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Thursday, September 22, 2011

परायथार्थवाद का घोषणापत्र ( Manifesto of Infra realism )

आरोही,

हमने बात आगे बढ़ाने की रखी थी. आज मन है कि इन वादों के इतिहास और इनके असर से अलग उन लोगों पर बात करें जिन्होने ऐसे वाद, जो साहित्य - कला के विकास लिए जरूरी समझे गए, की नींव रखने की जहमत उठाई. आज हम जिसे एक शब्द या दो वाक्यों में खारिज कर देते हैं (या अनमना स्वीकार भी)उसके पीछे लोगों ने अपनी जिन्दगियाँ लगा दी.

1974 की बात शायद हमारी मदद करे. यह मेक्सिको की बात है जब कुछ नौउम्रों को मेक्सिको विश्वविद्यालय ( UNAM ) के किसी कविता वर्कशॉप में कविता पढ़ने से रोक दिया गया. यह वह समय है जब ऑतोवियो पाज़ मेक्सिकन कविता के प्रतिनिधि के बतौर समूचे विश्व में प्रसिद्ध थे. जिन लोगों को कविता पढ़ने से रोका गया, जाहिर है, उनकी कविता पर, काव्य की तत्तकालीन सत्ता को गहरा ऐतराज रहा होगा. मारियो सांतियागो भी उन्हीं नौजवानों मे से थे, जिन्हे कविता पाठ नही करने दिया गया. कोई दर्ज इतिहास तो नहीं, पर अगर रॉबर्तो  बोलन्यो के उपन्यास 'द सैवेज डिटेक्टिव' को पढ़ा जाए तब जान सकोगे कि इन नई उम्र के कवियों के सामने, मेक्सिको के अग्रज कवि कैसी कैसी मुश्किल खड़ी कर रहे थे? इनकी किताबें तक नहीं प्रकाशित की जा रही थीं. प्रकाशक इन्हें देख कर घबरा जाते थे. जाहिर है प्रकाशकों को, जिनमें ज्यादातर लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर की जमात से आते हैं, कविता की खास समझ नही रही होगी. उन्हें जरूर कोई तीसरी शक्ति ही बता रही होगी कि किसे प्रकाशित करना है और किसे नहीं. सबसे बुरा तो यह कि इन नौजवान कवियों की कविताएं, वहाँ के प्रमुख कवि अपने द्वारा सम्पादित 'एंथोलोजिज' में भी प्रकाशित नही कर रहे थे.

इन्हीं सब मुश्किलों से गुजरते हुए इन नौजवानों ने एक नई काव्य धारा या कह लो काव्य आन्दोलन चलाने की बात रखी. यह कविता के लिए चलाया गया आन्दोलन था : इंफ्रारियलिज्म यानी परायथार्थवाद.

इनमें से सबसे प्रखर कवि थे : मारियो सांतियागो, जिन्हें मेक्सिको के 'इलीट कवियों' ने कोई मान्यता नहीं दी और मारियो जीवन पर्यंत उपेक्षा के शिकार रहे. रॉबर्तो बोलान्यो से परिचित तुम हो ही. उन्हें भी मृत्युपरांत ही नाम और प्रतिष्ठा मिली और वो भी कविता में नहीं, गद्य में. इस नए समूह के दूसरे सदस्यों में अरीबा, रोज़ाज, मेंडेज अबाजो, रुबेन, डायना, लुपिटा वाय खोसे फिगारो आदि थे.    

परायथार्थवाद का मुख्य विरोध 'सरकारी संस्कृति' से था. इनके आदर्श बीट पीढी के लोग थे जो कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की पीढ़ी थी और जिन्होने कविता, धर्म, नशा और यौनिकता ..जीवन के हर क्षेत्र में प्रयोग किए.  इनके दूसरे आदर्श 'रिम्बाँ', लॉट्रेमो और सॉफी पॉड्स्की थे जिनके बारे में विस्तृत अध्ययन की जरूरत है.

सहूलियत के लिए परायथार्थवाद का घोषणा पत्र मैं यहाँ दे रहा हूँ, जिसका अनुवाद युवा कहानीकार श्रीकांत ने किया है. इस पढ़ते हुए तुम्हे परायथार्थवादियों के गहरे साहित्यिक लगाव का पता पड़ेगा. कहने वाले कह सकते हैं कि यह आन्दोलन बेहद छोटे दायरे में सीमित रहा पर यह एक सूचना शायद इन अफवाहों पर भारी पड़े कि इसी इंफ्रारियलिज्म की तर्ज पर ऑस्ट्रिया में एक कविता आन्दोलन चला था : सेकेंड इफ्रारियलिज्म.

कोई भी बात आगे बढ़ाने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि वे लोग आखिर कौन थे जिन्होने इतनी शिद्दत से कविता का भला चाहा, साहित्य को जिया. उनके बारे में जानने से यह एक मुश्किल आसान होगी कि हम सबको  खारिज करना बन्द कर देंगे.

( तस्वीर में कम्प्यूटर स्क्रीन के बाएं से दूसरे : रॉबेर्तो बोलान्यो )





........... परायथार्थवाद का घोषणापत्र............................ 

