सुप्रसिद्ध अमरिकी कवियत्री माइआ अंज़ालो (Maya Angelou) की इस बेहतरीन कविता के अनुवाद में मनोज पटेल ने बहुत सिर धुना है. वजह है, इस कविता का अंग्रेजी शीर्षक: And Still I rise. समूची कविता में ‘Still I rise’ इतनी इतनी बार दुहराया गया है कि यह बहुलार्थी हो गया है. परंतु अनुवाद के दौरान हमें कोई ऐसा हिन्दी शब्द नहीं मिला जो ‘Still I rise’ में प्रयुक्त ‘rise’ के सटीक बैठे. इस तरह महीनों पहले हुआ इस कविता का अनुवाद कहीं किनारे लग गया.
फिर हमारी मदद को बेंजीन के सूत्र के आविष्कार की घटना ही आई. कहा जाता है कि केकुले( जर्मन वैज्ञानिक) कई सालों तक बेंजीन का सूत्र ढूढ़ते रहे और असफल रहे. फिर एक रात उन्हे स्वप्न आया कि एक सांप उनके दरवाजे से लटका है और एक झटके में अपनी पूंछ को गोल घुमा कर अपने मुँह में दबा लेता है. इसके बाद के किस्से से तो जितना आप परिचित है उतना ही हम भी. और उतना ही मेरा मित्र ‘वीकिपीडिया’ भी.
ठीक इसी तरह एक दिन मनोज जी ने बताया कि उन्होने बार बार दुहराये गये ‘rise’ शब्द को क्रमिक विकास में दर्शाते हुए हर बार Still I rise के लिये नया ध्वन्यार्थ लिये शब्द का प्रयोग किया है. इस तरह यह अनूठी कविता आपके सामने है.
मैं हूँ कि उठती जाती हूँ.
तुम दर्ज कर सकते हो मेरा नाम इतिहास में
अपने तीखे और विकृत झूठों के साथ
कुचल सकते हो मुझे गन्दगी में
लेकिन फिर भी धूल की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.
क्या मेरी बेबाकी परेशान करती है तुम्हें ?
क्यों घिरे बैठे हो उदासी में ?
क्योंकि मैं यूँ इतराती चलती हूँ
गोया कोई तेल का कुआं उलीच रहा हो तेल
मेरी बैठक में.
जैसे उगते हैं चाँद और सूरज
जैसे निश्चितता से उठती हैं लहरें
जैसे उम्मीदें उछलती हैं ऊपर
उठती जाउंगी मैं भी.
क्या टूटी हुई देखना चाहते थे तुम मुझे ?
झुका सर और नीची निगाहें किए ?
आंसुओं की तरह नीचे गिरते कंधे
अपने भावपूर्ण रुदन से कमजोर.
क्या मेरी अकड़ से ठेस पहुँचती है तुम्हें ?
क्या तुम पर बहुत भारी नहीं गुजरता
कि यूँ कहकहे लगाती हूँ मैं
गोया मेरे घर के पिछवाड़े सोने की खदान में हो रही हो खुदाई
तुम शब्दों के बाण चला सकते हो मुझ पर
चीर सकते हो मुझे अपनी निगाहों से
अपनी नफरत से कर सकते हो क़त्ल
फिर भी हवा की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.
क्या मेरी कामुकता परेशान करती है तुम्हें ?
क्या तुम्हें ताज्जुब होता है कि
मैं यूँ नाचती फिरती हूँ
गोया हीरे जड़े हों मेरी जांघों के संधि-स्थल पर ?
इतिहास के शर्म के छप्परों से
मैं उड़ती हूँ
दर्द में जड़ जमाए अतीत से
मैं उगती हूँ
एक सियाह समंदर हूँ मैं उछालें मारता और विस्तीर्ण
जज़्ब करता लहरों के उठने और गिरने को
डर और आतंक की रातों को पीछे छोड़ते
मैं उड़ती हूँ
आश्चर्यजनक रूप से साफ़ एक सुबह में
मैं उगती हूँ
मैं हूँ कि उठती जाती हूँ.
तुम दर्ज कर सकते हो मेरा नाम इतिहास में
अपने तीखे और विकृत झूठों के साथ
कुचल सकते हो मुझे गन्दगी में
लेकिन फिर भी धूल की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.
क्या मेरी बेबाकी परेशान करती है तुम्हें ?
क्यों घिरे बैठे हो उदासी में ?
क्योंकि मैं यूँ इतराती चलती हूँ
गोया कोई तेल का कुआं उलीच रहा हो तेल
मेरी बैठक में.
जैसे उगते हैं चाँद और सूरज
जैसे निश्चितता से उठती हैं लहरें
जैसे उम्मीदें उछलती हैं ऊपर
उठती जाउंगी मैं भी.
क्या टूटी हुई देखना चाहते थे तुम मुझे ?
झुका सर और नीची निगाहें किए ?
आंसुओं की तरह नीचे गिरते कंधे
अपने भावपूर्ण रुदन से कमजोर.
क्या मेरी अकड़ से ठेस पहुँचती है तुम्हें ?
क्या तुम पर बहुत भारी नहीं गुजरता
कि यूँ कहकहे लगाती हूँ मैं
गोया मेरे घर के पिछवाड़े सोने की खदान में हो रही हो खुदाई
तुम शब्दों के बाण चला सकते हो मुझ पर
चीर सकते हो मुझे अपनी निगाहों से
अपनी नफरत से कर सकते हो क़त्ल
फिर भी हवा की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.
क्या मेरी कामुकता परेशान करती है तुम्हें ?
