Thursday, September 22, 2011

परायथार्थवाद का घोषणापत्र ( Manifesto of Infra realism )

आरोही,

हमने बात आगे बढ़ाने की रखी थी. आज मन है कि इन वादों के इतिहास और इनके असर से अलग उन लोगों पर बात करें जिन्होने ऐसे वाद, जो साहित्य - कला के विकास लिए जरूरी समझे गए, की नींव रखने की जहमत उठाई. आज हम जिसे एक शब्द या दो वाक्यों में खारिज कर देते हैं (या अनमना स्वीकार भी)उसके पीछे लोगों ने अपनी जिन्दगियाँ लगा दी.

1974 की बात शायद हमारी मदद करे. यह मेक्सिको की बात है जब कुछ नौउम्रों को मेक्सिको विश्वविद्यालय ( UNAM ) के किसी कविता वर्कशॉप में कविता पढ़ने से रोक दिया गया. यह वह समय है जब ऑतोवियो पाज़ मेक्सिकन कविता के प्रतिनिधि के बतौर समूचे विश्व में प्रसिद्ध थे. जिन लोगों को कविता पढ़ने से रोका गया, जाहिर है, उनकी कविता पर, काव्य की तत्तकालीन सत्ता को गहरा ऐतराज रहा होगा. मारियो सांतियागो भी उन्हीं नौजवानों मे से थे, जिन्हे कविता पाठ नही करने दिया गया. कोई दर्ज इतिहास तो नहीं, पर अगर रॉबर्तो  बोलन्यो के उपन्यास 'द सैवेज डिटेक्टिव' को पढ़ा जाए तब जान सकोगे कि इन नई उम्र के कवियों के सामने, मेक्सिको के अग्रज कवि कैसी कैसी मुश्किल खड़ी कर रहे थे? इनकी किताबें तक नहीं प्रकाशित की जा रही थीं. प्रकाशक इन्हें देख कर घबरा जाते थे. जाहिर है प्रकाशकों को, जिनमें ज्यादातर लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर की जमात से आते हैं, कविता की खास समझ नही रही होगी. उन्हें जरूर कोई तीसरी शक्ति ही बता रही होगी कि किसे प्रकाशित करना है और किसे नहीं. सबसे बुरा तो यह कि इन नौजवान कवियों की कविताएं, वहाँ के प्रमुख कवि अपने द्वारा सम्पादित 'एंथोलोजिज' में भी प्रकाशित नही कर रहे थे.

इन्हीं सब मुश्किलों से गुजरते हुए इन नौजवानों ने एक नई काव्य धारा या कह लो काव्य आन्दोलन चलाने की बात रखी. यह कविता के लिए चलाया गया आन्दोलन था : इंफ्रारियलिज्म यानी परायथार्थवाद.

इनमें से सबसे प्रखर कवि थे : मारियो सांतियागो, जिन्हें मेक्सिको के 'इलीट कवियों' ने कोई मान्यता नहीं दी और मारियो जीवन पर्यंत उपेक्षा के शिकार रहे. रॉबर्तो बोलान्यो से परिचित तुम हो ही. उन्हें भी मृत्युपरांत ही नाम और प्रतिष्ठा मिली और वो भी कविता में नहीं, गद्य में. इस नए समूह के दूसरे सदस्यों में अरीबा, रोज़ाज, मेंडेज अबाजो, रुबेन, डायना, लुपिटा वाय खोसे फिगारो आदि थे.    

परायथार्थवाद का मुख्य विरोध 'सरकारी संस्कृति' से था. इनके आदर्श बीट पीढी के लोग थे जो कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की पीढ़ी थी और जिन्होने कविता, धर्म, नशा और यौनिकता ..जीवन के हर क्षेत्र में प्रयोग किए.  इनके दूसरे आदर्श 'रिम्बाँ', लॉट्रेमो और सॉफी पॉड्स्की थे जिनके बारे में विस्तृत अध्ययन की जरूरत है.

सहूलियत के लिए परायथार्थवाद का घोषणा पत्र मैं यहाँ दे रहा हूँ, जिसका अनुवाद युवा कहानीकार श्रीकांत ने किया है. इस पढ़ते हुए तुम्हे परायथार्थवादियों के गहरे साहित्यिक लगाव का पता पड़ेगा. कहने वाले कह सकते हैं कि यह आन्दोलन बेहद छोटे दायरे में सीमित रहा पर यह एक सूचना शायद इन अफवाहों पर भारी पड़े कि इसी इंफ्रारियलिज्म की तर्ज पर ऑस्ट्रिया में एक कविता आन्दोलन चला था : सेकेंड इफ्रारियलिज्म.