सबकुछ त्याग दो, फिर से . 


“सौर मंडल का विस्तार यहाँ से चार प्रकाश वर्ष की दूरी तक है ; यानी सबसे करीब का तारा हमसे पूरे चार प्रकाश वर्ष दूर है. बीच में शून्य का अपरिमित समुद्र. लेकिन क्या वास्तव में इस बीच केवल शून्य है? जहाँ तक हमारी जानकारी कहती है, इस विशाल खालीपन में खुद से रौशन होने वाला पिंड नहीं है; और अगर है भी, तो क्या जरूरी है कि हमने उसे देखा ही हो? यों यदि इस बीच कोई ऐसा पिंड हो, जो चमक और अँधेरे दोनों ही से निरपेक्ष हो, तो? क्या हमारी दुनिया की ही तरह खगोलीय मानचित्रों के साथ भी ऐसा नहीं हो सकता, कि ‘सितारों के शहर’ की पहचान हो गई हो और ‘सितारों के गाँव’ गुमनाम ही रह गए हों?”

-    आधी रात गए अपने गाल खुजाते हुए विज्ञान कथाओं के रूसी लेखक.

-    सूरज से दूर के आकाशीय पिंड (‘द्रुमोंद’ के शब्दों में, ‘चहकते मेहनतकश बच्चे’)

-    एक असुंदर कमरे में बैठ, दरवाजे के पार की चीजों की भविष्यवाणी करते हुए ‘पेगेरो’ और ‘बोरिस’.

-    मुक्त धन ( आवारा पूँजी ) .

* * * * * *
कौन है जो समूचे शहर से होकर गुजर गया, जिसके पास गाने के लिए सिर्फ अपने साथी की बाँसुरी थी, अचंभे और क्षोभ के उसके अपने शब्द थे ?
सबसे सुन्दर तरीका, जिसका हमें पता न था
कि  स्त्री का चरम भगशेष (क्लिटोरिस)  में होता है
(गौर फरमाएँ, सिर्फ संग्रहालय ही नहीं गंदगी से अँटे हैं) (एक प्रक्रिया, व्यक्ति को संग्रहालय में बदलने की) (एक दिलासा, कि जो कुछ भी है, जाहिर है, बताया हुआ है) (आविष्कारों से भय) (डर, किसी अप्रत्याशित असंतुलन का).
* * * *
हमारे सबसे करीबी नातेदार :

छिपकर गोलियाँ दागने वाले और मैदानोँ के बाशिंदे वे अकेले लोग, जो लैटिन अमेरिका के चीनी काफी हाउसेज में तोड़ फोड़ मचाते रहते हैं, अपनी अपनी दुविधाओं से घिरे सुपरबाजारों के इकट्ठे कसाई; कविताई के संदर्भ में, कुछ करने या कुछ खोज लेने में अक्षम (व्यक्तिगत, अथवा सौंदर्य से जुड़े अंतर्विरोधों के स्तर पर).
*
छोटे सितारे ‘भँवर-जाल’ कहे जाने वाली एक जगह से हमें लगातार देखते-टिमटिमाते हुए.
- तिलिस्मों की नृत्य सभा
- लीसा अंडरग्राउंड के प्रति अपने प्यार में सुबकती हुई ‘पेपितो टेकिला’[i]
- और एक दहशत
*
पानी, सीमेंट या टिन, परदे चाहे जिस भी चीज के बने हों, वे एक सांस्कृतिक तंत्र को विलगाते हैं, जो चाहे तो विवेक या फिर शासक वर्ग के तलवे, दोनों रूपों में काम करता है, सजीव और जिन्दा संस्कृति से, मक्कार, जीवन और मृत्यु की शाश्वत निरंतरता में, इतिहास के बहुल हिस्से और खूबसूरत कलाओं से अनभिज्ञ, (अपने ही नृशंस इतिहास का रचयिता और उसकी हैरतंगेज ललित कलाएँ), देह जो खुद के भीतर अचानक ही कुछ नया महसूस कर ले, समय का ऐसा उत्पाद जो हमारी रफ्तार 200 किमी प्रति घंटे तक बढ़ा दे, चाहे तो शौचालय तक के लिये या फिर क्रांति के दरवाजे तक.

‘नये शिल्प, दुर्लभ शिल्प’, बुजुर्ग बर्टोल्ट के मुताबिक, ‘आधा उत्सुक और आधा हँसमुख’.
* * * *

