Wednesday, October 13, 2010

वेरा पावलोवा की आठ कवितायेँ


1940 में जन्मी रूसी कवियत्री वेरा पावलोवा की पहचान यह भर नहीं है कि वे शीर्षकविहीन कवितायें लिखतीं हैं. वेरा की पहचान यह भी नहीं है कि उनकी कविता विचार(आईडिया) केन्द्रित होती है. होता दरअसल यह है - ज्यादातर कवि किसी नर्म और अकेले विचार को गुलाब की टहनी समझ कर छीलना पसन्द करतें हैं और इस कदर चाकू चलाते हैं कि जैसे टहनी को काट ही डालेंगे. कुछेक कवि तो क्रूर पिता की मानिन्द विचार को अनबोलते बच्चे की तरह लेते हैं और उसे ऐसे मैदान में अकेला छोड़ देते हैं जहाँ उस बच्चे के उपर से हवाई जहाज के हवाई जहाज गुजर रहें हो. कितना शोर! बच्चा डर जाता है और सारी तैयारियों के बावजूद सदा-सर्वदा के लिये कविता बनने से इंकार कर देता है.

इन सबसे ठीक उलट, वेरा किसी कौंध या किसी विचार को ही अपनी कविता का विषय बनाती हैं. ऐसा करते हुए वो विचार को, अंतत:, अमीर करतीं हैं. विचार को खूबसूरत भावों का स्वेटर पहनाती हैं. उसे आग या हथियार की तरह नहीं, बल्कि शामिल रोटी की तरह, सबके लिये तैयार करती हैं.

कविता चयन और अनुवाद मनोज पटेल का है. मनोज पटेल जी के इस अनुवाद के साथ इस ब्लॉग के सौ पोस्ट पूरे हुए!!
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वेरा पावलोवा की आठ कवितायेँ
1)
अगर ख्वाहिश है कोई
तो लाजिमी है अफ़सोस
अफ़सोस है कोई अगर
तो जरुर बाक़ी होगी याद
अगर बाक़ी है कोई याद
तो क्या था अफ़सोस को
और
अफ़सोस नहीं था अगर
तो ख्वाहिश ही कहाँ थी.
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2)

नामवरों से गुफ्तगू करने के लिये
चढ़ा लेना उनका चश्मा ;
यकसां होने को किताबों से
लिखने बैठ जाना उन्हें फिर से ;
संपादन करना पाक फरमानों का
और कायनात की तनहा कैद में
आधी रात के पहर
दीवाल थपथपाते बातें करना घड़ी से

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3)

आओ स्पर्श करें एक-दूसरे को
जब तक हैं हमारे हाथ,
हथेली और कुहनियाँ...
प्यार करें एक-दूसरे से
दुःख पाने के लिये,
दें यातना और संताप
कुरूप करें और अपंग
ताकि याद रखें बेहतर,
और बिछ्ड़ें तो कम हो कष्ट

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4)

खून की रवानी के खिलाफ
जूझता है जोश जन्म लेने को,
ज़बान की रवानी के खिलाफ
लफ्ज़ तोड़ देते हैं पतवार,
ख़यालों की रवानी के खिलाफ
बहती है ख्वाबों की कश्ती,
बच्चे की तरह हाथ चलाते तैरती हूँ मैं
आंसुओं की रवानी के खिलाफ.
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5)

उसने ज़िंदगी दी तोहफे में मुझे.
मैं क्या दे सकती हूँ बदले में उसे ?
अपनी कवितायेँ.
कुछ और है भी तो नहीं मेरे पास.
लेकिन फिर क्या सचमुच वे हैं मेरी ही ?
वैसे ही जैसे बचपन में
माँ के जन्मदिन पर देने के लिए
मैं चुना करती थी कोई कार्ड
और कीमत चुकाती थी पिता के पैसों से.


