किस्से की तरह मशहूर बात है कि कैसे डॉ. नामवर सिंह की टिप्पणी के बाद प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’
हिन्दी में महत्वपूर्ण हो चली थी. पहले वो मेले की कहानी थी पर नामवर जी कि टिप्पणी के बाद
हामिद की कहानी, एक बच्चे के ‘कंसर्ंस’ की कहानी हो गई थी. कहानियाँ हम किसी बेगानी धुन में
पढ़े जा रहे होते हैं पर कभी किसी आलेख से अचानक जाग खुलती है और वही कहानी नए अर्थ के
साथ हमारे सामने उपस्थित हो जाती है. यहाँ प्रस्तुत आलेख ‘लोकतांत्रिक मूल्यों के पैमाने पर हिन्दी
कहानी’ डॉ. कृष्णमोहन का है जो निसन्देह एक नहीं, कई कहानियों के बारे में पूर्वप्रचलित धारणा
बदलने वाला आलेख है.
यह आलेख, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा सम्पादित हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियों के संकलन की भूमिका है. इस आलेख में चर्चित, यशपाल की कहानी ‘करवा का व्रत’ के अलावा, सभी अठारह कहानियाँ उस पुस्तक में है. ‘कहानी संग्रह’ नाम से सम्पादित इस किताब का प्रकाशन इसी वर्ष विश्वविद्यालय प्रकाशन से हुआ है.
लोकतांत्रिक मूल्यों के पैमाने पर हिन्दी कहानी
किसी ने सच कहा है कि साहित्य और समाज में होने वाले परिवर्तन की सबसे सटीक पहचान स्त्री – पुरुष सम्बन्ध में आने वाले बदलाव के माध्यम से की जा सकती है. बीसवीं सदी का आरम्भ यूँ तो दुनिया की बन्दरबाँट के लिये आयोजित विश्वयुद्ध के साथ हुआ, लेकिन जल्द ही यह दुनिया स्वतंत्रता, समानता और न्याय के लिये जूझ रही ताकतों का मंच बन गई. हमार देश भी इस दौरान देशभक्ति और आत्मोत्सर्ग की भावना से उत्तरोत्तर ओतप्रोत होता रहा. ‘उसने कहा था’ और ‘गुंडा’ इसी मनोवृति की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं. खास बात यह है कि इन दोनों कहानियों में क्रमश: जर्मनों और अंग्रेजों से देश की रक्षा के जारी संघर्ष में आहुति देने के कारण स्त्री के प्रति पुरूष का प्रेम है. विपरीत परिस्थितियों के चलते मिलन नहीं हो सका, लेकिन विलगाव से भी वह आँच मद्धम न पड़ी. लहनासिंह और नन्हकूसिंह की सूबेदारनी और पन्ना के प्रति वचनबद्धता देश और मानवता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का विकल्प नहीं, उसका पर्याय बनती है. उच्चतर मानवीय मूल्यों की एकता जीवन में चाहे जितनी अनूठी जान पड़ती हो, कला के दायरे की यह सीधी साधी सच्चाई है.
हमारी आजादी की लड़ाई के दौरान तीस का दशक कई स्तरों पर निर्णायक मोड़ का समय है. क्रांतिकारी आन्दोलन के दमन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन की असफलता और दुनिया के पैमाने पर जारी फ़ासीवादी उभार ने इस दौर के साहित्य को आत्मावलोकन और रूपांतरण के लिये प्रेरित किया. कविता के क्षेत्र में छायावादी वायवीयता और रूमान के आग्रह ने मानव - समाज की प्रगति के पक्षधर ठोस मूल्यों के लिये जगह खाली कर दी. इस युगांतर का श्रेय हिन्दी में प्रमुख रूप से प्रेमचन्द को है. 1936 का वर्ष इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है. इसी वर्ष ‘गोदान’. ‘कफन’ और ‘साहित्य का उद्देश्य’ का प्रकाशन हुआ.
प्रेमचन्द और जैनेन्द्र को एक – दूसरे की विपरीत परम्पराओं का वाहक बताने वालों की हिन्दी में कमी नहीं है. लगभग पैतृक विरासत की तर्ज पर ये लोग हर बड़े लेखक के नाम से एक परम्परा निकालने को तत्पर रहते हैं. समय – समय पर इन ‘परम्पराओं’ में परस्पर टकराव, अवमूल्यन और अधिग्रहण की प्रक्रिया भी चलती रहती है. इस दौरान साहित्य की अपनी परम्परा कहीं पीछे छूट जाती है.
परम्परा के साथ ऐसा मनमाना व्यवहार करने वाले भूल जाते हैं कि ख़ुद साहित्य की अपनी परम्परा होती है जिसमें मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता और समानता के पक्षधर मूल्यों का पोषण होता है. इन मूल्यों का विरोध करने वाली प्रवृतियाँ भी साहित्य में सक्रिय होती हैं, जो सामाजिक यथास्थिति को बनाये रखने के लिए प्रभुत्वशाली वर्ग के मान – मूल्यों का समर्थन करती हैं. व्यापक रूप से साहित्य में यही दो परम्पराएँ सक्रिय होती हैं. इनके परस्पर संघर्ष से साहित्य का विकास होता है. बाकी सारा अन्तर सिर्फ शैली का होता है. रचना के अभिप्राय को न पकड़ पाने पर हम विभिन्न शैलियों और विषयों को ही पहचान पाते हैं, और उनके आधार पर परम्पराओं का निर्माण करने लगते हैं. इस प्रसंग में एक विशेष बात यह भी है कि सच्ची रचना का अभिप्राय कई बार रचनाकार से अलग, यहाँ तक कि उसके विरुद्ध भी हो सकता है. इस वजह से भी उसके अभिप्राय को ग्रहण करने में बाधा आती है. रचना में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों ज़ोर-आजमाईश को स्वतंत्र होते हैं. कोई रचना उतनी ही प्रभावशाली होती है, जितना उसका प्रतिपक्ष (रचनाकार जिस प्रवृति को सही नहीं मानता और जिसका निषेध करना चाहता है ) मज़बूत होता है. अगर किसी रचना में चित्रित, नकारात्मक प्रवृतियों को धारण करने वाले पात्र कमजोर और हास्यास्पद है तो वह रचना उठ ही नहीं सकती. रचनाकार को अपना पक्ष भी अपने सशक्त प्रतिद्वन्दी से जूझकर ही वास्तविक ऊँचाई हासिल करता है. तभी वह प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध कर पाता है. आधुनिक कला की दुनिया का यह भी सार्वभौम नियम है.
रचना का दूसरा लेकिन अधिक महत्वपूर्ण मानदण्ड है स्त्री के प्रति उसमें व्यक्त हुआ नज़रिया. लैंगिक विषमता का इतिहास सभ्यता की समूची यात्रा से जुड़ा हुआ है. इसलिए इस कसौटी पर आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य को आसानी से कसा जा सकता है. स्त्री को हीन और हेय समझने वाली कोई रचना न तो लोकतांत्रिक हो सकती है, न ही मानवीय. हाँ, रचना के सत्य को ग्रहण करते समय सावधानी बरतना जरूरी है. रचनाकार की इच्छा और रचना की वस्तुगत भूमिका को अलग अलग समझना अनिवार्य है. इसे रचनाकार की विचारधारा और उसकी संवेदना के बीच के के अंतराल के रूप में देख सकते हैं.