संवेदनाएँ बेवजह नहीँ होतीं (स्पष्टता की स्पष्टता), लेकिन एक निश्चित यथार्थ के अंतर्गत अपने हजारों प्रकारों के बीच एक सतत प्रवाह सरीखीं होती हैं.
-    जटिल यथार्थ हमें चकरा देते हैं!
संभव है कि एक ओर जन्म हो और दूसरी तरफ हम मृत्यु के सामने से पहली कतार में खड़े हों. जीवन और मृत्यु के स्वरूप आँख की रेटिना से होकर हर रोज गुजरते हैं. उन दोनों (जीवन और मृत्यु) की भिड़ंत ही है, जो परायथार्थवादी शिल्प सामने आता है: संक्रमण की दृष्टि
*
पूरे शहर को एक पागलखाने में डाल दो. दुलारी बहन, गुर्राते टैंकर, उभयलिंगियों के गीत, हीरों के रेगिस्तान, होना हमारा एक ही बार, और नजारों का दिन ब दिन भीमकाय और फिसलन भरा होते जाना, दुलारी बहन, मोंते आल्बान (पहाड़ी) तक चढ़ती लिफ्ट. कस लो अपनी पेटियाँ, कि जिस्मों के लोथ पानी से भर गए हैं. क्षय का एक मंजर.
*
और पूँजीवादी सोच? और अकादमियाँ? और वो फसादी? और वो लड़ाई में आगे रहने वाले सेनानायक? और उनके पिछ्लग्गू लड़ाके? और प्रेम की रूढ़ धारणाएँ, सुंरम्य वीथि, और बहुराष्ट्रीय संस्कृति से सजा चौकन्ना नौजवान?

जैसे चन्द वक्फे पहले के मेरे एक सपने में सेंट जस्ट कह गए थे: हम बुर्जुआ और कुलीनों के सिर तक को अपना हथियार बना सकते हैं.
*
-    सृष्टि का एक सुन्दर हिस्सा तैयार होता है जबकि दूसरा उस वक्त अपना अंत देख रहा होता है, और हम सब को पता है कि हमें या तो जिंदा रहना है या फिर मर जाना है : इन दोनों से परे का तीसरा कोई विकल्प नहीं.
-
चिरिको[ii] कहता है : विचार के लिये जरूरी है कि वह प्रत्येक तर्क और तथाकथित ‘अच्छाई’ से दूर रहे, हर मानवीय मुसीबत से परे, कुछ इस तरह कि चीजें बिलकुल अलग ही प्रतीत हों, मानो किसी ज्योति पुंज से प्रकाशित हो वे पहली दफा दिख रही हों. परायथार्थवादी कहते हैं : हम अपने माथे को ‘मानव मात्र’ की अनंत मुश्किलों से लाद लेने वाले हैं, कुछ इस तरह, कि चीजें खुद में ही समाहित हो जाएँ, एक अनोखी दृष्टि.

-    चमचमाता खूबसूरत पक्षी.

-    परायथार्थतावादी, दुनिया के समक्ष देशज बनने का प्रस्ताव रखते हैं : जर्जर-कमजोर रेड इंडियन.
-    जोश की नई लहर, जो दक्षिणी अमेरिका में उभरने लगी है, खुद को इस कदर सबल करती, कि हम हैरत में पड़ जाने को मजबूर हों. किसी भी चीज में दाखिल होना, दरअसल एक जोखिम में दाखिल होना है : कविता एक यात्रा है और कवि नायकों का उद्घाटन करने वाला नायक. कोमलता जैसे तेज रफ्तार का अभ्यास हो. तेज तेज साँसें और गर्मी. बंदूक की गोली का अनुभव, संरचनाएँ जो खुद को ही खा जाएँ, उन्माद से भरे विरोध.
-
कवि यदि मध्यममार्गी होगा, तो पाठक को मध्यममार्ग ही चुनना होगा.
            “बिना वर्तनी वाली कामोत्तेजक किताब”
*
साठ के दसक के हजारों तितर बितर हो आए आंदोलनकारी, हमें पथ दिखाते हुए
99 खिले फूल, जैसे एक विदीर्ण मष्तक