क्या मेरी कवितायेँ सचमुच हैं मेरी ही.
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6)

एक वायस मेल है कविता :
कहीं बाहर चला गया है कवि
बहुत मुमकिन है न आए कभी लौटकर
कृपया अपना सन्देश छोड़ें
गोली की आवाज़ के बाद.
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7)

सर्दियों में होती हूँ कोई जानवर,
एक बिरवा बसंत में,
गर्मियों में पतंगा,
तो परिंदा होती हूँ पतझड़ में.
हाँ औरत भी होती हूँ बाक़ी के वक़्त.
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8)

बस इतना जान पाती कि किस जुबान का
तर्जुमा है तुम्हारा ‘आई लव यू’ ,
और पा जाती वह असल,
तो देखती शब्दकोष
जानने को कि तर्जुमा है चौकस
या तर्जुमा-नवीस की नहीं है कोई खता.
...............

11 comments:

अनुपमा पाठक said...

bahut sundar post!
thanks for sharing.....

डॉ .अनुराग said...

एक वायस मेल है कविता :
कहीं बाहर चला गया है कवि
बहुत मुमकिन है न आए कभी लौटकर
कृपया अपना सन्देश छोड़ें
गोली की आवाज़ के बाद.
.............................................




सुभानाल्लाह !!!!!!

Shrikant Dubey said...

Nice Work Manoj Bhai!! Keep it Up!!

डिम्पल मल्होत्रा said...

एक वायस मेल है कविता :
कहीं बाहर चला गया है कवि
बहुत मुमकिन है न आए कभी लौटकर
कृपया अपना सन्देश छोड़ें
गोली की आवाज़ के बाद.
...............................विचार इस तरह भी कविता में ढल सकते है!!

डा. आर. डी. प्रसाद said...

Manoj Ji ke is anuvad ko padhkar Vera ko aur padhne ka man ho raha hai. Bahut badhiya kavitaye hain aur utna hi shandar anuvad. Aapke shatak par badhai. Behtar team taiyar kar li hai aapne. - R D Prasad

Anonymous said...

SUNDER...aabhar.

पारुल "पुखराज" said...

सर्दियों में होती हूँ कोई जानवर,
एक बिरवा बसंत में,
गर्मियों में पतंगा,
तो परिंदा होती हूँ पतझड़ में.
हाँ औरत भी होती हूँ बाक़ी के वक़्त.

बहुत अच्छी..

ANIRUDDH DWIVEDI said...

शुक्रिया चन्दन जी ! वेरा पावलोवा की कविता से रूबरू कराने के लिए.आप ने जबरदस्त भूमिका लिखा है.जिसमें वेरा पावलोवा की कवी रूपी आत्मा से तो हम परिचित होते ही हैं,साथ ही साथ कवि और कवि के बीच का अंतर का भी अहसास आप ने बाखूबी कराया है. आपके ब्लॉग के 100 पोस्ट पूरे होने पर हम सभी की तरफ से आपको हार्दिक बधाई. एक शानदार कविता का बेहतरीन अनुवाद उपलब्ध कराने के लिए मनोज जी को बहुत-बहुत धन्यवाद. एक अच्छे अनुवादक की भूमिका का तो निर्वाह आपने किया ही है,साथ ही साथ एक अच्छे चयनकर्ता की भूमिका को भी आप ने अंजाम दिया है. वेरा पावलोवा की कविता'अगर .........ने मुझे बहुत प्रभावित किया. .........................और भी कवितायेँ बहुत अच्छी हैं जैसे; " उसने ज़िंदगी दी तोहफे में मुझे.मैं क्या दे सकती हूँ बदले में उसे ? आप लोगों से अनुरोध है की अपना प्रयास निरंतर जारी रखिये.

शरद कोकास said...

मैं क्या दे सकती हूँ उसे / अपनी कवितायें .. बेहतरीन कवितायें और अनुवाद ।

varsha said...

उसने ज़िंदगी दी तोहफे में मुझे.
मैं क्या दे सकती हूँ बदले में उसे ?
अपनी कवितायेँ.
कुछ और है भी तो नहीं मेरे पास.
लेकिन फिर क्या सचमुच वे हैं मेरी ही ?
वैसे ही जैसे बचपन में
माँ के जन्मदिन पर देने के लिए
मैं चुना करती थी कोई कार्ड
और कीमत चुकाती थी पिता के पैसों से.


क्या मेरी कवितायेँ सचमुच हैं मेरी ही.
mujhe bahut achchi lagi.shukriya.

prithvi said...

leek se hatkar.. srahniya.