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सुनील: युवा लेखन का यह दौर भले ही किसी चर्चित आंदोलन की उपज नहीं रहा है लेकिन इसका जैसा उभार हुआ है और समकालीन रचनाक्रम में हस्तक्षेप बढ़ा है उससे आपको क्या ऐसा लगता है कि इसके अंतस में कहीं कोई आंदोलन है ?
राकेश: कोर्इ भी लेखन का
दौर किसी खास सामाजिक राजनैतिक स्थितियों की ही उपज होता है। यदि राजनैतिक स्थिति
पर देखें तो सोवियत संघ का विघटन इस पीढी के लिए रिमार्केबल घटना है। परिघटना ने
राजनैतिक रूप से सचेतनता की परिभाषा बदल दी। असिमता परक आन्दोलनों का उभार हुआ और
नवसामाजिक आन्दोलन के नाम से एक राजनीतिक प्रक्रिया का भी जन्म हुआ। वर्ग, जाति और जेन्डर
के पुराने मापदण्ड और प्रतिबद्धताएँ टूटी और उसकी जगह समाज को देखने समझने की एक
भिन्न दृष्टि सामने आयी जिसमें यथार्थ के इकहरेपन से मुक्ति का स्वर ज्यादा है। यह
जो नर्इ पीढी है, अपने समय के यथार्थ को ज्यादा जटिल तरीके से अभिव्यक्त कर
पा रही है क्योंकि समय का यथार्थ भी जटिलतर हुआ।
२ सुनील: नई कहानी के टीकाकारो
ने कहा कि नई कहानी आंदोलन की उपज में पूर्ववर्ती कथा लेखन का विरोध रहा है. युवा
लेखन के इस प्रबल हस्तक्षेप में भी ऐसी कोई बात रही है ?
राकेश: विरोध से ज्यादा
महत्व पूर्ववर्ती कथा लेखन को समझ कर उसे आगे बढाने में है। ऊपर हम जिस राजनीतिक
परिदृश्य की बात कर रहे थे उसका असर हमारे पूर्ववर्ती कथाकारों के लेखन में
दिखार्इ देना शुरू हो जाता है। यदि कहीं कोर्इ विरोध है भी वह यथार्थ के समझने के
नजरियें में है जैसे- सूचना हमारे समय का एक बड़ा यथार्थ है और इस नए यथार्थ के
कारण हमारे वैयक्तिक और सामाजिक सम्बन्धों में हमारी भाषा में एक उल्लेखनीय बदलाव
हुआ। इस यथार्थ को नही समझ पाने के कारण जो लोग इस पीढी को फैसनेबल और बाजार
समर्थक कहते हैं उनसे हमारा विरोध है और मैं यह मानता हूँ कि यह विरोध जायज है।
३ सुनील: जैसा कि होता आया
है हर काल खंड में एक नया लेखन उभर कर आता है तो पहले प्रश्नांकित किया जाता है
फिर आरोप लगते हैं. आपके पीढ़ी के साथ भी यहीं हुआ. कहा गया कि नई कहानी की नकल है,
कि इनमें मँजी हुई जीवन दृष्टि का अभाव है, कि ये लोग बाल की खाल निकालने तक विषय
उधेड़ रहे है और फैशनेबल प्रस्तुति कर के कथ्य को खा जा रहे है. बात यहाँ तक भी आ
गई कि यह पीढ़ी उदय प्रकाश के हस्तमैथुन का परिणाम है. इस परिप्रेक्ष्य में अपने और
अपने पीढी के कथा संसार के बारे में क्या कहना चाहेंगे ?