नरसंहार का वाकया, ध्यान - साधना के नए शिविर

भूगर्भ में बहती सफेद नदियाँ, बैंजनी हवाएँ

ये कविता के लिए कठिन दौर है, किसी रोज, अपने अपार्टमेंट में संगीत सुनने के साथ चाय पीते, और अपने पुराने सूरमाओं से बात करते (उन्हें सुनते) हुए. हमारे मुताबिक, यह आदमी के लिए बुरा दौर है, सारे दिन आँसू गैस और पखाने से सने काम को पूरा कर वापस ठिकाने पर आते हुए, अपार्टमेंट के आशियानों तक में कोई नया संगीत खोजते / बनाते हुए, विस्तीर्ण शमशानों के ऊपर से दूर तक देखते हुए जहाँ एक प्याली की चाय बेसब्री से सुड़की जा रही हो, या फिर दिवंगत सूरमाओं के आक्रोश और फिर जड़ हो चले हालात के नाम पी जा रही हो शराब.
शून्य काल (Hora Zero) हमारे आगे चलता है.
(लंगूर को छेड़ो, तुम्हें नाखून नोच डालेंगे)
हम चौथे युग में जी रहे हैं. क्या सच में हम चौथे युग में हैं?
‘पेपितो टेकिला’ लीसा अंडरग्राउंड के धवल स्तनों को चूमती है और उसे समुद्र के किनारे आराम करता देखती है, जहाँ काले पिरामिड अँखुआ रहे हैं.
*
फिर से कहता हूँ मैं :
कवि, मानो नायकों का उद्घाटन करने वाला नायक, मानो जंगल के शुरुआत की सूचना देता एक ढहा लाल पेड़.
- सौन्दर्य के मामले में नैतिकता के धरातल पर की जाने वाली कोशिशें धोखे की भेंट चढ़ती हैं, अथवा बुरे हालात उनका साँसें लेना लगा रहता है.
- और एक आदमी ही है जो हजार किलोमीटर की यात्रा पैदल चलकर पूरी कर सकता है, लेकिन समय के विस्तार के साथ खुद रास्ता ही उसे खा जाएगा.
- हमारी नीति क्रांति है, हमारा सौंदर्य जीवन है : बस यही इकलौती चीज.
- बुर्जुआओं या छोटे पूँजीपतियों के जीवन उत्सवों से भरे गुजरते हैं. हर सप्ताहांत में एक. मजदूरों के हक में उत्सव नहीं, बल्कि संगीतमय मैय्यतें हैं. अब तब्दीली आएगी. शोषितों के महोत्सव मनेंगे. स्मृतियों और शूली, सब को महसूसते, एक रात दुहराते उन सभी के अभिनय, कोरें और नमी वाले किनारे खोज, मानो खार आँखों को सहलाना किसी टटके रसायन से.
*
दंगों से गुजरती कविता की यात्रा : कविताई से उपजते कवि से उपजती कविता से उपजती कविताई. कोई सँकरी, विद्युत की गली नहीं/ देह से अलग हाथों वाला कवि/ कविता धीरे धीरे उसे स्वप्नों से हटाती, क्रांति की ओर ले जाती हुई. सँकरी गली एक भ्रामक बिंदु. “हम उसके विरोधाभासों को खोज लाने के लिए अनुसंधान करने वाले हैं, इसके इनकार के अदृश्य तरीकों का भी, जब तक कि वे खुलकर जाहिर न हो जाएँ.” लेखक की लेखन यात्रा यदि क्षेत्रीयता के आधार पर हो तो असल में वह लेखन कर्म नहीं.

रिम्बाँ [iii], घर लौट आओ!

आधुनिक कविता के दैनन्दिन यथार्थ को नष्ट करते हुए. एकांतवास अथवा कैद कविता के सम्मुख घुमा फिरा कर एक ही जैसा यथार्थ रखते हैं. एक अच्छा उद्धरण : जुनूनी कर्ट स्विटर्स[iv]. ‘लेंक टर्र ग्ल, ओ, उपा कपा अर्ग’, जैसे वनैले स्वरों को अलग-अलग करते हुए ध्वनियों के टोही शोधकर्ता. नोबा एक्सप्रेस के पुल ऐसे वर्गीकरण के विपरीत हैं : उसे चीखने दो, चिल्लाने दो उसे (कलम, कागज तक न निकालो, रिकार्ड न करो उसकी आवाज, और अगर फिर भी उसके साथ हिस्सेदारी चाहते हो तो तुम भी चिल्लाओ), यूँ ही उसे चीखने दो, इस उत्सुकता के साथ, कि देखें चीख खतम करने पर उसका मुह कैसा बन जाता है, महसूसने को दूसरा और क्या मिलता है हमें.
परित्यक्त स्टेशनों के हमारे पुल. यथार्थ और अयथार्थ को जोड़ती कविता.
*
आश्चर्य के साथ
*
आज की दक्षिण अमेरिकी चित्रकारी से मैं क्या मांग सकता हूँ? क्या माँग सकता हूँ मैं रंगकर्म से?

एक उजड़ते हुए पार्क में ठहरना ज्यादा जरूरी और असरकारी है, क्योंकि वहाँ लोगों के (छोटे या बड़े होते) समूह धुंध को चीरते हुए पगडंडियों से गुजरते रहते हैं, जबकि इतनी सारी मोटरगाड़ियों वाले, पैदल-यात्रियों की ही तरह उनके ठिकानों तक पहुँच जाते हैं, और यही वो वक्त होता है जब कातिल सरेआम घूमते हैं और कत्ल किए जाने वाले उनका अनुसरण करते रहते हैं.

चित्रकार असल में मुझे कौन सा किस्सा सुना रहे होते हैं?

दिलचस्प आकाश, जड़े हुए रंग, आकार, या फिर हद से हद किसी आन्दोलन की नकल. कैनवास, जो सिर्फ उस डाक्टर या इंजीनीयर के कमरे में उजले चमकीले पोस्टर के रूप में काम आएंगे, जो उन्हें खरीदकर ले जाता है.

चित्रकार को उस समाज ने बेहद आरामतलब बना दिया है जो हर रोज, खुद भी, एक बेहतर चित्रकार है, और ठीक यही वो हालात, वो वक्त है, जब चित्रकार निहत्था और अधिक से अधिक एक मसखरा बन कर रह जाता है.

अगर किसी प्रदर्शनी में X का कोई चित्र, जिसके थोड़े हिस्से में कुछ रोचक सा तथा शेष थोड़े हिस्से में किसी ज्ञान सरीखी चीजें समाहित हो, मारा को भा जाता है; तो वह एक घर के बैठक में सजाकर रखा जाने वाला वैसा ही सामान है जैसे कि एक रईस के बगीचे में रखी लोहे की आरामकुर्सी / आँख की रेटिना एक लिए एक सवाल? / हाँ और नहीं/ असली विस्फोटक को खोज (या फिर तैयार कर) लेना बेहतर होगा, वर्ग–चेतस, काम भर के लिए सौ फीसद चौकन्ना, काम की कीमत भर से जुड़ाव, जिससे कि हर चीज संचरित होती है.

