सलमान खुर्शीद ने मोदी को 2002 के क़त्लेआम को न रोक पाने के लिए नपुंसक कहा जिस पर आज न्यूज़ चैनलों पर घमासान छिड़ा हुआ है। राजनीती में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल गलत है क्योंकि इससे मुद्दे पीछे चले जाते हैं और व्यर्थ की बहसें शुरू हो जाती हैं।बहरहाल अगर कोशिश करें तो इस बात से भी वास्तविक मुद्दों तक पहुंचा जा सकता है।अधिक दिन नहीं हुए जब मोदी ने यूपी को गुजरात बनाने के लिए 56 इंच के सीने की ज़रुरत पर बल दिया था।भाषा में छिपे मर्दवादी स्वर पर ध्यान दें।इस मुहावरे में स्त्रिओं के लिए उतनी ही भूमिका है जितनी कि RSS के किसी अन्य एजेंडे में हो सकती है। गुजरात बनाना मर्दानगी का काम है । अब अगर सचमुच बात किसी आर्थिक विकास की हो रही होती तो ऐसे किसी मुहावरे की ज़रूरत ही न पड़ती। परंपरागत रूप से हम जानते हैं कि ऐसी मर्दानगी का इस्तेमाल करने की डींग उन्ही किस्म के कामों के लिए हांकी जाती है जिनके चलते 2002 का गुजरात नेकनाम रहा है। इस सन्दर्भ में देखें तो खुर्शीद ने मोदी को इसी मर्दानगी के दावे पर खीज भरी चुनौती देने की कोशिश की है।दोनों की मानसिकता स्त्रीविरोधी और अलोकतांत्रिक है।यहीं से हमारे समाज की वास्तविक मुश्किल की शुरुआत होती है।
इस मामले में अन्य पार्टिओं की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। आम आदमी पार्टी ने तो अपने नाम से ही स्त्रिओं का बहिष्कार कर रखा है। उनके लिए किसी महिला के सम्मान और गरिमा का मुद्दा मायने नहीं रखता। इस बाबत सवाल उठने पर वे भी सड़कछाप शोहदों के अंदाज़ में उन्हें चरित्रहीन वगैरह बताने लगते हैं। वामपन्थी भी जब सत्ता में होते हैं तो टाटा जैसों के लिए अपनी जनता पर;विशेषकर स्त्रिओं पर वैसे ही ज़ुल्म ढाने में नहीं हिचकते जिसके लिए वे सामंती पूंजीवादी शक्तिओं को कोसते रहते हैं।सत्ता से हटने के बाद महिला मुख्यमंत्री के खिलाफ उनके नेताओं की जुबान भी मर्दवादी चाशनी में लिथड़ कर ही चलती है।क्या लोकतंत्र का एक और त्यौहार भी महज़ तमाशा बनकर गुज़र जायेगा ? लोकतंत्र के वास्तविक मुद्दों पर बहस करने के लिए हम अपने नेताओं को बाध्य कर सकेंगे या टीवी पर होने वाली जुगाली से तृप्त हो जाना ही हमारी नियति है?
( क़ृष्णमोहन )
इस मामले में अन्य पार्टिओं की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। आम आदमी पार्टी ने तो अपने नाम से ही स्त्रिओं का बहिष्कार कर रखा है। उनके लिए किसी महिला के सम्मान और गरिमा का मुद्दा मायने नहीं रखता। इस बाबत सवाल उठने पर वे भी सड़कछाप शोहदों के अंदाज़ में उन्हें चरित्रहीन वगैरह बताने लगते हैं। वामपन्थी भी जब सत्ता में होते हैं तो टाटा जैसों के लिए अपनी जनता पर;विशेषकर स्त्रिओं पर वैसे ही ज़ुल्म ढाने में नहीं हिचकते जिसके लिए वे सामंती पूंजीवादी शक्तिओं को कोसते रहते हैं।सत्ता से हटने के बाद महिला मुख्यमंत्री के खिलाफ उनके नेताओं की जुबान भी मर्दवादी चाशनी में लिथड़ कर ही चलती है।क्या लोकतंत्र का एक और त्यौहार भी महज़ तमाशा बनकर गुज़र जायेगा ? लोकतंत्र के वास्तविक मुद्दों पर बहस करने के लिए हम अपने नेताओं को बाध्य कर सकेंगे या टीवी पर होने वाली जुगाली से तृप्त हो जाना ही हमारी नियति है?
( क़ृष्णमोहन )
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