19 अगस्त 1936 के अभागे दिन महान कवि फेदेरिको गार्सिया लोर्का की निर्मम हत्या हुई थी. उनके आखिरी दिनों की याद ही सिहरन पैदा कर देती है. इस दु:खद दिन पर इस अनूठे कवि को याद कर रहें हैं – हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि - कथाकार उदय प्रकाश. लोर्का की कविता तथा जीवन पर लिखा उदय का यह अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख हिरावल पत्रिका के वर्ष 1978 के अंक दो में छपा था. लेख के साथ लोर्का की दो कविताओं के अनुवाद हैं जो, जाहिर सी बात है, श्रीकांत का हैं.
इस पोस्ट की सारी तैयारी श्रीकांत की है. ये कवितायें और लेख मह्तव्पूर्ण है पर उतना ही महत्वपूर्ण श्रीकांत के वे तमाम प्रयास हैं जिसके तहत उन्होने इस लेख को तलाशा. पत्रिका के सम्पादक श्री शिवमंगल सिद्धांतकर से सम्पर्क किया. वे भी चकित थे कि कौन हैं ये लोग जो उतने पहले छपे लेख की तलाश में हैं. बेहद कम समय में श्रीकांत ने इस लेख को ‘कम्पोज’ किया. कविताओं का अनुवाद किया. श्रीकांत का आभार.
गाय
(‘लुईस लाकासा’ के लिए)
पेड़ से लटका दी गई
अधमरी गाय और तेज हवा
उसकी सींगों पर वार करने लगी।
थूथन पर लगा छींका
सनने लगा खून से।
लार से बनती मूंछों के नीचे
गाय का थूथन मधुमक्खिों का छत्ता बन गया।
एक सफेद चीत्कार ने समूची सुबह को
खड़ा कर दिया पैरों पर।
रौशनी और शहद के श्रोत जैसी,
गोशालों में, अपनी अधबंद आंखों में रंभाती रहीं दूसरी गाएं,
मरी हुईं और जीवित भी।
पेड़ की जड़ें और चाकू पर
धार लगाता बच्चा,
सब जान गए,
कि अब खाई जा सकती है गाय।
धूमिल पड़ने लगी रौशनी
और गाय की ग्रीवा भी।
उसके चारो खुर
थर्राने लगे हवा में।
चांद, और पीले चट्टानों वाली रात तक को
पता चल गया,
कि जा चुकी है
राख से बनी गाय।
कि वह जा चुकी है रंभाते, चिघ्घाड़ते
और गुजरते हुए
आकाश के शख्त ध्वंशावशेषों से
और वहां से भी,
जहां नशे में धुत लोग
मृतकों का नाश्ता करते हैं।
मौत
(‘इशिदेरो दे ब्लास’ के लिए)
कितनी शिद्दत से?
कितनी शिद्दत से चाहता है घोड़ा
कि वह कुत्ता बन जाए!
कितनी शिद्दत से चाहता है कुत्ता
कि वह बुलबुल हो जाए!
कितनी शिद्दत से चाहती है बुलबुल
कि वह बन जाए भौंरा!
कितनी शिद्दत से चाहता है भौंरा
कि वह घोड़े में तब्दील हो जाए!
और घोड़ा?
कितनी तेजी से झटक लेता है गुलाब से पराग के तीर!
और कैसे तो जाग उठता है
उसके मोटे होंठ के अंतरे से
गुलाब का भूरा रंग!
और गुलाब?
कैसा तो एक झुंड, रौशनियों और किलकारियों का
जुड़ा हुआ, अपने धड़ में जमी मिश्री से!
और मिश्री?
कैसे तो खंजर, जो दिखते रहते हैं हर वक्त
खुली आंखों के सपने में!
और खंजर?
कैसे तो फिरते हैं, नग्न,
अस्तबलों के बाहर की चांदनी में
लगातार, नाजुक लाल गोश्त खोजते!
और मैं,
छज्जों के किनारों पर ढूंढता हुआ
कैसे तो आग के फरिश्ते!
खुद होते हुए भी वही!
पर इन मेहराबों के पलस्तर
कितने भव्य,
कितने अनदेखे,
कितने महीन
बिना शिद्दत के भी!
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फेदेरिको गार्सिया लोर्का की रक्तगाथा: उदय प्रकाश
जब भी रचना और कर्म के बीच की खाई को पाटने का सवाल उठाया जाएगा, फेदेरिको गार्सिया लोर्का का नाम खुद ब खुद सामने आएगा। बतलाना नहीं होगा कि रचना और कर्म की खाई को नष्ट करते हुए लोर्का ने समूचे अर्थों में अपनी कविता को जिया। यह आकस्मिक नहीं है कि पाब्लो नेरूदा और लोर्का की रचनाशक्ति फासिस्ट शक्तियों के लिए इतना बड़़ा खतरा बन गईं कि दोनों को अपनी अपनी नियति में हत्याएं झेलनी पड़ीं। फासिज्म ने मानवता का जो विनाश किया है, उसी बर्बरता की कड़ी में इसका यह कुकर्म और अपराध भी आता है जिसके तहत उसने इन दोनों कवियों की हत्या की। लोर्का को गोली मार दी गई और नेरूदा को... नेरूदा और लोर्का गहरे मित्र थे।
चिंतकों और साहित्यकारों का एक तबका है, जो मामूली जीवन अनुभवों से साहित्य को परहेज की सलाह देता है। एक और समूह है जो जीवन अनुभव, समाज और राजनीति को साहित्य से जोड़ता तो है, लेकिन महज बौद्धिकता के धरातल पर... भाषा के माध्यम से... लफ्फाजी के जरिए। जाहिर है, वास्तविक अनुभव की दरिद्रता में, सिद्धांततः युग और समाज का साहित्य के साथ जरूर संबंध मानते हुए भी इन रचनाओं के संप्रेषण के लिए जो कुछ होगा, उसमें ‘रेटरिक’ अधिक होगा। एक तथ्य और है : अपने परिवेश के व्यापक जीवन को सीधे सीधे आत्मसात न कर पाने वाला रचनाकार द्रष्टा रचनाकार होता है; कमेंट्रेटर होता है। ऐसे कमेंट्रेटर की रचना में अगर फतवों, सपाटबयानी, सरलीकरणों, और गैर जिम्मेदार वक्तव्यों की भरमार हो, तो यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं है; गैरजरूरी हिंदी कविता में जिस तरह के फतवों और सरलीकृत मुहावरों का उपयोग होता रहा है, उसका मूल कारण यही है। वास्तविक अनुभवों की दरिद्रता में ऐसा रचनाकार जिस संकट के सामने खुद को रू ब रू पाता है, उस संकट को वह अभिव्यक्ति का संकट कहता है। और उससे बचने के लिए भाषा का अतिरिक्त आश्रय लेता है। नतीजतन वास्तविकता का अति वास्तविकीकरण होता है। और ‘रिटरिक’ की भरमार होती है। दरअसल यह संकट अभिव्यक्ति का संकट नहीं सार्थक अनुभव की हीनता का संकट है। नेरूदा और लोर्का जैसे रचनाकारों के सामने अनुभव का ऐसा संकट कभी नहीं रहा। इसीलिए उन्होंने अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाए। नेरूदा जीवन के सबसे अधिक सक्रिय काल में चिले से निर्वासित रहें। और बाद में फासिस्ट जुंता के शिकार हुए। लोर्का को फ्रांको समर्थक विस्टापो के फासिस्ट गुर्गों ने गोली से उड़ा दिया। अपने युग जीवन और परिवेश में होने वाले तेज रद्दोबदल के साथ उनकी संपूर्ण संबद्धता ने उनके लिए स्वयं ही अनुभवों का इतना विशाल भंडार इकट्ठा किया कि अपनी रचनाओं में कहीं भी उनके गैर ईमानदार होने का प्रश्न न रहा। शायद यहां यह कह देना वाजिब ही होगा कि कोई भी कवि अपनी रचनाओं में तभी ईमानदार रह सकता है, जब वह अपने जीवन में भी ईमानदार हो। लोर्का और नेरूदा की रचनाओं में इसीलिए समाज के बड़े से बड़े संकटों, दुर्घटनाओं, षड़यंत्रों, परिवर्तनों और फसादों की ऐसी खामोश हलचलकारी पक्षधरता अभिव्यक्त मिलती है कि अतिवास्तविकीकरण के खतरे से उनकी रचनाएं अपने आप बच जाती हैं।
लोर्का की पूरी जिंदगी और उसका समग्र रचना संसार निरंतर संघर्ष, जय-पराजय, उत्साह और हताशा, संकल्प और संदेह, जिंदगी और मौत के पड़ावों से भरी हुई एक यात्रा है। इतने वर्षों बाद. जबकि लोर्का को गोली मार दिए जाने के बाद भी परिस्थितियां अभी बहुत बदली नहीं हैं, चिले में अब भी हत्यारी फासिस्ट जुंता सत्ता में है। स्पेन में अब भी फ्रांको के वंशधर अपने नाजी मंसूबों को अमल में लाने की साजिश में व्यस्त हैं। भारतीय शासन व्यवस्था अपनी हिलती हुई चूलों को संभालकर हिरावल क्रांतिकारियों को भारी तादाद में जेलों में भरे हुए है। ऐसे में लोर्का को याद करना बहुत प्रासंगिक हो जाता है। शायद लोर्का को याद करना अपने भीतर छिपे हुए किसी ईमानदार आदमी को चीख के पुकारने के जैसा है! आज भी अपनी रचना और अपने कर्म, दोनो मे एक साथ ईमानदार हो जाने वाले व्यक्ति के सामने लोर्का की नियति शेष बचती है।
क्या फेदेरीको गार्सिआ लोर्का का नाम एक प्रासंगिक और खामोश, समकालीन चीख की तरह नहीं लगता?
