के ये लोग उनके खुद के सत्ता-संबंधों को परिभाषित करेंगे. शहरी नव संभ्रांत वर्गों के बीच सर्वाधिक घटने वाली ये सच्चाई उनकी ताकत को दीर्घकालिक और टिकाऊ बनाने की कोशिश की नजर से देखा जा सकता है. नई तकनीकों तक इनकी सुलभ पहुंच है. नए पैसे ने नई महत्वाकांक्षाएं पैदा की है. महिला को असलियत में आज तक इस देश की नागरिक का दर्जा हासिल नहीं मिला है. न्याय,पुलिस जैसी संस्थाएं अपनी मूल संकल्पना में सत्ता के ढांचों की सुरक्षा के लिए हैं तो स्वाभाविक रूप से उसी के हित के लिए कार्य करेंगी.
आमिर खान के इस पूरे कार्यक्रम के दौरान जो एक चीज नदारद थी वह थी : मूल कारण (ओं )की शिनाख्त. कानून बनाने में सत्ता को कभी भी बहुत परेशानी नहीं होती है. ऐसा भी नहीं कि व्यवस्था किसी भी कानूनी मांग को तुरंत ही बिल्कुल सहजता से मान लेती है, क्योंकि अनेकों बार देखा गया है कि किसी भी शासन के हित से सीधे-सीधे न जुड़ने वाले कानून को लागू कराने में कितनी दिक्कत आई है. फिर चाहे वह घरेलू हिंसा निरोधक कानून हो या फिर अभी भी लटका लोकसभा और राज्य सभा में महिला आरक्षण विधेयक. पर फिर भी कानून बना देना अपेक्षाकृत आसान रास्ता है जिससे सरकार की जन और लोकतंत्र पक्षधर छवि भी पुख्ता होती है और मूलभूत सवालों को पूछते तबकों को थेाड़ी देर के लिए चुप कराने का बहाना भी मिल जाता है.
कन्या भ्रूण हत्या के लिए जो फास्ट ट्र्रैक कोर्ट बनाने की बात है उसे मान लेने में सरकार को कोई बहुत दिक्कत नहीं आने वाली है. इसके पहले भी विभिन्न मसलों पर फास्ट ट्रैक कोर्ट बने हैं उनसे कितने मामले निपटे हैं इसे भी देखने की जरूरत है. लिंग जांच के लिए दोषी डॉक्टरों पर कार्रवाई की तो बात आई पर उन बड़े -बड़े अस्पतालों के मालिकों का क्या? हम और आप तो जिम्मेदार होंगे पर राष्ट्रीय चिकित्सा संस्थान जैसी तमाम प्रशासनिक संस्थाओं की जवाबदेहियों का क्या ? स्वास्थ्य मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय जैसे मंत्रालयों के आकाओं का क्या ? उस राजनीति का क्या जो खुद ही लड़की को देश का नागरिक मानने से पहले उसे बेटी, मां, और बहन की परिभाषाओं से पहचानती हो. जहां लड़की का अर्थ किसी न किसी पुरूष से रिश्ता होता है वही उसकी पैदा होने वाले दिन की पहचान है और वही अंतिम दिन की। तो जब आमिर खान यह कहते हैं कि ‘भारत माँ अपनी बेटियों के खून से लाल हो चुकी है’,तब मध्य वर्ग बेतरह संवेदित तो होता है पर इसके निहितार्थ कहीं गहरे उसी व्यवस्था को पुख्ता करते है जिसमें कन्या अपने भ्रूण के चरण से जीवन के हर स्तर पर समाज के लिए अपनी पहचान के साथ अवांछित ही रहती है.
देश को जब माँ का दर्जा मिल गया तब बेटे सपूत हुए जो उसकी लाज बचाने के लिए कुर्बानी देते हैं पर बेटियां उसी श्रेणी क्रम में द्वितीय स्तर की नागरिक होंगी. इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए बेटे इनके लिए कानून बनाएगें जिन्हें इन बेटियों को मानना पड़ेगा क्योंकि बेचारे बेटों पर तो पहले ही मां की लाज बचाने की जिम्मेदारी है तो पहली जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए बेटी उन बेटों की राह में रोड़ा कभी नहीं बनना चाहेगी और खुद ब खुद ‘सहयोगी’ या दूसरे शब्दों में द्वितीय स्तरीय भूमिका में आ जाएगी. समाज की मुख्यधारा के लिए इस ‘बोझ’ को उठाने की अनिच्छा स्वाभाविक है.