कोई भी बात आगे बढ़ाने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि वे लोग आखिर कौन थे जिन्होने इतनी शिद्दत से कविता का भला चाहा, साहित्य को जिया. उनके बारे में जानने से यह एक मुश्किल आसान होगी कि हम सबको  खारिज करना बन्द कर देंगे.

( तस्वीर में कम्प्यूटर स्क्रीन के बाएं से दूसरे : रॉबेर्तो बोलान्यो )





........... परायथार्थवाद का घोषणापत्र............................ 

सबकुछ त्याग दो, फिर से . 


“सौर मंडल का विस्तार यहाँ से चार प्रकाश वर्ष की दूरी तक है ; यानी सबसे करीब का तारा हमसे पूरे चार प्रकाश वर्ष दूर है. बीच में शून्य का अपरिमित समुद्र. लेकिन क्या वास्तव में इस बीच केवल शून्य है? जहाँ तक हमारी जानकारी कहती है, इस विशाल खालीपन में खुद से रौशन होने वाला पिंड नहीं है; और अगर है भी, तो क्या जरूरी है कि हमने उसे देखा ही हो? यों यदि इस बीच कोई ऐसा पिंड हो, जो चमक और अँधेरे दोनों ही से निरपेक्ष हो, तो? क्या हमारी दुनिया की ही तरह खगोलीय मानचित्रों के साथ भी ऐसा नहीं हो सकता, कि ‘सितारों के शहर’ की पहचान हो गई हो और ‘सितारों के गाँव’ गुमनाम ही रह गए हों?”

-    आधी रात गए अपने गाल खुजाते हुए विज्ञान कथाओं के रूसी लेखक.

-    सूरज से दूर के आकाशीय पिंड (‘द्रुमोंद’ के शब्दों में, ‘चहकते मेहनतकश बच्चे’)

-    एक असुंदर कमरे में बैठ, दरवाजे के पार की चीजों की भविष्यवाणी करते हुए ‘पेगेरो’ और ‘बोरिस’.

-    मुक्त धन ( आवारा पूँजी ) .

* * * * * *
कौन है जो समूचे शहर से होकर गुजर गया, जिसके पास गाने के लिए सिर्फ अपने साथी की बाँसुरी थी, अचंभे और क्षोभ के उसके अपने शब्द थे ?
सबसे सुन्दर तरीका, जिसका हमें पता न था
कि  स्त्री का चरम भगशेष (क्लिटोरिस)  में होता है
(गौर फरमाएँ, सिर्फ संग्रहालय ही नहीं गंदगी से अँटे हैं) (एक प्रक्रिया, व्यक्ति को संग्रहालय में बदलने की) (एक दिलासा, कि जो कुछ भी है, जाहिर है, बताया हुआ है) (आविष्कारों से भय) (डर, किसी अप्रत्याशित असंतुलन का).
* * * *
हमारे सबसे करीबी नातेदार :

छिपकर गोलियाँ दागने वाले और मैदानोँ के बाशिंदे वे अकेले लोग, जो लैटिन अमेरिका के चीनी काफी हाउसेज में तोड़ फोड़ मचाते रहते हैं, अपनी अपनी दुविधाओं से घिरे सुपरबाजारों के इकट्ठे कसाई; कविताई के संदर्भ में, कुछ करने या कुछ खोज लेने में अक्षम (व्यक्तिगत, अथवा सौंदर्य से जुड़े अंतर्विरोधों के स्तर पर).
*
छोटे सितारे ‘भँवर-जाल’ कहे जाने वाली एक जगह से हमें लगातार देखते-टिमटिमाते हुए.
- तिलिस्मों की नृत्य सभा
- लीसा अंडरग्राउंड के प्रति अपने प्यार में सुबकती हुई ‘पेपितो टेकिला’[i]
- और एक दहशत
*
पानी, सीमेंट या टिन, परदे चाहे जिस भी चीज के बने हों, वे एक सांस्कृतिक तंत्र को विलगाते हैं, जो चाहे तो विवेक या फिर शासक वर्ग के तलवे, दोनों रूपों में काम करता है, सजीव और जिन्दा संस्कृति से, मक्कार, जीवन और मृत्यु की शाश्वत निरंतरता में, इतिहास के बहुल हिस्से और खूबसूरत कलाओं से अनभिज्ञ, (अपने ही नृशंस इतिहास का रचयिता और उसकी हैरतंगेज ललित कलाएँ), देह जो खुद के भीतर अचानक ही कुछ नया महसूस कर ले, समय का ऐसा उत्पाद जो हमारी रफ्तार 200 किमी प्रति घंटे तक बढ़ा दे, चाहे तो शौचालय तक के लिये या फिर क्रांति के दरवाजे तक.

