Sunday, December 29, 2013

मोहम्मद आमिर प्रसंग : मुझको दयार-ए-गैर में मारा वतन से दूर

( कायदन इस खंड का शीर्षक "उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता" होना था. परंतु आमिर प्रसंग बेधक है, इसलिए ग़ालिब का यह शे'र मौजूँ लगा. आमिर के अलावा यह मेक्सिको की सैर जैसा भी है. )

साढ़े पांच बजे नींद खुल गई. तकरीबन चालीस घंटे के जागरण, जिसमें स्वान निद्रा सरीखी दो चार झपकियाँ शुमार हो सकती हैं, के बाद इन साढ़े पांच घंटों की नींद इतनी गझिन थी की होश में आने की प्रक्रिया में आँखें खुलकर देर तक छत को और खिड़की से आ रही पीली रौशनी  की फांक को नीहारती रहीं. शरीर जी इतने शिथिल थे, मानो उनके सभी हिस्सों का प्राण ऊपर आकर आँखों भर में सिमट गया हो. इस बीच जो पहला सवाल कौंधा, वो ‘यह कहाँ?’ का था. चेतना ने एक झटके में बीते दिन की पूरी यात्रा दुहरा ली और और उत्तर मिला, ‘मैक्सिको, मैक्सिको सिटी’. जल्दी से फ्रेश होकर मैं होटल के बाहर आया, अब तक सिर्फ पढ़े और फिल्मों और कल्पनाओं में देखे शहर से दीदार के लिए.

आसमान का रंग सुबह के आसमान के रंग का ही था, लेकिन यह सोचते ही कि यह सुबह पूरब के सभी देशों को पार करती हुई यहाँ पहुँची है, सुबह बासी लगने लगी. हवा फिर भी उतनी ही ताजी और मौसम का मिजाज भारत के बंगलूरु जैसा. दिन का नाम इतवार.

