मनोज पटेल ने अनूठे ही अन्दाज में मेरा परिचय विश्व कविता से कराया. विश्व कविता के बड़े नामों में ही उलझा हुआ मैं था जब मनोज जी ने वेरा पावलोवा, चार्ल्स सिमिक और दुन्या मिखाईल की कविताओं के अनुवाद मुझे भेजने शुरु किए. फिर तो सिलसिला अनवरत है.
दुन्या की कविताएँ किसी ऐसे दु:ख या सघन अनुभूति की तरह सामने आती हैं जिनका सामना हम भरसक नही करना चाहते. जैसे यह कविता – कटोरा(अंग्रेजी में इसका शीर्षक ‘द कप’ है). पाखंड को आप नकारते हैं, शगुन – अपशगुन को आसानी से नकारते हैं पर यह कविता आपको गर्दन पर सवार हो जायेगी जहाँ आप चाहकर इस शगुन – अपशगुन के खेल को आसानी से नकार नही पायेंगे.
खेल कविता पढ़ते हुए मीर के एक शे’र “खुदा को काम तो सौपें हैं मैने सब / रहे है खौफ मुझको वाँ की बेनियाजी का” लगातार याद आता रहा. ऐसे ही तीसरी कविता है – एक आवाज़.
इससे पहले भी मनोज जी दुन्या की कविताओं के अनुवाद लगातार करते रहे हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं.
************
कटोरा
उस स्त्री ने कटोरे को उल्टा करके रख दिया
अक्षरों के बीच में.
एक मोमबत्ती को छोड़कर बाक़ी सारी बत्तियां बुझा दीं
और अपनी उंगली कटोरे के ऊपर रखी
और मन्त्र की तरह कुछ शब्द बुदबुदाए :
ऐ आत्मा... अगर तू मौजूद है तो कह - हाँ.
इस पर कटोरा हाँ के संकेत स्वरूप दाहिनी तरफ चला गया.
स्त्री बोली : क्या तुम सचमुच मेरे पति ही हो, मेरे शहीद पति ?
कटोरा हाँ के संकेत में दाहिनी तरफ चला गया.
उसने कहा : तुम इतनी जल्दी मुझे क्यों छोड़ गए ?
कटोरा इन अक्षरों पर फिरा -
यह मेरे हाथ में नहीं था.
उसने पूछा : तुम बच क्यों नहीं निकले ?
कटोरा इन अक्षरों पर फिरा -
मैं बच निकला था.
उसने पूछा : तो फिर तुम मारे कैसे गए ?
कटोरे ने हरकत की : पीछे से.
उसने कहा : और अब मैं क्या करूँ
इतने सारे अकेलेपन के साथ ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
उसने कहा : क्या तुम मुझसे प्रेम करते हो ?
कटोरा हाँ के संकेत में दाहिनी तरफ चला गया..
उसने कहा : क्या मैं तुम्हें यहाँ रोक सकती हूँ ?
कटोरा नहीं की तरफ के संकेत में बायीं तरफ चला गया..
उसने पूछा : क्या मैं तुम्हारे साथ चल सकती हूँ ?
कटोरा बायीं तरफ चला गया.
उसने कहा : क्या हमारी ज़िंदगी बदलेगी ?
कटोरा दाहिनी तरफ चला गया.
उसने पूछा : कब ?
कटोरे ने हरकत की - 1996.
उसने पूछा : क्या तुम सुकून से हो ?
कटोरा हिचकिचाते हुए हाँ की तरफ चला गया.
उसने पूछा : मुझे क्या करना चाहिए ?
कटोरे ने हरकत की - बच निकलो.
उसने पूछा : किधर ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
उसने कहा : तुम मुझसे क्या चाहते हो ?
कटोरे एक बेमतलब जुमले पर फिरी.
उसने कहा : कहीं तुम मेरे सवालों से ऊब तो नहीं गए ?
कटोरा बायीं तरफ चला गया.
उसने कहा : क्या मैं और सवाल कर सकती हूँ ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
थोड़ी चुप्पी के बाद, वह बुदबुदाई :
ऐ आत्मा... जा, तुझे सुकून मिले.
उसने कटोरा सीधा किया
मोमबत्ती को बुझा दिया
और अपने बेटे को आवाज़ लगायी
जो बगीचे में कीट-पतंगे पकड़ रहा था
गोलियों से छिदे हुए एक हेलमेट से.
* *
खेल
वह एक मामूली प्यादा है.
हमेशा झपट पड़ता है अगले खाने पर.
वह बाएँ या दाएं नहीं मुड़ता
और पीछे पलटकर भी नहीं देखता.
वह एक नासमझ रानी द्वारा संचालित होता है
जो बिसात के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चल सकती है
सीधे या तिरछे.
वह नहीं थकती, तमगे ढोते
और ऊँट को कोसते हुए.