‘नये शिल्प, दुर्लभ शिल्प’, बुजुर्ग बर्टोल्ट के मुताबिक, ‘आधा उत्सुक और आधा हँसमुख’.
* * * *

संवेदनाएँ बेवजह नहीँ होतीं (स्पष्टता की स्पष्टता), लेकिन एक निश्चित यथार्थ के अंतर्गत अपने हजारों प्रकारों के बीच एक सतत प्रवाह सरीखीं होती हैं.
-    जटिल यथार्थ हमें चकरा देते हैं!
संभव है कि एक ओर जन्म हो और दूसरी तरफ हम मृत्यु के सामने से पहली कतार में खड़े हों. जीवन और मृत्यु के स्वरूप आँख की रेटिना से होकर हर रोज गुजरते हैं. उन दोनों (जीवन और मृत्यु) की भिड़ंत ही है, जो परायथार्थवादी शिल्प सामने आता है: संक्रमण की दृष्टि
*
पूरे शहर को एक पागलखाने में डाल दो. दुलारी बहन, गुर्राते टैंकर, उभयलिंगियों के गीत, हीरों के रेगिस्तान, होना हमारा एक ही बार, और नजारों का दिन ब दिन भीमकाय और फिसलन भरा होते जाना, दुलारी बहन, मोंते आल्बान (पहाड़ी) तक चढ़ती लिफ्ट. कस लो अपनी पेटियाँ, कि जिस्मों के लोथ पानी से भर गए हैं. क्षय का एक मंजर.
*
और पूँजीवादी सोच? और अकादमियाँ? और वो फसादी? और वो लड़ाई में आगे रहने वाले सेनानायक? और उनके पिछ्लग्गू लड़ाके? और प्रेम की रूढ़ धारणाएँ, सुंरम्य वीथि, और बहुराष्ट्रीय संस्कृति से सजा चौकन्ना नौजवान?

जैसे चन्द वक्फे पहले के मेरे एक सपने में सेंट जस्ट कह गए थे: हम बुर्जुआ और कुलीनों के सिर तक को अपना हथियार बना सकते हैं.
*
-    सृष्टि का एक सुन्दर हिस्सा तैयार होता है जबकि दूसरा उस वक्त अपना अंत देख रहा होता है, और हम सब को पता है कि हमें या तो जिंदा रहना है या फिर मर जाना है : इन दोनों से परे का तीसरा कोई विकल्प नहीं.
-
चिरिको[ii] कहता है : विचार के लिये जरूरी है कि वह प्रत्येक तर्क और तथाकथित ‘अच्छाई’ से दूर रहे, हर मानवीय मुसीबत से परे, कुछ इस तरह कि चीजें बिलकुल अलग ही प्रतीत हों, मानो किसी ज्योति पुंज से प्रकाशित हो वे पहली दफा दिख रही हों. परायथार्थवादी कहते हैं : हम अपने माथे को ‘मानव मात्र’ की अनंत मुश्किलों से लाद लेने वाले हैं, कुछ इस तरह, कि चीजें खुद में ही समाहित हो जाएँ, एक अनोखी दृष्टि.

-    चमचमाता खूबसूरत पक्षी.

-    परायथार्थतावादी, दुनिया के समक्ष देशज बनने का प्रस्ताव रखते हैं : जर्जर-कमजोर रेड इंडियन.
-    जोश की नई लहर, जो दक्षिणी अमेरिका में उभरने लगी है, खुद को इस कदर सबल करती, कि हम हैरत में पड़ जाने को मजबूर हों. किसी भी चीज में दाखिल होना, दरअसल एक जोखिम में दाखिल होना है : कविता एक यात्रा है और कवि नायकों का उद्घाटन करने वाला नायक. कोमलता जैसे तेज रफ्तार का अभ्यास हो. तेज तेज साँसें और गर्मी. बंदूक की गोली का अनुभव, संरचनाएँ जो खुद को ही खा जाएँ, उन्माद से भरे विरोध.
-
कवि यदि मध्यममार्गी होगा, तो पाठक को मध्यममार्ग ही चुनना होगा.
            “बिना वर्तनी वाली कामोत्तेजक किताब”
*
साठ के दसक के हजारों तितर बितर हो आए आंदोलनकारी, हमें पथ दिखाते हुए
99 खिले फूल, जैसे एक विदीर्ण मष्तक