मेरी रिहाइश की जगह का नाम रेफोर्मा है, जो दिल्ली के कनाट प्लेस की तरह मैक्सिको सिटी के बीचोबीच बसा हुआ है. ‘रेफोर्मा’ शब्द का अर्थ रिफार्म यानी सुधार होता है. रेफोर्मा के केंद्र में ‘एल आंखेल दे ला इन्दिपेंदेंसिया’ यानी ‘स्वतंत्रता की परी’ नामक एक ऊंचा स्तम्भ है, जिसके शीर्ष पर वाकई एक परी की सुनहरी प्रतिमा स्थापित है. स्तम्भ के चारो ओर मैक्सिको के स्वतंत्रता संग्राम में अहम् भूमिकाएं निभाने वाले नायकों, जिनमें मैक्सिको के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले मिगेल इदाल्गो समेत अनेक नाम शामिल हैं, की मूर्तियाँ लगी हुई हैं. थोड़ी और तफसील में जाएँ तो बताना होगा कि इस मोन्यूमेंट का निर्माण सन १८१० में शुरू हुए मैक्सिकन स्वतंत्रता संग्राम की सौवीं वर्षगाँठ के अवसर पर कराया गया था. संक्षिप्त रूप में इसे ‘एल आंखेल’ बोलते हैं. १६ सितम्बर १९११ को हुए अपने अनावरण के बाद से एल आंखेल मैक्सिको के सैकड़ों राजनीतिक एवं सामजिक आन्दोलनों का केंद्र रहा है, जो कि इस क्षेत्र के नाम ‘रेफोर्मा’ के अनुरूप भी है.
एल आंखेल के मोन्यूमेंट को केंद्र बनाकर चारों दिशाओं में सड़कें जाती हैं. इन्हीं में से किसी न किसी सड़क पर आते जाते मुझे इस देश को जानना-समझना और चंद महीने बिताने थे/हैं. इनमें से चारो मुख्य सड़कों के ऊपर सामने की ओर पड़ने वाले किसी महत्वपूर्ण स्थान का नाम लिखा दीखता है. एक दिशा की ओर जाती सड़क पर ‘गांधी’ लिखा दिखता है, जो गांधी नाम की किसी जगह, या म्यूजियम या मोन्यूमेंट की ओर इशारा करता है, अभी मुझे नहीं पता. इनमें से किसी सड़क पर आगे जाते हुए उनसे जो दूसरी सड़कें फूटती हैं उनके नाम विश्व-प्रसिद्ध नदियों के नाम पर दीखते हैं. उन अन्य नदियों, माने अन्य सड़कों के नाम, रिओ लेरमा, रिओ नियाग्रा, रिओ वोल्गा, रिओ पो, रिओ हडसन आदि हैं. थोड़ी और दूरी तय करने पर रिओ गान्खेज यानी गंगा नदी नामक सड़क भी दीखती है. जिसके देखे जाने के साथ ही वहां भारत देश से जुड़ी किसी और चीज या स्थापना मिलने की उम्मीद जागी. उत्सुकतावश आगे बढ़ा तो पाया कि सड़क की संज्ञा के सिवाय वहां और कुछ भी भारत का या भारत जैसा नहीं था. अच्छी खासी टहल कर मैं ८ बजे के आस पास वापस एल आंखेल पहुंचा तो सैकड़ों की तादाद में लोग दिखे. नीले टीशर्ट और निकर पहने. कहना न होगा की भीड़ में पुरुष और महिलाओं की तादाद लगभग बराबर की थी. ‘एल आंखेल’ से ठीक सामने की ओर जाने वाली सड़क को सामान्य यातायात के लिए बंद कर दिया गया था. और यदि उस पर किसी की आवाजाही थी तो सिर्फ एक जैसी दिखने वाली साइकिलें चला रहे ढेर सारे लोगों की. अलस्सुबह उधर से गुजरने पर वह साइकिलें सड़क किनारे करीने से खड़ी दिख रही थीं. कुछ देर अचरज से लोगों की गतिविधियाँ देखने, फिर उनसे पूछने पर पता चला की यह सायकिलें सरकारी योजना के तहत शहर के विभिन्न हिस्सों में उपलब्ध कराई गयी हैं, जिनके प्रयोग के लिए कुछ सुरक्षा राशि देकर वार्षिक सदस्यता ले लेनी होती है. कहीं से कहीं तक जाने के लिए अपने सदस्यता कार्ड की मदद से आप पार्किंग से एक सायकिल उठाते हैं और शहर के जिस दूसरे हिस्से में आपको जाना है, के आस पास की पार्किंग में आप उसे खड़ी कर देते हैं. मैक्सिको सिटी में इतवार का दिन साइकिल प्रेमियों के लिए उत्सव वाला होता है. एल आंखेल के सामने वाली यह सड़क तकरीबन हर इतवार को दोपहर तक इन सायकिल प्रेमियों के हक़ में सामान्य यातायात के लिए बंद रहती है. खेल-कूद से जुड़े उपकरण एवं ड्रेस, नाश्ते, सॉफ्ट और एनर्जी ड्रिंक्स की छोटी छोटी दुकानें सज जाती हैं. दोपहर में, उत्सव के समापन के समय साइकिल प्रेमियों का समूह आम सहमति से सुधार की संभावना वाला कोई विषय चुनता है, उसके लिए थीम के तौर पर कोई रंग चुनता है, और निर्धारित रविवार को लोग उसी रंग के कपडे पहन कर साइकिलिंग के लिए उपस्थित होते हैं. यूं, इस साइकिल उत्सव में साइकिल के माध्यम से विभिन्न करतब दिखा सकने में दक्ष लोग प्रतियोगिताएं भी करते रहते हैं.

इतने तक की जानकारी मुझे खुद की आँखों से देख लेने के अवाला इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले प्रतिभागियों के माध्यम से अलग अलग किश्तों में मिली. मुझे लगा कि सरकार यदि वाकई इतनी संवेदनशील है कि वह जनता के स्वास्थ्य और राष्ट्रीय ऊर्जा के संरक्षण के नजरिये से साइकिलिंग जैसी चीज को प्रोत्साहित कर रही है, तो लोग यहाँ राजनैतिक अराजकता से अपेक्षाकृत कम ही त्रस्त होंगे. लेकिन इस बात की दूसरे कई पैमानों पर पड़ताल किये बिना ऐसी धारणा बना लेना सही नहीं था. मुझे एहसास था कि मैं मैक्सिको के उस हिस्से में खडा हूँ जहां के हालात देखकर पूरे देश की स्थिति का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. कोई भी देश चावल की पतीली नहीं, जिसमें से एक भाग की सख्ती- नरमी देख कर बाकी के हिस्से की असलियत का अंदाजा लग जाये. पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के समय में तो और भी.

