Sunday, December 22, 2013

ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ||

( युवा कथाकार श्रीकांत नौकरी के सिलसिलों में मैक्सिको सिटी गए हुए हैं. नई बात के आग्रह पर यह तय हुआ है कि हर हफ्ते, मैक्सिको से जुड़ा, वो एक न एक वृतांत भेजेंगे जो यात्रा / आत्म / अन्य संस्मरण से मिलता जुलता होगा. प्रस्तुत पहली किस्त में श्रीकांत मैक्सिको पहुँच रहे हैं, इसलिए आप पायेंगे कि नई दिशा में जाने की उत्कंठा है, यात्रा समाप्त होने के बाद की बेचैनी, उद्वेग है, आत्मगत खुशियाँ और शामिल मुश्किलें हैं. )

( ** पाठ शीर्षक, श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकांड की एक चौपाई है )




बहुत लोगों के लिए यात्राएँ रोजमर्रा की आम बातों की तरह होती हैं. विमान के भीतर का मेरा पड़ोस ऐसे ही लोगों से भरा था. यह जानने के लिए उनसे पूछताछ करने की ज़रुरत नहीं थी, एअरपोर्ट की सुरक्षा जांच से लेकर विमान में अपनी जगह पर बैठने तक के प्रक्रम में उनका सहज रहना देखकर ही इस बात का एहसास हो जाता था. ऐसे लोग कम ही थे जिनकी नज़र खिड़की पर ही चिपकी रहे. उन्हीं कम लोगों में से एक मैं भी था.

विमान ने जब हहराती रफ़्तार में भागते हुए उड़ान भरी, उस वक्त भारतीय समय के अनुसार भोर के साढ़े तीन बज रहे थे. दिल्ली शहर कुछ ही क्षणों में अन्धकार के समुद्र में तैर रही दीयों की थाल बन गया, और चंद मिनटों में ही कहीं पीछे छूट गया. आगे, हम हरियाणा और पंजाब की भूमि के ऊपर कहीं से गुजरते रहे, जहां से मैं यह उम्मीद लगाये बैठा था कि कहीं तो कुछ दिखेगा, रौशनी सरीखा. हरियाणा चूक गया तो पंजाब के हिस्से से सही, कोई शहर नहीं तो किसी कस्बे की सड़क के किनारे जलता कोई लैम्पपोस्ट या किसी उत्सवधर्मी गाँव से प्रकाश का एक छोटा सा गुच्छा ही सही. लेकिन हाथ लगी निराशा. इस पूरे दौर में मैं अपनी सीट से थोडा उचककर खिड़की के शीशे पर आँखें चिपकाए प्लेन के ठीक नीचे देखने की कोशिशों में तत्पर था. कुछ इस तरह, मानो बनारस, इलाहाबाद या लखनऊ शहर की किसी सघन बस्ती के मकान के चौथे माले पर रहने वाली लडकी खिड़की की ग्रिल पकड़कर ठीक नीचे खड़ी उस लड़के की साइकिल देख लेना चाह रही हो जो उसे पसंद करता है. बहरहाल, मेरी ऐसी तमाम कोशिशों से जो कुछ भी मुझे दीख रहा था वह महान अँधेरे को जरा सा धूमिल करती चाँदनी के बीच नीचे की ओर जाती अनंत गहराई की सुरंग थी. मुझे याद आया कि यह उन अनेक डरावने सपनों में से किसी एक का यथाचित्र है जिन्हें मैं बचपन में बहुतायत में देखा करता था. जिनमें रिक्तता के अनंत में अन्धकार के भीतर सनी अजीब सी आकृतियाँ हुआ करती थीं और जिनमें से किसी भी आकृति ने कभी भी जादू की छड़ी ली हुई जगमगाती परी का रूप नहीं लिया, जो मुझसे पूछे कि बोलो तुम्हें क्या चाहिए? यूं विमान के अन्दर होते हुए सपने के उस यथाचित्र से मुझे ऐसी कोई अपेक्षा नहीं थी, सिवाय इसके कि किसी शहर की कोई शिनाख्त मिल जाय.

