( भर्तृहरि की इन कविताओं का अनुवाद प्रसिद्ध कवि राजेश जोशी ने किया है. इनके शतक त्रयी ( नीति शतक, श्रिंगार शतक और वैराग्य शतक ) में से यहाँ नीति शतक से कुछ कविताएँ दी जा रही हैं. शेष कविताएँ भी सामान्य अंतराल पर प्रकाशित होती रहेंगी. भूमिका राजेश जी है जिसमें भर्तृहरि को समझने के कई तरीके उन्होने सुझायें हैं. पूर्वग्रह द्वारा पहले पहल सीरिज़ में छपी इन कविताओं के पुनटंकण का कार्य अनिल ने किया है. )
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शतकत्रयी के रचनाकार भर्तृहरि भारतीय काव्य मनीषा के अप्रतिम कवि हैं. भर्तृहरि और उनके समय के बारे में संस्कृत के अध्येताओं में लगातार विवाद बना रहा है : संस्कृत वांग्यमय में भर्तृहरि नाम के दो साहित्य मनीषियों का उल्लेख मिलता है. एक भर्तृहरि व्याकरणाचार्य है और दूसरे शतकत्रयी के रचनाकार. तीनों शतक अधिकांशतः साधारण धार्मिक पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित होते रहे हैं इन पुस्तिकाओं में भर्तृहरि के परिचय के नाम पर जो कथा मिलती है उसमें भर्तृहरि उज्जयिनी के महाराज हैं, गोरखनाथ के शिष्य हैं और विक्रमादित्य उनके छोटे भाई बताये गए हैं. यही कथा मालवा, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ से लेकर हरियाणा और अनेक अंचलों में लोकनाट्य, लोकगीतों, लोककथाओं में खेली और गायी जाती है. “अमरफल” की कथा के नायक को ही अधिकांशतः व्याकरणाचार्य और शतकत्रयी का रचनाकार भी माना जाता रहा है. लेकिन “अमरफल” की लोककथा के नायक राजा भर्तृहरि से शतकत्रयी की रचना का संबंध जोड़ने का कोई तार्किक आधार नहीं है. यहां तक कि इस कथा गायन में उनकी रचना का कोई स्पष्ट उल्लेख तलाशना भी दूभर है. विक्रमादित्य और गोरखनाथ से भर्तृहरि के संबंध का भी कोई ठोस आधार नहीं है. भर्तृहरि की पूरी रचना में व्यापार और कृषि का वर्णन तकरीबन नगण्य है. मात्र नीतिशतक में एकाध स्थान पर संकेतरूप में इसका उल्लेख मिलता है.
डी.डी. कोशाम्बी का मानना है कि भर्तृहरि का अनुमानित काल ज़्यादा से ज़्यादा तीसरी शताब्दी के अंत का माना जा सकता है. यह भारतीय सामंतवाद का उदय काल था और किसी भी प्रकार की समर्थ राजशाही उस वक़्त अस्तित्व में नहीं थी. यह काल गुप्तवंश के उदय के पूर्व का है. उस वक़्त भारतीय समाज में एक नया वर्ग उदित हो रहा था. वर्ग समाज में पूर्व व्यवस्था के गर्भ से जन्म लेने वाल हर नया वर्ग, नये विचारों, नये कला रूपों और नये सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों को लेकर पैदा होता है. उसके लिए संघर्ष करता है और उन्हें स्थापित करता है. इसलिए वर्ग समाज में कला के जितने उन्नत और उत्कृष्ट रूप नई वर्ग व्यवस्था के उदय काल में प्रकट होते हैं उतने उस विशिष्ट व्यवस्था के विकसित हो जाने पर संभव नहीं होते. सामंतवाद का उदय न केवल हमारे सामाजिक ढांचे में एक क्रांतिकारी परिवर्तन था बल्कि उसने संभवतः पहली बार सभी कलाओं को गुणात्मक रूप से परिवर्तित कर दिया. समस्त कलाओं को पहली बार विराटत्व और वैभव प्रदान किया.