लोर्का की एक कविता है :
“मुझे महसूस हुआ
मैं मार डाला गया हूं।
उन्होंने चायघरों, कब्रों और गिरजाघरों की
तलाशी ली,
उन्होंने पीपों और आलमारियों को
खोल डाला।
सोने के दांत निकालने के लिए
उन्होंने तीनों कंकालों को
खसोट डाला।
वे मुझे नहीं पा सके।
क्या वे मुझे कभी नहीं पा सके?
नहीं।
वे मुझे कभी नहीं पा सके।
लेकिन वे शिकारी कुत्तों की तरह अपने फासिस्ट आका के इशारों पर लोर्का की जान लेने के लिए लगातार उसके पीछे लगे रहे। लोर्का कभी उनसे लड़ता हुआ, कभी घायल होता हुआ, कभी उन्हें मारता हुआ, कभी छुपता हुआ, भागता हुआ, कभी उनका मजाक उड़ाता हुआ... लगातार लिखता रहा। लेकिन जान जोखिम खेल का अंत तो कभी न कभी होना ही था। जुलाई 1936 में, ‘उन्हें’ एक मौका मिला, और ‘उन्होंने’ लोर्का को दबोच लिया। नेरूदा ने अपने संस्मरण में लिखा है: “फेदेरिको (लोर्का) को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। एक बार नाटक के सिलसिले में किसी यात्रा से लौटने के बाद उसने मुझे एक विचित्र घटना के बारे में बतलाने के लिए बुलाया। किसी गांव में, जो रास्ते से अलग हटकर था। ‘कास्तिले’ के इलाके में अपने ग्रुप ‘ला बार्राका’ के साथ वह अपना कैम्प लगाकर उस गांव के बाहरी छोर पर पड़ा हुआ था। यात्रा की थकान के कारण लोर्का रात में सो नहीं सका। वह बिलकुल तड़के ही उठ गया और अकेले ही बाहर घूमने के लिए निकल गया। यह ऐसा ही इलाका था जो किसी भी परदेशी या यायावर के लिए अपने पास, भयानक... चाकू की धार जैसी ठंड रखता है, कुहरा सफेद थक्कों के रूप् में बिखरा हुआ था जिसमें सारी चीजें मुर्दा, प्रेतों जैसी दिखलाई पड़ती थीं”।
“एक बहुत बड़ी जंग खाई लोहे की जाली, टूटी हुई मूर्तियां और खंभे सड़ती गलती पत्तियों पर पड़े हुए थे। लोर्का किसी पुरानी जागीर के टूटे हुए फाटक के पास खड़ा था, जिसके सामने सामंती जमींदारी का एक खूब घना बगीचा था। वक्त, एकाकीपन का बोध और इस पर इस भयानक सर्दी ने इस सन्नाटे को और भी तीखा कर दिया था। अचानक फेदेरिको ने खुद को कुछ बेचैन सा महसूस किया, जैसे इस भिनसार में से कोई वस्तु निकल आने वाली हो, जैसे अभी कुछ घटने वाला हो। वहां एक गिरे हुए टूटे फूटे खंभे के मुहाने पर वह बैठ गया”।
“तभी इस भग्नावशेष के बीच में से घास की पत्तियों को चरने के लिए एक नन्हा सा मेमना बाहर निकल निकल आया जैसे कोहरे का देवदूत हो। इस सुनसान निर्जनता को मानवीय सा बना देने के लिए वह कहीं से भी बाहर आ गया था, जैसे कोई नर्म मुलायम सी पंखुड़ी उस जगह के सन्नाटे पर अचानक गिर पड़ी हो। लोर्का अब अधिक देर तक खुद को अकेला नहीं मान सका।
तभी सूअरों का एक गिरोह भी उस जगह आ पहुंचा। चार या पांच जानवर थे, अध बनैले सूअर, अपनी आदिम बर्बर भूख और चट्टानों जैसे खुरों के साथ। ...और तभी फेदेरीको ने एक खून जमा देने वाले दृश्य को देखा, सूअर उस मेमने पर टूट पड़े और फेदेरीको के भयावह डर को और भी भयंकर बनाने के लिए उस मेमने को टुकड़ों टुकड़ों में चींथ डाला और उसे लील गए”।
उस निर्जन स्थान पर घटने वाले इस खूनी दृश्य ने फेदेरिको को विवश कर दिया कि वह तत्काल अपनी यात्री नाटक मंडली को वापस सड़क पर लौटा ले जाए। गृह युद्ध के तीन महीने पहले, जब उसने मुझे यह रोमांचक कहानी सुनाई, वह तब भी इस घटना के डर और भयावहता से मुक्त नहीं हुआ था। बाद में मैंने देखा स्पष्टतः.... साफ-साफ, कि वह घटना उसकी अपनी मौत का ही एक परिदृश्य थी, उसकी अपनी अविश्वसनीय ट्रैजिडी का पूर्वाभास।”
(पाब्लो नेरूदा, मेमॅयर्स, पृ. 123-124)
लोर्का की कुछ कविताओं को पढ़ते हुए उनमें किसी बर्फ जैसी उदासी और अवसाद का अहसास होता है। मृत्यु के साथ लोर्का का परिचय बचपन में ही हो गया था जब कि वह फालिज में मरता मरता बचा था। इसीलिए उसकी स्मृति में मृत्यु की कोई घनी छाया किन्हीं अंधेरे कोनों में छुपकर खड़ी रहती थी। जब वह लिखता था तो उस छांह और अंधेरे के रंग अक्षरों के साथ घुल मिल जाते थे। लोर्का की सर्वोत्तम कविताओं में से एक “पांच बजे दोपहर” उसके दोस्त ‘इग्नासियों सांचेस मेखियास’ की मृत्यु पर ही लिखी गई थी, जो सांड के साथ युद्ध में मारा गया था। इग्नासियो ‘बुल फाइटर’ था। संभव है लोर्का ने इग्नासियो की मृत्यु पर अपनी ही नियति का पूर्वाभास और स्वयं अपनी ही स्मृति की उस छांह और अंधेरे के रंगों और महक को कविता लिखते समय महसूस किया हो। लोर्का कहता था स्पेन मृत्यु का देश है, मौत के लिए खुला हुआ मुल्क.... एक मरा हुआ आदमी, किसी दूसरी जगह की तुलना में स्पेन में ही अधिक जिंदा होता है। स्पेन, एक ऐसा देश, जहां वही महत्वपूर्ण होता है जिसका अंतिम गुण मृत्यु हो।
(हबाना और ब्यूनस आयर्स में दिए गए भाषण का एक अंश)
स्पेन की दमनकारी, बर्बर फासिस्ट शक्तियों ने उसे चैन नहीं लेने दिया। वह अपने युग के इस दर्दनाक दौर में लगातार जागता रहा और लिखता रहा। वह बुरी तरह थक चुका था। उसकी एक कविता है :
“मैं सोना चाहता हूं।
मैं सो जाना चाहता हूं जरा देर के लिए,
पल भर, एक मिनट, शायद
एक पूरी शताब्दी... लेकिन
लोग यह जान लें
कि मैं मरा नहीं हूं...