गौरतलब है कि कार्यक्रम के दौरान ही बात सामने आई कि आदिवासी या बेहद गरीब समुदायों में यह चलन बेहद कम देखने को मिला. स्वाभाविक है उन समुदायों में वे पुरूषों की ही तरह समुदाय की संपदा हैं जिनकी जरूरत समुदाय को उनकी उत्पादन और पुनरूत्पादन क्षमता दोनों के नाते है. वर्चस्व पर आधारित तथाकथित सभ्य समाज में सारा जतन तो इस बात के लिए होता है कि कैसे सत्ता में कम से कम हिस्सेदारी हो.
ठीक इसी तरह जब बच्चों के यौन शोषण का मामला आता है तो फिर से मसले को हमारी और आपकी कमजोरी के तौर पर दिखाया जाता है जहां हम अपने बच्चों की रक्षा नहीं कर पाते ,उनका भरोसा नहीं जीत पाते और न ही उन पर भरोसा कर पाते हैं. यह बात सच है पर हम इस समस्या को समझें, सुलझाएँ कैसे इसका कोई रास्ता नहीं. समाज के कुछ लोग हैं जो ऐसा करते हैं पर समाज उन्हें बेहद सामान्य तरीके से स्वीकारता कैसे है इसकी कोई शिनाख्त नहीं. हर कोई अगर ईमानदारी से अपने आस-पास के लोगों का विश्लेषण करे तो बेहद आसानी से उसे वे शक्लें दिख जाएंगी जो इस तरह की न जाने कितनी घटनाओं को अंजाम देती हैं पर सर्वमान्य तौर पर उन पर कोई बात भी नहीं करना चाहता है.
पूरे एपीसोड में सुरक्षात्मक आयाम ही दिख रहा था कि कैसे इस तरह की घटनाओं को होने से रोकें. समाज के इस चेहरे को बेनकाब करने की कोई इच्छा नहीं दिखी. ऐसे लोगों को समाज बर्दाश्त नहीं करेगा यह स्वर लगभग नदारद था. पीड़ित बच्चों के प्रति आंसू बहाते लोग तो दिखे पर यह जानने की कोशिश नहीं दिखी कि क्या अब भी उन लोगों का उन घरों में आना जाना है. ताकत पर आधारित हमारी सामाजिक संरचना में आम तौर पर ये लोग परिवार के भीतर इज्जत और रसूख वाले लोग होते हैं. तो क्या हकीकत खुलने के बाद सजा के साथ-साथ इनका सामाजिक निष्काषन एक रास्ता नहीं हो सकता. मां बाप और बच्चों में दूरी कम होनी चाहिए यह बात तो समझ में आती है पर कैसे यह नहीं दिखा. मामला यहाँ भी सत्ता समीकरण का है जिसे बच्चे भी समझते हैं. सही मायने में दूरी कम करने की बात ऐसे ही महज सदिच्छा से तो संभव नहीं. इस विषय में कठोर कानून तो होना ही चाहिए पर क्या कोई मां बाप अपने ही पिता, भाई के खिलाफ सामाजिक, आर्थिक हैसियत आदि के बहुतेरे संबंधों और हितों के रहते कोई कदम उठा पाएंगे.
दहेज पर केंद्रित कड़ी - देश भर में दहेज की अलग-अलग शक्लों में फैला यह रोग इतना आम है कि इसमें लोगों को संवेदित करने के लिए बहुत अवकाश नहीं था. लोगों की संवेदना के कुंद होने की ही बात नहीं है. वास्तव में जब कार्यक्रम के दौरान लड़कों से यह कहा जाता है कि ‘कहां गई आप लोगों की खुद्दारी कि आप लड़की वालों से दहेज लेंगे’ तो चाहे-अनचाहे उसी मर्दानगी को धिक्कार दूसरे तौर पर गौरवगान है जिसके नाते लड़का होना अपने आप में सबसे बड़ी दौलत होना होता है, जिसकी कीमत दहेज के तौर पर लगती है. एक ऐसा समाज जो लड़की के पैदा होने के दिन से ही उसे दूसरे की अमानत मानता हो और पराए धन का कन्यादान उसके तारण का रास्ता हो, वहां महिला की दोयम स्थिति से जुड़ी अनेकोनेक परंपराएं और रीतियां शर्तिया आम होंगी. पूरे कार्यक्रम के अंत में जब दर्शकों से उनकी राय पूछी गई तो जवाब था कि हमें अपने मां-बाप के पैसे से शादियों में ताम-झाम नहीं करना चाहिए बल्कि लड़का-लड़की अपने पैसों से जो चाहे वो करें. मतलब विवाह में पैसे तो खर्च होंगे ही यह बात तो तय है ही हां लड़के-लड़की अपने पैसे खर्च करें तो कोई दिक्कत नहीं. विवाह को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण चरण तो मान ही लिया गया जहां से विशेष तौर पर लड़की के नए जीवन की शुरूआत होती है. विवाह से पहले के 25-30 सालों को महज इस दिन की तैयारी मानें. जब पढ़ाई,नौकरी या दूसरी अन्य घटनाओं की तरह जीवन का एक चरण न मानकर नया जीवन मानने लगते हैं तो व्यवहार,उम्मीदें,दिनचर्या,महत्वाकांक्षाएं सब कुछ इस दूसरे एपीसोड के मुताबिक चलने की स्वाभाविक मांग होती है.