बहरहाल, हम अपने मूल बिन्दु पर लौटें, तो प्रेमचंद और जैनेन्द्र के बीच जो अंतर है वह यथार्थ को चित्रित करने के तरीके का है. प्रेमचंद के यहाँ मनुष्य का अन्तर्जगत अपने सामाजिक परिवेश के बीच शरीर में आत्मा की तरह मौजूद होता है. जबकि जैनेन्द्र के यहाँ आत्मा का ही एक़्स-रे होता है. कहा जा सकता है कि वे आत्मा के शिल्पी अथवा गुप्तचर हैं. लेकिन इस आधार पर इन्हें अलग – अलग खानों में बाँटना हास्यास्पद होगा. सच तो यह है कि अंतर्जगत की गाँठें भी बाह्य जीवन की ही देन होती हैं. कभी हम प्रत्यक्ष जीवन से उसका सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, कभी नहीं जोड़ पाते.
उदाहरण के लिए प्रेमचन्द की दो लगभग अंतिम रचनाएँ ‘गोदान’ और ‘कफन’ को लेते हैं. ‘ गोदान ’ का होरी जिस ‘धरम – मरजाद' से पीड़ित है, वह उसके समाज का एक मूल्य है, जो उसकी आंतरिक विवशता बन गया है. विचार और व्यवहार की एकता का कोई विकल्प उसके पास नहीं है, इसलिए अपने पाखंडी समाज में वो अकेला पड़ जाता है. इसी स्थितिजन्य विवशता के धनिया जैसी तेजस्विनी स्त्री को प्रतीकात्मक गोदान करने के लिए बाध्य होना पड़ता है. होरी और धनिया अपने समाज की जकड़बंदी तोड़ नहीं पाते. प्रेमचन्द का रचनाकार इसे स्वीकार नहीं करता. वे उस समाज से प्रतिशोध लेने के लिए घीसू – माधव जैसे चरित्रों की रचना करते हैं. गोदान की कौन कहे, वो दोनों कफन तक की परवाह नहीं करते. पुरोहिती कर्मकाण्डों के प्रति, इस तरह वे अपनी घृणा व्यक्त करते हैं. ध्यान दें कि ऊपरी तौर पर होरी-धनिया और घीसू-माधव में कोई साम्य नहीं है, लेकिन आंतरिक रूप से वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. ‘पूस की रात’ का हल्कू भी इसी तस्वीर का एक और रूख है.
‘कफ़न’ पर विचार करते हुए कुछ विचारकों ने बुधिया के प्रति जताई गई संवेदनहीनता के निहितार्थों की चर्चा की है. वास्तव में यह हमारे समाज में स्त्री की स्थिति से जुड़ी हुई त्रासदी है. इस कहानी में प्रेमचन्द ने बुधिया के दर्दनाक अंत को तेज गति से चित्रित किया है. पर हमारे समाज में स्त्री की धीमी और खामोश मौत की तरफ बढ़ते हुए हमेशा देखा जा सकता है ; चाहे वह ‘पत्नी’ की सुनन्दा हो, ‘रोज’ की मालती, ‘करवा का व्रत’ (यशपाल ) की लाजो हो. ‘होली नहीं खेलता’ की ज्योत्सना अधिक स्वतंत्रचेता और निर्णयात्मक ठहरती है. जब उसके एक स्वाधीनतामूलक वक्तव्य को उसका प्रेमी बैजल उसकी पराधीनता का सूचक मानकर उसे उसके पति की सम्पत्ति के बतौर देखने लगता है, वह पति की इच्छा के विरूद्ध जाकर भी उससे सम्बन्ध तोड़ लेती है. बैजल की चेतना का पिछड़ापन उसके आड़े आ जाता है और अंगूर खट्टे हैं वाले अंदाज़ में उसे होली न खेलने की घोषणा करनी पड़ती है.
फिर भी ‘पत्नी’ का पुरुष इस मामले में विशिष्ट है कि वह अपने समय के उन्नत राजनीतिक विचारों का प्रतिनिधित्व करता है. राजनीतिक रूप से उन्नत और सामाजिक रूप से पिछड़ा होना हमारे स्वाधीनता आन्दोलन की दूरगामी अर्थ रखने वाली सच्चाई है. कालिन्दीचरण क्रांतिकारी आन्दोलन पर तनिक उदार, गाँधीवादी नज़रिये से विचार करता है. सम्भवत: यह नज़रिया स्वयं जैनेन्द्र का भी है. उन्होंने कालिन्दीचरण को प्रतिपक्ष के रूप में चित्रित किया है, जिसका उन्हें निषेध करना है. लेकिन इसका चित्रण उन्होंने अपनी आत्मा के एक अंश से किया है. वह पात्र अपनी शक्ति और सीमा, दोनों के साथ उपस्थित होता है. इससे पाठक को अपने भी अन्दर मौजूद ‘कालिन्दीचरण’ का पता चलता है. वह उस बुराई के प्रति सचेत होता है. ऐसा न होने पर ‘रोज़’ या ‘करवा का व्रत’ के पतियों से सामना होता है, जो सर्जरी के अभ्यास के लिए मरीज की टांग काट देने या अधिकार जताने के लिए पत्नी को थप्पड़ रसीद करने में गुरेज नहीं करते. हम इनकी आलोचना तो करते हैं, लेकिन आत्मसमीक्षा को प्रेरित नहीं होते. वह बुराई हमारे अन्दर फलती-फूलती रहती है और हम ‘दूसरों’ की कमियों को अपना निशाना बनाते रहते हैं.
पति के लिए ‘पत्नी’ द्वारा किये जाने वाले त्याग की परम्परा समाज और साहित्य, दोनों में अक्षुण्ण रही है. यह हमारे सामंती – पितृसत्तात्मक समाज को संचालित करने वाली अनेक जड़ताओं में से एक है. दूसरे शब्दों में, यह एक सामंती आदर्श है जिसको समानता और स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक आदर्श से चुनौती मिलती है. ‘गोदान’ में सामंती आदर्श के निर्वाह को देखकर मन में क्षोभ उत्पन्न होता है, जबकि ‘कफ़न’ में इन बन्धनों को एक झटके में तोड़ फेंकने का लोकतांत्रिक आदर्श प्रस्तुत है. पहली प्रवृति को आलोचनात्मक यथार्थवाद और दूसरी को वैकल्पिक आदर्शवाद कह सकते हैं. फ़िलहाल, सामंती आदर्श हमारे समाज को संचालित कर रहे हैं, इसलिए उनका आलोचनात्मक चित्रण ही कहानियों में अधिक होता है. ‘कफ़न’ जैसी रचनाएँ यूटोपिया रचती हैं, इसलिए विरल होने पर भी हमें गहरे तक हाँट करती हैं.