इस बीच मेरे पडोसी सहयात्री ने सामने वाली सीट की खोल पर चिपकी एक डिजिटल स्क्रीन को चालू कर लिया, जिस पर कि पहले मेरा ध्यान नहीं गया था. इससे पहले मैंने विमान से कुछ अन्तःदेशीय यात्राएँ की थीं, लेकिन उनमें ऐसी तकनीक मुझे कतई नहीं मिली. मैंने जल्दी से उस स्क्रीन के फीचर्स की पड़ताल कर डाली और पाया कि उसमें अंग्रेजी और डच भाषा की फिल्मों और संगीत के अलावा विमान की वर्तमान अवस्थिति को बताने वाला रूट मैप भी है. मैं रूट मैप वाले स्क्रीन को चालू कर विमान की बढ़ती गति के सापेक्ष नीचे के भूगोल की कल्पनाएँ करने लगा. बीच बीच में उचककर खिड़की से परे भी देख ले रहा था. विमान की पचास प्रतिशत से अधिक की आबादी अपनी सीट्स पीछे की झुकाकर सो चुकी थी. जागने वालों में मेरे अतिरिक्त मेरे पडोसी सहयात्री भी थे. एक-आधी बार मेरी तरफ देख लेने के उनके अंदाज़ से जाहिर हो रहा था की मेरी हरकतें उनकी नजर में बचकानी हैं. ऐसा महसूस करने के बाद भी मुझे लगा कि इससे मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा. मैंने रूट मैप पर विमान के मार्ग से थोडा हटकर चिन्हित पेशावर शहर को देख जान लिया कि हम पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत की उत्तरी सीमा के आस पास से गुजरते हुए अफगानिस्तान की हवा में प्रवेश करने वाले हैं. इस भूखंड से मुझे वैसी कोई उम्मीद न रही, जैसी पीछे छूट रहे भारत और फिर लाहौर के आस-पास के पाकिस्तान वाले हिस्से से थी. अन्धेरा बदस्तूर कायम रहा. अफगानी आसमान में बादल न होने के कारण अँधेरे की सुरंग मानो और भी गहरी हो गयी हो. विमान जब काबुल शहर के बगल से गुजर रहा था तो अनायास अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमलों की याद आयी. आसमान के उसी हिस्से से, या हो सकता है कि ठीक उसी बिंदु से रेगिस्तानों में खरगोश और बकरियों की तरह छुप रहे लोगों पर गोले बरसाए गए हों, क्या पता कि धमाकों को चीरती हुई कोई चीख उस ऊंचाई तक भी पहुँची हो जहाँ से हम गुजर रहे थे.

अफगानिस्तान के बाद तुर्कमेनाबत नाम का शहर. वहाँ के भूगोल के बारे में कुछ न जानते हुए भी मैंने अनुमान कर लिया कि नीचे की जमीन तुर्कमेनिस्तान कहलाती होगी. एक जरा देर की दूरी के बाद उज्बेकिस्तान और फिर कजाकिस्तान. कजाकिस्तान का अंदाजा रूट मैप पर आक्ताऊ शहर के उल्लेख से लगा जिसके बारे में मैंने कहीं पढ़ रखा था कि वह कैस्पियन सागर के किनारे पर स्थित है. कैस्पियन सागर पार कर रूस की सीमा के ऊपर दाखिल होने तक हमने लगभग साढ़े तीन घंटे का सफ़र तय कर लिया था. मतलब भारतीय समय के अनुसार उस वक्त सुबह के सात बजे होंगे. मतलब भरपूर रौशनी वाली एक सुबह. लेकिन रूस का आसमान फिर भी काला, गहन काला. मतलब गोल पृथ्वी की परिधि का चक्कर काट रहे हमारे विमान के बहुत पीछे छूट रही सुबह, जो ताबड़तोड़ हमारी ओर बड़ी आ रही थी. इस तरह पृथ्वी के गोल होने की परिकल्पना को व्यवहार रूप में महसूस करना रोमांचक था. और यह सोचना भी कि सूरज हमारा पीछा कर हमें पकड़ पाने की कोशिशों में है और हम, फिर भी, उसकी पहुँच से घंटों दूर.