इस तरह भर्तृहरि पुरानी व्यवस्था के विध्वंस और नई व्यवस्था के उदय के संधि स्थल पर खड़े एक संक्रमण काल के कवि हैं. इसलिए उनके व्यक्तित्व के अंतर्विरोध और उनकी रचना में विरोधाभास तीव्रता के साथ उजागर हुए हैं. शतकों ( नीति शतक, श्रृंगारशतक और वैराग्य शतक ) की कविता और लोककथा में वर्णित भर्तृहरि के व्यक्तित्व में यही एक मात्र समानता का बिंदु है. लोककथा का नायक भर्तृहरि एक बेचैन मन का व्यक्ति है. ऊहापोह में झूलता, निर्णय लेने में असमर्थ सा व्यक्ति. वह कई बार सन्यास लेता है, जंगल की ओर चला जाता है लेकिन बार बार वापस अपनी राजसत्ता में लौट आता है. धन, राज्य और विशेष रूप से नारी को लेकर भर्तृहरि की कविता में अनेक विरोधाभासी वक्तव्य हैं. ये विरोधाभास किसी वर्ग विशेष के विरोधाभास नहीं हैं जितना कि वे एक समय के संक्रमण और उसमें मूल्यों के विघटन में उजागर करते हैं. इसी कारण भर्तृहरि की कविता न केवल उनकी वर्गीय सीमाओं का बल्कि अपने समय का भी अतिक्रमण करती हुई अमरता को प्राप्त कर गई है.
भर्तृहरि बेहद संवेदनशील और अद्भुत कल्पनाशील कवि थे. बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने, बहुत सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त कर जाने की, अद्भुत कला उनके पास है. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कविता, कला और संगीत के प्रति उनमें गहरी आस्था है. वे न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि राजा और राज्य के लिए कला को अनिवार्य मानते हैं. कला, संगीत से विहीन मनुष्य उनके लिए बिना सींग और पूंछ वाला जानवर है. कला के प्रति ऐसी आस्था विरल है.
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नीतिशतक
महामूर्ख
मगर की दाढ़ से मणि निकाल कर
ला सकता है आदमी
मचलती लहरों में तैरता
समुद्र पार कर सकता है आदमी.
आदमी फूलों की माला–सा पहन सकता है
सर पर क्रोधित सांप को
पर नहीं बदल सकता वह
महामूर्ख का मन ! ॥4॥
रेत को पेर कर
तेल निकाल सकता है आदमी
मरीचिका में भी
पी सकता है पानी
बुझा सकता है प्यास.
शायद !
भटक-भटकाकर आदमी
खोज कर ला ही सकता है
सींग ख़रग़ोश के.
पर नहीं बदल सकता
ख़ुश नहीं कर सकता वह
महामूर्ख का मन. ॥5॥
एक दुष्ट को
मीठी मीठी बातों से
लाना रास्तों पर?
यानि
नाजुक मृणाल के डोरों से बांधकर
रोकने की कोशिश करना हाथी को
हीरे को छेदने की कोशिश
शिरीष के फूलों की नोक से
यानी
समुद्र को मीठा करने की कोशिश
शहद की एक बूंद से ! ॥6॥
पतन
उतरी स्वर्ग से पशुपति के मस्तक पर
पशुपति के मस्तक से उतरी
ऊंचे पर्वत पर
उतरी ऊंचे पर्वत से
नीचे धरा पर
पृथ्वी से उतर कर
समुद्र में समा गई गंगा.
विवेकहीन मनुष्य का
इसी तरह सौ तरह
होता है पतन. ॥10॥
दवा
बुझाया जा सकता
आग को पानी से
छाते से रोका जा सकता है
धूप को.
नुकीले अंकुश से मदमत्त हाथी को
और गाय और गधे को
किया ही जा सकता है बस में
पीट-पाट कर.
रोग की दवाओं से
और ज़हर को उतारा जा सकता है
मंत्रों से.
बताई है शास्त्रों ने हर चीज़ की दवा
पर दवा कोई नहीं
कोई नहीं है दवा
महामूर्ख की. ॥11॥
बिना सींग और पूंछ वाला जानवर
बिना सींग और पूंछ वाला
जानवर है वह
वह जो शून्य है
साहित्य कला और संगीत से
बिना घास खाए
जो जीता है वह
तो यह भाग्य ही है
इस नराधाम के जानवरों का ! ॥12॥
संग
दुर्गम पहाड़ों में
वनचरों के साथ साथ
घूमना अच्छा.
