इस बीच व्योमेश के निर्देशन में राम की शक्ति पूजा दिखी. आगरा की एक शाम की बात है. कथा याद होने से वो सारे भाव मन में पहले ही आ जा रहे थे जो मंच से उठ कर फैलने वाले होते थे. मसलन, अकेलेपन की स्मृति थी या अकेलेपन की कल्पना यह भेद मालूम नहीं पर एक दृश्य बेतरतीबी से मन में बैठ गया, जबकि मैं मित्रों के बीच था और शोर भी इतना था कि आप चाहे तो भी अकेले नहीं हो सकते.
कथा यहाँ तक पहुँची थी जहाँ राम शक्ति को फूल चढ़ा रहे हैं. पार्श्व में 'शक्ति की करो मौलिक कल्पना' बज कर खत्म हुआ ही हुआ था. अब मैं सोचता हूँ कि व्योमेश ने जानबूझ कर ऐसा किया या अनायास ही पर पूजा करते करते मंच पर सिर्फ राम ही रह जाते हैं. यह एक मात्र दृश्य है जहाँ सिर्फ एक पात्र मंचस्थ है. मंच बहुत बड़ा था और बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि राम का आखिरी फूल खो गया है. राम बेचैन होते हैं. आखिरी फूल चाहिए और अब उन्हें स्मृति हो रही है कि माँ उनकी आँखो को 'कमल के फूल' सरीखे बताते रही हैं.
आप, हम और सब को विदित है कि कथा क्या है. राम फूल न मिलने की दशा में अपनी आँख ही अर्पित करना चाहते हैं. फिर देवी आती हैं और फूल उन्हें लौटाती है. सुखांत है. मेरे लिए तो कई सुख थे. बृजराज, प्रेमशंकर और प्रियम अंकित से मिल रहा था, मेले में था और साथ ही बाल-हनुमान के रूप में साखी को देख कर मन प्रसन्न हो गया. इस उम्र के चश्में से नए बच्चों को देखना, गजब है. उसे बाल हनुमान के रूप में देख कर व्योमेश की एक कविता याद आई जिसमें नायक रामलीला देखने गया है और उसकी बेटी किसी एक दृश्य से डर गई है.
बावजूद इसके, राम को मंच पर अकेला पाकर मैं घबरा गया था. कई सारे भय एक साथ आए. कहीं देवी ने आने में देर कर दी तो ? या कोई 'इम्प्रोवाईजेशन' न हो गया हो ? राम ने कटार निकाल ली थी और संगीत की धीमी लय से अपनी आँखो की तरफ ले जा रहे थे और इस द्र्श्य का कहीं कोई अंत दिख नहीं रहा था. मुझे बहुत बेचैनी हुई. कुछ देर बाद, मंच के पिछले हिस्से में परछाईं दिखी जो फिर शरीर में तब्दील हुई. देवी थी. राहत हुई. लगा कि, इस बार देर नहीं हुई है और राम अपनी आँख निकालने से बच जायेंगे.
उस वक्त तो हड़बड़ी थी इसलिए राहत को ही महसूस कर पाया पर पिछले तीन दिनों से यह डर सता रहा है कि अगर देवी समय पर न आई होती तो मेरा क्या होता. यह जानते हुए भी कि कथा में विचलन की सम्भावना कम है, फिर भी मैं खुद को यकीन क्यों नहीं दिला पा रहा था कि यह महज एक दृश्य है, जिसे बीत जाना है.
जीवन ऐसा क्यों होता जा रहा है ?
कथा यहाँ तक पहुँची थी जहाँ राम शक्ति को फूल चढ़ा रहे हैं. पार्श्व में 'शक्ति की करो मौलिक कल्पना' बज कर खत्म हुआ ही हुआ था. अब मैं सोचता हूँ कि व्योमेश ने जानबूझ कर ऐसा किया या अनायास ही पर पूजा करते करते मंच पर सिर्फ राम ही रह जाते हैं. यह एक मात्र दृश्य है जहाँ सिर्फ एक पात्र मंचस्थ है. मंच बहुत बड़ा था और बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि राम का आखिरी फूल खो गया है. राम बेचैन होते हैं. आखिरी फूल चाहिए और अब उन्हें स्मृति हो रही है कि माँ उनकी आँखो को 'कमल के फूल' सरीखे बताते रही हैं.
आप, हम और सब को विदित है कि कथा क्या है. राम फूल न मिलने की दशा में अपनी आँख ही अर्पित करना चाहते हैं. फिर देवी आती हैं और फूल उन्हें लौटाती है. सुखांत है. मेरे लिए तो कई सुख थे. बृजराज, प्रेमशंकर और प्रियम अंकित से मिल रहा था, मेले में था और साथ ही बाल-हनुमान के रूप में साखी को देख कर मन प्रसन्न हो गया. इस उम्र के चश्में से नए बच्चों को देखना, गजब है. उसे बाल हनुमान के रूप में देख कर व्योमेश की एक कविता याद आई जिसमें नायक रामलीला देखने गया है और उसकी बेटी किसी एक दृश्य से डर गई है.
बावजूद इसके, राम को मंच पर अकेला पाकर मैं घबरा गया था. कई सारे भय एक साथ आए. कहीं देवी ने आने में देर कर दी तो ? या कोई 'इम्प्रोवाईजेशन' न हो गया हो ? राम ने कटार निकाल ली थी और संगीत की धीमी लय से अपनी आँखो की तरफ ले जा रहे थे और इस द्र्श्य का कहीं कोई अंत दिख नहीं रहा था. मुझे बहुत बेचैनी हुई. कुछ देर बाद, मंच के पिछले हिस्से में परछाईं दिखी जो फिर शरीर में तब्दील हुई. देवी थी. राहत हुई. लगा कि, इस बार देर नहीं हुई है और राम अपनी आँख निकालने से बच जायेंगे.
उस वक्त तो हड़बड़ी थी इसलिए राहत को ही महसूस कर पाया पर पिछले तीन दिनों से यह डर सता रहा है कि अगर देवी समय पर न आई होती तो मेरा क्या होता. यह जानते हुए भी कि कथा में विचलन की सम्भावना कम है, फिर भी मैं खुद को यकीन क्यों नहीं दिला पा रहा था कि यह महज एक दृश्य है, जिसे बीत जाना है.
जीवन ऐसा क्यों होता जा रहा है ?
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