Sunday, January 12, 2014

मेक्सिकन भोजन और 'सोना रोसा'

( यात्रा / संस्मरण के इस हिस्से में सोना रोसा का वह इलाका जो रोबेर्तो बोलान्यो के नाते नॉस्टेल्जिक करता है )

ऑफिस के काम में दिन भर व्यस्त रहने के बाद लगभग हर शाम आस-पास घूमकर हम खाने के ऐसे विकल्प खोजा किये जो भारतीय व्यंजनों की आदी हमारी स्वादेंद्रिय को सहने लायक लगें, और उनमें सबसे कठिन शर्त उस व्यंजन का शाकाहारी होना साबित होती थी. भोजन की इस तलाश में जो दो चीज़ें हमारे लिए मददगार होतीं उनमें से पहली बात मैक्सिको के लोगों का खाने के मामले में प्रयोगधर्मी होना था, जिसके कारण हमें व्यंजनों की विविधता मिल जाती, तथा दूसरी यह, कि हमारे होटल के आस-पास हर गली में ढेर सारे क्लब्स और रेस्तराँ थे. हम हर रोज कई रेस्तराओं की जांच कर किसी नए में बैठ कोई व्यंजन आजमाते और उसे पिछले दिनों के व्यंजनों की तुलना में बेहतर या बदतर जैसी किसी श्रेणी में रखते हुए अपने आगामी दिनों के आहार के विकल्प के तौर पर दिमाग में नोट कर लेते. यूं शुक्रवार तक आते आते हमें यह मान लेना पड़ा कि इस तरह के प्रयोग के सहारे तीन महीने काट पाना संभव नहीं होगा, और कुछ भी करके चूल्हे-चौके का बंदोबस्त करना ही पड़ेगा.

अब तक हमने जिन व्यंजनों को अपने स्वाद-बोध के लिए दोस्ताना पाया उनमें से पहली चीज़ का नाम ‘ताकोस’ था. ताकोस, मक्के के आटे से बनी रोटी नुमा संरचना जिसे तोर्तियास के नाम से जानते हैं, के बीच हरी सब्जियों का अधपका मिश्रण भर देने से बन जाता था. कुल मिलाकर भारत के महानगरों में फ़ास्ट-फ़ूड वाली रेहड़ियों पर मिलने वाले वेज रोल जैसी कोई चीज़. तोर्तियास, जिसे कि हम अपनी रोटियों के विकल्प के तौर पर क़ुबूल कर चुके थे, ग्रोसरी की लगभग हरेक दूकान में बनी बनायी मिलती है. थोड़ी छानबीन करने पर पता चला कि तोर्तियास पुराने समय से ही मैक्सिको की खाद्य परंपरा का अभिन्न हिस्सा हैं, जिन्हें पहले ठीक उसी प्रक्रिया से बनाया जाता था जैसे भारत में रोटियां बनती हैं. मतलब भारतीय समाज यदि रसोई के दृष्टिकोण से भी आधुनिक (अथवा सभ्य) होता रहा तो आने वाले पंद्रह बीस वर्षों में शायद भारत में भी बनी बनाई रोटियां ही मिलें, जिन्हें हम आवश्यकतानुसार गर्म करके खा लें. 


यह जाहिर हुआ की मैक्सिको में खाए जाने वाले अन्न कुछेक अपवादों को छोड़कर भारत के प्रमुख खाद्यान्न ही हैं. इसका कारण ग्लोब पर दोनों देशों की सामान भौगोलिक अवस्थिति है. मसलन मैक्सिको का अक्षांशीय विस्तार १४ अंश से उत्तर से तैतीस अंश उत्तर के बीच ठहरता है, जो कि भारत के ६ अंश उत्तर से ३५ अंश उत्तरी अक्षांश के सीमा के अंतर्गत आ जाता है. मतलब यहाँ की जलवायु भारत के कर्नाटक से लेकर पंजाब के बीच के राज्यों की जलवायु जैसी है, जो कि गेहूं, चावल और मक्के के साथ तकरीबन उन सभी फसलों की पैदावार के लिए उपयुक्त है जो भारत में होती हैं. फर्क है तो सिर्फ किन्हीं ख़ास फसलों को प्रमुख खाद्य के रूप में दी जाने वाली वरीयता तथा उनके प्रयोग के तरीकों का. भारत में मक्का मोटे अनाज की श्रेणी में आता है तथा गेहूं की तुलना में उपेक्षित पाया जाता है, जबकि मैक्सिको में ठीक इसका उल्टा है. यहाँ के भोजन का आधार मक्का है, जिसके बारे में यहाँ एक मुहावरा प्रचलित है, ‘नो पाइस सिन माइस’ अर्थात ‘मक्का नहीं तो देश नहीं’. वहीं अगर मैक्सिकन चावल की बात करें, तो यहाँ के चावल सुगंधहीन तथा अपेक्षाकृत मोटे होते हैं. मसालों में सबसे प्रधान तत्व लाल मिर्च होती है, अदरक, लहसुन, हरी मिर्च आदि उसके बाद आते हैं.