अब तक विभिन्न देशों के रूट वाली उड़ानों से चलकर मेरे ऑफिस के और भी सहकर्मी मैक्सिको सिटी में आ चुके थे, जो कि हमारी कंपनी की योजना थी. कुल ग्यारह लोगों की टीम को आना था, जिनमें से दो-दो, तीन-तीन के समूह को अलग अलग रूट की उड़ानों के माध्यम से दिल्ली से रवाना किया गया था. मेरे साथ वाली उड़ान में पीयूष और भावेश नामक साथी भी सवार थे. इस तरह टीम को अलग-अलग टुकड़ों में भेजने के पीछे कंपनियों का मकसद यह होता है कि किसी भी रूट के किसी एक विमान के साथ कोई दुर्घटना होने की स्थिति में कंपनी को कुछ ही कर्मचारियों का नुकसान हो और प्रायोजित काम और अंततः संभावित मुनाफे पर असर भी कम हो. वैश्विक स्तर की कंपनियों में उच्च प्रबंधन के किन्हीं दो सदस्यों को एक उड़ान से नहीं भेजा जाता, कारण, जाहिर तौर पर यही होता है.

खैर, मैं वापस होटल पहुँचते ही रिसेप्शनिस्ट से पूछा कि मोहम्मद आमिर नामक व्यक्ति होटल में चेक इन कर चुके हैं या नहीं? उसने हाँ में सिर हिलाते हुए आमिर का कमरा नंबर बता दिया. मैंने पिछली रात ही आमिर को मेरे बगल का कोई कमरा देने की सिफारिस की थी, जिस पर उन्होंने अमल भी किया था. अगर अपने पांच वर्ष से कुछ अधिक के पेशेवर जीवन की बात करूँ, तो आमिर मेरे बचपन का दोस्त है. जीवन की प्रायिकता के अंतर्गत एक सुखद संयोग यह, कि हम इस नयी कंपनी में भी एक साथ आ गए. नए देश में भी.

यात्रा से जुड़ा आमिर का अनुभव मेरी तुलना में अधिक ही कड़वा रहा, और स्पष्ट हुआ कि अपनी हरेक फिल्म के साथ विदेशी मुद्रा में बेशुमार कमाई करने वाले करन जौहर साहब की ‘माय नेम इस खान’ को या तो अमेरिकी सरकार के अधिकारियों ने देखा ही नहीं, या फिर देखकर भी उसे यथोचित सम्मान देते हुए उपहास मात्र के योग्य फिल्म ही समझी. मतलब शायद आप समझ ही गए होंगे. यात्रा के रूट में आमिर को न्यूयार्क में रुकते हुए आना था. अमेरिकी सरकार ने आमिर को अपने देश का वीसा भी दे रखा था, और आमिर को न्यूयार्क एअरपोर्ट के भीतर ही रहकर मैक्सिको सिटी की उड़ान भी पकड़ लेनी थी, लेकिन फिर भी उसे, और सिर्फ उसे ही अतिरिक्त पूछ-ताछ के लिए रोक लिया गया. तकरीबन डेढ़ घंटे तक चले इंटरव्यू में सात-आठ सवालों को ही अलग-अलग, और कई बार वापस उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हुए बीसों बार पूछा गया. सवाल, जैसे कि मैक्सिको क्यों जा रहे हो? कब तक रहोगे? वापस जाओगे न? पक्का जाओगे? आदि... बहरहाल आमिर उनसे छूटने के बाद कुछ ही मिनटों में भाग जाने वाली मैक्सिको सिटी की अपनी उड़ान पकड़कर मैक्सिको आ गया. यह दास्ताँ उसने यह कहते हुए शुरू की, कि यार मेरे अब्बा ने मेरा नाम श्रीकांत दुबे क्यूँ नहीं रखा? मैं अपनी अगली पीढ़ी के लिए तो ऐसा ही कुछ करूंगा. पक्का.