राकेश: ये आरोप तो तमाम
कथा पीढियों पर लगते रहे हैं क्योंकि यह मानव समाज की विशेषता है कि वह नयेपन को
जल्दी बर्दाश्त नहीं कर पाता। हमारी पीढ़ी के साथ थोड़ा अजीब इस मामलें में हुआ कि
पहले तो तमाम लोगों ने इस हाथों-हाथ लिया। बहुत दिनों तक इसका श्रेय भी लेने की
कोशिश करते रहे कि हमनें इस पीढी को पहचाना और बढाया लेकिन उन्होंने जैसे यह महसूस
करना शुरू किया कि इस पीढी के सरोकार उनसे जुदा हैं और बढे हुए हैं और यह भी कि
इनका एक अपना स्वयं का पाठक वर्ग तैयार हो रहा है। इन पहलुओं को समझने के लिए
आलोचकों को अपने पुराने मापदण्ड बदलने पड़ रहे है, तब उन्होनें इसे
खारिज करने की कवायदे शुरू की, लेकिन जल्द ही उनके फतवे बेचारे अर्थहीन और हास्यास्पद हो
गए क्योंकि यह पीढ़ी किसी के आशीर्वाद और शुभेच्छाओं से नहीं बलिक बदलते यथार्थ के
गहरे दबाव से निकली थी।
सुनील: पूर्ववर्ती कथा
लेखन में स्त्री को बचाने की, उसे आदर देने की बात होती रही है लेकिन इस दौर के
लेखन में स्त्री खलनायिका बन कर भी उभरी है क्या यह सच में आज का यथार्थ है,
स्त्री की पहचान या फिर भ्रम की स्थिति ?
राकेश: यह तो आज सभी
मानेंगे कि स्त्री को बचाने और आदर देने की कोशिशें किन्हीं अर्थो में स्त्री के
प्रति अन्याय और छल ही है। सही दृषिटकोण तो बदलते सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य
में स्त्री के व्यक्तित्व में आए परिवर्तन को समझने का है। यहाँ उसके नायिका या
खलनायिका होने का सवाल नहीं है और न ही किसी के नायक या खलनायक होने का है। जिस
जटिल यथार्थ की बात ऊपर हम कर चुके हैं, हमारे समय की कहानियों में आए पात्र उस जटिलता के
प्रतिबिम्ब है, स्त्री की या अन्य किसी अस्मितावादी छवि को उसके महिमा
मंडित आवरण में गढ़ना एक रचनात्मक छल है।
सुनील: हर दौर के लेखन
में कोई खास आग्रह एक प्रवृति की तरफ ले जाता है, किसी दौर में अगर ना भी ले गया
हो तो खास प्रवृति की तरफ इशारा तो करता ही है इस दौर के लेखन में कोई खास आग्रह
है ? लेखन की गतीशीलता के लिए कोई भी आग्रह कितना सही होता है ?
राकेश: आग्रह तो होता ही
है और हर समय में यह अपने समय के सच को समझने का होता है। हमारी पीढ़ी में भी यह
आग्रह है और यदि इसे प्रवृत्ति कहना चाहे तो जटिलता इसकी प्रवृत्ति है। लेकिन यह
जटिलता साग्रह नहीं है बलिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने का सबसे मौजूद तरीका है।
सुनील: स्वांत: सुखाय ,कला कला के लिए, वैयक्तिक स्वतंत्रता और सरोकार युक्त लेखन मोटे तौर पर ये कुछ
प्रकिया है जिसके तहत कोई रचनाकार अपनी बात कहता है ? आपको इन प्रक्रियाओं में कही
कोई विरोध नजर आता है ? या फिर इन प्रक्रियाओं में कौन सी प्रक्रिया सबसे
विश्वसनीय नजर आती है. आप और आपकी पीढी इनमें से किस प्रक्रिया के जरिए अपनी बात
कह रही है ?
राकेश: कला, कला के लिए तो एक
मनुष्यता विरोधी अवधारणा है। कोर्इ भी कला या साहित्य समाज का ही प्रतिबिम्ब होता
है और उसका उदेश्य भी समाज को कुछ सार्थक प्रतिदान देने में ही निहित है। स्वांत:
सुखाय भी मॉडेस्ट किस्म का छलावा है। सरोकार युक्त लेखन भी अपने पुराने सन्दर्भो
में एक पिछड़ी विवेचना है क्योंकि हम सायास किसी घटना या पात्र को अपनी सदाशयता के
हिसाब से खड़ा कर देते हैं। मुख्य बात है कि हमारे समय के तेजी से बदलते हुए
यथार्थ को समझना उसके ‘डीप नैरेशन’ को सामने लाना और यदि यह कोशिश हम र्इमानदारी
से करते हैं तो सरोकार अपने आप स्पष्ट हो जाते हैं।
सुनील: शुरू में आप की
पीढ़ी के बारे में यह भी कहा गया कि यह पीढ़ी राजनीतिक रूप से उतनी सचेत नहीं है ?