कि मेरे होठों पर चांद की अमरता है,
कि मैं पछुआ हवाओं का अजीज दोस्त हूं...
...कि,
कि... मैं अपने ही आंसुओं की
घनी छांह हूं...”
अपने नाटकों और कविताओं में लोर्का ने जितने भी पात्रों को निर्मित किया उनमें से अधिसंख्य की नियति थी - मौत। लोर्का उन पात्रों को एक सड़क पर लाकर खड़ा देता था जिसकी मंजिल मौत ही होती थी। अपनी एक बहुत प्रारंभिक कविता, जिसे उसने अपनी युवावस्था में लिखी थी, “एक और स्वप्न” है। उसमें लिखा है, जितने भी बच्चों की नियति में लिखी है मृत्यु, वे सब मेरे सीने में हैं। सचमुच वे सारे बच्चे, एक न दिन मर जाने वाले बच्चे, उसके ही सीने में थे। धीरे धीरे, पूरी निकटता के साथ मोम की तरह पिघलते हुए उनके अस्तित्व को महसूस करते हुए वह लिखा करता था। अपनी एक अद्भुद कविता “बैलेड आफ सिविल गार्ड” में लोर्का ने एक भयावह दुःस्वप्न की रचना की है। इस दुःस्वप्न के केंद्र में भी है - मौत। इस कविता में जिप्सियों का एक नगर है। कंगूरों, मेहराबों, फानूशों, बिजलियों और ध्वजाओं से सजा-धजा उत्सवधर्मी नगर। लेकिन मुस्कानों, संगीत और नृत्य के इस उल्लासपूर्ण नगर के भाग्य में वही है, यानी - मौत। रात में सिविल गार्ड उस नगर में प्रवेश करते हैं। वे बच्चों और स्त्रियों को संगीनों और बरछों से छेद डालते हैं। सिविल गार्ड सारी रात अंधेरे में सांपों की तरह रेंगते हुए विनाश करते रहते हैं। वे कंगूरों को ढहा देते हैं, ध्वजाएं फाड़ डालते हैं, फानूशों और रोशनियों को तहश नहश कर डालते हैं। जब सुबह का धुंधलका शुरू होता है, तब तक यह सजा धजा नगर धूल में मिल जाता है। इस शहर के हर दरवाजे और गली के हर मोड़ पर मासूम बत्तखों के खून गिरे होते हैं। लोर्का उसे देखता है। वह कविता के प्ररंभ से ही जानता है कि सीमेंट और इस्पात का यह ठोस नगर एक दिन मर जाएगा।
लोर्का का यह डरावना दुःस्वप्न भी, दुर्भाग्य से झूठ नहीं हुआ। स्पेन में सारी रात इसी तरह सिविल गार्ड सांप की तरह रेंगते रहे और जब सवेरा हुआ तो सड़कों पर, घरों में, पार्कों में, हर जगह बच्चों और स्त्रियों की लाशें बिखरी पड़ी थीं। चिले में भी ठीक ऐसा ही हुआ। ‘हेवलाक एलिस’ और ‘रिल्के’ की रचनाओं के केंद्र में भी मृत्यु है। रिल्के ने एक लड़की, जो मर जाने वाली थी, उस पर कविता लिखी ‘जब तुमसे शरू की अपनी जिंदगी तब तक तुम्हारी मृत्यु बड़ी हो चुकी थी’। बाद में अस्तित्ववादियों ने, अल्बेयर कामू ने, अपनी रचनाओं में मृत्यु को चित्रित किया। अस्तित्ववादी दार्शनिक हेडेगर ने भी मृत्यु को मनुष्य के अस्तित्व का अनिवार्य लक्षण माना था। लेकिन लोर्का के पास मृत्यु की अनिभूति का मतलब जीवन से विरक्त उदासीनता नहीं, जीवन का नकार नहीं, बल्कि ठीक इसे विपरीत है। यहां मृत्यु के प्रति जागरूकता जीवन और कर्म के प्रति जगरूकता को और पैना बनाती है। लोर्का पर लिखते हुए उसके समकालीन, प्रसिद्ध स्पेनिश कवि ‘सालिनास’ ने भी माना है कि अगर जीवन की घटनाओं से मृत्यु की उपस्थिति के अहसास को घटा दिया जाए तो जीवन एक सपाट फिल्म की तरह हो जाएगा। ऐसी फिल्मों की घटनाएं मुर्दा होती हैं क्योंकि वहां पर मौत की उपस्थिति और डर को हम महसूस नहीं करते। मृत्यु के साथ अपनी जिंदगी के अनिवार्य अंतर्सम्बंधों को समझ कर ही व्यक्ति अपनी जिंदगी को पहचान सका है। लोग सामान्यतया जीवन चुनते हैं... बिना अपनी मृत्यु के बारे में जागरूक हुए। लोर्का ने अपनी मौत को चुना : ठीक उसी तरह जिस तरह उसने एक खास तरह की जिंदगी को चुना था। लोर्का कभी मौत को भूलता नहीं था। उसकी कविताएं भी इसीलिए इतनी जीवंत और सप्राण हैं कि वे भी मृत्यु को भूलती नहीं। एक कहावत है कि मुर्दा नहीं मरता। जो मरा हुआ है उसकी मृत्यु क्या होगी। लेकिन लोर्का के पात्र बार बार मरते हैं क्योंकि वे जिंदा हैं। लोर्का की कविताएं जिंदा कविताएं हैं। यह एक विचित्र बात है कि मृत्यु पर लिखी जाने के बावजूद उसकी रचनाएं जिंदगी के प्रति आस्था पैदा करती हैं।
लोर्का का जन्म 1918 में ग्रानादा के पश्चिम के एक छोटे से गांव ‘फुएंते बकेरोस’ में हुआ। उसकी मां स्कूल टीचर थी और पिता मध्यम किसान। लोर्का सबसे पहले संगीत की ओर आकर्षित हुआ। बचपन में ही एक बीमारी ने उसके चलने फिरने और बोलने पर असर डाल दिया। हकलाहट भरी आवाज के बावजूद संगीत के प्रति उसका लगाव उसकी अदम्य जिजीविषा और आस्था की ओर संकेत करता है। बहरहाल, अपनी शारीरिक खामियों के बावजूद लोर्का एक अच्छा पियानोवादक बना। प्रसिद्ध संगीतकार ‘दे फाला’ उसका मित्र था और आदर्श भी। इतना ही नहीं, लोर्का की हकलाहट ने उसके कविता पाठ पर भी अपना असर डाला था। कोई दूसरा कवि होता तो हीनता बोध के मारे अपनी कविताओं का पाठ छोड़ देता। लेकिन लोर्का ने इसी हकलाहट में से अपनी एक आकर्षक ‘स्टाइल’ का आविष्कार कर लिया। यह ‘स्टाइल’ इतनी लोकप्रिय हुई कि उस दौर के युवा कवियों में इसका क्रेज हो गया था। दोष मुक्त कंठ कवि भी लोर्का स्टाइल में अपनी कविताएं पढ़ा करते थे। 1919 में वह मैड्रिड चला गया और बहुत थोडे़ समय में ही कवि के रूप में, वक्ता के रूप में, प्रतिभाशाली संगीतज्ञ के रूप में और चित्रकार के रूप् में प्रसिद्ध हो गया। उसने अपने इर्द गिर्द दोस्तों का एक जत्था तैयार कर लिया था जिनके साथ वह कैफे, नाइट क्लबों, खुली जगहों में बहसें और झगड़े किया करता था। 1919 में उसने ‘लिब्रो दे पोएमास’ प्रकाशित किया। 1927 में उसके द्वारा लिखे गए नाटकों के मंचन में भरपूर सफलता मिली। 1927 में ही उसके चित्रों की प्रदर्शनी हुई। 1928 में ‘जिप्सी बैलेड्स’ का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ। ये ‘बैलेड्स’ स्पेनी भाषा के लोगों में दूर दूर तक लोकप्रिय हुए। उसे हर बार हर क्षेत्र में सफलता मिली। 1929 - 30 में उसने क्यूबा और अमरीका की यात्रा की। 1931 में जब वह लौटा तब तक स्पेन में व्यापक राजनीतिक परिवर्तन हो चुका था। राज्यतंत्र का पतन हो गया था, राजा भाग निकला था और गणतंत्र की स्थापना हो चुकी थी। उसने अपने अपको फिर से काम में डुबो दिया। इस बीच उसने कई नाटक लिखे। 1933 - 34 में वह फिर यात्रा पर निकला। ब्यूनस आयर्स तथा अनेक अन्य जगहों पर उसने क्लासिकल स्पेनिश नाटकों का प्रदर्शन किया।
