श्रीकान्त की नई कवितायें. अपनी कविताओं और विशेषकर इन दो कविताओं में ‘स्मृति’ को बतौर शिल्प श्रीकांत ने बखूबी निभाया है. बृहद और कोमल स्मृतियों का शिल्प हमें किस हद तक जीवन से तथा अपनी कला से तटस्थ बनाता हैं, इसका उदाहरण श्रीकांत की ये नई कवितायें हैं..
साइकिल के कैरियर पर बैठ जाने की मेरी पेशकश
जब से डरने लगा हूँ मरने से
तभी से गढने लगा हूँ यह खयाल
कि धरती जैसे घूम घाम कर आ जाती है
फिर फिर ओस, बारिशों और धूप के महीनों के नीचे
लोग हर रोज दफ्तर से लौटकर घर
किसी न किसी ऐसे ही वृत्त की परिधि पर होंगे हमारे जीवन भी
इस बार का हमारा होना भी बार बार के चक्रीय होने के बीच
एक बार का होना होगा
हमारे साथ हमारे साथ की चीजें भी होंगी ऐसे ही कई बार
ऐसे होने की बहुलता में
बस एक बार एक जगह पर कुछ अलग कर देना
ग्यारहवीं की उस देर शाम तक चली अर्थशाश्त्र की कक्षा के बाद
जब तुम जा रही होगी अकेले अपने घर की तरफ के वीरान रास्ते पर
साइकिल के कैरियर पर बैठ जाने की मेरी पेशकश को ठुकराना मत
फिर, अगर हो सके तो कुछ दिन मेरी ही मर्जी से गुजार देना
(दो चार दिन ही सही
कि तुम्हारे पास तो न जाने और कितनी दफा की जिंदगियों के
न जाने और कितने दिन होंगे,
ऐसे में मेरे लिए बस दो ही चार दिन)
आगे, जैसा कि विज्ञान कहता है
सूर्य के चारो ओर बनी अपनी कक्षा से विचलित हो जाने के बाद
पृथ्वी का सबकुछ बदल जाएगा
अगर तुमने कर दिया मेरा बस इतना सा काम
फिर मुझे यकीन है कि हम भी बदल जाएंगे
लेकिन तुम करोगी, इस पर यकीन फिर भी नहीं
फिर भी एक गुजारिश
ठीक वैसे ही, जैसे किया था उस वक्त
कि उधर ही तो जा रहा हूँ
बैठ जाओ पीछे.
बाँस से बनी एक फेंस की याद
अभी अभी बाँस से बनी एक फेंस याद आ रही है
उसके पार से एक घर उसका ओसार
लाचार पितामह और पैरों को
या शायद दर्द को ही
बाँध देने वाली रस्सी याद आ रही है
कडाके की ठंड के नाते विद्यालयों के बंद रहने की घोषणा करता
सुबह के सात बीस का समाचार,
फफूँद और
हथेलियों में भरा जा सकने वाला खरबूज सा चेहरा
याद आ रहा है
नहीं लिखा गया प्रेम पत्र
अनछुई रह गयी छातियाँ
याद आ रही हैं
अनगिन रातों के पीछे से याद आ रही है एक रात
अट्ठानबे और निन्यानबे के वर्षों में
सत्तर और अस्सी के जमाने का होता जिक्र,
रेडियो और
सुरीली लता के गानें
दूरदर्शन पर पहली बार आ रही शोले और
छ्ब्बीस जनवरी की लगभग महत्वपूर्ण तारीख
तिरंगा के सम्वाद कि
‘हम सूरमा नहीं चुराते आंखे ही चुरा लेते है
ताकि सूरमा लगाने की ‘जुरुरत’ ही ना पड़े’
और राजकुमार का मर जाना
राबिन सिंह के भूले संघर्ष याद आ रहे हैं
अभी अभी ली जा रही साँस का आक्सीजन
जैसे इन्हीं में किसी के पास छूट गया है,
अभी अगर नहीं पहुँचा उनमें से किसी के भी पास
तो लगता है मर जाउँगा,
फिलवक्त कोई राह नहीं सूझ रही
और मौत की याद आ रही है...