रूस की यूक्रेन से लगती सीमा के करीब पहुंचने पर किसी पुच्छल तारे की पूँछ की मानिंद धुंधली रोशनी वाला एक भूखंड दिखा, स्क्रीन उस जगह को मिलरोवो नाम दे रहा था. जाहिर तौर पर यह रूस का यूरोप में पड़ने वाला हिस्सा था. मेरे द्वारा तय किये गए पूरे तथा अपने आप में लगभग एक चौथाई एशिया को अँधेरे में देखने के बाद यूरोप में दाखिल होते ही रोशनी के दिख जाने ने मुझे इस बात को अपने कहे जाने वाले महाद्वीप की नियति के बारे में सोचने पर विवश कर दिया. यहाँ मुझे एशिया के प्रति पश्चिमी महाद्वीपों के उपेक्षापूर्ण बर्ताव से अधिक भारत समेत अपने पड़ोसी देशों की रूधिग्रस्त जीवन शैली पर अफ़सोस हो रहा था, जहाँ रात के समय को सक्रिय जीवन का हिस्सा शायद इस पूरी सदी में भी न माना जा सके. मुझे पूरा यकीन था की रात के अँधेरे के बचे हिस्से में अब मुझे ऐसी रौशनियाँ अब दिखती रहेंगी. यूक्रेन के बाद बेलारूस आया, और हर पंद्रह-बीस मिनट के अंतराल पर उजाले का कोई न कोई टिमटिमाता टुकड़ा दीखता रहा. पोलैंड की राजधानी वर्सा हमारी यात्रा के रात वाले हिस्से का सबसे रौशन पड़ाव रहा. रूट मैप के अनुसार वहाँ से उत्तर की दिशा में चेक गणराज्य का प्राग शहर था. प्राग शहर को मैं सिर्फ निर्मल वर्मा की वजह से जानता था. ‘वे दिन’ उपन्यास के भीतर रचा बसा प्राग मेरी दृष्टि सीमा से बस थोड़ी सी दूरी पर लोगों की आँखों में भोर की मीठी नींद भर रहा होगा. काश, एक झलक मिल जाती उसकी.

पोलैंड के सीमान्त तक पहुँचते पहुँचते क्षितिज के अँधेरे के बीच एक फांक भर लाली दिखने लगी. मतलब रात और दिन के बीच का वह समय जिसके लिए प्रसाद ने ‘अम्बर पनघट में डुबो रही तारा घाट उषा नागरी’ लिखा है. कुल मिलाकर अब हम सूरज की पकड़ से बस थोड़ी दूर थे. सामान्य परिस्थितियों में उसके बाद चीज़ों को उनके असली रंग का दिखलाने लायक सुबह होने में दस से पंद्रह मिनट का वक्त लगता. वैज्ञानिक गणना के अनुसार साढ़े आठ मिनट सूर्य की पहली किरण के पृथ्वी तक पहुँचने के लिए, बाकी के साढ़े सात मिनट बाकी किरणों के जगहों और चीज़ों के भीतर तक घुसकर अपनी जगह ले लेने के लिए. लेकिन आसमान में लाली अर्थात ऊषा के अवतरण के बाद, हमारे लिए सुबह होने में कम से कम एक घंटे का वक़्त लगा. अँधेरे और रौशनी की द्विविधा के बीच बर्लिन भी पीछे छूट गया. यूरोप की सतह पर उगी वनस्पतियाँ थोड़ी थोड़ी स्पष्ट होने लगीं. मैं कुर्सी की स्क्रीन से नज़र हटाकर वापस खिड़की पर चिपक गया. यूरोप नामक महाद्वीप ही खूबसूरत था या हर अजनबी आसमान से दिखने वाली पृथ्वी ऐसी ही खूबसूरत दिखती है, मुझे नहीं पता, पर मैं देखे जा रहा था. पायलट ने जिस वक्त एम्सटर्डम शहर के करीब आने का ऐलान किया तब तक यूरोप की सतह पर पक्की तौर पर सुबह उतर आई थी. विमान धीरे धीरे नीचे की ओर उतरने लगा. जिस ऊँचाई से पृथ्वी की सतह साफ़ दिखने लगी, मुझे दूर तक पानी ही पानी दिखाई दे रहा था. यह विशाल जलराशि नीदरलैंड के मानचित्र में अन्दर तक घुसे हुए उत्तरी सागर यानी नार्थ सी की थी, जिसके किनारे पर एम्सटर्डम बसा हुआ है. उत्तरी सागर से लगकर बहती एम्स्टेल नदी का चौड़ा पाट समुद्र को शहर में घुसता हुआ दिखा रहा था. एम्स्टेल नदी से फूटती अनेक नहरें एम्सटर्डम शहर के अंग-अंग पर गहने की तरह लिपटी हुई थीं. मैं पृथ्वी के इस खूबसूरत टुकड़े के सौन्दर्य पान में कुछ इस कदर मशगूल था कि अपने पडोसी द्वारा बोले एक छोटे से वाक्य पर ध्यान नहीं दे पाया. उन्हें दूसरी बार मुझसे पूछना पड़ा, ‘पहली बार पहुँच रहे हैं एम्सटर्डम?’ मैंने हाँ में जवाब देते हुए उनसे उन तमाम नहरों के बारे में पूछ डाला, उन्होंने ही बताया की एम्स्टेल नदी से निकली नहरे हैं तथा इस शहर का नाम ‘एम्स्टेल’ और ‘डैम’ (बाँध) से मिलकर एम्सटर्डम बना है. विमान ने जब धरती को छुआ तब उन्होंने बताया कि एम्सटर्डम शहर समुद्र तल से दो मीटर नीचे बसा है. यह मेरे लिए एक और चौंकाने वाले तथ्य था.  एम्सटर्डम के शिफोल एअरपोर्ट पर उतरने के वक्त वहां सुबह के साढ़े सात बजे थे और दिल्ली से वहां तक की यात्रा में हमें साढ़े सात ही घंटे भी लगे. एयरक्राफ्ट से उतरकर मै सीधा यूरोप की मिट्टी पर कदम रखना चाहता था, लेकिन विमान के दरवाज़े पर ही एक सुरंगनुमा मार्ग लगा दिया गया था, जिसमें चलकर हम एअरपोर्ट के अन्दर पहुँच गए.