लोर्का और नेरूदा दोनों ही स्वतंत्र, और स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत मानव समुदाय के कवि हैं। उनकी कविताएं मनुष्य को स्वतंत्र करने की बेचैनी के तनाव में कसी हुई कविताएं हैं। वे सच्चे अर्थों में, मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो ‘विश्व चेतस्’ कवि हैं।
लोर्का मूलतः कवि था लेकिन बाद में वह नाटककार के रूप में भी उतना ही प्रसिद्ध हुआ। वह एक्शन पर विश्वास करता था। उसने कोई व्यवस्थित विश्वविद्यालयीय शिक्षा नहीं प्राप्त की थी। ग्रानदा विश्वविद्यालय में उसने दाखिला जरूर ले लिया था लेकिन वह पूरी शिक्षा पद्धति के लिए ‘मिस फिट’ था। गप्पें मारना और आस पास के गांवों में घुमक्कड़ी करना, गांवों के सांस्कृतिक रूपों की छानबीन करना, लोकगीतों की धुनों में रम जाना उसकी आदतें थीं। लोर्का के भीतर ‘आंदालूसिया’ अपनी संपूर्ण परंपरा, लोक संस्कृति, संगीत और संकटों के साथ उपस्थित था। उसने व्यावहारिक स्तर पर निरंतर श्रम और संघर्षों के माध्यम से ही अपने कलात्मक अनुभव और शिल्प अर्जित किए थे। प्रारंभिक दिनों में उसे एक नाटक ‘बटरफ्लाईज स्पेल’ में खेदजनक असफलता का मुंह देखना पड़ा था। यह असफलता उसे सारी जिंदगी याद रही और उसे लगातार खरोंचती रही। इसके बाद लोर्का कभी असफल नहीं हुआ। अपनी मौत को चुनते हुए भी। 1936 में जब लोर्का को गिरफ्तार करके ग्रानादा की सड़कों पर बाहर निकाला गया और उस ओर ले जाया गया जहां फासिस्ट स्क्वैड उसका इंतजार कर रही थी तब भी वह असफल नहीं हुआ था। असफलता उसके लिए थी ही नहीं। वह जनता का कवि था। जन कवि। जब जब जनता पर जुल्म ढाए गए लोर्का जख्मी हुआ। जब जब जनता पर गोलियां चलीं लोर्का घायल हुआ। लोर्का जनता को बहुत प्यार करता था। जनता भी उसे अपने दिल में रखती थी। इसीलिए पाब्लो नेरूदा ने लिखा था, वे लोग जो लोर्का की जनता के सीने गोली दागना चाहते थे, उन्होंने लोर्का को मारते हुए बहुत सही चुनाव किया था।
लोर्का की रचनाओं में स्पेन अपने विशिष्ट, उत्पीड़ित, और शोकाकुल रूप में माजूद है। स्पेन की जातीय सांस्किृतिक परंपराएं लोर्का के लहू में थीं। शायद लोर्का से ज्यादा स्पेन और लैटिन अमरीका की पहचान किसी और रचनाकार को नहीं हो पाई। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि लैटिन अमरीकी देशों की बदली हुई आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थतियों का सामाजिक यथार्थ परंपरिक काव्य रूपों में व्यक्त हो ही नहीं सकता था। उसके लिए एक सक्षम, प्रासंगिक राष्ट्रीय फार्म की जरूरत थी जिसमें तत्कालीन जीवन समूची जीवंतता के साथ व्यक्त हो सके। लोर्का ने परंपरिक काव्य रूढ़ियों को तोड़ा। नए सत्य को कहने का तरीका ढूंढा। यही वजह है कि स्पेनी साहित्य के इतिहास से गुजरते हुए लोर्का की रचनाओं पर आकर दृष्टि गड़ जाती है। लोर्का स्पेनी इतिहास की एक विभाजन रेखा है। वह एक युगांत और युगारंभ है।
लेकिन दिलचस्प बात यह है कि लोर्का ने जो नया फार्म ढूंढ़ा वह वस्तुतः बहुत पुराना था। बारहवीं शताब्दी के ‘एपिक फार्म’ को उसने फिर से अपनाया और इसी रूप में अपनी कविताएं लिखीं। लगभग हजार वर्ष पुराने काव्य रूप को अपनाते हुए प्ररंभ में लोर्का आश्वस्थ नहीं था। लेकिन एक रात वह एक शराब घर के बाहर खड़ा था तब उसे वही पुरानी, हजारों वर्ष पुरानी धुन सुनाई पड़ी। कोई अनपढ़ देहाती गिटार बजाकर, सम्मोहक रूप से गा रहा था। लोर्का ने ध्यान से सुना तो वह आश्च्र्यचकित रह गया। एक एक शब्द उसी का था - लोर्का का। लेर्का पर नशा चढ़ गया। वह खुद गा उठा। उसी हजारों साल की भूली बिसरी धुन में उसकी कविताओं को जनता ने अपना लिया था। किसी भी कवि के लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है?
लोर्का के पहले बहुत से स्पेनी कवियों ने प्राचीन काव्य रूपों की उपेक्षा की थी और आधुनिकता की तलाश में वे योरप और अमरीका की नकल में लगे हुए थे। लोर्का ने आधुनिकता की तलाश दूसरे तरीके से की। वह अतीत की ओर लौटा और प्राचीन काव्य रूपों को परिश्रम और मनोयोग के साथ इस तरह संशोधित किया कि वे समकालीन यथार्थ को वहन कर सकें। उसकी कविताओं में इसीलिए अपेक्षकृत पुराने, आदिम संगीत की लय है। वे गाए जा सकते हैं। अन्दालूसिया के ग्रामीण अंचलों गाए जाने वाले लोक गीतों की लय, उनके बिम्बों और मुहावरों से लोर्का ने बहुत कुछ ग्रहण किया था। वह उन गीतों को अपना बना लेता था, इतना, कि वे उसके निजी हो जाते थे। एक घटना का जिक्र उसके भाई ने किया है। एक बार वह लोर्का के साथ किसी ट्रक में सफर कर रहा था। ट्रक का ड्राइवर मस्ती में कोई लोक धुन गुनगुनाता जा रहा था। लोर्का ट्रक ड्राइवर के गीत में पूरी तरह डूब चुका था। इस घटना के बहुत दिनों बाद जब लोर्का की कविता ‘फेथलेस वाइफ’ प्रकाशित हुई तो उसके भाई ने उसमें उसी ट्रक डाइवर के गीत की एक पंक्ति देखी। संयोग से वह पंक्ति उसे अच्छी तरह से याद थी। बाद में वह उसे दुहराता रह गया। लोर्का ने कहा, यह असंभव है। यह पंक्ति बिलकुल मेरी है। इसे मैने लिखा है। लोर्का झूठ नहीं बोल रहा था। वह पंक्ति उसी की थी। उसने ट्रक ड्राइवर के उस लोकगीत को इतनी गहराई और संवेदनशील आत्मीयता के साथ अपना बना लिया था कि उस गीत की पंक्ति पर अब लोर्का के अतिरिक्त किसी और का अधिकार हो नहीं सकता था।
स्पेन में गणतंत्र की स्थापना के बाद लोर्का ने ग्रानादा विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थियों के साथ अपनी एक नाटक कंपनी भी बनाई। इस नाटक कंपनी का नाम “ला बार्राक” था। अपनी इस नाटक कंपनी के साथ वह ग्रामीण क्षेत्रों में गया और गांवों में अपने नाटकों का प्रदर्शन किया। वह नाटक को जनता के बीच ले जाना चाहता था। लोर्का की नाट्य रचनाओं को उसकी काव्य रचनाओं से अलग करके नहीं देखना चाहिए। वह एक ही समय में एक ओर लंबे प्रगीत लिखता था, दूसरी तरफ लंबे नाटक भी लिख डालता था। उसके कई नाटक ऐसे हैं जिन्हें ट्रेजिक कविता या प्रगीत कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त उसके कुछ प्रगीत ऐसे हैं जिनमें इतने नाटकीय तत्व हैं कि आसानी से उनका नाट्य रूपांतरण किया जा सकता है। लोर्का कोई पेशेवर रंगकर्मी नहीं था। कविताओं में जो कुछ अनकहा रह जाता था उसे अभिव्यक्त करने के लिए वह दूसरे कला माध्यमों का सहारा लेता था। रंगमंच और संगीत और कविता उसकी एक ही रचना प्रक्रिया के अवयव थे। कभी कभी तो कविता का कोई एक बिंब उसे इतना पसंद आ जाता था कि केवल उसी एक बिंब को साक्षात करने, उसे देख सकने की फिक्र में वह नाटक की रचना कर डालता था।