अगर बात सही है तो क्या ऐसा होने में देश के अंदर जो राजनीतिक शून्यता की स्थिति
है उसका परिणाम है या राजनीति इस पीढ़ी के लिए कोई मायने नहीं रखता ? राजनीति की
बात उठी है तो यहाँ इस बात पर गौर करना वाजिब होगा कि जे.पी आंदोलन के बाद अन्ना
हजारे और केजरीवाल ने राजनीतिक शून्यता को भरने की कोशिश की है ? आप इस बात से
कितना इत्तेफाक रखते है ? इस आंदोलन से क्या इस दौर का लेखन अपनी किसी खास
राजनीतिक विचारधारा के लिए ललाइत होगा या इसे जेनरल तरीके से लिया जाएगा ?
राकेश: राजनीति से
तात्पर्य यदि हमारे देश के भीतर विभिन्न राजनीतिक दलों के उठा-पटक से है या अन्ना
हजारे, केजरीवाल जैसे राजनीतिक बुलबुलों से है तो यह समझना चाहिए
कि यह पीढी ज्यादा सचेत और सक्षम-दृष्टि सम्पन्न है क्योंकि समूचा विश्व जिस तरीके
से एकध्रुवीय हुआ है, बाज़ार की विकल्पहीनता का ऐसा शोर उठा है, साभ्यतिक संघषो का ऐसा छदम
वातावरण निर्मित हुआ है, राष्ट्र-राज्यों और उसके नागरिकों के बीच उसकी खार्इ इतनी
तेज हुर्इ है और यह सब कुछ इन दस से पंद्रह सालों मे इतनी तेजी से हुआ कि इसे समझ
पाना किसी गहरे राजनीतिक दृष्टि से ही सम्भव है। यह दृषिट हमारी पीढी के पास है।
इसलिए अब यह आरोप लगाने वाले इन कहानियों की पुर्नव्याख्या में लगे हैं और कहीं न
कहीं मानने भी लगे हैं कि इन पुराने तौर-तरीकों को बदलने होंगे।
सुनील: आपकी की कहानियों
की बात की जाय तो आप पर बार-बार खुद को दोहराने के आरोप लगे है कि आप कैंपस
बैकग्राउंड की प्रेम कहानियाँ लिखते है, कि कहानियों में त्रिकोण प्रेम की स्थिति बनी रहती है, कि आप के चरित्र उच्च
शिक्षा से आते है आदी. क्या यह आरोप सही है या आपको ठीक से देखा नहीं गया है और यह
कहने के लिए कहा गया है ? क्योंकि लालबहादुर का इंजन, गाँधी लड़की, आंबेडकर हॉस्टल
और अभी तद्भ्व में हालिया प्रकाशित कहानी राज्य परिवार और संपति में उपर्युत
आरोपों से इतर बात है. लेकिन एक बात तो सही है कि आप ने कैंपस बैकग्राउंड में
अपेक्षाकृत ज्यादा प्रेम कहानियाँ लिखी है. क्या यह आपकी कोशिश सयास है ? किस
नजरिए से आप इसे पूरे परिप्रेक्ष्य को देखते हैं ?