पर बैठना अच्छा नहीं
मूर्खों के साथ साथ
इन्द्र-भवन में भी. ॥14॥
मणियों का क्या दोष
जिस राजा के राज में
भटकते हों निर्धन ऐसे कवि
कविता जिनकी सुंदर
शास्त्रों के शब्दों सी
कविता जिनकी ज़रूरी
बहुत ज़रूरी शिष्यों के वास्ते
तो राजा ही है मूर्ख
समर्थ है विद्वान तो बिना धन के भी
हक़ है उसे करे निन्दा
अज्ञानी जौहरी की
गिरा दिया है जिसने मूल्य मणियों का
इसमें दोष क्या है भला मणियों का ! ॥15॥
राहु
वृहस्पति और पांच छह ग्रह
और भी हैं
आकाश गंगा में
पर किसी से नहीं लेता दुश्मनी मोल
वह पराक्रमी राहु
पर्व में वह ग्रसता है
सिर्फ़ तेजस्वी सूर्य और चंद्रमा को
जबकि सिर्फ़
सिर ही बचा है
उसकी देह में. ॥34॥
कांचन
बस धनवान ही हैं कुलीन
धनवान ही हैं पण्डित
वही है
सारे शास्त्रों और गुणों का भण्डार
वही है सुंदर
वही है दिखलौट
सारे गुण क्योंकि
बसते हैं कांचन में ! ॥41॥
कल्पतरू
हे राजन
दुहना है अगर तुम्हें
इस पृथ्वी की गाय को
तो पहले हष्ट-पुष्ट करो
इस लोक रूपी बछड़े को
अच्छी तरह पाला पोषा जाए
जब इस लोक को
तभी फलता फूलता है
भूमि का यह कल्पतरू. ॥46॥
ओ चातक
ओ चातक !
घड़ी भर को
ज़रा कान देकर सुनो मेरी बात
बहुत से बादल हैं आकाश में
पर एक से नहीं हैं
सारे बादल
कुछ हैं बरसते
जो भिगो डालते हैं सारी पृथ्वी को
और कुछ हैं जो
सिर्फ़ गरजते ही रहते हैं लगातार
ओ मित्र
मत मांगो हर एक से दया की भीख ! ॥51॥
दोस्ती
दूध ने दे डाला सारा दूधपन
अपने से मिले पानी को
गर्म हुआ जब दूध
पानी ने जला डाला अपने को
आग में.
दोस्त पर आयी जब आफ़त
तो उफ़न कर गिरने लगा दूध भी
आग में.
पानी से ही हुआ वह फिर शांत
ऐसी ही होती है दोस्ती
सच्ची और खरी. ॥76॥
आफ़तें
हाथ से फेंकी गई गेंद
फिर उछलती है
टप्पा खा कर
आफ़तें स्थायी नहीं होतीं
अच्छे लोगों की. ॥86॥
गंजा
धूप ने तपा डाली
जब चांद गंजे को
तो छाया की तलाश में
पहुंचा वह एक ताड़ के नीचे
ताड़ से गिरा फल
और तड़ाक से फोड़ दिया
उसने गंजे का सर
जहां कहीं जाता है भाग्य का मारा
आफ़तें साथ साथ जाती हैं
उसके. ॥91॥
ललाट पर लिखी
करील पर न हों पत्ते
तो बसंत का क्या दोष
नहीं टिपे उल्लू को दिन में
तो सूरज का क्या दोष
पानी की धार न गिरे चातक के मुंह में
तो बादल का क्या दोष
बिधना ने जो लिख दी है ललाट पर
कौन मेट सकता है उसे ! ॥94॥
कर्म
ब्रह्माण्ड का घड़ा रचने को
जिसने कुम्हार बनाया ब्रह्मा को
दशावतार लेने के जंजाल में
डाल दिया जिसने विष्णु को
रुद्र से भीख मंगवाई जिसने
हाथ में कपाल लेकर
जिसके आदेश से हर रोज़
आकाश में चक्कर लगाता है सूर्य,
उस कर्म को
नमस्कार !
नमस्कार ! ॥96॥
राजपाट क्या है
लाभ, लाभ क्या है
गुनियों की संगत है लाभ.
दुख, दुख क्या है
संग, मूर्खों का संग है दुख,
हानि, हानि क्या है
समय चूकना है हानि.
क्या है, क्या है निपुणता.