‘नन्हों’ और ‘कोसी का घटवार’ में यह तनिक बदले हुए कोण से उभरता है. यहाँ समाज की पिछड़ी हुई मान्यताओं की वेदी पर व्यक्तिगत भावनाओं की कुर्बानी दी जाती है. दोनों कहानियों में एक दूसरे को दिलो-जान से चाहने वाले प्रेमी युगल हैं. बीच में कोई वास्तविक बाधा भी नहीं है. लेकिन वे एक –दूसरे से दिल की बात नहीं कह पाते. अपनी भावनाओं को लेकर वे अकारण शर्मिन्दा होते हैं. अपने अंतर्निषेधों के सामने समर्पण करते हुए वे अलग हो जाने को बाध्य हो जाते हैं. दोनों सोचते हैं कि पहल दूसरा करे. ‘ हमसे आया न गया तुमसे बुलाया न गया’ की यह मन:स्थिति उन्हें सामंती मूल्यों के असहाय शिकार में बदल देती है. सहानुभूति के नहीं, वे दया के पात्र बन कर रह जाते हैं.
‘परिन्दे’ में ह्यूबर्ट लतिका के सामने प्रेम का प्रस्ताव रखता तो है, पर यह जानकर कि वह पहले भी किसी को प्रेम कर चुकी है, अपने प्रस्ताव पर लज्जित होने लगता है. इधर लतिका, जो अपने प्रेमी के असामयिक निधन के कारण दु;खी और एकाकी जीवन बिताती है, उसके प्रस्ताव को विचारणीय भी नहीं मानती. ह्यूबर्ट के सीने में होते दर्द को लेकर मन ही मन वह आशंकित होती है. भाव यह उभरता है कि उसे प्रेम करने वाला अकाल मृत्यु के लिए अभिशप्त है. हमारे समाज में ऐसे अंधविश्वास भारी मात्रा में मौजूद हैं, लेकिन इस आधुनिक परिवेश में उनकी मजबूत पकड़ देखकर आश्चर्य होता है. हमारी आधुनिकता ऐसी ही है, बहुत कुछ बाहरी तामझाम पर निर्भर. यह कहानी हमें, इस प्रकार, आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करती है.
‘तीसरी कसम’ की रसिक मार्मिकता की तह में जाएँ तो पता चलता है कि हिरामन की शादी उसकी भाभी ने हो जाने दी होती तो शायद तीसरी कसम की नौबत ही न आती. भाई – भाई के प्रेम को गौरवांवित करने के साथ–साथ जीवन – व्यवहार में भाई का हिस्सा हड़पने की प्रवृति हमेशा हमारे लोकमन में बद्धमूल रही है. हिरामन की निश्छलता के चलते उसे भाई – भाभी का यह व्यवहार नहीं खटकता, और उनकी सेवा में जुटा वह एक के बाद दूसरी कसम खाता रहता है. रेणु ने इस विडम्बना का संकेत तो किया लेकिन मन उनका भी लोकजीवन के सरस पक्षों में रमने वाला था, इसलिए यह पहलू कहानी में उभर नहीं सका. कुल मिलाकर सचाई, शालीनता और सादगी जैसे गुण यहाँ भी अन्याय का विरोध करने से रोक देते हैं, और उसे परिस्थिति का शिकार बनने की ओर ले जाते हैं.
‘यही सच है’ की नायिका दीपा दो पुरूषों के बीच झूलती रहती है. वह जिसे छोड़ आई है, पहला मौका मिलते ही उसे वापस पाना चाहती है, और जिसे पा चुकी है उसे छोड़ने – छोड़ने को हो आती है. स्त्री की पेंडुलम जैसी नियति को ही सच कहना यथार्थ के प्रति अनालोचनात्मक प्रतिबद्धता के चलते सम्भव है.
नई कहानी के दौर में स्त्री – पुरुष सम्बन्ध से अलग अन्य विषयों पर जो कहानियाँ लिखी गईं उनमें भी स्वार्थपरता के माहौल में जी सकने के लिए जूझते हुए मासूम और निरीह लोग दिखाई पड़ते हैं. ‘ जिन्दगी और जोंक ’ के रजुआ के साथ मुहल्ले वालों का बरताव हो या ‘ चीफ़ की दावत ‘ के शामनाथ का अपनी माँ से लगाव, हर जगह यही धूसर यथार्थ प्रकट हुआ है. ‘ भोलाराम का जीव ‘ का भोलाराम तो भ्रष्टाचार से जूझते – जूझते भगवान को प्यारा हो जाता है, लेकिन उसकी आत्मा पेंशन की फ़ाईल में ही अटकी रह जाती है. कहने को, इन कहानियों को मानवीय जिजीविषा की कहानियाँ कह सकते हैं, लेकिन असल में ये मनुष्य के अपनी गरिमा से वंचित हो जाने और उसे वापस पाने की उम्मीद तक के बग़ैर लगभग बदहवासी में जीते लोगों की कहानियाँ हैं. ये कहानियाँ ‘ कफ़न’ की ही परम्परा में हैं, हालाँकि इनमें घीसू – माधव के जीवट का अभाव है.
साठ और सत्तर के दशक में सामने आई ‘साठोत्तरी कहानी’ में सामाजिक यथार्थ की निष्क्रिय आलोचना के बजाय मोहभंग और विद्रोह का स्वर सक्रिय हुआ, लेकिन कोई तर्कसंगत राह न पाकर अराजकता की गर्त में गिर पड़ा. इस दौर की कहानियों का प्रतिनिधित्व ‘घंटा’ करती है. ‘पेट्रोला’ और कुछ नहीं घीसू – माधव के ही रहने की जगह है. आज़ादी के बाद विकसित दलाल – तंत्र ने कर्म के प्रति उनकी उदासीनता में छिपे परिवर्तनकामी सत्व का अपहरण कर उन्हें भेड़ियाधसान में शामिल मलूकदास के शिष्यों मे बदल दिया है. कुछ इस वजह से भी बैठकबाज़ों को, उनकी उनकी कुत्सित मंडली को अब वैसी नीची नज़र से नहीं देखा जाता. ‘घंटा’ का मुख्य पात्र ‘रेस्तराँ’ की जिन्दगी को लात मारकर अंतत: ‘पेट्रोला’ में लौट आता है. वास्तव में यह कोई सकारात्मक अंत नहीं है. ‘रेस्तराँ’ की जिन्दगी कम से कम प्रतिक्रिया तो पैदा करती है. उसमें सक्रियता की, गति की सम्भावना है. ‘पेट्रोला’ की जड़ता का आत्म-मोह से जैसा नाता है, उसमें उन्मेष की कोई सम्भावना नहीं दिखती. इस तरह ‘कफ़न’ की निष्क्रियता सकारात्मक है जबकि ‘घंटा’ का विद्रोह प्रतिगामी. नेहरुवीय स्वप्न के शेष होने के साथ हमारा मध्यवर्गीय युवा वर्ग अराजकता और जड़ता के बीच बहुत हद तक ऐसी ही स्थिति में फँसा रहा था.
साठोत्तरी दौर के कहानीकारों के परवर्ती दौर की कहानियों – ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ और ‘कविता की नई तारीख’ से यह बात अधिक स्पष्ट होती है. ‘धर्मक्षेत्रे.....’ की ज़ंजीर से बँधी हुई स्त्री अपने अपहर्ताओं में से एक की ‘मर्दानगी’ को चुनौती देकर अंतत: उसे उसके बाप से लड़ाने में सफल हो जाती है. इस तरह उसके नवजात शिशु की रक्षा होती है और ज़ंजीर से छूटकर वह ‘असार –संसार’ में खुशी के आँसुओं के साथ प्रवेश करती है. धार्मिक अखाड़ों वगैरह के प्रासंगिक चित्रण के बावजूद यह कहानी स्त्री की पराधीनता का मिथक रचती है और यथार्थ के कहीं बहुत पीछे छूट गए पहलू को व्यक्त करती है.