साइकिल के कैरियर पर बैठ जाने की मेरी पेशकश
जब से डरने लगा हूँ मरने से
तभी से गढने लगा हूँ यह खयाल
कि धरती जैसे घूम घाम कर आ जाती है
फिर फिर ओस, बारिशों और धूप के महीनों के नीचे
लोग हर रोज दफ्तर से लौटकर घर
किसी न किसी ऐसे ही वृत्त की परिधि पर होंगे हमारे जीवन भी
इस बार का हमारा होना भी बार बार के चक्रीय होने के बीच
एक बार का होना होगा
हमारे साथ हमारे साथ की चीजें भी होंगी ऐसे ही कई बार
ऐसे होने की बहुलता में
बस एक बार एक जगह पर कुछ अलग कर देना
ग्यारहवीं की उस देर शाम तक चली अर्थशाश्त्र की कक्षा के बाद
जब तुम जा रही होगी अकेले अपने घर की तरफ के वीरान रास्ते पर
साइकिल के कैरियर पर बैठ जाने की मेरी पेशकश को ठुकराना मत
फिर, अगर हो सके तो कुछ दिन मेरी ही मर्जी से गुजार देना
(दो चार दिन ही सही
कि तुम्हारे पास तो न जाने और कितनी दफा की जिंदगियों के
न जाने और कितने दिन होंगे,
ऐसे में मेरे लिए बस दो ही चार दिन)
आगे, जैसा कि विज्ञान कहता है
सूर्य के चारो ओर बनी अपनी कक्षा से विचलित हो जाने के बाद
पृथ्वी का सबकुछ बदल जाएगा
अगर तुमने कर दिया मेरा बस इतना सा काम
फिर मुझे यकीन है कि हम भी बदल जाएंगे
लेकिन तुम करोगी, इस पर यकीन फिर भी नहीं
फिर भी एक गुजारिश
ठीक वैसे ही, जैसे किया था उस वक्त
कि उधर ही तो जा रहा हूँ
बैठ जाओ पीछे.
बाँस से बनी एक फेंस की याद
अभी अभी बाँस से बनी एक फेंस याद आ रही है
उसके पार से एक घर उसका ओसार
लाचार पितामह और पैरों को
या शायद दर्द को ही
बाँध देने वाली रस्सी याद आ रही है
कडाके की ठंड के नाते विद्यालयों के बंद रहने की घोषणा करता
सुबह के सात बीस का समाचार,
फफूँद और
हथेलियों में भरा जा सकने वाला खरबूज सा चेहरा
याद आ रहा है
नहीं लिखा गया प्रेम पत्र
अनछुई रह गयी छातियाँ
याद आ रही हैं
अनगिन रातों के पीछे से याद आ रही है एक रात
अट्ठानबे और निन्यानबे के वर्षों में
सत्तर और अस्सी के जमाने का होता जिक्र,
रेडियो और
सुरीली लता के गानें
दूरदर्शन पर पहली बार आ रही शोले और
छ्ब्बीस जनवरी की लगभग महत्वपूर्ण तारीख
तिरंगा के सम्वाद कि
‘हम सूरमा नहीं चुराते आंखे ही चुरा लेते है
ताकि सूरमा लगाने की ‘जुरुरत’ ही ना पड़े’
और राजकुमार का मर जाना
राबिन सिंह के भूले संघर्ष याद आ रहे हैं
अभी अभी ली जा रही साँस का आक्सीजन
जैसे इन्हीं में किसी के पास छूट गया है,
अभी अगर नहीं पहुँचा उनमें से किसी के भी पास
तो लगता है मर जाउँगा,
फिलवक्त कोई राह नहीं सूझ रही
और मौत की याद आ रही है...