-    चित्रकार अपनी चित्रशाला को काम की आधी अधूरी अवस्था में बंद कर देता है, और किसी हैरतंगेज चीज के बारे में सोचने लगता है/ अथवा ‘दुचांप’[v] की तरह शतरंज खेलने चला जाता है/ चित्र, जिसे देखकर सबसे ज्यादा यह बात पता चलती है कि उसी चित्र को फिर से कैसे बनाया जाए/ और गरीबी का एक चित्र, इतना सस्ता, कि लगभग मुफ्त, अधूरा, हिस्सेदारी वाला, हिस्सेदारी में सवालों से भरा, आत्मा और देह के अनंत विस्तार वाला.
लैटिन अमेरिका का सर्वोत्तम चित्र वो है जो अवचेतन के धरातल तक चला जाए, खेल, उत्सव, या फिर ऐसा प्रयोग जो हमें वास्तविकता को परखने वाली वो दृष्टि दे दे, जो हमें समझा सके कि ‘हम क्या हैं और क्या क्या कर सकते हैं’, लैटिन अमेरिका का सर्वोत्तम चित्र वो है जिसे हम हरे, लाल और नीले रंगों से अपने चेहरों पर उकेर लें, ताकि हम खुद की पहचान भी आदिम लोगों की क्रमिक निरंतरता में कर सकें.
*
हर चीज को हर रोज छोड़ते चलो.

वास्तुकार, अपने निर्माण के काम जस के तस छोड़ दें और हाथ हवा में लहरा दें (अथवा मौका-ए-वारदात के मद्देनजर मुट्ठियाँ ही बाँध लें). एक दीवार और एक छत का सही इस्तेमाल तब नहीं होता जब वे सोने और बारिशों से बचाने भर के काम आएँ, बल्कि तब होता है जब उनसे कोई नई शुरुआत जन्म ले, गोया हर रोज के सोने की गतिविधि के दौरान इंसान और उसकी संरचानाओं के बीच एक सेतु बने, अथवा उनकी क्षणिक असंभवता.

वास्तु और मूर्ति कलाओं के मामले में परायथार्थवादी केवल दो बिंदुओं से शुरू होते हैं: सुरक्षा के लिए दीवार, और बिस्तर.
*
असली कल्पना वो है जो विस्फोटक हो, बातों को स्पष्ट करे, दूसरी कल्पनाओं में माणिक्यों सा चकमक तेज भरे. कविता में, और चाहे जहाँ कहीं भी, किसी भी चीज में दाखिल होना, एक तरह का जोखिम उठाना ही हो. हर रोज किए जाने वाले विध्वंश के हथियार तैयार करना. आदमी होने की, दिल से जुड़ी ऋतुएँ, अपने विशालकाय खूबसूरत और निर्लज्ज पेड़ों के साथ, अंवेषण करने को बनी प्रयोगशालाओं की भाँति. समानांतर स्थितियों को चीन्हना, और कुछ उतने ही खौफनाक तरीके से स्थापित करना जैसे सीने और चेहरे पर खिंचती कोई भीषण खरोंच. चेहरे की कभी न खत्म होने वाली उपमा. नवागंतुकों की तादाद इतनी है, कि सामने आने के बावजूद हम उन्हें गिनते तक नही, हालाँकि एक आईने में देखते हुए, हम ही उन्हें तैयार कर रहे हैं. तूफान की रात. बोध की शुरुआत एक नैतिक-सौंदर्य के द्वारा होती है जो आखिर तक ले जाई गई हो.
*
प्यार की आकाशगंगाएँ हमारी हथेलियों में झलक रही हैं.

-    कवियों, अपनी जुल्फें झुका लो (अगर हैं)

-    सारे कूड़े जला डालो और तब तक प्यार करो जब तक कि अनमोल कविताएँ न उतरने लगें.
-    हमें बनावटी चित्र भर नहीं, बल्कि खुद के बनाए अनगिन सूर्यास्त चाहिए.

-    500 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ते घोड़े.
-    आग के पेड़ों पर फुदकती आग की गिलहरियाँ.
-    नसों और नींद की गोली के बीच एक शर्त, कि किसकी पलकें पहले झपकेंगीं.
*
हर दफा, जोखिम कहीं और ही है. सच्चा कवि वह है जो हमेशा ही खुद को स्वच्छंद छोड़े रहे. ज्यादा देर एक जगह न ठहरे, गुरिल्ला की तरह, उड़ने वाली अपरिभाषित चीजों की तरह, अनवरत बेड़ियों में जकड़े कैदी की उदास आँखों की तरह.

दो तटों का विद्रोह और उनका मिलन; एक साहसी भित्ति चित्र जैसी रचना, जिसे एक जुनूनी बच्चा खोल रहा हो.