‘कविता की नयी तारीख’ के लेखक की पत्नी उसके नायकोचित व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए गर्व से बताती है कि शादी की पहली रात को ही उसने जो तमाचा मारा था, उसका निशान अब भी पत्नी के चेहरे पर है. आत्ममुग्ध पति जब भावुक होता है तो उस निशान को चूमने की इच्छा उसके मन में उठती है. धीरोदात्त तेवर में किया गया यह वर्णन कहानी को वापस जैनेन्द्र की ज़मीन पर ला पटकता है. यहाँ ‘पत्नी’ का असंतोष भी नदारद है. यथार्थवाद और यथास्थितिवाद में बस सूत भर का फासला होता है. यह कहानी इसे प्रमाणित करती है.
’90 के उथल–पुथल भरे दशक की पूर्वपीठिका ’80 के दशक में ही तैयार हो गई थी. इसकी प्रथम सूचना 1986 में प्रकाशित कहानी ‘तिरिछ’ ने दी थी. समाज और सत्ता के सर्वग्रासी चेहरे को बेनक़ाब करने के कारण यह कहानी वैसे ही ‘ट्रेंडसेटर’ साबित हुई जैसे पचास साल पहले ‘कफ़न’ हुई थी. तिरिछ जैसे अन्धविश्वासों के सहारे ही रामऔतार जैसे ज्योतिषियों का धंधा चलता है. तिरिछ के काटने के बाद किसी के बच जाने पर लोकमन से तिरिछ का आतंक कम हो सकता है. इसलिए तिरिछ के काटने की झूठी – सच्ची शंका के बाद पिता को धतूरे का काढ़ा पिला दिया जाता है जो खुद घातक जहर है. अपने गाँव वालों के साथ शहर जाते पिता अभी प्यास के बारे में बता भी नहीं पाते कि वे शहर लाकर उन्हें छोड़ देते हैं. शहर में अर्द्धविक्षिप्त पिता बैंक से पुलिस थाने तक मारे मारे फिरते हैं और अंतत: ‘पाकिस्तानी जासूस’ क़रार दिये जाकर संगसार कर दिये जाते हैं. अपने रिहायशी मकान को बचाने के लिए तारीख पर आए पिता मुक़दमें के कागज़ात को भी नहीं बचा पाते और अपने परिवार के सड़्क पर आ जाने की आशंका के बीच ही दम तोड़ देते हैं. तिरिछ के ‘काटने’ और धतूरे का काढ़ा पीने के बावजूद शहर आना जरूरी था क्योंकि तारीख पर न पहुँचने पर वकील लापरवाही करता और ज़ज का मूड अगर खराब हुआ तो वह कुर्की का आदेश दे सकता था. यह है गाँव से शहर तक हमारे नागरिक समाज और पुलिस से अदालत तक राज्यसत्ता का वास्तविक चरित्र. बक़ौल कवि राजेश जोशी – ‘ सबसे बड़ा अपराध है इस समय / निहत्था और निरपराध होना/ जो अपराधी नहीं होंगे/मारे जायेंगे.’
‘तिरिछ’ की सम्वेदना ’90 के दशक में परवान चढ़ी और नई सदी के आते –आते हिन्दी कहानी में वह असाधारण उन्मेष हुआ जिसे हम ‘समकालीन कहानी’ के नाम से पहचानते हैं. यह सिलसिला अब भी जारी है.
हिन्दी में महत्वपूर्ण हो चली थी. पहले वो मेले की कहानी थी पर नामवर जी कि टिप्पणी के बाद
हामिद की कहानी, एक बच्चे के ‘कंसर्ंस’ की कहानी हो गई थी. कहानियाँ हम किसी बेगानी धुन में
पढ़े जा रहे होते हैं पर कभी किसी आलेख से अचानक जाग खुलती है और वही कहानी नए अर्थ के
साथ हमारे सामने उपस्थित हो जाती है. यहाँ प्रस्तुत आलेख ‘लोकतांत्रिक मूल्यों के पैमाने पर हिन्दी
कहानी’ डॉ. कृष्णमोहन का है जो निसन्देह एक नहीं, कई कहानियों के बारे में पूर्वप्रचलित धारणा
बदलने वाला आलेख है.
यह आलेख, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा सम्पादित हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियों के संकलन की भूमिका है. इस आलेख में चर्चित, यशपाल की कहानी ‘करवा का व्रत’ के अलावा, सभी अठारह कहानियाँ उस पुस्तक में है. ‘कहानी संग्रह’ नाम से सम्पादित इस किताब का प्रकाशन इसी वर्ष विश्वविद्यालय प्रकाशन से हुआ है.
लोकतांत्रिक मूल्यों के पैमाने पर हिन्दी कहानी
किसी ने सच कहा है कि साहित्य और समाज में होने वाले परिवर्तन की सबसे सटीक पहचान स्त्री – पुरुष सम्बन्ध में आने वाले बदलाव के माध्यम से की जा सकती है. बीसवीं सदी का आरम्भ यूँ तो दुनिया की बन्दरबाँट के लिये आयोजित विश्वयुद्ध के साथ हुआ, लेकिन जल्द ही यह दुनिया स्वतंत्रता, समानता और न्याय के लिये जूझ रही ताकतों का मंच बन गई. हमार देश भी इस दौरान देशभक्ति और आत्मोत्सर्ग की भावना से उत्तरोत्तर ओतप्रोत होता रहा. ‘उसने कहा था’ और ‘गुंडा’ इसी मनोवृति की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं. खास बात यह है कि इन दोनों कहानियों में क्रमश: जर्मनों और अंग्रेजों से देश की रक्षा के जारी संघर्ष में आहुति देने के कारण स्त्री के प्रति पुरूष का प्रेम है. विपरीत परिस्थितियों के चलते मिलन नहीं हो सका, लेकिन विलगाव से भी वह आँच मद्धम न पड़ी. लहनासिंह और नन्हकूसिंह की सूबेदारनी और पन्ना के प्रति वचनबद्धता देश और मानवता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का विकल्प नहीं, उसका पर्याय बनती है. उच्चतर मानवीय मूल्यों की एकता जीवन में चाहे जितनी अनूठी जान पड़ती हो, कला के दायरे की यह सीधी साधी सच्चाई है.
हमारी आजादी की लड़ाई के दौरान तीस का दशक कई स्तरों पर निर्णायक मोड़ का समय है. क्रांतिकारी आन्दोलन के दमन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन की असफलता और दुनिया के पैमाने पर जारी फ़ासीवादी उभार ने इस दौर के साहित्य को आत्मावलोकन और रूपांतरण के लिये प्रेरित किया. कविता के क्षेत्र में छायावादी वायवीयता और रूमान के आग्रह ने मानव - समाज की प्रगति के पक्षधर ठोस मूल्यों के लिये जगह खाली कर दी. इस युगांतर का श्रेय हिन्दी में प्रमुख रूप से प्रेमचन्द को है. 1936 का वर्ष इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है. इसी वर्ष ‘गोदान’. ‘कफन’ और ‘साहित्य का उद्देश्य’ का प्रकाशन हुआ.