लोर्का के नाटकों में एक राजनीतिक संदेश निहित होता था जिसे मनोरंजक ढंग से वह दर्शकों के मस्तिष्क में डाल देता था। उसने अपने एक प्रारंभिक नाटक ‘मारियाना पिनेदा’ के माध्यम से क्रांतिकारी संदेश को जनता तक पहुंचाने का कार्य शुरू कर दिया था। ‘आह! ग्रानादा का कितना उदास दिन!’ पंक्ति से प्रारंभ होना वाला यह पूरा “बैलेड” इस नाटक में खप गया था। यह नाटक उन दिनों प्रदर्शित किया गया था जब स्पेन में गणतंत्र की स्थापना नहीं हुई थी और वहां तानाशाही का राज्य था। इस नाटक में प्रेमिका जिस व्यक्ति से प्यार करती है वह व्यक्ति स्वतंत्रतता को संसार में सबसे ज्यादा प्यार करता है। अंत में स्वयं प्रेमिका स्वतंत्रता की आकांक्षा में स्वतंत्रता की प्रतिमूर्ति बन जाती है। तत्कालीन नाट्य-समीक्षकों ने इसे क्रांतिकारी संदेश के खतरों को महसूस किया था और उन्होंने लोर्का के खिलाफ तानाशाही की तरफ से खुफियागीरी की थी। लोर्का फिर भी लिखता रहा और अपना संदेश चालाकी के साथ जनता तक पहुंचाने में लगा रहा। इसी बीच अखबारों में छपी खबरों के आधार पर, सच्ची घटनाओं को अपने नाटकों में उसने प्रस्तुत करना प्रारंभ कर दिया। उसके प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लड वेडिंग’ तथा ‘हाउस आफ बेर्नाल्दा अल्बा’ सच्ची घटनाओं पर आधरित थे। उसकी कविताएं भी जिप्सियों की वास्तविक जिंदगी पर आधारित थीं। ‘आन्दालूसिया’ के किसान परिवारों, उनके शोषण और उत्पीड़न को उसने अपनी रचनाओं का प्रस्थान बिंदु बनाया था। इन रचनाओं ने जनता पर इतना प्रभाव डाला था कि लोर्का शासनतंत्र के लिए खतरा बन गया था। उसकी हत्या हो ही जाती लेकिन बीच के अंतराल में गणतंत्र की स्थापना के कारण वह बच गया।
लोर्का कहता था कि नाटक के दर्शक जब नाटक की किसी घटना को दखकर यह न सोच पाएं कि उन्हें हंसना चाहिए या रोना तब समझना चाहिए कि नाटक अपने मकसद में सफल रहा है। वह अपने नाटकों में एक प्रकार के त्रासद व्यंग्य की स्थिति तैयार करता था। “येरमा” नामक उसका नाटक आज भी स्पेनी भाषाई देशों में लोकप्रिय है।
लोर्का की हत्या फासिज्म के अपराधों के इतिहास का एक सबसे दर्दनाक, खौफनाक, अमानुषिक और जघन्य कुकर्म का पन्ना है। लोर्का से स्पेन की जनता इतना प्यार करती थी कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि उसकी हत्या भी की जा सकती है। नेरूदा ने लिखा है, “कौन विश्वास कर सकता था कि इस धरती में भी शैतान हैं, लोर्का के अपने शहर ग्रानादा में ही ऐसे शैतान थे जिन्होंने यह जघन्यतम अपराध किया।... मैंने इतनी प्रतिभा, स्वाभिमान, कोमल हृदय और पानी की बूंद की तरह पारदर्शिता, एक ही व्यक्ति में एक साथ कभी नहीं देखा। लोर्का की रचनाशीलता और रूपकों पर उसके समर्थ अधिकार ने मुझे हमेशा हीन बनाया। उसने जो भी कुछ लिखा। उस सबसे मैं प्रभावित हुआ। स्टेज में और खामोशी में, भीड़ में या दोस्तों के बीच उसने हमेशा सौंदर्य की श्रृष्टि की। मैंने उसके अतिरिक्त और किसी भी व्यक्ति के हाथों में ऐसी ऐंद्रजालिक क्षमता नहीं देखी। लोर्का के अतिरिक्त मेरा और कोई ऐसा भाई नहीं था जिसे मुस्कानों से इतना ज्यादा प्यार हो। वह हंसता था, गाता था, पियानो बजाने लगता था, नाचने लगता था।”
उसके एक समकालिक कवि ने उसके बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा था। “दूसरे कवि पढ़े जाने के लिए हैं, लोर्का प्यार किए जाने के लिए है।” लोर्का के मन में अपनी उत्पीड़ित, दुखी, संघर्षशील जनता से अथाह प्यार था। और जनता के प्यार का अथाह समुद्र भी उसे मिला था। उसने कहा था, “मैं कविता इसलिए लिखता हूं कि लोग मुझसे प्यार करें।” लोगों ने उससे बेइंतहा प्यार किया। लेकिन फासिस्ट फ्रैंकों के गुर्गों की पाशविक नफरत उसे मिलनी ही थी।
Thursday, August 19, 2010
Saturday, August 14, 2010
गोदान की आत्मा का सर्वोत्तम अनुवाद है पीपली [लाईव]
इस अच्छी फिल्म में होरी एक पात्र है. ईंट के भट्ठे के लिये बन्जर जमीन से मिट्टी खोदकर बेचता है. पूरी फिल्म में गड्ढा गहरा होता जाता है सिर्फ इसलिये कि अंत में होरी उसी गड्ढे में मर जाएगा. पूरी फिल्म में एक ही डायलॉग होरी के जिम्मे आया है जिसमें वो अपना नाम बताता है: होरी. एक शब्द उसे कहानी का प्रमुख पात्र बना देता है. होरी नाम का शख्स राकेश नाम के चरित्र में इतने संजीदा बदलाव लाता है कि नत्था के बदले खुद ही मारा जाता है और एक असम्वेदनशील एंकर/रिपोर्टर नन्दिता मलिक एक वाक्य में (‘राकेश फोन नहीं उठा रहा’) अपने मन-मष्तिस्क से ‘डिलीट’ कर देती है.
बिना किसी लाग लपेट के सुनिये: पीपली लाईव इस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. मौलिक भी. फिल्म टीम के ‘कंसंर्स’ कितने गहरे हैं इसका अन्दाजा एक ही वाक्य के लगातार दुहराव से पता चलता है: भारत की सत्तर फीसदी जनता गरीब है. इस वाक्य के अनेक अर्थार्थ फिल्म में इतनी बार दुहराये गये हैं कि ये पंक्ति कविता की गम्भीर शक्ल ले लेती है.
भारतीय ग्राम्य जीवन की दुश्वारियों को इस फिल्म ने आत्मा की तह तक जाकर उठाया है. यह एक ऐसी ‘हिन्दी’ फिल्म है जो पिछले दिनों आये एक चुटकुले(आप जरूर उसे बड़ी खबर कहेंगे) को नोचकर नंगा कर देती है जिसे अंग्रेजी और हिंग्रेजी के अखबारों ने मशरूफियत से छापा: भारत में अमीरों की संख्या गरीबों से ज्यादा. भारत के गाँव के समानान्तर यह फिल्म एक अन्य महत्वपूर्ण विषय उठाती है और वह है: असहाय और दयनीय अवस्था को जा पहुंचा मीडिया तंत्र.