विमान से उतरकर एअरपोर्ट में दाखिल होने पर फिर से एक सुरक्षा जांच. पर इसमें कोई ख़ास समय नहीं लगा, क्यूंकि सारे लोग सिर्फ दो-एक हैण्ड बैग्स के साथ ही थे. मुझे एम्सटर्डम में सात घंटों के लिए रुकना था, अगली उड़ान दिन में दो बजकर पैंतीस मिनट की थी. मैंने एअरपोर्ट की सीमा से बाहर निकल शहर को ताक आने की कोशिश की. सुरक्षा-कर्मियों ने यह कहे हुए मुझे बेरहमी से एअरपोर्ट में अन्दर की ओर वापस कर दिया कि मेरे पास शेनेगन वीसा नहीं है, जो कि यूरोपियन यूनियन के देशों में भ्रमण के लिए ज़रूरी था. मैं एअरपोर्ट के जिन-जिन कोनों में जा सकता था, वहाँ जाकर एम्सटर्डम की मिट्टी, वनस्पतियों, सड़कों और पहाड़ों को देखने की कोशिश करने लगा. ग्यारह बजे के आसपास मैंने महसूस किया कि मैंने पिछले तीस से अधिक घंटों से सोया नहीं हूँ और अब आँखें किसी भी तरह की विलक्षणता या सौन्दर्य को जज़्ब कर पाने में असमर्थ हो रही हैं. मैं विश्राम कक्ष की कुर्सी पर बैठे बैठे सो गया. दो बजे तो जेब में रखे मोबाइल का अलार्म गुनगुना उठा. लोग मैक्सिको सिटी की उड़ान के लिए जुटने लगे थे. थोड़ी देर बाद विमान की तरफ प्रस्थान करने की घोषणा हुई और मैं पंक्ति में पहला हुआ उधर जाने वाला.