पांच दिनो के दफ्तरी काम और खाने पीने के बीच जिस एक दूसरी चीज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर घसीट लिया, वह था ‘सोना रोसा’ नाम का इलाका. पहली दफा कानों में पड़ने के साथ ही यह नाम मुझे कुछ जाना-सुना सा लगा. कहना न होगा कि मैक्सिको में कदम रखने की अगली सुबह से ही जिस एक लेखक को मैं हर मोड़ और चौराहे पर याद करता रहा, वो थे रोबेर्तो बोलान्यो. ‘द सैवेज डिटेक्टिव’, ‘एम्यूलेट’, ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’, ‘दी रोमांटिक डॉग्स’ जैसी किताबों की तफसील से गुजरते हुए शरीर पर लगातार सरकती जा रही रेशमी चादर सा जो एक मखमली एहसास होता था, मैक्सिको सिटी में चलते-भटकते मैं हर वक्त मानो उसी एहसास को दोहरा रहा था. थोडा जोर देने पर याद आया कि ‘द सीवेज डिटेक्टिव्स’ का एक किरदार, जो संभवतः रोबेर्तो बोलान्यो के खुद का था, इसी ‘सोना रोसा’ की एक आर्ट गैलरी में काम किया करता था. इसके अलावा बोलान्यो की लिखी मेरी पसंदीदा कहानी ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’ में भी ‘सोना रोसा’ में एक दन्त चिकित्सक के क्लीनिक का ज़िक्र है. कुल मिलाकर, इतना जान लेने के बाद, कि यह रोबेर्तो बोलान्यो और उनके साथियों, जिनके खून से सिंचे ‘परायथार्थवादी आन्दोलन’ को ओक्टावियो पास सरीखे विश्व विख्यात (नोबेल विजेता भी) कवि के तूफ़ान ने सिर तक न उठाने दिया, के संघर्षों का केंद्र यही जगह है, मैं हर शाम उस ओर निकल जाता. हालाँकि बोलान्यो द्वारा सत्तर के दसक में व्याख्यायित ‘सोना रोसा’ और आज के ‘सोना रोसा’ के बीच  अब बहुत कुछ बदल चुका है. यह जगह अब किसी भी मायने से बुद्धिजीवियों या लेखकों की नहीं रह गयी है. इस बात की पुष्टि मेरे ऑफिस में काम करने वाली ‘तोनी’ ने सत्तर के दसक के ‘सोना रोसा’ की तमाम उन बातों का जिक्र करते हुए किया, जो कि उन्होंने खुद की आँखों से देखा था, तथा जो बोलान्यो की रचनाओं के विवरण से हू-ब-हू मेल खाती थीं. तोनी, जबकि, रोबेर्तो बोलान्यो को जानती तक नहीं थीं. तोनी ने बताया कि सोना रोसा के रेस्तराओं में बैठे लेखकों और बुद्धजीवियों ने इस जगह को उस समय के मैक्सिको के समाज की तुलना में काफी आधुनिक बना दिया, लेकिन धीरे-धीरे यहाँ से लेखक और बुद्धिजीवी जाते रहे, बच गयी तो कोरी आधुनिकता.

वैसे तो अपने आरामदायक मौसम के अलावा लोगों के जीवन व्यापार नजरिये से भी मेक्सिको सिटी मुझे एक गज़ब का रूमानी शहर लगा, लेकिन प्रेम के उन्मुक्त उत्सव की जगह ‘सोना रोसा’ ही लगी. इसका विस्तार रेफोर्मा की मुख्य सड़क से ‘इन्सुर्खेंतेस’ नाम के मेट्रो स्टेशन को जोड़ने वाले मार्ग के दोनों ओर है, जिसमें कदम कदम पर क्लब्स, बार और रेस्तराँ अंटे पड़े हैं.