चौथी कड़ी में डॉक्टरों और अस्पतालों के मरीजों के प्रति गैरसंवेदनात्मक, मुनाफाखोर प्रवृत्ति की ओर संकेत था. जिसके नतीजे में कभी-कभी मरीज की मृत्यु भी हो जाती है. अस्पतालों, डॉक्टरों, मेडिकल काउंसिलों के रवैये को काफी बेबाकी से दिखाने की कोशिश की गई पर अंत में जो सवाल पूछा गया उसमें प्राइवेट कंपनियों की दवाईयों के साथ-साथ ‘जेनरिक’ मेडिसिन की दुकानों के खोलने पर केंद्रित था ताकि लोगों को सस्ती दवाइयां मिल सकें. सरकार की जवाबदेही के बारे में कोई बात नहीं, निजी कंपनियों की दवाइयों के मनमाने दाम पर नियंत्रण पर कोई विचार नहीं, निजी अस्पतालों के मनचाहे कायदों और फीस पर किसी प्रभावी सरकारी पहल की अपील आदि का कोई जिक्र नहीं.
यह कार्यक्रम एन.जी.ओ. और निजी कंपनियों के सहयोग से बना / जुड़ा है. ‘सत्यमेव जयते’ के लोगो के उपर एयरटेल और नीचे एक्वागार्ड का लोगो, मानो सत्य की जीत की एयरटेल के ‘एक्स्प्रेस योरसेल्फ’ और एक्वागार्ड के ‘ग्लोबल रीच लोकल सॉल्यूशन’ के रास्ते ही संभव है. जहां व्यक्ति की आत्माभिव्यक्ति का अधिकार वहीं तक है जहां तक वह व्यवस्था पर प्रश्न न करे, फैशनेबल तरीके से विकास ,बदलाव और सभ्यता की बात करे, कुल मिलाकर इंसान के व्यैक्तिक अहम् की पुष्टि हो. जैसे ही उसकी बात सामाजिक ढांचों या भोजन-पानी जैसे ‘पिछड़े किस्म’ के मुद्दों की राजनीति पर होने लगेगी वहीं से परेशानी शुरू हो जाएगी.
कार्यक्रम की हर कड़ी के अंत में किसी न किसी एन.जी.ओ. के खाते में रकम डालने का अनुरोध किया जाता है जिसे रिलाएंस फाउंडेशन दोगुना करेगा. बाजार के मद्देनजर निजी कंपनियों का इतना हस्तक्षेप तो स्वाभाविक ही है , यह तर्क चहुंओर व्याप्त है. निजी सहयोग केा नकारने को कहना तो बहुत ज्यादा मांग कही जाएगी पर यह बात भी निःसंदेह उतनी ही सच है कि इनके सहयोग के बल पर बदलाव की उम्मीद और दिशा हमेशा उतनी ही संदेहास्पद रहेगी.