आगे की यात्रा के लिए विमान में बैठते हुए मैं अंतर्राष्ट्रीय नियमों के प्रति गहरा गुस्सा महसूस कर रहा था, जिनकी वजह से मैं शिफोल एअरपोर्ट में कैदी बनकर रह जाने के अलावा यूरोप की मिट्टी तक से भी दीदार नहीं कर पाया था. विमान के भीतर मेरे आस पास से लेकर दूर तक अपनी अपनी सीट्स ले रहे लोगों को देख, उनकी भाषा आदि सुनते हुए पहली बार मेरे जेहन में ‘विदेश’ जैसा ख्याल आया. सारी घोषणाएं पहले स्पैनिश, फिर डच और आखिर में अंग्रेजी में होनी शुरू हो गईं. दिल्ली से एम्सटर्डम के बीच भाषा के विकल्पों में हिन्दी भी थी. हालांकि मुझे ठीक ठाक अंग्रेजी के साथ काम चलाऊं स्पैनिश भी आती थी, लेकिन फिर भी इतने सारे दिन हिन्दी के बिना गुजारने की कल्पना ने मुझे असहज सा कर दिया था. हिंदी के बाद की अगली करीबी भाषा मेरे लिए अंग्रेजी ही थी. मैंने सोच लिया की जहां तक चलेगा, आगे अंग्रेजी ही बोलूँगा. मैं एयर होस्टेस से पानी मांगने से लेकर बाथरूम तक जाने के लिए पडोसी सहयात्री से थोड़ी सी जगह गुहार तक के लिए भी अंग्रेजी का इस्तेमाल करता रहा. उड़ान भरने के बाद जल्द ही हमने यूरोप के शेष भूखंड, यानी इंग्लैंड और आयरलैंड को पार कर लिया और उत्तरी अटलांटिक महासागर के मुख्य प्रवाह के ऊपर आ गए. अटलांटिक के बारे में मैंने सुन और पढ़ रखा था कि यह सबसे अधिक अशांत और उग्र महासागर है. कैटरीना, वेंडी और ऐसे अनेक नामों वाले सबसे उपद्रवी तूफ़ान इसी महासागर की कोख से उठते रहे हैं. अनेकों पनडुब्बियों तथा जहाज़ों को निगल लेने वाला ‘डेविल्स’ अथवा ‘बरमूडा ट्रायंगल’ इसी अटलांटिक का एक हिस्सा है. तथा कुछ ही वर्षों पहले ब्राजील से फ्रांस जाने वाले एयर फ्रांस के विमान को इसी अटलांटिक के आसमान और फिर पानी ने मिलकर लील लिया था. जाहिर तौर पर इन सभी तथ्यों के मष्तिष्क में प्रकाशित रख यात्रा करते हुए मैं अटलांटिक से डरा हुआ था, और चाहता था कि कुछ और लम्बी दूरी की शर्त पर ही सही लेकिन हमारा विमान और अधिक उत्तर की ओर जाते हुए ग्रीनलैंड के ऊपर के आसमान में उड़े. दिन की भरपूर रौशनी हमारे साथ थी और ऊपर से देखने पर बादलों की झीनी परत के हस्तक्षेप के बीच से सिर्फ नीले रंग की सतह दिख रही थी. बीच बीच में कुछ द्वीप भी आते रहे, जिनके बारे में विमान के रूट मैप में भी कोई ज़िक्र नहीं होता था, और समुद्र और उनके बीच में पड़े विशालकाय चट्टान और भूखंड धूप में नहाते हुए बेहद खूबसूरत दीखते रहे. सूर्य और हमारे बीच का खेल दिल्ली से एम्सटर्डम की यात्रा के दौरान चले खेल के विपरीत चलने लगा. मतलब इस बार आगे आगे सूर्य और पीछे पीछे हम. सूर्य की कोशिश की वह जल्दी से पश्चिम की ओर बढ़कर शाम और रात करे, और हम भी उसी की तर्ज पर पश्चिम की ओर बढ़ते जाते हुए. मेरे लिए दहशतनाक अटलांटिक को पार कर जब हम कनाडा के आसमान में दाखिल हुए, उस वक़्त का सूरज लगभग साढ़े चार बजे वाला रंग दिखा रहा था. हम न्यू ब्रून्स्वीक शहर, यानी कनाडा के सीमा में जरा सा घुसने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यू हैम्पशायर और न्यूयार्क के ऊपर उड़ने लगे. वर्जीनिया, टेनेसी और अल्बामा प्रान्तों को बारी बारी से पीछे छोड़ते हुए हम एक बार फिर से बदनाम अटलांटिक के उस हिस्से के आसमान में दाखिल हुए जिसे मैक्सिको की खाड़ी के नाम से जाना जाता है. यहाँ तक पहुँचते पहुँचते सूरज फिर से हमसे जीतने लगा और आसमान कैरेबियाई शाम के लिए लाल रंग पहनने लगी. इससे आगे के भूगोल के बारे में मुझे कुछ ख़ास नहीं पता था. आखिर के तकरीबन एक घंटे का सफ़र ‘जल्दी से मैक्सिको सिटी’ आ जाने की मानसिक गुहार, ऊब और ढेर सारी थकान के बीच बीती. शाम के बाद रात का अँधेरा छाने लगा, और पता ही नहीं चला की समुद्र का हिस्सा कब बीत गया. मैक्सिको की धरती का जो हिस्सा सबसे पहले हमारे नीचे आया वह वेराक्रूस नाम का प्रान्त था. वहां से मैक्सिको सिटी की यात्रा में अधिक से अधिक बीस मिनट लगे. विमान के जमीन छूने से ठीक पहले के दृश्य से यह स्पष्ट था कि मैक्सिको सिटी काफी विस्तृत क्षेत्र में बसा एक घनी आबादी वाला शहर है.