यह फिल्म इस खातिर हमेशा याद रखी जायेगी कि इसने आज के तारीख में जो हाल मीडिया का है उसे सच्ची सच्ची उकेरा. हाय री मीडिया ! कमजोर, खस्ताहाल और झूठी खबरों के सहारे जी रही मीडिया. जब तक प्रशासन, सरकार और राजनीतिक पार्टियाँ नत्था के खेल में शामिल नहीं होतीं तब तक तो लगता है कि एलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास अकूत ताकत है, वो कुछ भी कर सकती है. परंतु जब मामला गम्भीर होता दिखता है तो सरकार का एक आदेश आता है: मीडिया को दूर रखो और क्या आप यकीन करेंगे इस एक मात्र वाक्य के बाद फिल्म में मीडिया का हाल पिद्दी के शोरबे के बराबर भी नहीं रहता. हद है! तब लगता है कि इतने उंचे उंचे मीडियाकर्मी इसी बात से खुश हो लेते हैं कि उनके कहने से रेलवे में उनका वेटिंग टिकट कन्फर्म हो जाता है. व्यक्तिगत उपलब्धियों जैसे सस्ते या मुफ्त का फ्लैट या घर पा जाना ही अपने जीवन की चरम उपलब्धि मानने वाले मीडियाकर्मी अपनी कमजोरी जानने तथा उसे दूर करने के लिये भी इस फिल्म को जरूर देखें. यही इनकी खुशी के लिये काफी है कि नत्था के ट्टटी का फुटेज इनके पास है. ये कद्दू में ओम को सबसे उर्जावान विषय मानते हैं. प्रेस कान्फ्रेस में उपहार मिलने की लत से जूझना भी इन्हे कठिन लगता है.
फिल्म के एक दृश्य से कितना कुछ स्पष्ट हो जायेगा: एक नेता नत्था के घर आता है – भाई ठाकुर. वो घर के बाहर सारे गूंगे कैमरों के सामने उसे धमकी देता है कि दो दिन के भीतर उसने आत्मह्त्या नहीं किया तो भाई ठाकुर नत्था के बड़े भाई बुधिया की हत्या कर देगा. वो दोनो डरे हुए हैं. कैमरामैन दूर से इस बात चीत के दृश्य को शूट करने में लगे हैं पर उस एक आदेश के बाद मीडिया वालों को इतना दूर फेंक दिया गया है कि उन तक आवाज आ ही नहीं सकती और इसी का फायदा भाई ठाकुर जैसे लोग उठाते हैं. वो मीडियाकर्मियों के पास आकर ठीक उल्टा बयान देता है कि नत्था नहीं मरेगा और वाह री मीडिया! जो इस झूठ को बिना किसी पड़ताल के ‘एक्सक्लूसिव’ बना देता है.
इतना कुछ कहते हुए भी मैं आपको वही बता रहा हूँ जो कुछ इस फिल्म में मीडिया को लेकर सकारात्मक है. आगे आप खुद होशियार हैं..
सबसे जरूरी बात सबसे आखिर में. फिल्म का नायक पात्र स्त्री है. नत्था की पत्नी: धनिया. जीजिवषा का मूर्त रूप. उसके ही उलाहनों तानों से डर कर घबराकर घर के पुरुष कर्ज वापसी के प्रयास शुरु करते हैं. पूरी फिल्म में यह औरत कुछ ना कुछ काम करते हुए दिखाई देती है. यहाँ तक कि जब अपने पति के मृत्यु के बारे में जानकर उदास होना सबसे अनिवार्य उम्मीद होती वहाँ भी वह अपने जेठ को पानी दे रही होती है, अपने बच्चे के बटन टॉक रही होती है.
फिल्म देखते हुए आप खूब हंस रहे होते हैं पर फिल्म खत्म होते ही आप अपनी हंसी को ही राकेश का हत्यारा मानने लगते हैं और अगर ठीक उसी वक्त एकांत मिल जाये तो आप रोने भी लगें.
एक बेहतरीन फिल्म के लिये अनुषा रिजवी तथा महमूद फारूकी को बधाई.
फिल्म की रीलिजिंग डेट भी क्या ही खूब है. पन्द्रह अगस्त के पास.(हाल फिलहाल में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा एक सरकारी विज्ञापन की माने तो भारत का गणतंत्र दिवस). इस फिल्म को जरूर देखिये.
बिना किसी लाग लपेट के सुनिये: पीपली लाईव इस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. मौलिक भी. फिल्म टीम के ‘कंसंर्स’ कितने गहरे हैं इसका अन्दाजा एक ही वाक्य के लगातार दुहराव से पता चलता है: भारत की सत्तर फीसदी जनता गरीब है. इस वाक्य के अनेक अर्थार्थ फिल्म में इतनी बार दुहराये गये हैं कि ये पंक्ति कविता की गम्भीर शक्ल ले लेती है.
भारतीय ग्राम्य जीवन की दुश्वारियों को इस फिल्म ने आत्मा की तह तक जाकर उठाया है. यह एक ऐसी ‘हिन्दी’ फिल्म है जो पिछले दिनों आये एक चुटकुले(आप जरूर उसे बड़ी खबर कहेंगे) को नोचकर नंगा कर देती है जिसे अंग्रेजी और हिंग्रेजी के अखबारों ने मशरूफियत से छापा: भारत में अमीरों की संख्या गरीबों से ज्यादा. भारत के गाँव के समानान्तर यह फिल्म एक अन्य महत्वपूर्ण विषय उठाती है और वह है: असहाय और दयनीय अवस्था को जा पहुंचा मीडिया तंत्र.
यह फिल्म इस खातिर हमेशा याद रखी जायेगी कि इसने आज के तारीख में जो हाल मीडिया का है उसे सच्ची सच्ची उकेरा. हाय री मीडिया ! कमजोर, खस्ताहाल और झूठी खबरों के सहारे जी रही मीडिया. जब तक प्रशासन, सरकार और राजनीतिक पार्टियाँ नत्था के खेल में शामिल नहीं होतीं तब तक तो लगता है कि एलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास अकूत ताकत है, वो कुछ भी कर सकती है. परंतु जब मामला गम्भीर होता दिखता है तो सरकार का एक आदेश आता है: मीडिया को दूर रखो और क्या आप यकीन करेंगे इस एक मात्र वाक्य के बाद फिल्म में मीडिया का हाल पिद्दी के शोरबे के बराबर भी नहीं रहता. हद है! तब लगता है कि इतने उंचे उंचे मीडियाकर्मी इसी बात से खुश हो लेते हैं कि उनके कहने से रेलवे में उनका वेटिंग टिकट कन्फर्म हो जाता है. व्यक्तिगत उपलब्धियों जैसे सस्ते या मुफ्त का फ्लैट या घर पा जाना ही अपने जीवन की चरम उपलब्धि मानने वाले मीडियाकर्मी अपनी कमजोरी जानने तथा उसे दूर करने के लिये भी इस फिल्म को जरूर देखें. यही इनकी खुशी के लिये काफी है कि नत्था के ट्टटी का फुटेज इनके पास है. ये कद्दू में ओम को सबसे उर्जावान विषय मानते हैं. प्रेस कान्फ्रेस में उपहार मिलने की लत से जूझना भी इन्हे कठिन लगता है.
फिल्म के एक दृश्य से कितना कुछ स्पष्ट हो जायेगा: एक नेता नत्था के घर आता है – भाई ठाकुर. वो घर के बाहर सारे गूंगे कैमरों के सामने उसे धमकी देता है कि दो दिन के भीतर उसने आत्मह्त्या नहीं किया तो भाई ठाकुर नत्था के बड़े भाई बुधिया की हत्या कर देगा. वो दोनो डरे हुए हैं. कैमरामैन दूर से इस बात चीत के दृश्य को शूट करने में लगे हैं पर उस एक आदेश के बाद मीडिया वालों को इतना दूर फेंक दिया गया है कि उन तक आवाज आ ही नहीं सकती और इसी का फायदा भाई ठाकुर जैसे लोग उठाते हैं. वो मीडियाकर्मियों के पास आकर ठीक उल्टा बयान देता है कि नत्था नहीं मरेगा और वाह री मीडिया! जो इस झूठ को बिना किसी पड़ताल के ‘एक्सक्लूसिव’ बना देता है.
इतना कुछ कहते हुए भी मैं आपको वही बता रहा हूँ जो कुछ इस फिल्म में मीडिया को लेकर सकारात्मक है. आगे आप खुद होशियार हैं..