क्या तुम्हें ताज्जुब होता है कि
मैं यूँ नाचती फिरती हूँ
गोया हीरे जड़े हों मेरी जांघों के संधि-स्थल पर ?
इतिहास के शर्म के छप्परों से
मैं उड़ती हूँ
दर्द में जड़ जमाए अतीत से
मैं उगती हूँ
एक सियाह समंदर हूँ मैं उछालें मारता और विस्तीर्ण
जज़्ब करता लहरों के उठने और गिरने को
डर और आतंक की रातों को पीछे छोड़ते
मैं उड़ती हूँ
आश्चर्यजनक रूप से साफ़ एक सुबह में
मैं उगती हूँ
उन तोहफों के साथ जो मेरे पुरखों ने मुझे सौंपा था
मैं उठती हूँ
मैं ही हूँ सपना और उम्मीद गुलामों की
मैं उड़ती हूँ
मैं उगती हूँ
और मैं ही उठती हूँ.
...............................
मैं उठती हूँ
मैं ही हूँ सपना और उम्मीद गुलामों की
मैं उड़ती हूँ
मैं उगती हूँ
और मैं ही उठती हूँ.
...............................
10 comments:
गजब की आत्मविश्वास से भरी हुई कविता है... अनुवाद का उपक्रम जितना दिलचस्प है उतना ही श्रम साध्य... अच्छा लग रहा है... बधाई मनोज भाई को...
स्त्री विमर्श का सम्पूर्ण चित्रण.शुक्रिया ! मनोज जी.
मनोज के अनुवाद की तो दाद दी जाने चाहिये ।
जब तक अनुवादक की कल्पना , कुशाग्रता तथा भाषा में दक्षता मौलिक कवि के साथ इक-सुर न हो, हमें अनुवाद मैं अक्सर कविता की रूह अनुपस्थित लगती है , यही कारण के अक्सर हम अनुवाद से नाखुश रहते है , इसीलिए शायद अनुवाद की प्रक्रिया जटिल और लगभग असंभव मानी जाती है , कविता कई बार उस culture में इतना located होती है के उसे दूसरी भाषा और दूसरे और भिन्न culture में रूपांतरित करना बेहद ज़िम्मेदारी का कार्य होता है , universal themes से deal करने वाली कवितायेँ भी cultural product होती है और इसी तरह बहुत challenges होते है अनुवादक के लिए , सभावता है के अनुवाद के दौरान अनुवादक इस ज़िम्मेदारी के एहसास से भी विमुख होता हुआ केवल कल्पना की उड़ान कोई अपनी भाषा में कह देने भर का उद्देश्य ही रखता हो क्यूंकि आखिरकार , कवि यां अनुवादक किसी भी नियम से बाध्य नहीं , अनुवाद भी मौलिक रचना समान इक mysterious प्रक्रिया है , इस सुंदर कला को theoretically यूँ विसत्रित कर पाना मुमकिन नहीं
अनुवाद से जुडी अपनी इन धारणाओं और विचारों तहत मनोज का अनुवाद मुझे मौलिक रचना से कम उत्कृष्ट न लगा, यह कोई साधारण feminist कविता न थी , इसका rebellion भी आम नहीं , इस कविता की नायिका का पुरुष से औए उसकी बनायी हुई social conditions से कोई पारम्परिक विरोध भी नहीं , यह तो उसके self -evolution की गाथा है और evolution केवल resistance से नहीं होती होगी , इसके लिए शायद ऐसे आत्म-विश्वास की दरकार है जो गहरे कहीं हमारे मानसिक उथान से निकलता है , पुरुष से मतभेद , अन्याय के खिलाफ से भी आगे किसी ऐसे सफ़र की बात जहाँ नायिका केवल स्त्री होने से भी पहले human है और हर पल उठते ही रहने की छह रखती है
मनोज निरंतर इस कला में निपुण हो रहे हैं...यह उनके लिए व्यक्तिगत उप्लाभ्दी तो है ही और हमें अच्छी translations मिलती रहेंगी
शानदार चन्दन .......शानदार....खास तौर से
क्या मेरी कामुकता परेशान करती है तुम्हें ?
क्या तुम्हें ताज्जुब होता है कि
मैं यूँ नाचती फिरती हूँ
गोया हीरे जड़े हों मेरी जांघों के संधि-स्थल पर ?
इतिहास के शर्म के छप्परों से
मैं उड़ती हूँ
दर्द में जड़ जमाए अतीत से
मैं उगती हूँ
वैसे एक बात ओर है पता नहीं क्यों इंग्लिश का वर्ड ...Still I rise’
भी अपनी ओर खींचता है ......
Congratulations to Manoj for the wonderful translation....... Its really very nice
कविता का चयन तो उत्कृष्ट है ही अनुवाद भी बेहद सधा हुआ और रचनात्मक ... आसानी से समझा जा सकता है अनुवाद प्रसव से कम नहीं होता ...माईला अंजालो का दम-खम शानदार है ।
मैं यूँ नाचती फिरती हूँ
गोया हीरे जड़े हों मेरी जांघों के संधि-स्थल पर ?
अद्भुत...
SHANDAR...
इतिहास के शर्म के छप्परों से
मैं उड़ती हूँ
दर्द में जड़ जमाए अतीत से
मैं उगती हूँ
अनुवाद की तो दाद देनी पड़ेगी....अदभुत...बहुत ही अच्छी कविता.
माया की यह बेहतरीन कविताओं में से एक है...अनुवाद में वह तेवर लाने की कोशिश है।
शेयर करने के लिए साधुवाद
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