रविशंकर का जाना दु:खद के साथ डरावना भी है. मतलब 'शॉक' की स्थिति है. जैसे अब भी मन में एक आवाज उछल रही हो कि तय तो यह नहीं हुआ था. मृत्यु आग की तरह चोर है. सब खत्म कर दे, ऐसा.
उसके कवि रूप से परिचय कम और देरी का है पर वो गजब का 'ऑर्गेनाईजर' था.
कविता सम्बन्धित दो बड़े आयोजन तो प्रचलित होने के नाते लोगों के जेहन में हैं. चार वर्ष पहले का एक वाकया मेरी स्मृति में है: कृष्णमोहन और मैं मधुबन ( बी.एच.यू ) में थे तभी कहीं से रविशंकर आता दिखा. बातचीत के दौरान भाई ने बताया कि वो समीक्षा पर कोई सेमिनार या कार्यशाला का आयोजन कराना चाहता है. यह बात महज दिल्लगी के लिए नहीं कही गई थी. भाई ने तुरंत रजिस्टर निकाला जिसमें कार्यक्रम की रूपरेखा थी, उन किताबों के नाम थे जो इस समीक्षा कार्यशाला का आधार बनने वाले थे. उस वक्त की स्मृति ऐसी नहीं कि सम्वाद भी याद रहें पर साहित्य क्षेत्र पहली बार ऐसा कमिटेड बन्दा देख रहा था. अपनी जो दुनिया है उसमें खुद से 'इनिशियेटिव' लेने वालों की इतनी पूछ है, इतना मान है कि क्या कहिए !
( यह इत्तेफाक की हद है कि जो, मैं, कई बड़े मौकों पर बनारस नहीं पहुँच पाया वो दिसम्बर 2011 में जब बनारस पहुँचा तो मालूम पड़ा, आज उस कार्यशाला का समापन है. मैं घूमते-घामते वहाँ पहुँच गया ).
हो सकता है यह सही मौका न हो पर आयोजन का जिक्र मैं इसलिए भी करना चाहता हूँ कि जितनी भी मेरी दुनिया है,उसमें मैने पाया है, आयोजनकर्ता या जिम्मेदारी उठाने वाले अक्सर किसी मुकाम पर अकेले छूट जाते हैं. बाहर से चाहें जैसे भी दिखतें हो लेकिन अन्दर ही अन्दर हम गुमसुम होते जाते हैं. वजह है. वजह यह है कि बड़ी जिम्मेदारियों में रोजाना के दोस्तों मित्रों अभिभावकों का भी सच हमारे सामने खुलता है, मसलन, हम सबसे मदद की अपेक्षा करते हैं. आर्थिक, शारीरिक, सामयिक, तमाम. और यह सच है कि यही मौका होता है जब वह ( आयोजनकर्ता ) लोगों के दो या तीन आयामों से परिचित होता है. हो सकता है, दोनों चेहरे सकारात्मक हो ( मैं किसी सस्ते निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहता ). क्योंकि कार्यक्रम में सबसे महत्वपूर्ण होता है - निर्धारित समय. वो हमें बाँध देता है. कार्यक्रम से पहले हम मरे जाते हैं कि कैसे तो सब निबटे और कार्यक्रम के बाद - वह भयावह खालीपन !
ऐसा होता है कि आयोजनों में सफलताएँ सामूहिक मान ली जाती हैं और असफलताएँ जैसे आर्थिक कर्ज, अथिति का न आना, कुछ गलत हो जाना आदि कई मर्तबा व्यक्ति पर थोप दी जाती हैं. मैं तहे-दिल से यह मानना चाहता हूँ कि रविशंकर के सारे अनुभव अच्छे रहे होंगे. मगर ऐसा होता है-यह सच है.
दो वर्ष पहले भी जब वाशरूम में गिर गया था, तब ही यह खबर आई थी कि भाई के मस्तिष्क में कुछ गम्भीर दिक्कत है. इलाज भी चला. या 'शायद' चला. किताबों के शौक और अनेक जिम्मेदारियों में यह इलाज कितना निभ पाया होगा, इसका अनुमान मुझे नहीं है.
मित्रों से मालूम पड़ा कि कुछ दिनों पहले ही पी.एच.डी जमा की थी. भाई का स्वप्नशील और अनेक सुन्दर व्यक्तिगत जीवन भी रहा होगा, जो इस दुनिया की तरह अधूरा ही रहा गया.
रविशंकर के चाहने वाले बहुत थे / हैं. यह उसके जीवन काल में भी देखा जा सकता था और अब, जब वह खुद नहीं है, तब भी. लोगों को ऐसे रोते हुए देखा-सुना तब ताज्जुब हुआ कि एक आदमी, जो रिश्तों की दायरे में भी न हो, कितना करीब हो सकता है. ऐसे जैसे वह आदमी एक जज्बा था.
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( शीर्षक मारीना त्स्वेतायेवा के एक आलेख से, जो उन्होने मायकोवेस्की के न रहने पर लिखा था )
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