रिलाएंस इस कार्यक्रम का सामाजिक बेहतरी ( फिलॉंथ्रोपी) का पार्टनर है. वही रिलाएंस जो तेल शेाधन और सेवा क्षेत्र की देश की इस दौर की शीर्ष कंपनियों में से एक है. इसके प्रमुख मुकेश अंबानी देश के सबसे अमीर आदमी हैं. पर आखिर सामाजिक स्तर पर इस तरह की तब्दीली से रिलाएंस का क्या हित सधेगा? तो एक जो मोटी बात समझ में आती है, वह यह है कि अकूत संपत्ति का मालिक बनने के बाद अब वह एक जन कल्याणकारी कंपनी की छवि चाहता है, जैसा जिन्दल छतीसगढ़ में कर चुके हैं / कर रहे हैं. वहाँ अच्छी सड़कों को देखते ही 'लोकल' आदमी आपकी जिज्ञासा कुछ इस तरह शांत करता है - यह जिन्दल की सड़क है. यह छवि सत्ता के समीकरणों में सक्रिय सहयोग को और मजबूत करेगा और सामाजिक स्वीकारोक्ति की और चौड़ी राह खोलेगी इसके साथ ही भविष्य के सारे असंतोष को खुद ही मंच देकर उसकी धार और दिशा को पीछे से नियंत्रित करने का बेहद सुगम तरीका.
इसमें व्यवस्था की किसी भी इकाई को अंततः क्या परेशानी होगी ? हां तात्कालिक तौर पर सरकारी तंत्र, कुछ अपेक्षाकृत छोटे उद्योग-समूहों ,क्षेत्रीय स्तर के सामाजिक-राजनीतिक समूहों को कुछ समस्याएं आ सकती हैं. पर ये ऐसे समूहों की बात है जिन्हें बड़ी पूंजी के चलन के अनुसार एक हद के बाद अपने को बदलना ही होगा. राज्य और केंद्र स्तर पर सरकार के साथ विभिन्न कंपनियों का ‘जन-कल्याणकारी’ जुड़ाव इसी ओर का कदम है. स्वास्थ्य,शिक्षा,विकास आदि योजनाओं का एन.जी.ओ. के माध्यम से क्रियान्वयन और सामाजिक पहल का चलन 90 के दशक से ही महिला समाख्या जैसी योजनाओं के आने से शुरू हो गया था. उसके बाद तो लगभग सभी क्षेत्रों के समाज उन्मुख दायित्वों के निर्वाह की जिम्मेदारी सरकारों ने बेहद सहूलियत के साथ निजी हाथों को उनके बड़े-बड़े कर्जों को माफ करते हुए,बेहद नाम मात्र की दर से जमीनों और खनिजों का सौदा करते हुए बांट दी.
इस तरह निजी कंपनियों और तमाम गैर सरकारी संगठनों ने भारतीय समाज की बेहतरी का बीड़ा उठाया है. मुनाफा केंद्रित विकास और सभ्यता की दिशा में, समाज का कौन सा स्वरूप भविष्य का ज्यादा बेहतर उपभोक्ता हो सकता है, मानवीय मूल्यों का कौन सा स्तर बाजार के वर्तमान या ज्यादा टिकाऊ स्वरूप को नैतिक वैधता दे सकता है, यही एकमात्र प्रस्थान और प्रस्थापना बिन्दु हैं. ऐसे में किसी व्यक्ति या समूह की मंशा पर संदेह की बात ही नहीं है, बात है सामाजिक बदलाव के मॉडल और उसके रास्ते की, प्राथमिकताओं की और इन सबसे जरूरी जो बात है वह यह है कि जिन समस्याओं को अब तक आम समाज भी व्यवस्था की कमियों के रूप में देखता था उन्हें उनकी कड़ियों से अलग-थलग करके देखना.
दहेज या कन्या भ्रूण हत्या को व्यवस्थागत स्तर पर महिला की दोयम दर्जे की स्थितियों के नतीजे के तौर पर न देखते हुए उसे महज सामाजिक समस्या मानते हुए उसके हल के लिए मध्य वर्ग की नैतिकता को झकझोरने की कोशिश. व्यव्स्था के मूल ढांचे को बगैर छेड़े उसकी नई तकनीकों से मरम्मत की वकालत. इस तरह के सुकून भरे रास्ते से रिलाएंस के सहारे बदलाव की कोशिश शहरी मध्यवर्ग के लिए अपने अस्तित्व की पुष्टि एक नया और आसान रास्ता है जिसके सहारे के रूप में मुकेश और नीता अंबानी नए युग के प्रणेता के बतौर मुस्कुराते हुए खड़े हैं.
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तूलिका. इलाहाबाद के विश्वविद्यालयी जीवन के दौरान आईसा की सदस्य. अब एप्वा ( AIPWA - ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेंस अशोसिएशन ) के साथ.
सम्पर्क : tulikaaipwa@gmail.com