नरसंहार का वाकया, ध्यान - साधना के नए शिविर

भूगर्भ में बहती सफेद नदियाँ, बैंजनी हवाएँ

ये कविता के लिए कठिन दौर है, किसी रोज, अपने अपार्टमेंट में संगीत सुनने के साथ चाय पीते, और अपने पुराने सूरमाओं से बात करते (उन्हें सुनते) हुए. हमारे मुताबिक, यह आदमी के लिए बुरा दौर है, सारे दिन आँसू गैस और पखाने से सने काम को पूरा कर वापस ठिकाने पर आते हुए, अपार्टमेंट के आशियानों तक में कोई नया संगीत खोजते / बनाते हुए, विस्तीर्ण शमशानों के ऊपर से दूर तक देखते हुए जहाँ एक प्याली की चाय बेसब्री से सुड़की जा रही हो, या फिर दिवंगत सूरमाओं के आक्रोश और फिर जड़ हो चले हालात के नाम पी जा रही हो शराब.
शून्य काल (Hora Zero) हमारे आगे चलता है.
(लंगूर को छेड़ो, तुम्हें नाखून नोच डालेंगे)
हम चौथे युग में जी रहे हैं. क्या सच में हम चौथे युग में हैं?
‘पेपितो टेकिला’ लीसा अंडरग्राउंड के धवल स्तनों को चूमती है और उसे समुद्र के किनारे आराम करता देखती है, जहाँ काले पिरामिड अँखुआ रहे हैं.
*
फिर से कहता हूँ मैं :
कवि, मानो नायकों का उद्घाटन करने वाला नायक, मानो जंगल के शुरुआत की सूचना देता एक ढहा लाल पेड़.
- सौन्दर्य के मामले में नैतिकता के धरातल पर की जाने वाली कोशिशें धोखे की भेंट चढ़ती हैं, अथवा बुरे हालात उनका साँसें लेना लगा रहता है.
- और एक आदमी ही है जो हजार किलोमीटर की यात्रा पैदल चलकर पूरी कर सकता है, लेकिन समय के विस्तार के साथ खुद रास्ता ही उसे खा जाएगा.
- हमारी नीति क्रांति है, हमारा सौंदर्य जीवन है : बस यही इकलौती चीज.
- बुर्जुआओं या छोटे पूँजीपतियों के जीवन उत्सवों से भरे गुजरते हैं. हर सप्ताहांत में एक. मजदूरों के हक में उत्सव नहीं, बल्कि संगीतमय मैय्यतें हैं. अब तब्दीली आएगी. शोषितों के महोत्सव मनेंगे. स्मृतियों और शूली, सब को महसूसते, एक रात दुहराते उन सभी के अभिनय, कोरें और नमी वाले किनारे खोज, मानो खार आँखों को सहलाना किसी टटके रसायन से.
*
दंगों से गुजरती कविता की यात्रा : कविताई से उपजते कवि से उपजती कविता से उपजती कविताई. कोई सँकरी, विद्युत की गली नहीं/ देह से अलग हाथों वाला कवि/ कविता धीरे धीरे उसे स्वप्नों से हटाती, क्रांति की ओर ले जाती हुई. सँकरी गली एक भ्रामक बिंदु. “हम उसके विरोधाभासों को खोज लाने के लिए अनुसंधान करने वाले हैं, इसके इनकार के अदृश्य तरीकों का भी, जब तक कि वे खुलकर जाहिर न हो जाएँ.” लेखक की लेखन यात्रा यदि क्षेत्रीयता के आधार पर हो तो असल में वह लेखन कर्म नहीं.

रिम्बाँ [iii], घर लौट आओ!

आधुनिक कविता के दैनन्दिन यथार्थ को नष्ट करते हुए. एकांतवास अथवा कैद कविता के सम्मुख घुमा फिरा कर एक ही जैसा यथार्थ रखते हैं. एक अच्छा उद्धरण : जुनूनी कर्ट स्विटर्स[iv]. ‘लेंक टर्र ग्ल, ओ, उपा कपा अर्ग’, जैसे वनैले स्वरों को अलग-अलग करते हुए ध्वनियों के टोही शोधकर्ता. नोबा एक्सप्रेस के पुल ऐसे वर्गीकरण के विपरीत हैं : उसे चीखने दो, चिल्लाने दो उसे (कलम, कागज तक न निकालो, रिकार्ड न करो उसकी आवाज, और अगर फिर भी उसके साथ हिस्सेदारी चाहते हो तो तुम भी चिल्लाओ), यूँ ही उसे चीखने दो, इस उत्सुकता के साथ, कि देखें चीख खतम करने पर उसका मुह कैसा बन जाता है, महसूसने को दूसरा और क्या मिलता है हमें.
परित्यक्त स्टेशनों के हमारे पुल. यथार्थ और अयथार्थ को जोड़ती कविता.
*
आश्चर्य के साथ
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आज की दक्षिण अमेरिकी चित्रकारी से मैं क्या मांग सकता हूँ? क्या माँग सकता हूँ मैं रंगकर्म से?