बहरहाल, हम होटल के डाइनिंग हाल में गए और फल, जूस और दूध के साथ कार्न फ्लेक्स मिलाकर कम से कम इतनी मात्रा में तो खा ही लिया कि शाम तक क्षुधा देवी कोई शिकायत न कर सकें. तैय्यारियों के मुताबिक़ हमें पांच दिनों के ऑफिस के काम के बाद सप्ताहांत के दो दिनों का भरपूर प्रयोग इस मुल्क के इतिहास, भूगोल, जैविकता, समाज और संस्कृति जैसी हरेक चीज को भरसक जान लेना था. चूंकि दिन रविवार था, इसलिए उस दिन हमें सिर्फ उसी दिन के बचे खुचे घंटे मिले.

पूछ-ताछ कर हम नजदीकी मेट्रो स्टेशन ‘इन्सुर्खेंतेस’ पहुंचे, जहां हम रूट और टिकट की जानकारी लेने साथ यह भी तय करना था कि वहां से आगे हमें जाना कहाँ है? लेकिन प्रवेश द्वार से अन्दर जाने पर लोगों की बाढ़ के बीच हंगामे का मंजर सामने आया. कुछ न समझ पाते हुए हम बाहर निकलकर वापस जाने का फैसला लेते, इससे पहले ही पीछे और भीड़ जमा हो गयी और हम भीड़ के बीच में कर दिए गए. स्पैनिश आमिर को भी आती थी, इसलिए थोड़ी अश्वस्थि थी कि किसी भी चीज़ के हमारे खिलाफ जाने पर हम दोनों ही उसे जानने समझने और अपने बचाव में सक्षम थे. हंगामे की वजह चाहे जो भी हो, इस अजनबी भूमि पर आने के बाद हमारी स्थिति अभी अंडे से निकले चूजे के जैसी थी, जो आस-पास को अपनी आँखें बड़ी से बड़ी कर बस घूरता जाए और कुछ समझने की कोशिश करे. हालांकि आस पास के लोगों के हाव-भाव से यह साफ़ हो जा रहा था की वे हमारे विदेशी होने को जान ले रहे हैं, लेकिन फिर भी भीड़ के अन्दर हमारे प्रति किसी का व्यवहार खराब नहीं रहा. चंद दस मिनट के बाद स्पष्ट हुआ कि हंगामा मेट्रो का किराया बढाए जाने के विरोध स्वरूप किसी विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा किया जा रहा है. हंगामे का अंत कुछ इस तरह हुआ कि कुछ छात्र टिकट काउंटर के पास खडा होकर लोगों को टिकट खरीदने से रोके हुए थे, और बाकी टिकट जांच की मशीन को बंद कर लोगों को मुफ्त में अन्दर घुसा रहे थे. हमें मेक्सिको सिटी की मेट्रो-प्रणाली के बारे में कुछ भी नहीं पता था, और कुछ पूछने-जानने तक की मोहलत भी न देते हुए भीड़ ने हमें टिकट जांच की मशीन से अन्दर की ओर ठेल दिया.
आगामी तीन चार स्टेशनों पर लोगों के थोड़ी थोड़ी मात्रा में उतरते जाने के बाद हमें एक दूसरे से मुखातिब हो पूछ पाने की मोहलत मिली कि, ‘यूं आगे कहाँ तक?’. सहमति इस पर बनी कि किसी सहयात्री से पूछते हैं कि दिन के बचे खुचे घंटों में हम इस शहर में ऐसा क्या कुछ देख सकते हैं जो उल्लेखनीय हो? हमारे ठीक सामने एक मोहतरमा खड़ी थीं, लेकिन अपने भारतीय संकोच के नाते मैंने बगल में खड़े भद्र पुरुष से बात करनी उचित समझी. कुछेक मिनट तक चले मेरे प्रलाप को किसी गोरी चट्टान की माफिक चुपचाप सुनते जाने के बाद उन्होंने बस एक छोटी सी सलाह दी की हम अगले मेट्रो स्टेशन पर उतर जाएँ. हम उन्हें काफी हद तक खुद के विदेश में होने, और बहुत कम मात्रा के शिष्टाचार के चलते ‘धन्यवाद’ बोलकर अविलम्ब ट्रेन से उतर गए.
स्टेशन, अथवा स्टेशन वाली जगह का नाम ‘सोकालो’ था. सोकालो का अर्थ ‘आधार’ या ‘नींव’ जैसा कुछ ठहरता है. दरअसल मैक्सिको की स्वतंत्रता के बाद किसी समय में इस जगह पर ‘मैक्सिकन स्वतंत्रता’ का प्रतीक-स्तम्भ बनवाने की योजना बनी, जिसका आधार मात्र तैयार हो सका. बाद में चलकर उस आधार को भी नष्ट हो जाना पड़ा, लेकिन उस जगह का नाम ‘आधार’ अथवा ‘सोकालो’ रह गया. क्षेत्र विशेष की ख्याति, उपयोगिता एवं स्थानिक संरचना के मद्देनज़र ‘सोकालो’ शब्द अब तक ‘नगर के मुख्य चौक’ का पर्याय बन चुका है.