प्रेमचन्द और जैनेन्द्र को एक – दूसरे की विपरीत परम्पराओं का वाहक बताने वालों की हिन्दी में कमी नहीं है. लगभग पैतृक विरासत की तर्ज पर ये लोग हर बड़े लेखक के नाम से एक परम्परा निकालने को तत्पर रहते हैं. समय – समय पर इन ‘परम्पराओं’ में परस्पर टकराव, अवमूल्यन और अधिग्रहण की प्रक्रिया भी चलती रहती है. इस दौरान साहित्य की अपनी परम्परा कहीं पीछे छूट जाती है.
परम्परा के साथ ऐसा मनमाना व्यवहार करने वाले भूल जाते हैं कि ख़ुद साहित्य की अपनी परम्परा होती है जिसमें मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता और समानता के पक्षधर मूल्यों का पोषण होता है. इन मूल्यों का विरोध करने वाली प्रवृतियाँ भी साहित्य में सक्रिय होती हैं, जो सामाजिक यथास्थिति को बनाये रखने के लिए प्रभुत्वशाली वर्ग के मान – मूल्यों का समर्थन करती हैं. व्यापक रूप से साहित्य में यही दो परम्पराएँ सक्रिय होती हैं. इनके परस्पर संघर्ष से साहित्य का विकास होता है. बाकी सारा अन्तर सिर्फ शैली का होता है. रचना के अभिप्राय को न पकड़ पाने पर हम विभिन्न शैलियों और विषयों को ही पहचान पाते हैं, और उनके आधार पर परम्पराओं का निर्माण करने लगते हैं. इस प्रसंग में एक विशेष बात यह भी है कि सच्ची रचना का अभिप्राय कई बार रचनाकार से अलग, यहाँ तक कि उसके विरुद्ध भी हो सकता है. इस वजह से भी उसके अभिप्राय को ग्रहण करने में बाधा आती है. रचना में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों ज़ोर-आजमाईश को स्वतंत्र होते हैं. कोई रचना उतनी ही प्रभावशाली होती है, जितना उसका प्रतिपक्ष (रचनाकार जिस प्रवृति को सही नहीं मानता और जिसका निषेध करना चाहता है ) मज़बूत होता है. अगर किसी रचना में चित्रित, नकारात्मक प्रवृतियों को धारण करने वाले पात्र कमजोर और हास्यास्पद है तो वह रचना उठ ही नहीं सकती. रचनाकार को अपना पक्ष भी अपने सशक्त प्रतिद्वन्दी से जूझकर ही वास्तविक ऊँचाई हासिल करता है. तभी वह प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध कर पाता है. आधुनिक कला की दुनिया का यह भी सार्वभौम नियम है.
रचना का दूसरा लेकिन अधिक महत्वपूर्ण मानदण्ड है स्त्री के प्रति उसमें व्यक्त हुआ नज़रिया. लैंगिक विषमता का इतिहास सभ्यता की समूची यात्रा से जुड़ा हुआ है. इसलिए इस कसौटी पर आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य को आसानी से कसा जा सकता है. स्त्री को हीन और हेय समझने वाली कोई रचना न तो लोकतांत्रिक हो सकती है, न ही मानवीय. हाँ, रचना के सत्य को ग्रहण करते समय सावधानी बरतना जरूरी है. रचनाकार की इच्छा और रचना की वस्तुगत भूमिका को अलग अलग समझना अनिवार्य है. इसे रचनाकार की विचारधारा और उसकी संवेदना के बीच के के अंतराल के रूप में देख सकते हैं.
बहरहाल, हम अपने मूल बिन्दु पर लौटें, तो प्रेमचंद और जैनेन्द्र के बीच जो अंतर है वह यथार्थ को चित्रित करने के तरीके का है. प्रेमचंद के यहाँ मनुष्य का अन्तर्जगत अपने सामाजिक परिवेश के बीच शरीर में आत्मा की तरह मौजूद होता है. जबकि जैनेन्द्र के यहाँ आत्मा का ही एक़्स-रे होता है. कहा जा सकता है कि वे आत्मा के शिल्पी अथवा गुप्तचर हैं. लेकिन इस आधार पर इन्हें अलग – अलग खानों में बाँटना हास्यास्पद होगा. सच तो यह है कि अंतर्जगत की गाँठें भी बाह्य जीवन की ही देन होती हैं. कभी हम प्रत्यक्ष जीवन से उसका सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, कभी नहीं जोड़ पाते.
उदाहरण के लिए प्रेमचन्द की दो लगभग अंतिम रचनाएँ ‘गोदान’ और ‘कफन’ को लेते हैं. ‘ गोदान ’ का होरी जिस ‘धरम – मरजाद' से पीड़ित है, वह उसके समाज का एक मूल्य है, जो उसकी आंतरिक विवशता बन गया है. विचार और व्यवहार की एकता का कोई विकल्प उसके पास नहीं है, इसलिए अपने पाखंडी समाज में वो अकेला पड़ जाता है. इसी स्थितिजन्य विवशता के धनिया जैसी तेजस्विनी स्त्री को प्रतीकात्मक गोदान करने के लिए बाध्य होना पड़ता है. होरी और धनिया अपने समाज की जकड़बंदी तोड़ नहीं पाते. प्रेमचन्द का रचनाकार इसे स्वीकार नहीं करता. वे उस समाज से प्रतिशोध लेने के लिए घीसू – माधव जैसे चरित्रों की रचना करते हैं. गोदान की कौन कहे, वो दोनों कफन तक की परवाह नहीं करते. पुरोहिती कर्मकाण्डों के प्रति, इस तरह वे अपनी घृणा व्यक्त करते हैं. ध्यान दें कि ऊपरी तौर पर होरी-धनिया और घीसू-माधव में कोई साम्य नहीं है, लेकिन आंतरिक रूप से वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. ‘पूस की रात’ का हल्कू भी इसी तस्वीर का एक और रूख है.
‘कफ़न’ पर विचार करते हुए कुछ विचारकों ने बुधिया के प्रति जताई गई संवेदनहीनता के निहितार्थों की चर्चा की है. वास्तव में यह हमारे समाज में स्त्री की स्थिति से जुड़ी हुई त्रासदी है. इस कहानी में प्रेमचन्द ने बुधिया के दर्दनाक अंत को तेज गति से चित्रित किया है. पर हमारे समाज में स्त्री की धीमी और खामोश मौत की तरफ बढ़ते हुए हमेशा देखा जा सकता है ; चाहे वह ‘पत्नी’ की सुनन्दा हो, ‘रोज’ की मालती, ‘करवा का व्रत’ (यशपाल ) की लाजो हो. ‘होली नहीं खेलता’ की ज्योत्सना अधिक स्वतंत्रचेता और निर्णयात्मक ठहरती है. जब उसके एक स्वाधीनतामूलक वक्तव्य को उसका प्रेमी बैजल उसकी पराधीनता का सूचक मानकर उसे उसके पति की सम्पत्ति के बतौर देखने लगता है, वह पति की इच्छा के विरूद्ध जाकर भी उससे सम्बन्ध तोड़ लेती है. बैजल की चेतना का पिछड़ापन उसके आड़े आ जाता है और अंगूर खट्टे हैं वाले अंदाज़ में उसे होली न खेलने की घोषणा करनी पड़ती है.