राकेश: कैंपस का यथार्थ
भी कोर्इ इकहरा यथार्थ नहीं होता। गहरे अर्थों में देखें तो कैंपस का जीवन सामाजिक जीवन का एंटीडोट होता है। केवल कैंपस का जिक्र आ जाने भर से वह कैंपस यथार्थ की कहानी नहीं हो जाती या
दो-तीन कहानियों में कैंपस आ जाने से वह दोहराव नहीं हो जाता है। क्या हम गाँव की
कर्इ कहानी लिखने वाले कहानीकार को ग्रामीण यथार्थ के दोहराव का कहानीकार कहते है।
मेरा अधिकांश जीवन कैंपस में बीता है और जिस पेशे में मैं हूँ और उसमें सम्भवत:
बीतेगा भी। इसलिए यह लाजमी है कि मेरी कुछ कहानियों में कैंपस का जिक्र
प्रमाणिकता से आयेगा। यह सयास नहीं है लेकिन जिस यथार्थ से आप सबसे ज्यादा परिचित
होते हैं उसका चित्रण तो आपकी कहानियों में होता ही है। अभी मै और भी कैंपस आधारित
कहानियाँ लिखूँगा क्योंकि मुझे लगता है कि इस यथार्थ को समाज के बाहर के एक यथार्थ
के रूप में देखने की जरूरत है।
सुनील: आत्मानुभूति,
स्वानुभूति, सहानुभूति, और प्रमाणिकता ये ऐसे आधार है जहाँ से कोई रचनाकार अपने
रचना श्रोत को देखने की कोशिश करता है आप इनमें से किस पर अपना हाथ रखते है ?
राकेश: ये कोर्इ अलग-अलग चीजें नही हैै या इन में कोर्इ आत्यांतिक परस्पर विरोध भी
नहीं है। आप जब कोर्इ कहानी सोचते हैं तो उस कहानी की बहुत पतली महीन लकीर आपके
सामने होती है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है वैसे-वैसे आपकी इन तमाम प्रक्रियाओें
में सच आपके सामने आते हैं। कहानी बनने की प्रक्रिया लगभग घर या खाना बनाने जैसी
प्रक्रिया ही होती है जिसमें यदि चीजें सही अनुपात में हो तो वह चीजें खूबसूरत हो
जाती हैै। कलात्मक हो जाती है।
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सुनील:दलित आंदोलन, स्त्री आंदोलन से मुख्यधारा के इस युवालेखन को काट कर देखा जा रहा है. ऐसा क्यों ? आप इन दोनों आंदोलन से कितना जुड़ा हुआ महसूस करते है.
राकेश: यह दोनो आंदोलन
हमारे समय के सच हैं और उससे कटने की तो बात ही नहीं। हमारी पूरी पीढ़ी का
परिदृश्य इन विमर्शो में लिख रहे लेखकों को साथ लेकर बनता है। क्या हम युवा लेखन
से अजय नावरिया को या अंजली काजल को अलग कर सकते हैं। कविता स्त्री विमर्श का लेखन
करती है तो क्या वह हमारी पीढ़ी में नही है। हम इन विमर्शो की परिभाषाओं को चुनौती
नहीं देते है लेकिन अपनी कहानियों में इनके यथार्थ को सामने लाने की कोशिश करते
हैं। इनके पीछे एक और प्रवृति है कि हमारे जो साथी इन विमर्शों के माध्यम से
पहचाने गए वें भी अब अपने आपको सिर्फ कहानीकार के तौर पर पहचाना जाना पसंद करते
हैं। यह एक बदली हुर्इ स्थिति है और पूरे परिदृश्य को इसी बदलते परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है।
सुनील: इस युवा लेखन के एक दसक से ज्यादा का वक्त हो गया है, मोटे
या सूक्ष्म स्तर पर क्या कोई ऐसी बात कहीं गई है जो अब तक के हिंदी लेखन में नहीं
कहा गया है ?
राकेश: इसकी पड़ताल तो
हमारे दौर के आलोचक कर रहे हैं लेकिन व्यकितगत रूप से हमारा मानना है कि हमारी
पीढ़ी के लेखकों के पास इतने कम समय में दो या चार ऐसी कहानियाँ है जो सिर्फ अभी
ही अच्छी कहानी नहीं, बलिक हिंदी साहित्य के इस समय की अच्छी कहानियाँ है। यह एक
सुखद सिथति है और हमें अपने विकास पर संतुष्ट होना चाहिए।
सुनील: क्या इस दौरान कुछ भ्रम रचे गए है, कुछ जड़ता आई है,
इसने अपना एक वैचारिक आधार तैयार कर लिया है या यह दौर अपनी सही दिशा में जा रहा
है ?