वह एक मामूली रानी है
एक लापरवाह राजा द्वारा संचालित होने वाली
जो हर रोज गिनता है खानों को
और दावा करता है कि कम हो रहे हैं वे.
वह सजाता है हाथी और घोड़ों को
और एक सख्त प्रतिद्वंदी की करता है कामना.
वह एक मामूली राजा है
एक तजुर्बेकार खिलाड़ी द्वारा संचालित होने वाला
जो अपना सर घिसता है
और एक अंतहीन खेल में बर्बाद करता है वक़्त अपना.
वह एक मामूली खिलाड़ी है
एक सूनी ज़िंदगी द्वारा संचालित होने वाला
किसी काले या सफ़ेद के बिना.
यह एक मामूली ज़िंदगी है
एक भौचक्के ईश्वर द्वारा संचालित होने वाली
जिसने कोशिश की थी कभी मिट्टी से खेलने की.
वह एक मामूली ईश्वर है.
उसे नहीं पता कि
कैसे छुटकारा पाया जाए
अपनी दुविधा से.
एक आवाज़
मैं लौटना चाहता हूँ
वापस
वापस
वापस
दुहराता रहा तोता
उस कमरे में जहां
उसका मालिक छोड़ गया था उसे
अकेला
यही दुहराने के लिए :
वापस
वापस
वापस...
नया साल
1
कोई दस्तक दे रहा है दरवाजे पर.
कितना निराशाजनक है यह...
कि तुम नहीं, नया साल आया है.
2
मुझे नहीं पता कि कैसे तुम्हारी गैरहाजिरी जोडूँ अपनी ज़िंदगी में.
नहीं मालूम कि कैसे इसमें से घटा दूं खुद को.
नहीं मालूम कि कैसे भाग दूं इसे
प्रयोगशाला की शीशियों के बीच.
3
वक़्त ठहर गया बारह बजे
और इसने चकरा दिया घड़ीसाज को.
कोई गड़बड़ी नहीं थी घड़ी में.
बस बात इतनी सी थी की सूइयां
भूल गईं दुनिया को, हमआगोश होकर.
* *
झूलने वाली कुर्सी
जब वे आए,
बड़ी माँ वहीं थीं
झूलने वाली कुर्सी पर.
तीस साल तक
झूलती रहीं वे...
अब
मौत ने मांग लिया उनका हाथ,
चली गयीं वे
बिना एक भी लफ्ज़ बोले,
अकेला
छोड़कर इस कुर्सी को
झूलते हुए.
अनुवादक से सम्पर्क : 09838599333 ; manojneelgiri@gmail.com
दुन्या की कविताएँ किसी ऐसे दु:ख या सघन अनुभूति की तरह सामने आती हैं जिनका सामना हम भरसक नही करना चाहते. जैसे यह कविता – कटोरा(अंग्रेजी में इसका शीर्षक ‘द कप’ है). पाखंड को आप नकारते हैं, शगुन – अपशगुन को आसानी से नकारते हैं पर यह कविता आपको गर्दन पर सवार हो जायेगी जहाँ आप चाहकर इस शगुन – अपशगुन के खेल को आसानी से नकार नही पायेंगे.
खेल कविता पढ़ते हुए मीर के एक शे’र “खुदा को काम तो सौपें हैं मैने सब / रहे है खौफ मुझको वाँ की बेनियाजी का” लगातार याद आता रहा. ऐसे ही तीसरी कविता है – एक आवाज़.
इससे पहले भी मनोज जी दुन्या की कविताओं के अनुवाद लगातार करते रहे हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं.
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कटोरा
उस स्त्री ने कटोरे को उल्टा करके रख दिया
अक्षरों के बीच में.
एक मोमबत्ती को छोड़कर बाक़ी सारी बत्तियां बुझा दीं
और अपनी उंगली कटोरे के ऊपर रखी
और मन्त्र की तरह कुछ शब्द बुदबुदाए :
ऐ आत्मा... अगर तू मौजूद है तो कह - हाँ.
इस पर कटोरा हाँ के संकेत स्वरूप दाहिनी तरफ चला गया.
स्त्री बोली : क्या तुम सचमुच मेरे पति ही हो, मेरे शहीद पति ?
कटोरा हाँ के संकेत में दाहिनी तरफ चला गया.
उसने कहा : तुम इतनी जल्दी मुझे क्यों छोड़ गए ?
कटोरा इन अक्षरों पर फिरा -
यह मेरे हाथ में नहीं था.
उसने पूछा : तुम बच क्यों नहीं निकले ?
कटोरा इन अक्षरों पर फिरा -
मैं बच निकला था.
उसने पूछा : तो फिर तुम मारे कैसे गए ?
कटोरे ने हरकत की : पीछे से.
