Saturday, November 13, 2010

मनोज कुमार झा की तीन कवितायें

युवा कवि मनोज कुमार झा की कविताओं मे यो तो लगभग सारा ही कुछ प्रशंसनीय है परन्तु सर्वाधिक पसंद है - इनका बिम्ब विधान। शोरगुल मे मनोज का यकीन कम है। यहाँ दी जा रही तीनो कविताएं पूर्व प्रकाशित है और जल्द ही हम मनोज की नितांत नई कविताओं को लिए दिए हाजिर होंगे....विज्ञान के छात्र रहे मनोज कविता करने के अलावा समकालीन चिंतको को पढ़ने और उन्हें अनूदित करने का जहीन काम भी लगातार कर रहे है। दरभंगा के एक गाँव शंकरपुर मे रहते हैं। कवि से संपर्क: ०९९७३४१०५४८; ॥">jhamanoj100@gmail.com॥

शुभकामना

यह पार्क सुंदर है सांझ के रोओं में दिन की धूल समेटे
सुंदर है दाने चुग रहे कबूतर
बच्चों की मुट्ठियां खुलती सुंदर, सुंदर खुलती कबूतर की चोंच
मैं भी सुंदर लगता होऊंगा घास पर लेटा हुआ
छुपे होंगे चेहरे के चाकू के निशान

आंख की थकान ट्रक पर सटे डीजल
के इश्तिहार में सुंदरता ढ़ूंढ़ती है
जैसे घिस रहे मन भाग्यफल के
झलफल में ढ़ूंढ़ते हैं सुंदर क्षण
शुभ है कि फिर भी सुंदरता इतनी नहीं
सजी कि कोढ़ियों की त्वचा प्लास्टिक
की लगे
वहां कई जोड़े बैठे हुए और किसी ने नहीं देखी अभी तक घड़ी
उम्मीद है इनके प्रेम की कथा में नहीं शूर्पणखा के कान
अब वहां पक रहे जीवन का उजास है चेहरों को भिगोता
कि हवा लहरी तो सहज हहाए हैं बांस
उम्मीद कि कोई भी चुंबन किसी की हत्या की सहमति का नहीं ।


कि

तो ठीक है पुत्र
चलो काट देते हैं इस वृक्ष को
कि अब तो तुम्हें ही रहना यहाँ
कि इस पर सुसताते पक्षियों के पंख झरते हैं
घुड़साल की छत पर
कि मैं कहीं और किसी वन में ढ़ूंढ़ लूँगा
इसका समगोत्र
कि इस वृक्ष के साथ रहते-रहते मैंने भी
सीख लिया है कंधों पे कोयलों को बिठाना
किन्तु उतरो घोड़े से धरती पर तो एक बात रखूँ
कि पता नहीं तुम सुन रहे कि नहीं
कि घोड़े तो दौड़ते-दौड़ते थककर सो लेते खड़े-खड़े घुड़सवार नहीं
कि कभी-कभी आदमी चाहता है मात्र एक चटाई और अश्वत्थामा मांगता मृत्यु
कि कभी-कभी कुशल धावकों को भी
कठिन हो जाती फेफड़े भर हवा



टूटे तारों की धूल के बीच

मैं कनेर के फूल के लिए आया यहाँ
और कटहल के पत्ते ले जाने गाभिन बकरियों के लिए
और कुछ भी शेष नहीं मेरा इस मसान में

पितामह किस मृत्यु की बात करते हो
जैसा कहते हैं कि लुढ़के पाए गए थे
सूखे कीचड़ से भरी सरकारी नाली में
या लगा था उन्हें भाला जो किसी ने जंगलीसूअर पर फेंका था
या सच है कि उतर गए थे मरे हुए कुँए में भाँग में लथपथ

सौरी से बँधी माँ को क्या पता उन जुड़वे
नौनिहालों
कीउन दोनों की रूलाई टूटी कि तभी टूट गए स्मृति के सूते अनेक
वो मरे शायद पिता न जो फेंकी माँ की पीठ पर
लकड़ी की पुरानी कुर्सी
माँ ने ही खा ली थी चूल्हे की मिट्टी बहुत ज्यादा
या डॉक्टर ने सूई दे दी वही जो वो पड़ोसी के
बीमार बैल के लिए लाया था

विगत यह बार-बार उठता समुद्र
और मैं नमक की एक ढ़ेला कभी फेन में घूमता
तो कभी लोटता तट पर.

10 comments:

Niranjan Shrotriya said...

Nice Poems!

सागर said...

मैंने तीसरी वाली पहले भी पढ़ी है... बांकी दोनों नया था . मनोज कुमार झा की कवितायेँ पहली बार में ही पसंद आ जाने वाली हैं ... अनुनाद पर इन्हें मैंने पहली बार पढ़ा था .. फिर शिरीष कुमार मौर्या ने इनके बारे में बताया.. बिम्ब और ठहराव बिलकुल कमाल का है. यह बहुत आगे जायेंगे मेरी शुभकामनाएं... भीड़ में एक अलग आवाज़ शांत पर असरदार सा

subway said...

'' ki '' is wonderful sir...i am overwhelmed...

Anonymous said...

SUNDER Kavitayen. Badhai.

TRIPURARI said...

ढ़ेर सारी शुभकामनाएं मनोज जी को...

addictionofcinema said...

bahut achhi kavitayen...manoj shuru se mere priya kavi rahe hain. apne bilkul sahi likha hai ki unka shorgul aur shoshebaji me bilkul yakeen nahi hai, wo is baat ka udahran hain ki aakhirkar apka kaam hi bolta hai...umda kavitayen halanki pehle padha tha. nayi prakashit karne ke anurodh ke sath
Vimal Chandra Pandey

shesnath pandey said...

अच्छी कविताएँ है... बार-बार पढ़ने और इत्मिनान से बात करने लायक...

Manoj Kumar Jha said...

shukriya.kavita to bus koshsh hi,jinko achha laga is achhai me unka hissa zyada hi
















doston,kavita to bus koshish hi,jinko achhi lagi is achhai me unka hissa zyada hi.

Kumar Anupam said...

ManoJ Jha Yuva Kavita Ka Paripakva Swar Hain. Sabhi Kavitaien Jeevan Ka Zaroori Vimarsh Krti Hain. Badhai.

mithilesh kumar ray said...

manoj ki kavitayen kamal ki hoti hain...kamal es arth me ki kavitayen jinhen nhi bhulana chahiye aur hun bhul rahe hain, un ki ek jhalak dikha kr bahut kuchchh yad dila deti hain!