यांत्रिक कुछ भी नहीं. अचम्भे का सुर. हिरेनिमस बोश सा कोई, प्यार के एक्वैरियम को तोड़ता हुआ. मुक्त धन. दुलारी बहन. मुर्दों सरीखी कामुक निगाहें. दिसंबर में, चुंबनो से मांस काट लेने वाले बच्चे.
*
भोर के दो बजे मारा के घर से हो आने के बाद, हम (मारियो सांतियागो तथा कुछ और साथियों) ने एक नौ मंजिले अपार्टमेंट की सबसे ऊपरी मंजिल से आ रहीं हँसने की आवाजें सुनीं. हँसी रुकी नहीं, वे हँसते और हँसते ही गए, जब तक कि हम नीचे की तरफ बने फोन बूथ्स के सहारे लेकर सो न गए. तब तक के लिए इतना काफी था, जब सिर्फ मारिओ ही हँसी की तरफ ध्यान लगाए हुए था (अपार्टमेंट की वह मंजिल दरअसल समलैंगिकों का एक बार या फिर ऐसा ही कुछ था, और दारियो गालिसिया ने हमें बता रखा था कि पुलिस काफी चौकस है). हमने फोन के सहारे काल किए, लेकिन सिक्के जैसे पानी के बने थे. हँसना जारी रहा. जब हमने वो इलाका छोड़ दिया तब मारियो ने कहा कि असल में वहाँ कोई नहीं हँस रहा था, और उस सबसे ऊपरी मंजिल पर शायद कोई समलैंगिक जोड़ा खुद के हँसने की रिकार्डिंग सुन, और हमें सुना रहा था.


-    हंस का मर जाना, हंस का आखिरी गीत, काले हंस का आखिरी गीत ‘बोल्शोई’[vi] में नहीं हैं, बल्कि गलियों की खूबसूरती और उनकी वेदनाओं में हैं.
-    एक इंद्रधनुष जो वीभत्स मौत वाले एक सिनेमा से शुरू होता है और किसी कारखाने की हड़ताल पर खत्म.
-    कि विस्मृति हमारे होठों को नही चूमती. कि वो हमे कभी नहीं चूमती.
-    हमने यूटोपिया के सपने देखे, और हम उठे तो चिल्लाते हुए.
-    एक बेचारा अकेला चरवाहा जो घर लौटता है, और जो कि एक हैरत की सी बात है.
-*
-नई हलचलें जगाते हुए, हर रोज थोड़ा थोड़ा ध्वंश करते हुए.

हाँ तो,
फिर से सबकुछ छोड़ दो

उतर आओ सड़कों पर...

रोबेर्तो बोलान्यो, 1976, मैक्सिको


[i] शराब के एक प्रकार ‘टेकिला’ का एक ब्रांड।
[ii] इटली का अतियथार्थवादी चित्रकार।
[iii] आर्थर रिंबाँ : उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुए, फ्रांस के क्रांतिकारी कवि।
[iv] जर्मनी का अतियथार्थवादी चित्रकार
[v] फ्रेंच कलाकार, जिसे शतरंज का खेल खूब भाता था
[vi] रूस की एक थिएटर कंपनी.


अनुवादक श्रीकांत से सम्पर्क : writershrikant@gmail.com तथा 09818152475. 

Thursday, January 13, 2011

रवीन्द्र आरोही की कहानी : प्रश्न 1 (घ) - नीचे दिये गये चित्र को ध्यान से देखो और एक कहानी लिखो.

( रवीन्द्र आरोही युवा कहानीकार हैं. जर जमा चार कहानियाँ प्रकाशित पर उससे जो इनकी पहचान सामने आती है उसे अगर भविष्य में प्रक्षेपित करते हुए कहें तो रवीन्द्र की मशहूरी भाषा के "सार्थक" प्रयोग और अपने तेज तर्रार विट के लिये होने वाली है.. ...यह कहानी अपने डिटेल्स के कारण खास बन पड़ी है.. ..) 

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प्रश्न (1) घ : नीचे दिए चित्र को ध्यान से देखो और एक कहानी लिखो।


उत्तर - जंगल-जंगल बात चली है पता चला है वाले दिन थे. हैलीकॅाप्टर आकाश में बहुत नीचे तक उड़ते थे. हमारे पास एक जोड़ी पंख थे. पंख ऐसे कि जैसे पंख होते हैं. सचमुच के पंख की तरह झूठमूठ के पंख और अक्सर घर से भाग जाने का मन करता था. इतनी खुशियाँ, इतनी तरह की कि मारे खुशियों के कभी-कभी मर जाने का मन करता. रोना हमें उस तरह याद नहीं था जैसे जरूरी चीजें याद रहतीं. जरूरी में भी कुछ इतनी जरूरी कि शाश्वत होतीं मसलन सूरज जरूरी में शाश्वत था और हमें उसकी याद नही आती थी. मां का चेहरा इतना जरूरी की शाश्वत. आँखे बंद कर हम सचिन का चेहरा खींच लेते पर मां का चेहरा नहीं हो पाता.मुंदी आँखों में छीमी छुड़ाती़, कपड़े सूखाती़, टिफिन माजती मां दिखती पर खाली अकेली मां, मां की तरह खाली अकेली कभी नही दिखती.