फिर भी ‘पत्नी’ का पुरुष इस मामले में विशिष्ट है कि वह अपने समय के उन्नत राजनीतिक विचारों का प्रतिनिधित्व करता है. राजनीतिक रूप से उन्नत और सामाजिक रूप से पिछड़ा होना हमारे स्वाधीनता आन्दोलन की दूरगामी अर्थ रखने वाली सच्चाई है. कालिन्दीचरण क्रांतिकारी आन्दोलन पर तनिक उदार, गाँधीवादी नज़रिये से विचार करता है. सम्भवत: यह नज़रिया स्वयं जैनेन्द्र का भी है. उन्होंने कालिन्दीचरण को प्रतिपक्ष के रूप में चित्रित किया है, जिसका उन्हें निषेध करना है. लेकिन इसका चित्रण उन्होंने अपनी आत्मा के एक अंश से किया है. वह पात्र अपनी शक्ति और सीमा, दोनों के साथ उपस्थित होता है. इससे पाठक को अपने भी अन्दर मौजूद ‘कालिन्दीचरण’ का पता चलता है. वह उस बुराई के प्रति सचेत होता है. ऐसा न होने पर ‘रोज़’ या ‘करवा का व्रत’ के पतियों से सामना होता है, जो सर्जरी के अभ्यास के लिए मरीज की टांग काट देने या अधिकार जताने के लिए पत्नी को थप्पड़ रसीद करने में गुरेज नहीं करते. हम इनकी आलोचना तो करते हैं, लेकिन आत्मसमीक्षा को प्रेरित नहीं होते. वह बुराई हमारे अन्दर फलती-फूलती रहती है और हम ‘दूसरों’ की कमियों को अपना निशाना बनाते रहते हैं.
पति के लिए ‘पत्नी’ द्वारा किये जाने वाले त्याग की परम्परा समाज और साहित्य, दोनों में अक्षुण्ण रही है. यह हमारे सामंती – पितृसत्तात्मक समाज को संचालित करने वाली अनेक जड़ताओं में से एक है. दूसरे शब्दों में, यह एक सामंती आदर्श है जिसको समानता और स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक आदर्श से चुनौती मिलती है. ‘गोदान’ में सामंती आदर्श के निर्वाह को देखकर मन में क्षोभ उत्पन्न होता है, जबकि ‘कफ़न’ में इन बन्धनों को एक झटके में तोड़ फेंकने का लोकतांत्रिक आदर्श प्रस्तुत है. पहली प्रवृति को आलोचनात्मक यथार्थवाद और दूसरी को वैकल्पिक आदर्शवाद कह सकते हैं. फ़िलहाल, सामंती आदर्श हमारे समाज को संचालित कर रहे हैं, इसलिए उनका आलोचनात्मक चित्रण ही कहानियों में अधिक होता है. ‘कफ़न’ जैसी रचनाएँ यूटोपिया रचती हैं, इसलिए विरल होने पर भी हमें गहरे तक हाँट करती हैं.
‘नन्हों’ और ‘कोसी का घटवार’ में यह तनिक बदले हुए कोण से उभरता है. यहाँ समाज की पिछड़ी हुई मान्यताओं की वेदी पर व्यक्तिगत भावनाओं की कुर्बानी दी जाती है. दोनों कहानियों में एक दूसरे को दिलो-जान से चाहने वाले प्रेमी युगल हैं. बीच में कोई वास्तविक बाधा भी नहीं है. लेकिन वे एक –दूसरे से दिल की बात नहीं कह पाते. अपनी भावनाओं को लेकर वे अकारण शर्मिन्दा होते हैं. अपने अंतर्निषेधों के सामने समर्पण करते हुए वे अलग हो जाने को बाध्य हो जाते हैं. दोनों सोचते हैं कि पहल दूसरा करे. ‘ हमसे आया न गया तुमसे बुलाया न गया’ की यह मन:स्थिति उन्हें सामंती मूल्यों के असहाय शिकार में बदल देती है. सहानुभूति के नहीं, वे दया के पात्र बन कर रह जाते हैं.
‘परिन्दे’ में ह्यूबर्ट लतिका के सामने प्रेम का प्रस्ताव रखता तो है, पर यह जानकर कि वह पहले भी किसी को प्रेम कर चुकी है, अपने प्रस्ताव पर लज्जित होने लगता है. इधर लतिका, जो अपने प्रेमी के असामयिक निधन के कारण दु;खी और एकाकी जीवन बिताती है, उसके प्रस्ताव को विचारणीय भी नहीं मानती. ह्यूबर्ट के सीने में होते दर्द को लेकर मन ही मन वह आशंकित होती है. भाव यह उभरता है कि उसे प्रेम करने वाला अकाल मृत्यु के लिए अभिशप्त है. हमारे समाज में ऐसे अंधविश्वास भारी मात्रा में मौजूद हैं, लेकिन इस आधुनिक परिवेश में उनकी मजबूत पकड़ देखकर आश्चर्य होता है. हमारी आधुनिकता ऐसी ही है, बहुत कुछ बाहरी तामझाम पर निर्भर. यह कहानी हमें, इस प्रकार, आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करती है.
‘तीसरी कसम’ की रसिक मार्मिकता की तह में जाएँ तो पता चलता है कि हिरामन की शादी उसकी भाभी ने हो जाने दी होती तो शायद तीसरी कसम की नौबत ही न आती. भाई – भाई के प्रेम को गौरवांवित करने के साथ–साथ जीवन – व्यवहार में भाई का हिस्सा हड़पने की प्रवृति हमेशा हमारे लोकमन में बद्धमूल रही है. हिरामन की निश्छलता के चलते उसे भाई – भाभी का यह व्यवहार नहीं खटकता, और उनकी सेवा में जुटा वह एक के बाद दूसरी कसम खाता रहता है. रेणु ने इस विडम्बना का संकेत तो किया लेकिन मन उनका भी लोकजीवन के सरस पक्षों में रमने वाला था, इसलिए यह पहलू कहानी में उभर नहीं सका. कुल मिलाकर सचाई, शालीनता और सादगी जैसे गुण यहाँ भी अन्याय का विरोध करने से रोक देते हैं, और उसे परिस्थिति का शिकार बनने की ओर ले जाते हैं.
‘यही सच है’ की नायिका दीपा दो पुरूषों के बीच झूलती रहती है. वह जिसे छोड़ आई है, पहला मौका मिलते ही उसे वापस पाना चाहती है, और जिसे पा चुकी है उसे छोड़ने – छोड़ने को हो आती है. स्त्री की पेंडुलम जैसी नियति को ही सच कहना यथार्थ के प्रति अनालोचनात्मक प्रतिबद्धता के चलते सम्भव है.