राकेश: कुछ आलोचक और पत्रिकाएँ पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर कुछ सनसनीखेज आरोप लगाते
हैं या समूचे युवा लेखन को खारिज करने की कोशिश
करते हैं लेकिन इस बदलते यथार्थ का दबाव और आग्रह इतना ज्यादा है कि इन
कहानियों से परे जाकर समय के सच को समझने की कोर्इ भी कोशिश इकहरी होगी।
सुनील: अपनी पीढ़ी के रचना
क्रम से आपको कोई शिकायत है ? अपनी पीढ़ी में किन- किन रचनाकारो को पढ़ना पसंद करते
है ? जिसे पसंद करते है उनकी रचनाओं में कोई खास बात और जो आप को अच्छे नहीं लगते
उनकी कमी क्या है ?
मुझे अपने समय के यथार्थ को इकहरे तरीके से व्यक्त करनेवाली रचनाएँ पसंद नहीं आती। मुझे वह काहनियों भी
अच्छी नहीं लगती जो सूचना को यथार्थ के तौर पर न देखकर एक फैशन तलब तौर पर देखती
है। सिर्फ रोजमर्रा की बात करने वाले या फिर एक वाक्य या घटनाओं से सोíेश्य किसी आग्रह
पर पहुंचने वाली रचनाएँ भी मुझे अच्छी नहीं लगती। यथार्थ की जटिलता को जटिल तरीके
से व्यक्त करनेवाली कहानियाँ मुझे आकर्षित
करती है। अपने पूर्ववर्ती लेखकों में उदयप्रकाश, अखिलेश, मनोज रूपड़ा पंकज
मित्र योगेन्द्र आहूजा और अपने साथ लिखने वालों में नीलााक्षी, कुणाल, चंदन, मनोज, विमल, वंदना, सत्यनारायण, गीत चतुर्वेदी, अजय नावरिया और
आशुतोष जैसे और भी कर्इ लेखक मुझे अच्छे लगते हैं। मैं अपने आप को इन सबके साथ ही
देखता हूं। इनकी भी कर्इ कहानियाँ अच्छी नहीं लगती तो उनसे बात करता हूं। असहमति
दजऱ् कराता हूं। इस मामले में हमारी पीढ़ी ज्यादा लोकतांत्रिक और उदार है।
सुनील: कुछ रचनाकार समीक्षा आलोचना को टेढ़ी नजर से देखते है कुछ
इसे बहुत जरूरी मानते है. मार्कण्डेय ने एक बार कहा था कि नई कहानी को छोड़कर किसी
भी कथा प्रवृति पर ठीक से बात नहीं हुई है और नाहीं उन पर प्रमाणिक किताबे आई है,
यहाँ तक की प्रेमचंद पर भी. क्या इस पीढ़ी
के साथ आलोचना के स्तर पर अच्छा काम हो रहा है या सिर्फ़ आलोचना के नाम पर लफ़्फ़ाजी
भर हो रही है ?
यह इस पीढ़ी के साथ एक अच्छी बात है कि इसके साथ ही आलोचकों की एक पीढ़ी
तैयार हो रही है। पहले के आलोचकों में जहाँ विजय मोहन सिंह, अजय तिवारी, खगेंद्र ठाकुर, सूरज पालीवाल और
शंभू गुप्त जैसे आलोचकों ने इस पर गंभीरता से लिखा वहीं कृष्णमोहन, प्रियम अंकित, अजय वर्मा, भरत प्रसाद, वैभव सिंह, राहुल सिंह, अरूणेश शुक्ल, पल्लव, राकेश बिहारी
जैसे युवा आलोचकों की पूरी पीढ़ी तैयार हो गर्इ है जो उसी पीढ़ी की कहानियों से
अपना मुख्य आलोचनात्मक जुड़ाव रखते हैं। यह एक उल्लेखनीय सिथति है और इसमें शिकायत
की कोर्इ बहुत ठोस वजह नहीं दिखती है।
……….
राकेश मिश्र : सुप्रसिद्ध कहानीकार।
सुनील : युवा कवि।