तकरीबन आधे किलोमीटर में फैली इस सड़क पर गाड़ियों का चलना मना है और हर बीस पच्चीस मीटर की दूरी पर बैठने के लिए बेंच आदि लगे हुए हैं. यूं तो दिन के वक्त भी यहाँ प्रेमी जोड़ों की आवाजाही लगी रहती है, लेकिन शाम होने के साथ ही उनके लिए रौनकें बिछ जाती हैं. पूरा इलाका गलाबाहों में हौले हौले टहल रहे या फिर आलिंगनबद्ध जोड़ों से भरा होता है. एक ऐसे देश, जहाँ की राजधानी तक में एक अदद महिला दोस्त के बराबर में टहलते हुए भी आपको भद्दी और अश्लील फब्तियाँ सुनने को हर वक्त तैयार रहना पड़ता हो, से आने वाले हम लोग चुम्बन और आलिंगन में संलग्न जोड़ों को देख मन ही मन दोनों देशों की तुलना करने को मजबूर हो जाते. शुरुआती दिनों में यह देख वाकई हैरत होती कि आस-पास हो रही सैकड़ों लोगों की आवाजाही के बीच ये जोड़े इतनी सहजता से आलिंगन और चुम्बन कैसे कर पाते हैं? लेकिन चंद रोज में, पार्क से लेकर सड़क और मेट्रो तक में ऐसे प्रेमरत जोड़ों, तथा उनकी गतिविधियों से लोगों का कतई प्रभावित न होना देख यह समझ आ गया कि प्रेम के लिए ऐसा सहज वातावरण देने में यहाँ के लोगों, यहाँ के समाज का भी बड़ा योगदान है. सभ्यता के पायदानों पर चढ़ते ये कम से कम वहाँ तक तो पहुँच ही चुके हैं जहाँ यह स्वीकार किया जा सके कि प्रेम इंसान की स्वाभाविकता है तथा इसकी स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए दो प्रेमियों को राष्ट्र के संविधान अथवा जनता से कोई अतिरिक्त अनुमति लेना अनिवार्य नहीं. यूं प्रेम के इस खुले माहौल, जो कि कम से कम मैक्सिको सिटी नामक बड़े शहर में हर ओर एक जैसा सहज है, के बीच जो चीज़ वर्तमान ‘सोना रोसा’ को सबसे अलग बनाती है, वह है समलैंगिक जोड़ों का प्रेम. विपरीतलिंगी जोड़ों की तादाद से कुछ ही कम संख्या में समलैंगिक प्रेमी भी यहाँ प्रेमरत दिखाई देते हैं. शहर के बाकी किसी हिस्से की तुलना में सिर्फ इसी जगह समलैंगिकों की जमघट देखकर यह साफ़ होता है कि ऐसे संबंधों को मैक्सिको के व्यापक सामाज द्वारा स्वीकृति मिलनी अभी बाकी है.

इस तरह, सोना रोसा से ठीक ठाक तरीके से वाकिफ हो जाने के बाद मैं इस बात पर भी आश्वस्त हो गया कि बोलान्यो की लिखी मेरी प्रिय कहानी ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’ का अंत, जो कि एक क्लब में शुरू होने वाली लड़ाई के साथ होता है, भी कहीं न कहीं इसी इलाके के किसी क्लब में घटित किसी घटना से प्रेरित, या उस पर आधारित होगा. आमिर के अलावा हमारे एक दूसरे सहकर्मी अंकुर ने भी जब मैक्सिको की ‘क्लब लाइफ’ देखने की इच्छा जाहिर की, तो उस कथा में व्याख्यायित माहौल को करीब से देखने-समझने की मेरी इच्छा और भी मजबूत हो गई.