हमारी जिन्दगी में स्कूल इस तरह मौजूद था कि वह अलग से याद नहीं था. कहानियां इतनी कि हर कहानी में हम थे. कहानियां अलग से न हम भूल पाते न याद रह पातीं. तमाम उलझनें, परेशानियों और व्यस्तताओं में भी हर दिन इतवार टाइप दिन थे जो सरपट भागती रेलगाड़ी की तरह सीटी बजाते हुये अचानक ही बीत जाते.

जिस तरह क्रिकेट एक खेल है़, केविन पीटरसन एक खिलाड़ी है़, साइटिका एक रोग है ठीक उसी तर्ज पर कानपुर एक शहर है - जहां कभी महामारी नहीं फैली - शहर से बाहर अनारबाग नामक एक कस्बा है. अनारबाग नामक कस्बे मे अनारबाग मिडिल स्कूल नामक एक स्कूल है जहां मै और नितिन पाँचवी कक्षा में साथ-साथ पढ़ते थे. कक्षा पांच तक आसमानी शर्ट और छाई रंग का पैंट पहना जाता लडकियां आसमानी फ्रॉक पहनती. छह से आठ तक सादी कमीज और हरे रंग का पैण्ट थी. नितिन की दीदी भूली सादी समीज और हरे रंग की सलवार में कक्षा सात में पढ़ती.

भूली का एक पैर छोटा था दूसरा जितना होना होना चाहिए उतना ही था. पहला पैर बायाँ पैर था. बायें पैर की चप्पल मोटी थी. दाहिने की जितनी होनी चाहिये उतनी ही थी. बायें पैर की चप्पल में अलग से चमड़े का मोटा सोल ठुका हुआ था कि दोनो पैर बराबर लगे. जब वह चलती थी तो बायीं तरफ थोड़ी झुकती थी. उसके बायें पैर की पायल के घुंघरू दाहिने पैर की पायल के घूघरू के अनुपात में ज्यादा जोर से बजते थे. उसे चलते देख कर लगता था कि बायीं तरफ अभी मुड़ जायेगी. उसे दाहिने भी मुड़ना होता तो बाईं तरफ झुक कर मुड़ती. अगर दाहिना पैर छोटा होता तो सड़क पर चलते वक्त गाड़ी वालों को लगता कि सामने जा रही लड़की अब दाहिने तरफ मुड़ने वाली है और गाड़ी वाले अपनी गाड़ी धीमी कर लेते. उसकी लिखावट कर्सिव होती थी.हर अक्षर बाई ओर झुके होते थे. परीक्षा की कॉपी जाँचते घड़ी सुधीर मास्टर अक्सर अपनी कलम धीमी कर लेते.

नितिन मेरा दोस्त था और हम कक्षा पाँच में पढ़ते थे. हमारे और भी दोस्त थे मतलब हम कुल पांच दोस्त थे पर नितिन हम सब में खास था क्योंकि वह बहुत तेज दौड़ता था और उसे बहुत सपने आते थे. हममें से किसी का भी नितिन से झगड़ा होता तो आगे आकर सुलह हमें ही करनी पड़ती थी. माफी हमें ही माँगनी होती. सॉरी हम ही बोलते. हम में से कोई भी नितिन को खोना नहीं चाहता था. स्कूल में आकर वह हमें पिछली रात के सपने सुनाता और हम खेलना-कूदना छोड़कर टिफीन की पूरी घण्टी भर सपने सुनते और कभी-कभी क्लास में भी. छु़ट्टी के वक्त तो हम उससे सपने सुनते-सुनते ही घर वापस आते. तब के दिनों में हमें सपने नहीं आते थे और हमे सपने के प्रति बहुत लालसा थी.

उसी ने हमें बताया कि उसके पास एक जोड़ा पंख है जिसे वह तकिए में छुपा कर रखता है और रात को पंख लगाकर वह कहीं भी उड़ सकता है. पंख वाली बात उसके घर में तक किसी को पता नहीं थी. भूली को भी नहीं जो रात में उसके पास सोती थी. छु़ट्टी के वक्त कभी रास्ते में भूली मिल जाती तो हम सब से कहती कि नितिन तुम सबको सपने सुना रहा है न, इसकी बात मत सुनो यह झूठ बोलता है. इसे सपने नहीं आते हैं. सब बना-बना कर बोलता है. इस पर नितिन चिढ़ जाता और भूली को लंगड़ी बोलता और कहता कि मैंने सपना देखा है कि तेरा पैर कभी ठीक नहीं होगा और तू मर जाएगी. भूली रोने लगती. हमें बुरा लगता पर हम सब उसे कुछ बोल नहीं पाते. भूली लंगडाते-लंगडाते रोती और नितिन को मारने के लिए दौड़ती.

नितिन भाग जाता. हम सब उसके पीछे भागते. भूली जब दौड़ती तब अपनी बाईं हथेली से बायें घुटने को जोर से पकड़ लेती और रोते-रोते दौड़ती. उसकी गर्दन की सारी नसें तन जातीं और नीचला होंठ दाहिनी तरफ लटक आता और चेहरा ईंट-सा झंवा जाता और वह एक लम्बे अपाहिज कराह के साथ सड़क की बाईं ओर ठस से बैठ जाती. सारी लड़कियाँ उसे घेर लेतीं. सड़क से जाते हुए साइकिल, मोटर-साइकिल वाले रूक-रूक कर पूछते -क्या हुआ हैं और चले जाते. फिर भूली उठ कर धीरे-धीरे घर तक आती. नितिन मार खाने की डर से देर शाम घर लौटता.

