कविता से बाहर पाँव रखते हुए
सुथरे निथरे दराज से चूहे निकलते हैं, डरे हुए दिमाग से दु:स्वप्न
फाईलें कागज से अटी पड़ी हैं,यादाश्त शब्दों से
दफ्तर के जँगले जिनके बाहर वो हरा है जो कविता नहीं,
भारी पत्थर है
समय की नस पर पड़ गया है.
दफ्तर नमक की तरह घुलता जा रहा है रक्त में
शुक्रग़ुजारी और एहसानफरोशी ने चोट की है रीढ़ पर
काम, जैसा भी है, अपना लगता है और जरूरी भी.
फुर्सत उस जमाने की कविता है
जहाँ पेड़ पर फल लगते थे
जिनसे रौशनी निकलती थी
प्रेम, शिक्षक की तरह, लाया कविता तक
विदा के वक्त प्रेम ने
कविता से लगे रहने का ध्यान धराया
आसान नहीं था कविता के बाहर पाँव रखना
जैसे उस मित्र का परित्याग था
जिसके साथ कदम दर कदम मिला पाने में असमर्थ हों.
वो शब्द सारे
जिनसे कविता की छत
और दीवाल गढ़ा करता था कवि
पड़े रहेंगे,
इनसे भयभीत है कवि या शर्मिन्दा
इसका ठीक ठीक अन्दाजा है मुश्किल,
जाग रहे समय का नहीं पता
पर शब्द हैं साथी
यह कवि भलीभाँति जानता है नीन्द में
जहाँ हर क्षण पलक वो कर रहा होता है
अपनी नई कविता का
आखिरी ड्राफ़्ट.
...............................................................सूरज की कविता