शुक्रवार की शाम को ही पक्का कर लिया गया और हम एक रेस्तराँ में ताकोस खाने के बाद धीरे धीरे एक के बाद दुसरे क्लब में ताक झाँक शुरू कर दिए. बता दूँ, कि क्लब क्या चीज़ होती है, असल मायनों में हममें से तीनों को ही नहीं पता था. दो चार क्लब्स में झाँक लेने के बाद हमें पता चला कि कोई भी क्लब बेहद महंगी कीमतों की शराब और सिगरेट्स के बीच नाचने-गाने की जगह है. हम जिस भी क्लब की दहलीज़ लांघने जाते, हमसे क्लब में प्रवेश करने के लिए फीस मांगी जाती. हम एक नज़र में क्लब के अन्दर के माहौल का जायजा लेते, और फिर प्रवेश शुल्क की तुलना में उसे असंगत पाते हुए अगले क्लब तक पहुँच जाते. सबसे ज्यादा आपत्ति मुझे ही रही, जो शराब तो बर्दाश्त कर सकता था, लेकिन सिगरेट की हर्बल गंध में मेरा दम घुटने लगता. मतलब मैं तसल्ली से बैठकर इस नए तजुर्बे को जीना चाहता था, भले ही प्रवेश की फीस औरों की तुलना में अधिक लग जाय. इस तरह चंद घंटे की माथापच्ची के बाद, हम एक काफी बड़े से दीखते क्लब ‘एलीट’ की ओर बढ़े और सहमे क़दमों से सीढियाँ चढ़ने लगे. सीढ़ियों से चढ़-उतर रहे लोगों के महंगे और सलीकेदार पहनावे देख हमें इस बात का शंशय होता रहा कि कहीं हमारी जेबें यहाँ का प्रवेश शुल्क देने भर में ही खाली न हो जाएँ. लेकिन ऊपर जाने, और एक अर्धनग्न वेट्रेस द्वारा हमें बुलाकर एक टेबल दिए जाने तक हमसे किसी भी तरह की राशि नहीं माँगी गई. हमारे ठीक सामने एक मंच था, जिस पर ओर्केस्ट्रा जैसे बंदोबस्त के बीच खूब सारी रौशनियाँ बरस रही थीं.
क्लब के आधे से अधिक टेबल्स पर लोग विराजमान थे, लेकिन जिस चीज़ ने हमें सबसे ज्यादा हतप्रभ किया वो थीं आस पास घूम रहीं लडकियाँ, उनकी भंगिमाएं और शरीर पर बमुश्किल दिख रही कपडे जैसी कोई चीज़. एक लडकी ने हमारी टेबल पर लाकर मेन्यू कार्ड रखा और बारी बारी से हम तीनों की आँखों में कुछ इस तरह झाँक ली, की हममे से कोई भी उसमें अपनी बिछड़ गयी पहली प्रेमिका को खोज ले. ऐसा कतई नहीं था कि हम किसी बेहद खूबसूरत लड़की से मिलने वाले ऐसे अप्रत्याशित बर्ताव के प्रति पहले से सतर्क थे अथवा कोई धारणा बनाये हुए थे, लेकिन वह लडकी बारी बारी से हम तीनों को आजमाकर, हमें अपनी पेशकश के सामने असहज पाते हुए, दूसरे टेबल की ओर बढ़ गयी. वहां बैठे युवक ने उसकी भंगिमाओं का सम्मान कर उसे हलके से सहलाया और वो उनकी गोद में विराजमान हो गयी. इस बीच हमने मेन्यू कार्ड से देखकर दो सॉफ्ट ड्रिंक और एक साइडर का आर्डर दे दिया था. हमारे ड्रिंक्स के आने के साथ ही मंच के बैकग्राउंड से स्पैनिश में घोषणा हुई और क्लब के अन्तःद्वार से निकल हमारे पास से गुजरती दो युवतियां मंच पर आ गयीं. संगीत चालू हुआ और वो नाचने लगीं. कुछेक मिनट के नृत्य के बाद ही उनमे से एक लडकी थोड़ी दूर से इशारा कर रहे एक जनाब की ओर चल पड़ी और उसी संगीत की धुन पर उनके शरीर पर लिपटने लगी. मंच पर नाच रही दूसरी युवती ने संगीत की तीव्रता बढ़ने के साथ एक एक कर शरीर से अपने कपडे कम करने लगी. हम तीनों ने आँखों ही आँखों में यह तय कर लिया कि हमारे सहज और गंभीर बने रहने की सीमा अब यहाँ समाप्त होती है. ग्लास की तली में अभी थोड़ी ड्रिंक बची ही थी, की हमने बिल मंगाकर भुगतान कर दिया. मेज से हमारे उठने तक मंच पर नाच रही लडकी पूरी तरह से नग्न हो चुकी थी. एक बार नीचे की ओर जाने वाली सीढ़ियों की ओर रुख करने के बाद हममे से किसी ने भी पलटकर पीछे नहीं देखा.
हमें प्रेम की सहजता और अश्लीलता के बीच भेद समझ में आ गया था. यकीनन, मुझे फिर से बोलान्यो की कहानी ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’ का अंतिम दृश्य याद आता रहा. 

1 comment:

PD said...

पहला भाग पढना भाया, आपकी नजर से मैक्सिको के दर्शन भी किये और "लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ" कहानी में भी दिलचस्पी जाग गई. जल्द ही ढूंढ कर पढता हूँ इसे.
दूसरा भाग दफ्तर से घर पहुँच कर पढता हूँ.