धर्म और तत्व को जानना है निपुणता
कौन है, कौन है वीर
वीर है, जो जीत ले इंद्रियों को
प्रेयसी, प्रेयसी कौन है
पत्नी, पत्नी ही है प्रियतमा
धन है, धन क्या है
ज्ञान, ज्ञान ही है धन
सुख, सुख क्या है
यात्रा, यात्रा ही है सुख
तो फिर राजपाट क्या है !! ॥104॥
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शतकत्रयी के रचनाकार भर्तृहरि भारतीय काव्य मनीषा के अप्रतिम कवि हैं. भर्तृहरि और उनके समय के बारे में संस्कृत के अध्येताओं में लगातार विवाद बना रहा है : संस्कृत वांग्यमय में भर्तृहरि नाम के दो साहित्य मनीषियों का उल्लेख मिलता है. एक भर्तृहरि व्याकरणाचार्य है और दूसरे शतकत्रयी के रचनाकार. तीनों शतक अधिकांशतः साधारण धार्मिक पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित होते रहे हैं इन पुस्तिकाओं में भर्तृहरि के परिचय के नाम पर जो कथा मिलती है उसमें भर्तृहरि उज्जयिनी के महाराज हैं, गोरखनाथ के शिष्य हैं और विक्रमादित्य उनके छोटे भाई बताये गए हैं. यही कथा मालवा, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ से लेकर हरियाणा और अनेक अंचलों में लोकनाट्य, लोकगीतों, लोककथाओं में खेली और गायी जाती है. “अमरफल” की कथा के नायक को ही अधिकांशतः व्याकरणाचार्य और शतकत्रयी का रचनाकार भी माना जाता रहा है. लेकिन “अमरफल” की लोककथा के नायक राजा भर्तृहरि से शतकत्रयी की रचना का संबंध जोड़ने का कोई तार्किक आधार नहीं है. यहां तक कि इस कथा गायन में उनकी रचना का कोई स्पष्ट उल्लेख तलाशना भी दूभर है. विक्रमादित्य और गोरखनाथ से भर्तृहरि के संबंध का भी कोई ठोस आधार नहीं है. भर्तृहरि की पूरी रचना में व्यापार और कृषि का वर्णन तकरीबन नगण्य है. मात्र नीतिशतक में एकाध स्थान पर संकेतरूप में इसका उल्लेख मिलता है.
डी.डी. कोशाम्बी का मानना है कि भर्तृहरि का अनुमानित काल ज़्यादा से ज़्यादा तीसरी शताब्दी के अंत का माना जा सकता है. यह भारतीय सामंतवाद का उदय काल था और किसी भी प्रकार की समर्थ राजशाही उस वक़्त अस्तित्व में नहीं थी. यह काल गुप्तवंश के उदय के पूर्व का है. उस वक़्त भारतीय समाज में एक नया वर्ग उदित हो रहा था. वर्ग समाज में पूर्व व्यवस्था के गर्भ से जन्म लेने वाल हर नया वर्ग, नये विचारों, नये कला रूपों और नये सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों को लेकर पैदा होता है. उसके लिए संघर्ष करता है और उन्हें स्थापित करता है. इसलिए वर्ग समाज में कला के जितने उन्नत और उत्कृष्ट रूप नई वर्ग व्यवस्था के उदय काल में प्रकट होते हैं उतने उस विशिष्ट व्यवस्था के विकसित हो जाने पर संभव नहीं होते. सामंतवाद का उदय न केवल हमारे सामाजिक ढांचे में एक क्रांतिकारी परिवर्तन था बल्कि उसने संभवतः पहली बार सभी कलाओं को गुणात्मक रूप से परिवर्तित कर दिया. समस्त कलाओं को पहली बार विराटत्व और वैभव प्रदान किया.
