निजार कब्बानी की यह कविता उन खामख्यालियों को सलीके से दुरुस्त करती है जो यह माने बैठे हैं, ना जाने कैसे ki, निजार सदा सर्वदा से प्रेम ke असंभव कोमल और अब तक विलुप्त ही रहे आये पक्ष ke कवि हैं. सुसंयोग ही है ki इस कविता ke अनुवादक मनोज पटेल ने अपने ब्लॉग 'पढ़ते पढ़ते' पर चल रही "उसने कहा thaa" seerij ke अंतर्गत निजार कब्बानी ke ही कोट लगाए हैं...
मैं जानता था : निजार कब्बानी की कविता
मैं जानता था
कि जब हम थे स्टेशन पर
तुम्हें इंतज़ार था किसी और का,
जानता था मैं कि
भले ही ढो रहा हूँ मैं तुम्हारा सामान
तुम करोगी सफ़र किसी गैर के संग,
पता था मुझे
कि इस्तेमाल करके फेंक दिया जाना है मुझे
उस चीनी पंखे की तरह
जो तुम्हें गरमी से बचाये हुए thaa .
पता था यह भी
कि प्रेमपत्र जो मैनें लिखे तुम्हें
वे तुम्हारे घमंड को प्रतिबिंबित करने वाले
वे तुम्हारे घमंड को प्रतिबिंबित करने वाले
आईने से अधिक कुछ नहीं थे .
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फिर भी मैं ढोऊंगा
सामान तुम्हारा
और तुम्हारे प्रेमी का भी
क्योंकि नहीं जड़ सकता
तमाचा उस औरत को
जो अपने सफ़ेद पर्श में लिए चलती है
मेरी ज़िंदगी के सबसे अच्छे दिन .
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8 comments:
Nice Poem
आपका और मनोजजी का आभार !
गज़ब के भाव हैं…………बहुत ही सुन्दर्।
समझ नहीं पा रहा, इस जड दिए गए 'तमाचे' की शान में कुछ कहूँ या खिलाफत में आ जाऊं? आखिर, एक बदला लेने की ख्वाहिश का इजहार तो है ही... वह भी उससे जिससे प्रेम का दावा किया गया है! क्या प्रेम खोटा है? जो कुछ भी है श्याम! कविता शानदार है ..वधाई की हकदार भी!
sundar
यह कशमकश ही प्यार है.
भावनाओं की सुन्दरतम अभियक्ति.
भावनाओं की सुन्दरतम अभियक्ति
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