भूमिगत मेट्रो से बाहर आते ही हमारी आँखें पल-पल में चौंक जाने लगीं, एक विशाल मैदान के चारो तरफ कम से कम चंद सदी पुराने भव्य स्थापत्य देखकर. मानो अचानक हम बेल्जियम के ब्रूसेल्स या फिर शेक्सपियर की मर्चेंट ऑफ़ वेनिस में व्याख्यायित ऐतिहासिक शहर के बीचोबीच लाकर खड़े कर दिए गए हों. जाहिर तौर पर घूमने-परखने के लिए हमारे पास हरेक दिशा में अपार चीज़ें थीं, लेकिन समय कम. हमने फिर से अपनी यथा स्थिति बताकर किसी मैक्सिकन नागरिक से सलाह लेनी चाही. आमिर ने इस दफा एक युवती से सवाल किया, जिसने न सिर्फ हमें दिलचस्पी के साथ सुना, बल्कि सामने की तरफ लहरा रहे मैक्सिको के ‘बान्देरास मोन्यूमेंताल’ माने  मोन्यूमेंटल फ्लैग के उतारे जाने की प्रक्रिया देखने की सलाह देते हुए हमारा साथ देने को भी राजी हो गयी. हम सोकालो के विशाल मैदान के बीचोबीच खड़े खूब ऊंचे स्तम्भ पर लहराते (तीन रंगों की ऊर्ध्वाधर पट्टियों वाले) मैक्सिकन मोन्यूमेंटल तिरंगे को दूर से घेरे लोगों की ओर बढ़ चले.