एक उजड़ते हुए पार्क में ठहरना ज्यादा जरूरी और असरकारी है, क्योंकि वहाँ लोगों के (छोटे या बड़े होते) समूह धुंध को चीरते हुए पगडंडियों से गुजरते रहते हैं, जबकि इतनी सारी मोटरगाड़ियों वाले, पैदल-यात्रियों की ही तरह उनके ठिकानों तक पहुँच जाते हैं, और यही वो वक्त होता है जब कातिल सरेआम घूमते हैं और कत्ल किए जाने वाले उनका अनुसरण करते रहते हैं.

चित्रकार असल में मुझे कौन सा किस्सा सुना रहे होते हैं?

दिलचस्प आकाश, जड़े हुए रंग, आकार, या फिर हद से हद किसी आन्दोलन की नकल. कैनवास, जो सिर्फ उस डाक्टर या इंजीनीयर के कमरे में उजले चमकीले पोस्टर के रूप में काम आएंगे, जो उन्हें खरीदकर ले जाता है.

चित्रकार को उस समाज ने बेहद आरामतलब बना दिया है जो हर रोज, खुद भी, एक बेहतर चित्रकार है, और ठीक यही वो हालात, वो वक्त है, जब चित्रकार निहत्था और अधिक से अधिक एक मसखरा बन कर रह जाता है.

अगर किसी प्रदर्शनी में X का कोई चित्र, जिसके थोड़े हिस्से में कुछ रोचक सा तथा शेष थोड़े हिस्से में किसी ज्ञान सरीखी चीजें समाहित हो, मारा को भा जाता है; तो वह एक घर के बैठक में सजाकर रखा जाने वाला वैसा ही सामान है जैसे कि एक रईस के बगीचे में रखी लोहे की आरामकुर्सी / आँख की रेटिना एक लिए एक सवाल? / हाँ और नहीं/ असली विस्फोटक को खोज (या फिर तैयार कर) लेना बेहतर होगा, वर्ग–चेतस, काम भर के लिए सौ फीसद चौकन्ना, काम की कीमत भर से जुड़ाव, जिससे कि हर चीज संचरित होती है.

-    चित्रकार अपनी चित्रशाला को काम की आधी अधूरी अवस्था में बंद कर देता है, और किसी हैरतंगेज चीज के बारे में सोचने लगता है/ अथवा ‘दुचांप’[v] की तरह शतरंज खेलने चला जाता है/ चित्र, जिसे देखकर सबसे ज्यादा यह बात पता चलती है कि उसी चित्र को फिर से कैसे बनाया जाए/ और गरीबी का एक चित्र, इतना सस्ता, कि लगभग मुफ्त, अधूरा, हिस्सेदारी वाला, हिस्सेदारी में सवालों से भरा, आत्मा और देह के अनंत विस्तार वाला.
लैटिन अमेरिका का सर्वोत्तम चित्र वो है जो अवचेतन के धरातल तक चला जाए, खेल, उत्सव, या फिर ऐसा प्रयोग जो हमें वास्तविकता को परखने वाली वो दृष्टि दे दे, जो हमें समझा सके कि ‘हम क्या हैं और क्या क्या कर सकते हैं’, लैटिन अमेरिका का सर्वोत्तम चित्र वो है जिसे हम हरे, लाल और नीले रंगों से अपने चेहरों पर उकेर लें, ताकि हम खुद की पहचान भी आदिम लोगों की क्रमिक निरंतरता में कर सकें.
*
हर चीज को हर रोज छोड़ते चलो.

वास्तुकार, अपने निर्माण के काम जस के तस छोड़ दें और हाथ हवा में लहरा दें (अथवा मौका-ए-वारदात के मद्देनजर मुट्ठियाँ ही बाँध लें). एक दीवार और एक छत का सही इस्तेमाल तब नहीं होता जब वे सोने और बारिशों से बचाने भर के काम आएँ, बल्कि तब होता है जब उनसे कोई नई शुरुआत जन्म ले, गोया हर रोज के सोने की गतिविधि के दौरान इंसान और उसकी संरचानाओं के बीच एक सेतु बने, अथवा उनकी क्षणिक असंभवता.