14 comments:
अच्छी कविताएं :)
अच्छी कविताएँ है... स्मतियाँ कैसे बिते हुए संघर्षों को अपने में समेटती है और हमारे लगभग नाकार दिए हुए संघर्षो को एक मुकाम बतालती है... ये कविताएँ उपरोक्त तत्व को दर्शाने के साथ जीवन की की नश्वरता में निरंतरता की राह तलाशती है... अपनी गहराई में ये कविताएँ समय के स्वरूपो को छानती है और मनुष्य की संवेदना और उस के भावबोध के साथ तदात्म्य करती है... शानदार है... एक बात और श्रीकांत का इधर बीच अनुवाद में ही जादा नाम दिखाई पढ़ रहा है सो यह कविता भी पहले पाठ में अनुवाद के स्वाद के साथ ही लगती है... लेकिन अभी बस श्रीकांत को बधाई...
bahut achchhi kavitaaein. naye aaswaad ki. shree ko badhai.
वाह !!!!
ग्यारहवीं की उस देर शाम तक चली अर्थशाश्त्र की कक्षा के बाद
जब तुम जा रही होगी अकेले अपने घर की तरफ के वीरान रास्ते पर
साइकिल के कैरियर पर बैठ जाने की मेरी पेशकश को ठुकराना मत
फिर, अगर हो सके तो कुछ दिन मेरी ही मर्जी से गुजार देना
(दो चार दिन ही सही
कि तुम्हारे पास तो न जाने और कितनी दफा की जिंदगियों के
न जाने और कितने दिन होंगे,
ऐसे में मेरे लिए बस दो ही चार दिन)
शानदार..these line reflects so many persons thoughts .....
"सूर्य के चारो ओर बनी अपनी कक्षा से विचलित हो जाने के बाद
पृथ्वी का सबकुछ बदल जाएगा
अगर तुमने कर दिया मेरा बस इतना सा काम
फिर मुझे यकीन है कि हम भी बदल जाएंगे
लेकिन तुम करोगी, इस पर यकीन फिर भी नहीं
फिर भी एक गुजारिश
ठीक वैसे ही, जैसे किया था उस वक्त
कि उधर ही तो जा रहा हूँ
बैठ जाओ पीछे."
पहली कविता की यह पंक्तियाँ मुझे बेहद पसंद आई!!!!
दूसरी कविता भी बहुत उम्दा है.... याद ज़िन्दगी में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं, चाहे फिर वो संघर्ष दर्शायें या फिर कुछ हसीं पल दे जायें!!!! आंखें दोनों ही स्तिथि में नम होती है, चाहे ख़ुशी हो या गम!!!! वैसे अनुवाद से कुछ अलग जगह आपको पढ़ना बहाद पसंद आया!!!! उम्मीद है आगे और कविता पढ़ने को मिलेंगी, फिलहाल इन दोनों खुबसूरत लफ़्ज़ों और यादों से सजी कविताओं के लिए आपको ढेर सारी बधाई...........
bahut achhi kavitayein......
dono kavitaayein bahut acchi lagi.
अच्छी कवितायें हैं श्रीकांत । बस कहीं कुछ थोड़ा सा रूमानियत से बचना होगा ।
अच्छी कविताएं...
Srikant Bhai, Yh Kavitaein Hamre Dainik Jeevan Ka Bhool Bhool Jate Sangarson Ka Parivritt Nirmit Karti Hain, Jinme Na Likhe Gaye Prem-Patra Aur Kai Anchooie Yeasdaon ki ismriti Romani Vidambna Bhi Taiyyar Karti Hai. Kya yh Kam Marmik Hai, Jabki Parvs Hona bhi Jaivik Niyati.
bahut hi acchi hai...aur bahut hi pyare tarike se guntha gaya hai...smriti ko...
achhi kavitayen......freshness hai shrikant me ek tarah ka.... badhai....
so sweet poem my champ, you d'not know how many times i read this poem.
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