एम्सटर्डम से मेक्सिको सिटी तक की यात्रा कुल ग्यारह घंटे और चालीस मिनट की थी. मैक्सिको की जमीन पर कदम रखने के वक़्त थकान और ऊब से भरे मेरे जिस्म में नए देश या शहर के प्रति किसी भी तरह की उत्सुकता के लिए जगह नहीं बची थी. मैं जल्दी से यात्रा शब्द तक सी पीछा छुड़ाकर खुद को एक लम्बी नींद के हवाले कर देना चाहता था. विमान से बाहर आकर एअरपोर्ट के अन्दर घुसते ही मैं और लोगों की तरह दिल्ली में बिछड़े अपने दोनों बैग्स पा लेने के लिए लगेज क्लेम की ओर भागा. कुछ ही मिनटों में मेरे बैग मेरे सामने आ गए जिन्हें उठाकर मुझे लगा की बस अब एक टैक्सी मिले और मुझे किसी तरह होटल पहुंचा दे. लेकिन सहयात्रियों की देखा देखी आगे बढ़ते हुए फिर एक बार सुरक्षा जांच की प्रक्रिया सामने आ गयी. जिसमें नीली वर्दी पहने एक पुलिस महिला कतार में बढ़ रहे हम विदेशियों का स्वागत एक लम्बी डोर से बंधे कुत्ते से करती जा रही थी. डोर का दूसरा सिरा उस महिला के हाथ में था तथा कुत्ता उसके पूरे दायरे में घूम घूमकर यदृच्छया किसी के भी शरीर से लेकर सामन तक को सूंघता जा रहा था. जिस किसी के पास वह कुछ देर के लिए ठहर जाता, पुलिस महिला दूर खड़े अपने साथियों की तरफ इशारा कर उस शख्स की विधिवत तलाशी का निर्देश दे देती. कुत्ते ने बदस्तूर मेरा भी स्वागत किया, लेकिन जल्द ही दूसरे यात्री के सामान की ओर बढ़ गया. प्रत्येक विदेशी के साथ किया जाने वाला यह शंशय का व्यवहार निहायत अपमानजनक था. बात सिर्फ इतने तक नहीं थी. कुत्ते के बर्ताव से बचे लोगों को एक आगे एक अलग कतार में जाना पड़ता. कुत्ता जिन्हें तलाशी के लिए पृथक कर देता, वो वहीं से विधिवत तलाशी वाले काउंटर की तरफ बढ़ जाते. और बचे लोग उस दूसरी कतार में, जिसके अन्त में रखी एक मशीन में लगी कांच की सतह को उन्हें अपनी तर्जनी से छूना पड़ता. छूने पर यदि लाल बत्ती जल जाए तो यात्री को वापस विधिवत तलाशी वाले काउंटर की तरफ जाना पड़ता, और अगर हरी बत्ती जल जाए तो उसी बिंदु से आगे पूरा मैक्सिको आपका. लाल और हरी बत्ती की इस प्रक्रिया का तर्क मुझे कुछ कुछ लाई डिटेक्टर यानी झूठ पकड़ने वाली मशीन पर आधारित लगा. मतलब वह शायद अपने दायरे के अन्दर आने वाले व्यक्ति की धडकनों की रफ़्तार के आधार पर लाल या हरा रंग दिखाती होगी और कांच की सतह को छूना उसे सक्रिय करने के लिए होता होगा. मुझे चूंकि इसकी कोई खबर नहीं थी कि सामान के अन्दर ऐसी कौन सी चीज़ें होती होंगी जिन्हें ये आपत्तिजनक मानते हैं, इसलिए मेरी धडकनें औसत और संयत थीं, मुझे यकीन था की मेरे हिस्से में हरा रंग ही आएगा. लेकिन हुआ इसका उल्टा. लाल बत्ती जल गयी. मैंने सोच लिया कि मैं लाल और हरे रंग के पीछे के तर्क को अब जानकार ही रहूँगा. मुझे स्पैनिश भाषा आती थी, फिर भी मैंने इस बात से जुड़ा सवाल अंग्रेजी में पूछा. मुझे उत्तर मिला कि मशीन की प्रोग्रामिंग ऐसी है की यह किसी को भी लाल और किसी को भी हरा रंग दे सकता है. यह सुनते ही मुझे भारतेंदु हरिश्चंद के ‘अंधेर नगरी’ की याद आयी और मैं इस देश में अपने