वास्तु और मूर्ति कलाओं के मामले में परायथार्थवादी केवल दो बिंदुओं से शुरू होते हैं: सुरक्षा के लिए दीवार, और बिस्तर.
*
असली कल्पना वो है जो विस्फोटक हो, बातों को स्पष्ट करे, दूसरी कल्पनाओं में माणिक्यों सा चकमक तेज भरे. कविता में, और चाहे जहाँ कहीं भी, किसी भी चीज में दाखिल होना, एक तरह का जोखिम उठाना ही हो. हर रोज किए जाने वाले विध्वंश के हथियार तैयार करना. आदमी होने की, दिल से जुड़ी ऋतुएँ, अपने विशालकाय खूबसूरत और निर्लज्ज पेड़ों के साथ, अंवेषण करने को बनी प्रयोगशालाओं की भाँति. समानांतर स्थितियों को चीन्हना, और कुछ उतने ही खौफनाक तरीके से स्थापित करना जैसे सीने और चेहरे पर खिंचती कोई भीषण खरोंच. चेहरे की कभी न खत्म होने वाली उपमा. नवागंतुकों की तादाद इतनी है, कि सामने आने के बावजूद हम उन्हें गिनते तक नही, हालाँकि एक आईने में देखते हुए, हम ही उन्हें तैयार कर रहे हैं. तूफान की रात. बोध की शुरुआत एक नैतिक-सौंदर्य के द्वारा होती है जो आखिर तक ले जाई गई हो.
*
प्यार की आकाशगंगाएँ हमारी हथेलियों में झलक रही हैं.

-    कवियों, अपनी जुल्फें झुका लो (अगर हैं)

-    सारे कूड़े जला डालो और तब तक प्यार करो जब तक कि अनमोल कविताएँ न उतरने लगें.
-    हमें बनावटी चित्र भर नहीं, बल्कि खुद के बनाए अनगिन सूर्यास्त चाहिए.

-    500 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ते घोड़े.
-    आग के पेड़ों पर फुदकती आग की गिलहरियाँ.
-    नसों और नींद की गोली के बीच एक शर्त, कि किसकी पलकें पहले झपकेंगीं.
*
हर दफा, जोखिम कहीं और ही है. सच्चा कवि वह है जो हमेशा ही खुद को स्वच्छंद छोड़े रहे. ज्यादा देर एक जगह न ठहरे, गुरिल्ला की तरह, उड़ने वाली अपरिभाषित चीजों की तरह, अनवरत बेड़ियों में जकड़े कैदी की उदास आँखों की तरह.

दो तटों का विद्रोह और उनका मिलन; एक साहसी भित्ति चित्र जैसी रचना, जिसे एक जुनूनी बच्चा खोल रहा हो.

यांत्रिक कुछ भी नहीं. अचम्भे का सुर. हिरेनिमस बोश सा कोई, प्यार के एक्वैरियम को तोड़ता हुआ. मुक्त धन. दुलारी बहन. मुर्दों सरीखी कामुक निगाहें. दिसंबर में, चुंबनो से मांस काट लेने वाले बच्चे.
*
भोर के दो बजे मारा के घर से हो आने के बाद, हम (मारियो सांतियागो तथा कुछ और साथियों) ने एक नौ मंजिले अपार्टमेंट की सबसे ऊपरी मंजिल से आ रहीं हँसने की आवाजें सुनीं. हँसी रुकी नहीं, वे हँसते और हँसते ही गए, जब तक कि हम नीचे की तरफ बने फोन बूथ्स के सहारे लेकर सो न गए. तब तक के लिए इतना काफी था, जब सिर्फ मारिओ ही हँसी की तरफ ध्यान लगाए हुए था (अपार्टमेंट की वह मंजिल दरअसल समलैंगिकों का एक बार या फिर ऐसा ही कुछ था, और दारियो गालिसिया ने हमें बता रखा था कि पुलिस काफी चौकस है). हमने फोन के सहारे काल किए, लेकिन सिक्के जैसे पानी के बने थे. हँसना जारी रहा. जब हमने वो इलाका छोड़ दिया तब मारियो ने कहा कि असल में वहाँ कोई नहीं हँस रहा था, और उस सबसे ऊपरी मंजिल पर शायद कोई समलैंगिक जोड़ा खुद के हँसने की रिकार्डिंग सुन, और हमें सुना रहा था.


