नये जमाने के अनुवादकों में सर्वाधिक याद नाम अशोक पाण्डेय का है, कारण कि उनके अनुवाद हमने पढ़े बहुत हैं. येहुदा आमिखाई की कवितायें, फर्नादो पैसोआ की कवितायें, लॉरा एस्कीवेल का शानदार उपन्यास “लाईक वॉटर फॉर चॉकलेट’’ का अनुवाद (जैसे चॉकलेट के लिये पानी) आदि कुछ ऐसी रचनायें हैं जो तुरंतो एक्सप्रेस की तरह अभी याद आ रही हैं. फिर उनके ब्लॉग कबाड़खाना(नाम से ठीक उलट काम वाला ब्लॉग) पर कविताओं के अनुवाद का जो दौर शुरु हुआ, उसने हम नये लोगों को कई कई स्तरों पर चैतन्य किया. पर अशोक जी को थोड़ी जलन होगी कि यह पोस्ट हम सिद्धेश्वर सिन्ह को समर्पित कर रहें हैं. कबाड़खाना और फिर कर्मनाशा के माध्यम से सिद्धेश्वर जी ने विश्व कविता के मानीखेज हिस्से से हमारा परिचय कराया, जिनमें निज़ार कब्बानी जैसा महाकवि भी शामिल है. सिद्धेश्वर जी लगातार अनुवाद कर रहे हैं. कल उनके द्वारा अनुदित तुर्की कवि ओरहान वेली की कवितायें क्रमश: इन्ही दोनों ब्लॉग पर पढ़ी. मित्र मनोज पटेल ने, उनसे प्रेरित होते हुए कल ही कल में ओरहान वेली की सात चुस्त दुरुस्त कविताओं के अनुवाद कर डाले, जो यहाँ आपके सामने हैं. और हाँ, यह पोस्ट सिद्धेश्वर जी के लिये हो, यह सुन्दर विचार भी मनोज भाई का ही है.
(तुर्की कवि ओरहान वेली को 36 वर्ष(1914-1959) की छोटी उम्र मिली. कम उम्र ही जैसे काफी ना हो कि यह विरल कवि दुर्घटनाओं का भी शिकार हुआ, कोमा में रहा, और जब तक जिया सृजनात्मक लेखन व अनुवाद का खूब सारा काम किया .)
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अपनी मातृभूमि के लिए
क्या कुछ नहीं किया हमने अपनी मातृभूमि के लिए !
किसी ने दी जान अपनी ;
किसी ने दिए भाषण.
हमारी तरह
सोचता हूँ क्या कामुक होते होंगे
सपने किसी टैंक के ?
क्या सोचता होगा
अकेला खड़ा हवाई जहाज ?
क्या गैस मास्क को नापसंद होगा
चांदनी रात में सुनना
एकसुर गान ?
क्या रायफलों को नहीं आती होगी दया
हम इंसानों जितनी भी ?
घर के भीतर
सबसे अच्छी होती हैं खिड़कियाँ :
कम से कम देख तो सकते हैं आप उड़ते हुए परिंदे
चारो तरफ दीवालों को घूरने की बजाए.
शुक्र है खुदा का
शुक्र है खुदा का कि एक और शख्स है इस मकान में,
साँसे हैं
और है किसी के क़दमों की आहट,
खुदा का शुक्र है.
अकेलापन
जो नहीं रहते अकेले जान ही नहीं सकते कभी
कि कैसे खामोशी से पैदा होता है डर,
कैसे बातें करता है कोई खुद से
और भागता फिरता है आइनों के बीच
एक ज़िंदा शख्स की तलाश में
समझ ही नहीं सकते वे सचमुच.
मैखाना
जब मुहब्बत ही नहीं रही उससे
तो उस मैखाने में जाऊं ही क्यों
जहाँ पिया करता था हर रात
उसी के ख्यालों में गुम ?
रास्ता चलते यूं ही
रास्ता चलते यूं ही
अचानक अहसास होता है अपने मुस्कराने का
पागल समझते होंगे लोगबाग मुझे
मुस्कराहट और बढ़ जाती है इस एहसास के साथ.
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6 comments:
आपका और मनोज जी दोनों का आभार ! छोटी कविताएँ और उतनी ही मारक !
bahut achhi kavitayen aur bahut suthra anuvaad bhi...manoj anuvaad mn lagatar achha kam kar rahe hain...shubhkamnayen
शानदार कविताएँ.
बहुत अच्छा लगा पढ़कर.
मनोज जी का चयन और अनुवाद सुंदर है.
ओरहान वेली की कविताओ में जो सटयार स्पेस छोड़ रहा है उसे कई सवालो में भी नहीं भरा जा सकता... मैं पढ़ के काफी रोमांचित हूँ...
ओरहान वेली की कविताओ में जो सटयार स्पेस छोड़ रहा है उसे कई सवालो में भी नहीं भरा जा सकता... मैं पढ़ के काफी रोमांचित हूँ...
wah behatrin kavitayen, shandar anuvad. - k.k.pandey
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