सबसे जरूरी बात सबसे आखिर में. फिल्म का नायक पात्र स्त्री है. नत्था की पत्नी: धनिया. जीजिवषा का मूर्त रूप. उसके ही उलाहनों तानों से डर कर घबराकर घर के पुरुष कर्ज वापसी के प्रयास शुरु करते हैं. पूरी फिल्म में यह औरत कुछ ना कुछ काम करते हुए दिखाई देती है. यहाँ तक कि जब अपने पति के मृत्यु के बारे में जानकर उदास होना सबसे अनिवार्य उम्मीद होती वहाँ भी वह अपने जेठ को पानी दे रही होती है, अपने बच्चे के बटन टॉक रही होती है.
फिल्म देखते हुए आप खूब हंस रहे होते हैं पर फिल्म खत्म होते ही आप अपनी हंसी को ही राकेश का हत्यारा मानने लगते हैं और अगर ठीक उसी वक्त एकांत मिल जाये तो आप रोने भी लगें.
एक बेहतरीन फिल्म के लिये अनुषा रिजवी तथा महमूद फारूकी को बधाई.
फिल्म की रीलिजिंग डेट भी क्या ही खूब है. पन्द्रह अगस्त के पास.(हाल फिलहाल में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा एक सरकारी विज्ञापन की माने तो भारत का गणतंत्र दिवस). इस फिल्म को जरूर देखिये.
Saturday, August 7, 2010
माफी क्या होती है? (अपशब्द विवाद के बहाने)
इत्तिफाकन यह पोस्ट भी एक साहित्यिक बुजुर्ग को ही सम्बोधित है. विभूति नारायण राय को. पर इस पोस्ट में जिनसे घृणा बरती गई हैं वो हैं दोमुहे लोग जिन्होने विभूति को डिफेंड करने की कोशिश की और विभूति को इस अन्धेरे में रखा कि कहीं ना कहीं वो सही हैं.
अपशब्द के इस्तेमाल के बाद माफी मांग ली गई है ऐसे जैसे बड़ा भाई छोटी बहन की शादी किसी शराबी-जुआरी से करा, बहन का विश्वास नष्ट करके माफी मांग ले. अगर गलती करने का अधिकार सबको है तो सजा पाने की जिम्मेदारी भी उठानी चाहिये. गलती के हिसाब से ही सजा का प्रावधान है. लालची लोग जितनी मर्जी खुद को नीचे गिरा लें पर बगैर वाजिब सजा के लगातार गलतियाँ करते जाने के पक्ष में इस्तेमाल सूक्तियाँ और कवितायें तो क्या, बड़े बड़े तर्क भी ओछे पड़ जायेंगे.
इस माफीनामे पर मेरा सवाल बस इतना है : जिस तरीके से भारतीय विश्वविद्यालयों का संघीकरण हो रहा है और वहाँ के अबुद्ध शिक्षक आर.एस.एस. की शाखाओं में जाना अपने जीवन का चरम उद्देश्य मानने लगे हैं वैसे मे कल को कोई कुलपति जातिविरोधी और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बयान दे दे और जनता में आक्रोश भर दे तो क्या एवजी में माफी काफी होगी? और क्या वो चालाक कुलपति इसे तर्क के तौर पर नहीं उछालेगा कि जब एक कुलपति को कुंठित-बयानबाजी के लिये माफ किया गया तो मुझे क्यों नहीं? मैं नहीं समझता कि ऐसा करते हुए वो गलत कह रहा होगा?
विवाद से परिचित लोगों को यह जानना चाहिये कि विभूति जी द्वारा माफी किस ऐंठ के साथ मांगी गई है? जितना दु:ख उस अपशब्द के इस्तेमाल का है उतना ही दु:ख इस लाचारी का भी कि कोई इंसान कुछ संस्थानों/संगठनों के सहारे सत्ता को कैसे अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लेता है और आम अमरूद साहित्यिक जनता ठगा महसूस करती है. वरना वृन्दा करात, जो रामदेव की दवाईयों के खिलाफ आग उगल रही थी, ऐसे ही चुप नहीं हो गई होंगी. अब तक जिम्मेदारी का बोझ सम्भाले एक संगठन खुलेआम कुलपति के बचाव का रास्ता बताता है. और जिस तरह इन्दिरा गान्धी के जमाने में भारत में हो रही हर बारिश और सूखे का दोषी पाकिस्तान था उसी तरह धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में बयान देने वाले लोग ईश्वर की प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके है, जो कभी गलती नहीं करता.
विभूति नारायण राय को यह इंटरव्यू वापस ले लेना चाहिये. बाकायदा घोषित करके. तब उनकी माफी का कोई मतलब होगा. विभूति जी, आज आप जो भी है वो पाठकों की बदौलत हैं वरना आपके आई.पी.एस होने के नाते जो लोहे स्टील आदि के .... आपके इर्द गिर्द हैं, जो आपके इस अपशब्द प्रयोग के पक्ष में तमाम तर्क दे रहे हैं वे अधम नीच लोग आपके रिटायर होते ही किसी दूसरे आई.(पी.एस या ए.स) को पकड़ लेंगे. यह मैं सबसे न्यूनतम की बात कर रहा हूँ, विभूति जी. आगे आप जाने भी गये अगर कभी इतिहास में तो अपनी ‘साम्प्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस’ या ‘शहर में कर्फ्यू’ के लिये ही जाने जायेंगे, कुलपतीत्व के लिये नहीं.
मैं समझता हूँ कि इस्तीफे या बर्खास्तगी से ज्यादा बड़ी बात होगी जब ये खुद से ही सामने आये और इस साक्षत्कार को वापस लें. ‘डिसऑन’ करें. यह कुलपति के बतौर एक बड़ी नजीर पेश होगी वरना यह गुमान तो उन्हे छोड़ ही देना चाहिये कि वे अपने पक्ष में तर्क देकर खुद को सही साबित कर ले जायेंगे. ऐसा हो नही सकता क्योंकि ऐसा है ही नहीं. हिन्दी भाषा की जितनी लेखिकाओं को मैं जानता हूँ वे ऐसी हरगिज नहीं हैं. उन्हे अपने लिखे शब्दों पर ही इतना भरोसा है और होगा कि दूसरे किन्ही हथकंडों की जरूरत ही नहीं.
गलती हो जाती है पर उसे स्वीकारने से आपका कद बढ़ेगा. आपको इस बात के लिये माफी नहीं मागनी चाहिये कि आपकी बात से किसी को ठेस पहुंची है. अपनी भाषा से आप किसी को ठेस पहुंचा सके इसके लिये बहुत विनम्रता और भाषा के रियाज की जरूरत होती है. यह जो लेखिकाओं या लेखको का गुस्सा है यह ठेस से नहीं आपकी गलती से उपजा है. इसलिये महोदय आप अपने कहे शब्द के लिये माफी मांगिये.
नया ज्ञानोदय पत्रिका की टीम को भी इस आशय की घोषणा करनी चाहिये कि अगले संस्करण से यह इंटरव्यू बाहर हो रहा है या बाजार से पत्रिका वापस मंगाई जा रही है. इसके लिये पर्याप्त प्रयास होने चाहिये.
मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि बेवफाई की सजा माफी कत्तई काफी नहीं होती है. हो सकता है हम अपनी कमजोरी के कारण माफ करने के अलावा कुछ ना करने पायें क्योंकि हर वो आदमी(स्त्री या पुरुष) जो बेवफाई या विश्वासध्वंस करता है कभी यह मानता ही नही कि उससे गलती हुई है( बेवफा प्राणी और कुछ हो ना हो मौकापरस्त जरूर होता है, नौकरी या दूसरे लालच के लिये कहीं भी लोट या बिछ जाने वाला) और विभूति जी ने अपने पाठको तथा मित्रों का विश्वास तोड़ा है, भले उनके मित्र उनसे लाभान्वित होने की आशा में कुछ कह न रहे हों.