-    हंस का मर जाना, हंस का आखिरी गीत, काले हंस का आखिरी गीत ‘बोल्शोई’[vi] में नहीं हैं, बल्कि गलियों की खूबसूरती और उनकी वेदनाओं में हैं.
-    एक इंद्रधनुष जो वीभत्स मौत वाले एक सिनेमा से शुरू होता है और किसी कारखाने की हड़ताल पर खत्म.
-    कि विस्मृति हमारे होठों को नही चूमती. कि वो हमे कभी नहीं चूमती.
-    हमने यूटोपिया के सपने देखे, और हम उठे तो चिल्लाते हुए.
-    एक बेचारा अकेला चरवाहा जो घर लौटता है, और जो कि एक हैरत की सी बात है.
-*
-नई हलचलें जगाते हुए, हर रोज थोड़ा थोड़ा ध्वंश करते हुए.

हाँ तो,
फिर से सबकुछ छोड़ दो

उतर आओ सड़कों पर...

रोबेर्तो बोलान्यो, 1976, मैक्सिको


[i] शराब के एक प्रकार ‘टेकिला’ का एक ब्रांड।
[ii] इटली का अतियथार्थवादी चित्रकार।
[iii] आर्थर रिंबाँ : उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुए, फ्रांस के क्रांतिकारी कवि।
[iv] जर्मनी का अतियथार्थवादी चित्रकार
[v] फ्रेंच कलाकार, जिसे शतरंज का खेल खूब भाता था
[vi] रूस की एक थिएटर कंपनी.


अनुवादक श्रीकांत से सम्पर्क : writershrikant@gmail.com तथा 09818152475. 