नई कहानी के दौर में स्त्री – पुरुष सम्बन्ध से अलग अन्य विषयों पर जो कहानियाँ लिखी गईं उनमें भी स्वार्थपरता के माहौल में जी सकने के लिए जूझते हुए मासूम और निरीह लोग दिखाई पड़ते हैं. ‘ जिन्दगी और जोंक ’ के रजुआ के साथ मुहल्ले वालों का बरताव हो या ‘ चीफ़ की दावत ‘ के शामनाथ का अपनी माँ से लगाव, हर जगह यही धूसर यथार्थ प्रकट हुआ है. ‘ भोलाराम का जीव ‘ का भोलाराम तो भ्रष्टाचार से जूझते – जूझते भगवान को प्यारा हो जाता है, लेकिन उसकी आत्मा पेंशन की फ़ाईल में ही अटकी रह जाती है. कहने को, इन कहानियों को मानवीय जिजीविषा की कहानियाँ कह सकते हैं, लेकिन असल में ये मनुष्य के अपनी गरिमा से वंचित हो जाने और उसे वापस पाने की उम्मीद तक के बग़ैर लगभग बदहवासी में जीते लोगों की कहानियाँ हैं. ये कहानियाँ ‘ कफ़न’ की ही परम्परा में हैं, हालाँकि इनमें घीसू – माधव के जीवट का अभाव है.
साठ और सत्तर के दशक में सामने आई ‘साठोत्तरी कहानी’ में सामाजिक यथार्थ की निष्क्रिय आलोचना के बजाय मोहभंग और विद्रोह का स्वर सक्रिय हुआ, लेकिन कोई तर्कसंगत राह न पाकर अराजकता की गर्त में गिर पड़ा. इस दौर की कहानियों का प्रतिनिधित्व ‘घंटा’ करती है. ‘पेट्रोला’ और कुछ नहीं घीसू – माधव के ही रहने की जगह है. आज़ादी के बाद विकसित दलाल – तंत्र ने कर्म के प्रति उनकी उदासीनता में छिपे परिवर्तनकामी सत्व का अपहरण कर उन्हें भेड़ियाधसान में शामिल मलूकदास के शिष्यों मे बदल दिया है. कुछ इस वजह से भी बैठकबाज़ों को, उनकी उनकी कुत्सित मंडली को अब वैसी नीची नज़र से नहीं देखा जाता. ‘घंटा’ का मुख्य पात्र ‘रेस्तराँ’ की जिन्दगी को लात मारकर अंतत: ‘पेट्रोला’ में लौट आता है. वास्तव में यह कोई सकारात्मक अंत नहीं है. ‘रेस्तराँ’ की जिन्दगी कम से कम प्रतिक्रिया तो पैदा करती है. उसमें सक्रियता की, गति की सम्भावना है. ‘पेट्रोला’ की जड़ता का आत्म-मोह से जैसा नाता है, उसमें उन्मेष की कोई सम्भावना नहीं दिखती. इस तरह ‘कफ़न’ की निष्क्रियता सकारात्मक है जबकि ‘घंटा’ का विद्रोह प्रतिगामी. नेहरुवीय स्वप्न के शेष होने के साथ हमारा मध्यवर्गीय युवा वर्ग अराजकता और जड़ता के बीच बहुत हद तक ऐसी ही स्थिति में फँसा रहा था.
साठोत्तरी दौर के कहानीकारों के परवर्ती दौर की कहानियों – ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ और ‘कविता की नई तारीख’ से यह बात अधिक स्पष्ट होती है. ‘धर्मक्षेत्रे.....’ की ज़ंजीर से बँधी हुई स्त्री अपने अपहर्ताओं में से एक की ‘मर्दानगी’ को चुनौती देकर अंतत: उसे उसके बाप से लड़ाने में सफल हो जाती है. इस तरह उसके नवजात शिशु की रक्षा होती है और ज़ंजीर से छूटकर वह ‘असार –संसार’ में खुशी के आँसुओं के साथ प्रवेश करती है. धार्मिक अखाड़ों वगैरह के प्रासंगिक चित्रण के बावजूद यह कहानी स्त्री की पराधीनता का मिथक रचती है और यथार्थ के कहीं बहुत पीछे छूट गए पहलू को व्यक्त करती है.
‘कविता की नयी तारीख’ के लेखक की पत्नी उसके नायकोचित व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए गर्व से बताती है कि शादी की पहली रात को ही उसने जो तमाचा मारा था, उसका निशान अब भी पत्नी के चेहरे पर है. आत्ममुग्ध पति जब भावुक होता है तो उस निशान को चूमने की इच्छा उसके मन में उठती है. धीरोदात्त तेवर में किया गया यह वर्णन कहानी को वापस जैनेन्द्र की ज़मीन पर ला पटकता है. यहाँ ‘पत्नी’ का असंतोष भी नदारद है. यथार्थवाद और यथास्थितिवाद में बस सूत भर का फासला होता है. यह कहानी इसे प्रमाणित करती है.
’90 के उथल–पुथल भरे दशक की पूर्वपीठिका ’80 के दशक में ही तैयार हो गई थी. इसकी प्रथम सूचना 1986 में प्रकाशित कहानी ‘तिरिछ’ ने दी थी. समाज और सत्ता के सर्वग्रासी चेहरे को बेनक़ाब करने के कारण यह कहानी वैसे ही ‘ट्रेंडसेटर’ साबित हुई जैसे पचास साल पहले ‘कफ़न’ हुई थी. तिरिछ जैसे अन्धविश्वासों के सहारे ही रामऔतार जैसे ज्योतिषियों का धंधा चलता है. तिरिछ के काटने के बाद किसी के बच जाने पर लोकमन से तिरिछ का आतंक कम हो सकता है. इसलिए तिरिछ के काटने की झूठी – सच्ची शंका के बाद पिता को धतूरे का काढ़ा पिला दिया जाता है जो खुद घातक जहर है. अपने गाँव वालों के साथ शहर जाते पिता अभी प्यास के बारे में बता भी नहीं पाते कि वे शहर लाकर उन्हें छोड़ देते हैं. शहर में अर्द्धविक्षिप्त पिता बैंक से पुलिस थाने तक मारे मारे फिरते हैं और अंतत: ‘पाकिस्तानी जासूस’ क़रार दिये जाकर संगसार कर दिये जाते हैं. अपने रिहायशी मकान को बचाने के लिए तारीख पर आए पिता मुक़दमें के कागज़ात को भी नहीं बचा पाते और अपने परिवार के सड़्क पर आ जाने की आशंका के बीच ही दम तोड़ देते हैं. तिरिछ के ‘काटने’ और धतूरे का काढ़ा पीने के बावजूद शहर आना जरूरी था क्योंकि तारीख पर न पहुँचने पर वकील लापरवाही करता और ज़ज का मूड अगर खराब हुआ तो वह कुर्की का आदेश दे सकता था. यह है गाँव से शहर तक हमारे नागरिक समाज और पुलिस से अदालत तक राज्यसत्ता का वास्तविक चरित्र. बक़ौल कवि राजेश जोशी – ‘ सबसे बड़ा अपराध है इस समय / निहत्था और निरपराध होना/ जो अपराधी नहीं होंगे/मारे जायेंगे.’