इस पूरे मसले ने जो महत्वपूर्ण पर्दाफाश किया है वो है सम्बन्ध और साहित्य. साहित्यिक दुनिया इतनी संकुचित हो चुकी है कि हर आदमी एक दूसरे को व्यक्तिगत तौर पर जानता है. पर जानने का यह मतलब भी निकाल लिया गया है कि अगर हम आपकी किसी बात का विरोध करें तो आपके पूरे जीवन का विरोध कर रहे हैं. साहित्य से लोकतंत्र गायब हो रहा है. मतलब अगर मैं गलत हूँ तो जो मेरा घोषित मित्र है वो मेरे पक्ष में बोलेगा और जो शत्रु है वो विपक्ष में. मुझे आश्चर्य हुआ जब लोग विभूति जी के वकालत में आगे आये. उन दोमुहों ने दुहरा नुकसान किया. पहला मैं उपर बता चुका हूँ और दूसरा यह कि कहीं ना कहीं वे विभूति को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हुए कि आप सही हैं. इसलिये ही उन्होने शुरुआती जिद में अपने आप को डिफेंड किया. हमें सम्बन्धो और उससे मिलने वाले चन्द पुरस्कारों वाली सोच के दायरे तोड़ने चाहिये. इससे अपना कम अपने उस मित्र का ज्यादा भला होगा जिसका शालीन विरोध हम कर रहे होंगे.
अपशब्द के इस्तेमाल के बाद माफी मांग ली गई है ऐसे जैसे बड़ा भाई छोटी बहन की शादी किसी शराबी-जुआरी से करा, बहन का विश्वास नष्ट करके माफी मांग ले. अगर गलती करने का अधिकार सबको है तो सजा पाने की जिम्मेदारी भी उठानी चाहिये. गलती के हिसाब से ही सजा का प्रावधान है. लालची लोग जितनी मर्जी खुद को नीचे गिरा लें पर बगैर वाजिब सजा के लगातार गलतियाँ करते जाने के पक्ष में इस्तेमाल सूक्तियाँ और कवितायें तो क्या, बड़े बड़े तर्क भी ओछे पड़ जायेंगे.
इस माफीनामे पर मेरा सवाल बस इतना है : जिस तरीके से भारतीय विश्वविद्यालयों का संघीकरण हो रहा है और वहाँ के अबुद्ध शिक्षक आर.एस.एस. की शाखाओं में जाना अपने जीवन का चरम उद्देश्य मानने लगे हैं वैसे मे कल को कोई कुलपति जातिविरोधी और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बयान दे दे और जनता में आक्रोश भर दे तो क्या एवजी में माफी काफी होगी? और क्या वो चालाक कुलपति इसे तर्क के तौर पर नहीं उछालेगा कि जब एक कुलपति को कुंठित-बयानबाजी के लिये माफ किया गया तो मुझे क्यों नहीं? मैं नहीं समझता कि ऐसा करते हुए वो गलत कह रहा होगा?
विवाद से परिचित लोगों को यह जानना चाहिये कि विभूति जी द्वारा माफी किस ऐंठ के साथ मांगी गई है? जितना दु:ख उस अपशब्द के इस्तेमाल का है उतना ही दु:ख इस लाचारी का भी कि कोई इंसान कुछ संस्थानों/संगठनों के सहारे सत्ता को कैसे अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लेता है और आम अमरूद साहित्यिक जनता ठगा महसूस करती है. वरना वृन्दा करात, जो रामदेव की दवाईयों के खिलाफ आग उगल रही थी, ऐसे ही चुप नहीं हो गई होंगी. अब तक जिम्मेदारी का बोझ सम्भाले एक संगठन खुलेआम कुलपति के बचाव का रास्ता बताता है. और जिस तरह इन्दिरा गान्धी के जमाने में भारत में हो रही हर बारिश और सूखे का दोषी पाकिस्तान था उसी तरह धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में बयान देने वाले लोग ईश्वर की प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके है, जो कभी गलती नहीं करता.
विभूति नारायण राय को यह इंटरव्यू वापस ले लेना चाहिये. बाकायदा घोषित करके. तब उनकी माफी का कोई मतलब होगा. विभूति जी, आज आप जो भी है वो पाठकों की बदौलत हैं वरना आपके आई.पी.एस होने के नाते जो लोहे स्टील आदि के .... आपके इर्द गिर्द हैं, जो आपके इस अपशब्द प्रयोग के पक्ष में तमाम तर्क दे रहे हैं वे अधम नीच लोग आपके रिटायर होते ही किसी दूसरे आई.(पी.एस या ए.स) को पकड़ लेंगे. यह मैं सबसे न्यूनतम की बात कर रहा हूँ, विभूति जी. आगे आप जाने भी गये अगर कभी इतिहास में तो अपनी ‘साम्प्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस’ या ‘शहर में कर्फ्यू’ के लिये ही जाने जायेंगे, कुलपतीत्व के लिये नहीं.
मैं समझता हूँ कि इस्तीफे या बर्खास्तगी से ज्यादा बड़ी बात होगी जब ये खुद से ही सामने आये और इस साक्षत्कार को वापस लें. ‘डिसऑन’ करें. यह कुलपति के बतौर एक बड़ी नजीर पेश होगी वरना यह गुमान तो उन्हे छोड़ ही देना चाहिये कि वे अपने पक्ष में तर्क देकर खुद को सही साबित कर ले जायेंगे. ऐसा हो नही सकता क्योंकि ऐसा है ही नहीं. हिन्दी भाषा की जितनी लेखिकाओं को मैं जानता हूँ वे ऐसी हरगिज नहीं हैं. उन्हे अपने लिखे शब्दों पर ही इतना भरोसा है और होगा कि दूसरे किन्ही हथकंडों की जरूरत ही नहीं.
गलती हो जाती है पर उसे स्वीकारने से आपका कद बढ़ेगा. आपको इस बात के लिये माफी नहीं मागनी चाहिये कि आपकी बात से किसी को ठेस पहुंची है. अपनी भाषा से आप किसी को ठेस पहुंचा सके इसके लिये बहुत विनम्रता और भाषा के रियाज की जरूरत होती है. यह जो लेखिकाओं या लेखको का गुस्सा है यह ठेस से नहीं आपकी गलती से उपजा है. इसलिये महोदय आप अपने कहे शब्द के लिये माफी मांगिये.
नया ज्ञानोदय पत्रिका की टीम को भी इस आशय की घोषणा करनी चाहिये कि अगले संस्करण से यह इंटरव्यू बाहर हो रहा है या बाजार से पत्रिका वापस मंगाई जा रही है. इसके लिये पर्याप्त प्रयास होने चाहिये.
मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि बेवफाई की सजा माफी कत्तई काफी नहीं होती है. हो सकता है हम अपनी कमजोरी के कारण माफ करने के अलावा कुछ ना करने पायें क्योंकि हर वो आदमी(स्त्री या पुरुष) जो बेवफाई या विश्वासध्वंस करता है कभी यह मानता ही नही कि उससे गलती हुई है( बेवफा प्राणी और कुछ हो ना हो मौकापरस्त जरूर होता है, नौकरी या दूसरे लालच के लिये कहीं भी लोट या बिछ जाने वाला) और विभूति जी ने अपने पाठको तथा मित्रों का विश्वास तोड़ा है, भले उनके मित्र उनसे लाभान्वित होने की आशा में कुछ कह न रहे हों.
इस पूरे मसले ने जो महत्वपूर्ण पर्दाफाश किया है वो है सम्बन्ध और साहित्य. साहित्यिक दुनिया इतनी संकुचित हो चुकी है कि हर आदमी एक दूसरे को व्यक्तिगत तौर पर जानता है. पर जानने का यह मतलब भी निकाल लिया गया है कि अगर हम आपकी किसी बात का विरोध करें तो आपके पूरे जीवन का विरोध कर रहे हैं. साहित्य से लोकतंत्र गायब हो रहा है. मतलब अगर मैं गलत हूँ तो जो मेरा घोषित मित्र है वो मेरे पक्ष में बोलेगा और जो शत्रु है वो विपक्ष में. मुझे आश्चर्य हुआ जब लोग विभूति जी के वकालत में आगे आये. उन दोमुहों ने दुहरा नुकसान किया. पहला मैं उपर बता चुका हूँ और दूसरा यह कि कहीं ना कहीं वे विभूति को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हुए कि आप सही हैं. इसलिये ही उन्होने शुरुआती जिद में अपने आप को डिफेंड किया. हमें सम्बन्धो और उससे मिलने वाले चन्द पुरस्कारों वाली सोच के दायरे तोड़ने चाहिये. इससे अपना कम अपने उस मित्र का ज्यादा भला होगा जिसका शालीन विरोध हम कर रहे होंगे.
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