उसने कहा : और अब मैं क्या करूँ
इतने सारे अकेलेपन के साथ ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
उसने कहा : क्या तुम मुझसे प्रेम करते हो ?
कटोरा हाँ के संकेत में दाहिनी तरफ चला गया..
उसने कहा : क्या मैं तुम्हें यहाँ रोक सकती हूँ ?
कटोरा नहीं की तरफ के संकेत में बायीं तरफ चला गया..
उसने पूछा : क्या मैं तुम्हारे साथ चल सकती हूँ ?
कटोरा बायीं तरफ चला गया.
उसने कहा : क्या हमारी ज़िंदगी बदलेगी ?
कटोरा दाहिनी तरफ चला गया.
उसने पूछा : कब ?
कटोरे ने हरकत की - 1996.
उसने पूछा : क्या तुम सुकून से हो ?
कटोरा हिचकिचाते हुए हाँ की तरफ चला गया.
उसने पूछा : मुझे क्या करना चाहिए ?
कटोरे ने हरकत की - बच निकलो.
उसने पूछा : किधर ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
उसने कहा : तुम मुझसे क्या चाहते हो ?
कटोरे एक बेमतलब जुमले पर फिरी.
उसने कहा : कहीं तुम मेरे सवालों से ऊब तो नहीं गए ?
कटोरा बायीं तरफ चला गया.
उसने कहा : क्या मैं और सवाल कर सकती हूँ ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
थोड़ी चुप्पी के बाद, वह बुदबुदाई :
ऐ आत्मा... जा, तुझे सुकून मिले.
उसने कटोरा सीधा किया
मोमबत्ती को बुझा दिया
और अपने बेटे को आवाज़ लगायी
जो बगीचे में कीट-पतंगे पकड़ रहा था
गोलियों से छिदे हुए एक हेलमेट से.
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खेल
वह एक मामूली प्यादा है.
हमेशा झपट पड़ता है अगले खाने पर.
वह बाएँ या दाएं नहीं मुड़ता
और पीछे पलटकर भी नहीं देखता.
वह एक नासमझ रानी द्वारा संचालित होता है
जो बिसात के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चल सकती है
सीधे या तिरछे.
वह नहीं थकती, तमगे ढोते
और ऊँट को कोसते हुए.
वह एक मामूली रानी है
एक लापरवाह राजा द्वारा संचालित होने वाली
जो हर रोज गिनता है खानों को
और दावा करता है कि कम हो रहे हैं वे.
वह सजाता है हाथी और घोड़ों को
और एक सख्त प्रतिद्वंदी की करता है कामना.
वह एक मामूली राजा है
एक तजुर्बेकार खिलाड़ी द्वारा संचालित होने वाला
जो अपना सर घिसता है
और एक अंतहीन खेल में बर्बाद करता है वक़्त अपना.
वह एक मामूली खिलाड़ी है
एक सूनी ज़िंदगी द्वारा संचालित होने वाला
किसी काले या सफ़ेद के बिना.
यह एक मामूली ज़िंदगी है
एक भौचक्के ईश्वर द्वारा संचालित होने वाली
जिसने कोशिश की थी कभी मिट्टी से खेलने की.
वह एक मामूली ईश्वर है.
उसे नहीं पता कि
कैसे छुटकारा पाया जाए
अपनी दुविधा से.
एक आवाज़
मैं लौटना चाहता हूँ
वापस
वापस
वापस
दुहराता रहा तोता
उस कमरे में जहां
उसका मालिक छोड़ गया था उसे
अकेला
यही दुहराने के लिए :
वापस
वापस
वापस...
नया साल
1
कोई दस्तक दे रहा है दरवाजे पर.
कितना निराशाजनक है यह...
कि तुम नहीं, नया साल आया है.
2
मुझे नहीं पता कि कैसे तुम्हारी गैरहाजिरी जोडूँ अपनी ज़िंदगी में.
नहीं मालूम कि कैसे इसमें से घटा दूं खुद को.
नहीं मालूम कि कैसे भाग दूं इसे
प्रयोगशाला की शीशियों के बीच.
3
वक़्त ठहर गया बारह बजे
और इसने चकरा दिया घड़ीसाज को.
कोई गड़बड़ी नहीं थी घड़ी में.
बस बात इतनी सी थी की सूइयां
भूल गईं दुनिया को, हमआगोश होकर.
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झूलने वाली कुर्सी
जब वे आए,
बड़ी माँ वहीं थीं
झूलने वाली कुर्सी पर.
तीस साल तक
झूलती रहीं वे...
अब
मौत ने मांग लिया उनका हाथ,
चली गयीं वे
बिना एक भी लफ्ज़ बोले,
अकेला
छोड़कर इस कुर्सी को
झूलते हुए.
अनुवादक से सम्पर्क : 09838599333 ; manojneelgiri@gmail.com
17 comments:
उसने पूछा : तो फिर तुम मारे कैसे गए ?