Wednesday, September 7, 2011

रविन्द्र आरोही के नाम पत्र


डियर आरोही,


तुम्हारी ज़िज्ञासाएँ / बातें मुझे भाती हैं. इसलिए कि तुम लिखते बहुत अच्छा हो और इसलिए भी कि तुम्हारी जिज्ञासाओं में से बहुतों का जबाव मेरे पास नही होता. होता भी है तो इतना धुँधला कि मैं खुद को भी ठीक ठीक नहीं बता पाता.
      जैसे तुम्हारा यह जादुई यथार्थवाद वाला सवाल. इस विषय पर एक परिचयात्मक लेख गिरीश मिश्र ने आलोचना के जिस अंक में लिखा था, उसका प्रकाशन वर्ष तथा अंक संख्या भूल रहा हूँ. तुम्हें यह जानकर दु:ख तो नहीं, कुछ कुछ आश्चर्य होगा कि इस प्रविधि को नाम चाहे जिसने दिया हो, पर इसका प्रयोग पहली बार चित्रकला में हुआ. यह 1925 की बात रही होगी जब फ़्रांज रो ने अपने एक आलोचनात्मक आलेख में इस शब्द का प्रयोग किया. वैसे मेरा मानना है कि हम तारीखों की कचहरी में न उलझे तो बेहतर होगा. बताता चलूँ कि जादुई यथार्थवाद का साहित्यिक उन्न्यन ‘लैटिन अमरिकी’ देशों में हुआ.
       एक दौर था जब कुछ भिन्न करने की चाह और सामयिक जरूरत के कारण नए नए तरीके और प्रविधियाँ ईजाद की जा रही थीं. जिनमें से एक बहुप्रचलित हुआ : अतियथार्थवाद. इसके प्रवक्ताओं में प्रमुख लुई अरागाँ, सल्वाडोर डॉली, और डियेगो रिवेरा हैं. यों तो यह बेहद लम्बी और उबाऊ बहस की सम्भावना बनाती है कि हम जादुई और अतियथार्थ वाद के बीच कोई तुलनात्मक बात रखें पर अगर देखा जाए तो कुछ फर्क बेहद आसानी से लक्षित किए जा सकते हैं. मसलन, अतियथार्थवादी हर हमेशा खुद को समय की राजनीति से जोड़ते रहे, अतियथार्थवाद एक सांस्कृतिक आन्दोलन के बतौर उभरा, जिसका घोषणापत्र 1917 में तैयार किया गया. ट्राट्स्की के चाहने वालों के लिए यह बेहद उत्कंठा से भरी बात है कि अतियथार्थवादियों ने अपना एक मसौदा 1930 में तैयार किया जिसपर बतौर लेखक लुई अरागाँ और डियेगो रिवेरा का नाम गया परंतु सच्चाई यह है कि उसके लेखक लियोन ट्राट्स्की और लुई अरागाँ थे.
        जहाँ हम इन दोनों वादों में फर्क की बात कर रहे थे, वहाँ लौटते हैं. दोनों ही वाद यथार्थ और फंतासी के मिश्रण के लिए जाने जाते हैं. पर जो बारीक फर्क है वह है प्रस्तुति का. जादुई यथार्थवाद जहाँ वस्तु विषय के ही नवीन प्रस्तुतिकरण में विश्वास रखता है और उसके लिए अजीबोगरीब तुलनाएँ, लुभावनी कलाएँ, शब्द विन्यास आदि का प्रयोग करता है, पर करता वह इसी दुनिया की बात है. तो दूसरी तरफ अतियथार्थवाद एक ऐसी दुनिया की रचना करता है, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं, और अगर उसका कोई अस्तित्व है भी तो सिर्फ और सिर्फ मस्तिष्क में. यह प्रस्तुति के साधारण तकनीक से भी किसी असम्भव की रचना करता है पर जादुई यथार्थवाद प्रस्तुति के नितांत नए और अविश्वसनीय लगते उपकरणों / शिल्प से रचना साधारण जन जीवन की करता है.
      अब देखो यही होता है ! इन दोनों का फर्क इतना महीन है कि उपर के अंतरे को जरा भी बेख्याली में पढ़ोगे तो विभ्रम में चले जाओगे. विभ्रम – जो कि बतौर शिल्प जादुई यथार्थवाद में इस्तेमाल होता है और यही विभ्रम बतौर रचना, अतियथार्थवाद से हुई रचनात्मकता के करीब चला जाता है.
      जैसे कई वर्ष तक की बारिश जादुई यथार्थवाद है तो आईने के भीतर चलता हुआ आदमी अतियथार्थवाद है. वजह ? क्योंकि, वह एक दिन हो या दस लगातार साल, हो तो बारिश ही रही है पर एक इंसान किसी भी कीमत पर आईने के भीतर चला जाए और उसके अन्दर टहलता रहे, यह असम्भव है.
      मैं, समझता हूँ कि अब तक तुम पर्याप्त दुविधा के शिकार हो गए होगे !
      जादुई यथार्थवाद, मेरे लिए महज एक शिल्प है, जैसे यथार्थवाद. मुझे अमरकांत की कहानियाँ उतना चकित करती है जितना उदय प्रकाश की. अगर तुम्हारा भी भोजन विदेशी नामों के बिना हजम न होता हो तो उपरोक्त उदाहरण को ऐसे देखो : कि मुझे जेम्स जॉएस भी उतना ही पसन्द है जितना बोर्हेस. मार्खेज से अधिक मुझे वर्जीनिया वुल्फ और हेमिंग्वे पसन्द आए. रोबर्तो बोलान्यो तो इस वाद के विरोध में जाते हुए इतना अच्छा लिख गया कि क्या कहा जाए ?
बतौर शिल्प, जादुई यथार्थवाद, मार्खेज की अद्भुत प्रतिभा के आगे छीज गया और इसलिए ही उनके बाद इस वाद के जितने भी प्रस्तोता आए, मसलन सलमान रुश्दी, वर्गास लोसा और इसाबेल अलेन्दे आदि नागवार लगने लगे. हाँ, गुंटर ग्रास से अब भी एक अच्छी किताब की उम्मीद मैं लगाए हूँ जो कि जादुई यथार्थवाद के अनन्य साधक हैं.
आज की अपनी बात मैं एक उदाहरण से समाप्त करता हूँ. जादुई यथार्थ पर बाकी बातें कल. ठीक ?
अलेक्जेंडर वॉन हमबोल्ट( Alexander von Humboldt ) एक जर्मन भूगोलविद थे जिन्होने उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वार्ध में लैटिन अमेरिका की यात्रा की थी. इनके जीवन पर,सन्योग से एक ही साथ, दो उपन्यास आये थे. पहला 2005 में: डेनियल केल्ह्मैन का मेजरिंग द वर्ल्ड, जिसमें उनके यात्रा वृतांतो तथा गॉस   ( सुप्रसिद्ध गणितज्ञ) से उनकी मुलाकात का क्या खूब यथार्थवादी वर्णन है. दूसरा 2006 में : सेजार आईरा का उपन्यास ‘एन एपिसोड इन द लाईफ ऑफ ए लैंडस्केप पेंटर’ ..जो कि जादुई यथार्थवाद और अतियथार्थ के बीच का रास्ता चुनते चुनते खत्म हो गया है.        

तुम्हारा 
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