Thursday, March 11, 2010

निकानोर पार्रा की एक और कविता - पहले सबकुछ भला दीखता था

पहले सबकुछ भला दीखता था
अब सब बुरा लगता है

छोटी घंटी वाला पुराना टेलीफोन
आविष्कार की कुतूहल भरी खुशियां देने को
काफी होता था
एक आराम कुर्सी - कोई भी चीज

इतवार की सुबहों में
मैं जाता था पारसी बाजार
और लौटता था एक दीवार घड़ी के साथ
-या कह लें कि घड़ी के बक्से के साथ -
और मकड़ी के जाले सरीखा
जर्जर सा विक्तोर्ला (फोनोग्राम) लेकर
अपने छोटे से 'रानी के घरौंदे' में
जहां मेरा इंतजार करता था वह छोटा बच्चा
और उसकी वयस्क मां, वहां की

खुशियों के थे वे दिन
या कम से कम रातें बिना तकलीफ की।

श्रीकांत का अनुवाद

10 comments:

Amitraghat said...

"सही बात है बीता हुआ अक्सर अच्छा लगता है....."
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com

सुशीला पुरी said...

सघन अभिव्यक्ति ........

आशुतोष पार्थेश्वर said...

सुन्दर कविता और संदर अनुवाद.

शरद कोकास said...

खुशियो के थे वे दिन .. बहुत सुन्दर कविता है और बेहतरीन अनुवाद भी ।

dhananjay shukla said...

theek hai bhai,theek hai

Himanshu Pandey said...

सुन्दर कविता और सुन्दर अनुवाद ! आभार ।

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

सुन्दर उपमाओ के साथ सुन्दर कविता...

Dev said...

बहेतरीन प्रस्तुति .....

hum baatchit karein said...

achi kavita ka achcha anivaad hai, par iis bar vartaniyon ka kya ho gaya hai, vartani achchhi nahi hone se thoda kyesh huaa, operator ko thoda iis baare mein hidayat dein. mangalmay bhavishiya ki kanmana kartein hain aur asha kartein hain ki anudit kavitayein padane ko mite raheingein.

ravi shankar said...

achi kavita ka achcha anivaad hai, par iis bar vartaniyon ka kya ho gaya hai, vartani achchhi nahi hone se thoda kyesh huaa, operator ko thoda iis baare mein hidayat dein. mangalmay bhavishiya ki kanmana kartein hain aur asha kartein hain ki anudit kavitayein padane ko mite raheingein.