तिरंगे के ठीक सामने मैक्सिको का ‘प्लासा दे ला कोन्स्तितुसिओन’ यानी ‘संविधान चौक’ था और दोनों के बीच की तकरीबन दो सौ मीटर की दूरी पंक्तिबद्ध सैनिकों से घिरी थी. लोग सैनिकों द्वारा बनी सीमारेखा के बाहर खड़े होकर प्लासा दे ला कोन्स्तितुसिओन से मैक्सिको के राष्ट्र-ध्वज के बीच के मार्ग पर नज़रें टिकाये हुए थे. प्रतीक्षारत लोगों की भीड़ में हमारे शामिल होने के बाद हम करीब आधे घंटे तक इन्तजार किये, जिसके दौरान हमने उस महिला से उस विशालकाय ध्वज के बारे में बहुत सी जानकारियां लीं. दरअसल यह ध्वज सन १९९९ में यहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति एर्नेस्तो सेदिय्यो द्वारा चलाये गए ‘बान्देरास मोन्यूमेंतालेस’ नामक राष्ट्रवादी कार्यक्रम का हिस्सा था. जिसके तहत देश के विभिन्न, और ऐतिहासिक महत्व की जगहों पर कम से कम ५० मीटर ऊंचे खम्भे के ऊपर कम से कम १४.३ मीटर चौड़ा तथा २५ मीटर लम्बा ध्वज लगाया जाता है. इस कार्यक्रम की देख-रेख मैक्सिको का रक्षा मंत्रालय करता है, तथा हरेक शाम में इन ध्वजों के उतारे जाने की प्रक्रिया देखने लायक होती है. छः बजते ही ‘प्लासा दे ला कोन्स्तितुसिओन’ की तरफ से जवानों की एक टुकड़ी नमूदार हुई, जिसकी अगवानी करने वाला शख्श कोई सेनाध्यक्ष या फिर आला अधिकारी रहा होगा. परेड करते हुए वे बान्देरा मोन्यूमेंताल के पास पहुंचे और सलामी देने के बाद ध्वज को उतारने की कोशिशें शुरू हुई. खम्भे के ठीक नीचे से कुछ जवान रस्सी के सहारे झंडे को नीचे की ओर खिसकाने लगे. साथ ही पचासों जवान झंडे की हवाई परिधि का अंदाज़ा लगाते हुए मैदान में इधर से उधर भागने लगे, इस एक कोशिश के साथ कि झंडा जमीन को न छू सके. सोकालो के ध्वज का खम्भा अंदाजन ७० मीटर से अधिक था, और लम्बाई और चौडाई का अनुपात भी कम से कम ४० गुणे १९ मीटर का रहा होगा. मौसम कितना भी शांत रहे, ७० मीटर की ऊंचाई पर हवा का प्रवाह इतना तो रहता ही है कि वह ध्वज के कपडे में ऊपर से विक्षोभ पैदा करता रहे, नतीज़तन पूरा ध्वज इधर से उधर तक लहराता हुआ नीचे आये. उस दिन हवा कुछ कम ही थी और लगभग १८-२० मिनट की जद्दोजहद के बाद एक सैनिक ने ध्वज का नीचे वाला खुला कोना पकड़ लिया. उसके बाद का काम अपेक्षाकृत आसान हो गया. बाकी सैनिकों ने ध्वज के उस किनारे से लेकर खम्भे तक कतार बना ली और उसे लपेटना शुरू कर दिया. पूरा ध्वज लपेट लेने के बाद वे परेड करते हुए वापस प्लासा दे ला कोंस्तितुसिओं की ओर जाने लगे, जैसे रंग-बिरंगे विशालकाय अजगर को काबू में कर, ले जाया जा रहा हो. इस परिघटना को हमारे साथ खड़ा हो देखने वाली युवती ने बताया कि आंधी तूफ़ान कुछ भी आता रहे, ये जवान ध्वज को हवा में ही पकड़ लेने में हर बार ही कामयाब रहते हैं. ‘अब अंधरा छाने वाला है’ की भंगिमा के साथ जाने की इज़ाज़त लेने से पहले उस युवती ने बताया कि ‘बान्देरास मोंयूमेंतालेस’ कार्यक्रम के अंतर्गत मैक्सिको का सबसे बड़ा ध्वज देश के पूर्वोत्तर में मोंतेर्री नाम की जगह पर लगाया जाता है, जिसके खम्भे की ऊंचाई १००.६ मीटर तथा ध्वज की लम्बाई एवं चौडाई क्रमशः ५० एवं २८.६ मीटर ठहरते हैं. उसके जाते जाते हमने उसका नाम पूछा, जो ‘लौला’ था. लौला हमारे सवाल के लिए आकस्मिक चयन में आ गयी एक युवती भर थी, मतलब उसकी जगह कोई और युवती या पुरुष भी हो सकता था. यूं, देश के एक आम, दुनियादार नागरिक के पास राष्ट्रीय महत्त्व की चीज़ों की इतनी बारीक समझ विस्मित करने वाली थी. भारत में ऐसी डिटेल्स की उम्मीद सरकारी नौकरियों की तैयारी करने वाले या कर चुके लोगों से ही की जा सकती है. और तो दूर, इसी मैक्सिको के सीमावर्ती और तथाकथित सबसे विकसित देश सं. रा. अमेरिका के बारे में पढ़े एक सर्वे के मुताबिक़ वहां के सात में से ४ युवा को यह भी नहीं पता कि अमेरिकी स्वतंत्रता से पहले वहां किस देश का शासन था? बहरहाल, मेरी इस बात का मतलब यह कहीं से नहीं है कि राष्ट्रवादी मूल्य कोई ज़रूरी चीज़ हैं.


आमिर ने तय किया कि वह मैक्सिको का सबसे बड़ा ध्वज देखने मोंतेर्री भी जाएगा, मैंने तय किया कि मैं नहीं जाऊँगा. बाद में हम देर तक खड़े और आसपास टहलते रहे. जब हमने होटल के लिए वापसी का मन बनाया, तब तक सोकालो का मुख्य चौक लोगों से लगभग खाली हो चुका था.

1 comment:

Amit Kumar said...

Kafi vistrit tarike se aapne hume maxico ki sair karai...aage ke dino ka besabri se intjaar rhega...
KAUN KHTA HAI KI SHAHAR KHUD KE HONE SE JANA JAYEGA..
KALAM KI ROSHNAI BHI SHAHAR DIKHATI HAI...