इस तरह भर्तृहरि पुरानी व्यवस्था के विध्वंस और नई व्यवस्था के उदय के संधि स्थल पर खड़े एक संक्रमण काल के कवि हैं. इसलिए उनके व्यक्तित्व के अंतर्विरोध और उनकी रचना में विरोधाभास तीव्रता के साथ उजागर हुए हैं. शतकों ( नीति शतक, श्रृंगारशतक और वैराग्य शतक ) की कविता और लोककथा में वर्णित भर्तृहरि के व्यक्तित्व में यही एक मात्र समानता का बिंदु है. लोककथा का नायक भर्तृहरि एक बेचैन मन का व्यक्ति है. ऊहापोह में झूलता, निर्णय लेने में असमर्थ सा व्यक्ति. वह कई बार सन्यास लेता है, जंगल की ओर चला जाता है लेकिन बार बार वापस अपनी राजसत्ता में लौट आता है. धन, राज्य और विशेष रूप से नारी को लेकर भर्तृहरि की कविता में अनेक विरोधाभासी वक्तव्य हैं. ये विरोधाभास किसी वर्ग विशेष के विरोधाभास नहीं हैं जितना कि वे एक समय के संक्रमण और उसमें मूल्यों के विघटन में उजागर करते हैं. इसी कारण भर्तृहरि की कविता न केवल उनकी वर्गीय सीमाओं का बल्कि अपने समय का भी अतिक्रमण करती हुई अमरता को प्राप्त कर गई है.
भर्तृहरि बेहद संवेदनशील और अद्भुत कल्पनाशील कवि थे. बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने, बहुत सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त कर जाने की, अद्भुत कला उनके पास है. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कविता, कला और संगीत के प्रति उनमें गहरी आस्था है. वे न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि राजा और राज्य के लिए कला को अनिवार्य मानते हैं. कला, संगीत से विहीन मनुष्य उनके लिए बिना सींग और पूंछ वाला जानवर है. कला के प्रति ऐसी आस्था विरल है.
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नीतिशतक
महामूर्ख
मगर की दाढ़ से मणि निकाल कर
ला सकता है आदमी
मचलती लहरों में तैरता
समुद्र पार कर सकता है आदमी.
आदमी फूलों की माला–सा पहन सकता है
सर पर क्रोधित सांप को
पर नहीं बदल सकता वह
महामूर्ख का मन ! ॥4॥
रेत को पेर कर
तेल निकाल सकता है आदमी
मरीचिका में भी
पी सकता है पानी
बुझा सकता है प्यास.
शायद !
भटक-भटकाकर आदमी
खोज कर ला ही सकता है
सींग ख़रग़ोश के.
पर नहीं बदल सकता
ख़ुश नहीं कर सकता वह
महामूर्ख का मन. ॥5॥
एक दुष्ट को
मीठी मीठी बातों से
लाना रास्तों पर?
यानि
नाजुक मृणाल के डोरों से बांधकर
रोकने की कोशिश करना हाथी को
हीरे को छेदने की कोशिश
शिरीष के फूलों की नोक से
यानी
समुद्र को मीठा करने की कोशिश
शहद की एक बूंद से ! ॥6॥
पतन
उतरी स्वर्ग से पशुपति के मस्तक पर
पशुपति के मस्तक से उतरी
ऊंचे पर्वत पर
उतरी ऊंचे पर्वत से
नीचे धरा पर
पृथ्वी से उतर कर
समुद्र में समा गई गंगा.
विवेकहीन मनुष्य का
इसी तरह सौ तरह
होता है पतन. ॥10॥
दवा
बुझाया जा सकता
आग को पानी से
छाते से रोका जा सकता है
धूप को.
नुकीले अंकुश से मदमत्त हाथी को
और गाय और गधे को
किया ही जा सकता है बस में
पीट-पाट कर.
रोग की दवाओं से
और ज़हर को उतारा जा सकता है
मंत्रों से.
बताई है शास्त्रों ने हर चीज़ की दवा
पर दवा कोई नहीं
कोई नहीं है दवा
महामूर्ख की. ॥11॥
बिना सींग और पूंछ वाला जानवर
बिना सींग और पूंछ वाला
जानवर है वह
वह जो शून्य है
साहित्य कला और संगीत से
बिना घास खाए
जो जीता है वह
तो यह भाग्य ही है
इस नराधाम के जानवरों का ! ॥12॥
संग
दुर्गम पहाड़ों में
वनचरों के साथ साथ
घूमना अच्छा.