कटोरे ने हरकत की : पीछे से. ........(!)
...मोमबत्ती को बुझा दिया
और अपने बेटे को आवाज़ लगायी
जो बगीचे में कीट-पतंगे पकड़ रहा था
गोलियों से छिदे हुए एक हेलमेट से. .(२).
...........वाह ....इंसानियत का खुला नंगा नाच दिखाती कटोरे का सहज नाच करती अभिव्यक्ति ......अद्भुद संकलन शब्दों का ...वाह !!!!!!!!बाकि भी सुन्दर लगी पर ये जबरदस्त !!!!!
NIRMAL PANERI
manoj ji ke chayan aur anuvad ke kya kahne, lagta hi nahi kisi aur bhasha ki kavita padh rahe hai.
'कटोरा' पढ़ने के बाद अगली कविता तक जाने में बहुत समय लगा। स्तब्ध कर देने वाली कविता। मार्मिक। 'कटोरा' ठीक इसी तरह हमारे गांवों में भी 'चलाया' जाता है।..आज की हिंसा और लाचारगी से भरे इस विचलित करती कविता के लिए आभार...! अनुवाद सभी अच्छे हैं!
बहुत, बहुत अच्छी कविताएं! धन्यवाद!
दुःख और तंज़ का अगर काकटेल बनाया जाये तो कुछ ऐसा ही नशा होगा
जैसा इन कविताओं को पढ़कर हुआ ! मनोज जी की अनुवाद निपुणता
देख कर विस्मित हूँ ! भावों को आत्मसात करके भाषान्तरण करना ,
सचमुच सराहनीय है !
adbhut kavitaye
पहले की कवितायेँ आत्मिक सोच की अभिव्यक्ति हुआ करती थीं.जो संवेदनशीलता को स्वयं व्यक्त किया करती थीं.संवेदनशीलता की खोज में छिद्रान्वेषण नहीं किया जाता था.परन्तु आज की कवितायेँ या कहानियों में कहीं न कहीं छुपे रूप में ही लेखक को यह व्यक्त करना पड़ता है कि उसकी यह अभियक्ति उसके भोगे हुए यथार्थ पर है.और वह पाठक को मजबूर करता है कि उसके लेख में संवेदनशीलता खोजे.
पहले की कवितायेँ आत्मिक सोच की अभिव्यक्ति हुआ करती थीं.जो संवेदनशीलता को स्वयं व्यक्त किया करती थीं.संवेदनशीलता की खोज में छिद्रान्वेषण नहीं किया जाता था.परन्तु आज की कवितायेँ या कहानियों में कहीं न कहीं छुपे रूप में ही लेखक को यह व्यक्त करना पड़ता है कि उसकी यह अभियक्ति उसके भोगे हुए यथार्थ पर है.और वह पाठक को मजबूर करता है कि उसके लेख में संवेदनशीलता खोजे.
बहुत अच्छी कविताएँ... कटोरा में लोक रंग गजब है... विश्वास नहीं होता कि ये कविता हमारे देश से कही दूर की लिखी हुई है...
शेषनाथ...
bahut bahut sundar rachnaayen..shukrea
Behtareen kwitayen aur sunder anuwad.Rchnakar ki gahri smwednshilta anuwad mein bhi prawahit hoti hai.Shubhkamna
इन सभी कविताओं के लिए बधाई. यह समझना कितना गलत है कि लोक-विश्वास बहुत स्थनीय होते हैं. आत्मा बुलाने का ऐसा ही विश्वास हमारे गाँव-देहातों में भी है. दुन्या ने उसका बेहद मार्मिक उपयोग किया है. कविताओं के चुनाव और अनुवाद के लिए साधुवाद क्योंकि दोनों बेहतरीन हैं. वास्तव में सभी कविताएँ टिप्पणी कि मांग करती हैं.
अब कविताएं अपनी तय परिभाषाओं से बाहर निकलने लगी है
katora behtareen...
aur yah bhi
वक़्त ठहर गया बारह बजे
और इसने चकरा दिया घड़ीसाज को.
कोई गड़बड़ी नहीं थी घड़ी में.
बस बात इतनी सी थी की सूइयां
भूल गईं दुनिया को, हमआगोश होकर
KATOPA KAVITA MOHIT KARTI HAI........
ghadiyo ki suiyo ka hamaagosh hona bahut sundar laga. katora to advitiy hai. der tak mahsoos karungi is kavita ko. leena
भावों की अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर है. कुछ देर से आई हूँ ब्लोग्स की दुनिया में. लगता है बहुत कुछ से बहुत देर तक वंचित रह गई. आपके ब्लॉग के सभी रचनाये पठनीय है विचरो का झंझावत पैदा कर देती है. बहुत badhai
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