प्रवास की सोचकर सशंकित हो उठा. बहरहाल, मैं विधिवत तलाशी देने पहुंचा. शरीर की तलाशी चंद सेकेंड्स में पूरी हो गयी, लेकिन बैग जो खुला तो तलाशी लेने वाली महिला का चेहरा मानो अचानक ही चमक उठा. उसने एक एक कर मेरे दोनों बैग्स से दालें, चावल, चने, मूंग और सोयाबीन समेत कम से कम दसियों थैलियाँ निकलकर अलग कर दीं. जो कुछ उसने छोड़ा उनमें छोटे सामानों के अलावा कुछ कपडे, किताबें, एक डिब्बा अचार के अलावा माँ की ढेर सारी दुआएं. मैंने एक झटके में अपने देर से रुके गुस्से को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से बाहर कर दिया. लेकिन जांच अधिकारी को अंग्रेजी नहीं आती थी. फिर गुस्से का अनुवाद स्पैनिश में कर देने से पहले ही मुझे ख्याल आ गया की उसके पास मुझे एअरपोर्ट से ही बैरंग वापस भेज देने के सारे अधिकार सुरक्षित हैं, इसलिए स्पैनिश भाषा में मेरा तापमान कम ही रहा. मेरी बात के ज़वाब में उस अधिकारी ने कहा कि वे प्लेग के डर से किसी भी तरह के अनाज को बाहर से देश के अन्दर आने नहीं देते. मुझे यह सफाई कतई अपर्याप्त और असंतोषजनक लगी, मैं विदेशों से हो रहे हज़ारों टन अनाज के आयात-निर्यात के बारे में सोचा, लेकिन चुप ही रहा. बैग्स में बचे सामान और मुंह में ढेर सारी कडवाहट लिए मैं एअरपोर्ट से बाहर और लिखे हुए के आधार पर टैक्सी स्टैंड तक पहुँच गया. एक टैक्सी चालक ने मेरे होटल का पता पूछा और सामान उठाकर रख लिए. होटल पहुंचकर एक बार मैंने खाने के बारे में सोचा, फ़ूड मेन्यू उठाकर देखा और फिर रख दिया. मेन्यू के अन्दर सबसे अधिक शाकाहारी चीज़ ‘आरोस कोन पोय्यो’ यानी चिकेन के साथ चावल इसलिए थी की उसमें शाकाहार के नाम पर कम से कम चावल था. मैंने तय किया कि इस बात का फैसला कल करूँगा कि मैं और कितने समय तक शाकाहारी रह सकता हूँ और बिना खाए जैसे तैसे सो गया.

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श्रीकांत से सम्पर्क: bestshrikant@gmail.com

9 comments:

Anonymous said...

Weldon keep it .

Anonymous said...

Awesome.looks like we are going through the journey.

Anonymous said...

Very well written. Memories are back.it is like going through journey yourself.

Amir said...

I appritiate it, Although I was the first one to read it before its publication and I cant forget that while listening how I was feeling and how much happy I was, its amazing for me because I can better understand these feelings being here in Mexico, superb work shrikant keep it up.

Amir said...

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Pushkar said...

I really appreciate your narration of the Mexico travel. Instead it gave me the virtual feeling of revisiting Mexico in the way you explained. And recollected my last best days of togetherness in Mexico.

सुशील said...

बहुत बढ़िया श्रीकान्त।
अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।