‘तिरिछ’ की सम्वेदना ’90 के दशक में परवान चढ़ी और नई सदी के आते –आते हिन्दी कहानी में वह असाधारण उन्मेष हुआ जिसे हम ‘समकालीन कहानी’ के नाम से पहचानते हैं. यह सिलसिला अब भी जारी है.
6 comments:
लेख पढ़ा।इसकी विनम्र स्थापनाओं ने सोचने को मजबूर किया।जानी-पहचानी पुरानी कहानियों पर भी लेखक की राय जानने का अवसर मिला।आलोचक के लिए नयी रचनाशीलता पर बात करना जितना चुनौतीपूर्ण होता है उतना ही अतिपरिचित कृतियों पर उसकी राय।इससे आलोचक की विश्वसनीयता की परख होती है।कृष्णमोहन जी की खासियत है कि उनकी लगभग सादी दीखने वाली स्थापनाएँ बेचैन करती हैं।
मेरी जिस बात से सहमति नहीं बन पाई वो यह है-
होरी और धनिया अपने समाज की जकड़बंदी तोड़ नहीं पाते.प्रेमचन्द का रचनाकार इसे स्वीकार नहीं करता.वे उस समाज से प्रतिशोध लेने के लिए घीसू – माधव जैसे चरित्रों की रचना करते हैं. गोदान की कौन कहे,वो दोनों कफन तक की परवाह नहीं करते. पुरोहिती कर्मकाण्डों के प्रति,इस तरह वे अपनी घृणा व्यक्त करते हैं.
‘गोदान’ में सामंती आदर्श के निर्वाह को देखकर मन में क्षोभ उत्पन्न होता है,जबकि ‘कफ़न’ में इन बन्धनों को एक झटके में तोड़ फेंकने का लोकतांत्रिक आदर्श प्रस्तुत है.
पहली प्रवृति को आलोचनात्मक यथार्थवाद और दूसरी को वैकल्पिक आदर्शवाद कह सकते हैंxxxxx‘कफ़न’ जैसी रचनाएँ यूटोपिया रचती हैं.
प्रेमचंद प्रतिशोध लेने के लिए माधव और घीसू को रचते हैं।ये दोनो पुरोहिती कर्मकांड के प्रति घृणा व्यक्त करते हैं।यह वैकल्पिक आदर्शवाद है।कफ़न यूटोपिया रचती है।कृष्ण मोहन जी की ये दूर की कौड़ी लगनेवाली बातें हैं जो उस कहानी के बारे में है जिसकी शुरूआती लाइने है-चमारों का कुनबा था सारे गाँव में बदनाम।माधव एक दिन काम करता तो तीस दिन आराम.घीसू इतना कामचोर था कि आध घंटे काम करता तो घंटे भर चिलम पीता(ये लाईने समृति के आधार पर लिख रहा हूँ सो कुछ हेर फेर हो तो माफ़ करें)
ये पात्र यथार्थवाद से भिन्न वैकल्पिक आदर्शवाद के लिए हैं और लोकतांत्रिक आदर्श प्रस्तुत करते हैं हजम हो जानेवाली बातें नहीं हैं।यह यूटोपिया है इसे भी समझना मुश्किल है।
बुधिया के प्रति भी दोनों की संवेदनहीनता में प्रेमचंद का कैसा प्रतिशोध फलीभूत हुआ है।कृष्णमोहन जी को स्पष्ट करना था।
मुझे लगता है यह यथार्थ है।ऐसा यथार्थ जिसकी ज़रूरत ब्रेख्त को महसूस होती है कि इसान को बता दो कि ऐसे हो तो वैसा ही नहीं रह जाएगा।बदल जाएगा।खैर,
मैं समझता हूँ प्रेमचंद की नमक का दरोगा आज अधिक प्रासंगिक है।इसे अब तक नौकरी में ईमानदारी की तरह पढ़ा जाता रहा है जबकि यह एक ईमानदार व्यक्ति के सांमतवाद,बाज़ार और पूँजीवाद से हार मानकर उसके लिए ईमानदार हो जाने की कहानी है जो आज का सच है।प्रेमचंद ने शायद देख लिया था कि एक दिन आएगा जब ईमानदार पूँजीवाद को ईनाम की तरह अपनाएँगे।
आज यही हो रहा है पूँजीपतियों की आय बढ़ाने में लगे हैं एक से एक समाजवादी रचनात्मक दिमाग़।सरकारी सेवाओं से फुरसत पाते ही नीरा राडिया आदि के लिए ईमानदार हो जाते हैं।
यह आज के संदर्भ में अधिक ज़रूरी कहानी है।जाने क्यों इसके पुनर्पाठ से बचा जा रहा है?
लंबी टिप्पणी के लिए माफ़ करेंगे।
प्रेम चंद की कहानियो में नए अर्थ खोजते कहानीकारों से कभी इत्तेफाक नहीं है ....नामवर न भी कहते तो भी हामिद का चिमटा .....ऐतिहासिक ही रहती......मन्त्र भी......कफ़न को अति यथार्थ लिखने वाले लोगो ने दुनिया देखी नहीं है.....कहानी पाठक के लिए लिखी जाती है स्वंय के लिए नहीं ....कहानी शुरू हो कर अंत तक दिलचस्पी बनाये रखे ...बिना अपनी आत्मा खोये ...वही सबसे जरूरी बात है ....नयी कहानी में आज के सवाल .....आज की स्थितिया आ रही है ये अच्छी बात है ...स्त्री पुरुष के संबंधो में परिवर्तन को कहानी पकड़ रही है ....पर कुछ लेखक कहानी को जटिल बना रहे है ...उनकी विद्धता कहानी पर हावी हो जाती है .....अपने आप को दोहराने से बचाना भी लेखक की खासियत होती है ...वंदना राग की कहानिया प्रभावित करती है ...वे न केवल निरन्तरता बनाये रखती है ...बल्कि अपने सन्देश को पहुचाने में कामयाब होती है ....
वैसे मेर मानना है लेखक की एक फॉर्म होती है .....उसे तभी लिखना चाहिए जब उसका मन हो.....
लिखने के लिखना .....वो आज के कहानीकारों पर शायद अतिरिक्त दबाव है.
सभी उल्लेखित कहानियों को इस आलेख की स्थापनाओं के साथ रख कर पढ़ने के बाद ही कोई प्रतिक्रिया जाहिर करना संभव होगा। प्रकाशक का पता दर्ज कर दीजिए-चूंकि कहानियां भी और आलेख भी एक साथ है तो किताब के जरिये ही पढ़ना ज्यदा सुलभ रहेगा। यदि पीडिएफ़ मौजूद हो और मेल करना संभव हो तो--- पहुँच समय से हो सकती है।
@ विजय जी : अरे साहब, यह तो सारी चर्चित कहानियाँ हैं. इसमें से भला कौन ऐसी कहानी होगी जो आपने पढ़ी नही होगी.
वैसे यह संग्रह, जैसा कि मैने उपर लिखा है, विश्वविद्यालय प्रकाशन से आया है.
इस किताब की भूमिका जो बयार समेट रही है इससे तो यही लगता है कि हिंदी कहानियाँ फिर से खंगाली जाएगी...
आलेख में शोध क्षुधा को तृप्त करने के लिए पर्याप्त सामग्री है. पर्याप्त इसलिए कि जितनी भरती है यह भूख उतनी खाली हो जाती है.
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