पर बैठना अच्छा नहीं
मूर्खों के साथ साथ
इन्द्र-भवन में भी. ॥14॥
मणियों का क्या दोष
जिस राजा के राज में
भटकते हों निर्धन ऐसे कवि
कविता जिनकी सुंदर
शास्त्रों के शब्दों सी
कविता जिनकी ज़रूरी
बहुत ज़रूरी शिष्यों के वास्ते
तो राजा ही है मूर्ख
समर्थ है विद्वान तो बिना धन के भी
हक़ है उसे करे निन्दा
अज्ञानी जौहरी की
गिरा दिया है जिसने मूल्य मणियों का
इसमें दोष क्या है भला मणियों का ! ॥15॥
राहु
वृहस्पति और पांच छह ग्रह
और भी हैं
आकाश गंगा में
पर किसी से नहीं लेता दुश्मनी मोल
वह पराक्रमी राहु
पर्व में वह ग्रसता है
सिर्फ़ तेजस्वी सूर्य और चंद्रमा को
जबकि सिर्फ़
सिर ही बचा है
उसकी देह में. ॥34॥
कांचन
बस धनवान ही हैं कुलीन
धनवान ही हैं पण्डित
वही है
सारे शास्त्रों और गुणों का भण्डार
वही है सुंदर
वही है दिखलौट
सारे गुण क्योंकि
बसते हैं कांचन में ! ॥41॥
कल्पतरू
हे राजन
दुहना है अगर तुम्हें
इस पृथ्वी की गाय को
तो पहले हष्ट-पुष्ट करो
इस लोक रूपी बछड़े को
अच्छी तरह पाला पोषा जाए
जब इस लोक को
तभी फलता फूलता है
भूमि का यह कल्पतरू. ॥46॥
ओ चातक
ओ चातक !
घड़ी भर को
ज़रा कान देकर सुनो मेरी बात
बहुत से बादल हैं आकाश में
पर एक से नहीं हैं
सारे बादल
कुछ हैं बरसते
जो भिगो डालते हैं सारी पृथ्वी को
और कुछ हैं जो
सिर्फ़ गरजते ही रहते हैं लगातार
ओ मित्र
मत मांगो हर एक से दया की भीख ! ॥51॥
दोस्ती
दूध ने दे डाला सारा दूधपन
अपने से मिले पानी को
गर्म हुआ जब दूध
पानी ने जला डाला अपने को
आग में.
दोस्त पर आयी जब आफ़त
तो उफ़न कर गिरने लगा दूध भी
आग में.
पानी से ही हुआ वह फिर शांत
ऐसी ही होती है दोस्ती
सच्ची और खरी. ॥76॥
आफ़तें
हाथ से फेंकी गई गेंद
फिर उछलती है
टप्पा खा कर
आफ़तें स्थायी नहीं होतीं
अच्छे लोगों की. ॥86॥
गंजा
धूप ने तपा डाली
जब चांद गंजे को
तो छाया की तलाश में
पहुंचा वह एक ताड़ के नीचे
ताड़ से गिरा फल
और तड़ाक से फोड़ दिया
उसने गंजे का सर
जहां कहीं जाता है भाग्य का मारा
आफ़तें साथ साथ जाती हैं
उसके. ॥91॥
ललाट पर लिखी
करील पर न हों पत्ते
तो बसंत का क्या दोष
नहीं टिपे उल्लू को दिन में
तो सूरज का क्या दोष
पानी की धार न गिरे चातक के मुंह में
तो बादल का क्या दोष
बिधना ने जो लिख दी है ललाट पर
कौन मेट सकता है उसे ! ॥94॥
कर्म
ब्रह्माण्ड का घड़ा रचने को
जिसने कुम्हार बनाया ब्रह्मा को
दशावतार लेने के जंजाल में
डाल दिया जिसने विष्णु को
रुद्र से भीख मंगवाई जिसने
हाथ में कपाल लेकर
जिसके आदेश से हर रोज़
आकाश में चक्कर लगाता है सूर्य,
उस कर्म को
नमस्कार !
नमस्कार ! ॥96॥
राजपाट क्या है
लाभ, लाभ क्या है
गुनियों की संगत है लाभ.
दुख, दुख क्या है
संग, मूर्खों का संग है दुख,
हानि, हानि क्या है
समय चूकना है हानि.
क्या है, क्या है निपुणता.
धर्म और तत्व को जानना है निपुणता
कौन है, कौन है वीर
वीर है, जो जीत ले इंद्रियों को
प्रेयसी, प्रेयसी कौन है
पत्नी, पत्नी ही है प्रियतमा
धन है, धन क्या है
ज्ञान, ज्ञान ही है धन
सुख, सुख क्या है
यात्रा, यात्रा ही है सुख
तो फिर राजपाट क्या है !! ॥104॥