नितिन को फिर कभी अपने पर पछतावा होता तब वह धीरे से कहता कि भूली के मरने वाली बात मैने झूठ कही थी और यह भी कि उसका पैर जब वह बड़ी हो जाएगी तब ठीक हो जाएगा.

फिर नितिन अगले दिन स्कूल देर से आता.और उसे आता देख हम सब खुश हो जाते. धीरे-धीरे पूरा स्कूल जान गया था कि नितिन को सपने आते हैं और वह सबको सुनाता है. वह पूरे स्कूल में हीरो बन गया था.जब वह देर से स्कूल आता तो पूरा स्कूल समझ जाता कि नितिन ने रात को जरूर कोई बड़ा सपना देखा होगा. और देखते-देखते देर हो गई होगी. इसीलिए आज देर से स्कूल आया.

उस दिन शहर में कोई हलचल नहीं थी. शहर दूब की तरह शान्त था और सुबह की धूप में शुरूआती जाड़े की बची हुई गरमी थी. क्लास रूम के बाहर कदम्ब के पेड़ के नीचे खुले में हमारी पांचवी की क्लास लगती थी. खुले मैदान में पेड़ के नीचे क्लास लगने पर भी - मे आई कम इन सर- बोलना होता था. कोई भी, जो देर से आता, कदम्ब की छाँव के बाहर खड़ा होकर - मे आई कम इन सर बोलता. नितिन देर से और पीछे से आया था. पीछे पूरब था. सूरज की छाँव हमारी पीठ पर पड़ती थी.सूरज की छाँव इसका धूप थी.हमारी पीठ खुले मैदान के क्लास रूम में पूरब की दीवार थी. हम सब दीवार से पीठ टीका कर बैठते थे और मास्टरजी को पता भी नहीं चलता था.

नितिन ने लगभग हमसे सट कर खड़ा हो कर पूछा - मे आई कम इन सर ? यह पूछना पूछने की तरह नहीं था, बोलने की तरह था.मास्टरजी ने बोलने की तरह कहा - बैठ जाओ. वह हमारे पीछे बैठ गया. वह लगभग क्लास के बाहर बैठा था. मास्टरजी ने फिर कहा -अन्दर बैठो. सभी लड़के थोड़ा-थोड़ा आगे सरक गये. नितिन अन्दर आ गया. पेड़ की छाँव के बाहर बैठने पर क्लास रूम के बाहर बैठना होता था. बाहर बैठने पर वह कभी भी भाग सकता था या वहीं बैठे-बैठे वह कुछ खेल भी सकता था या अन्दर के लड़को को बाहर से हाथ बढ़ाकर मार भी सकता था. बाहर से बाहर जाने पर - मे आई गो आउट सर - बोलना पड़ता था. आगे सरकते-सरकते जब सूरज की पूरी छांव खत्म हो जाती तब शाम के चार बज गये होते थे. क्लास रूम अन्धेरे में बंद हो जाता था और हमारी छुट्टी हो जाती.

वर्ष चौरासी के इकतीस अक्टूबर का वह बुधवार था. दुनिया के कैलेण्डर में यह दिन इसलिए खास नहीं था कि वह हमारी छमाही परीक्षा का पहला दिन था और पहली परीक्षा हिन्दी की थी. खास इसलिए था कि नितिन उस दिन भी देर से आया और मास्टरजी के पूछने पर उसने बताया, रात वह लम्बा और बड़ा सपना देखता रहा सो सुबह देर से उठा. सपने में उसने आकाश में चील, कौवों -से मंड़राते हजारों हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर देखे. पूरे देश में हजारों लाखों लोगों को मरते-भागते चीखते-चीत्कारते देखा. जगह-जगह गाड़ी और घर फूंकते आदमियों को देखा और कुछ देर बाद लम्बी बेहोशी में अपने शहर को देखा - मास्टरजी ने बीच में रोक कर कहा कि उस लम्बी बेहोशी को कोमा कहते हैं और यह बेहोशी तुम शहर के लिए कह रहे हो तो उसे कर्फ्यू कहो .

 फिर नितिन ने कहना शुरू किया - और आगे देखा कि मास्टरजी, आप कदम्ब के पेड़ के नीचे खड़ा होकर कह रहे हैं कि सब बच्चा लोग घर भाग जाओ, आज परीक्षा नहीं होगी. दो-तीन दिन बाद होगी.और तुम सब घर जाकर घर में बंद हो जाना, बाहर मत निकलना, नमस्ते! आपके मुंह से निकला नमस्ते, उस दिन का आखरी शब्द था. जैसे अपनी किताब के चौथे पाठ -हमारे बापू- में गांधी ने ‘हे राम’ कहा था.

परती आकाश - सा वह खुला दिन था और हम भागते हुए घर चले आये थे. भूली भी भागते-भागते आई थी. हमारा स्कूल पांच दिन तक बंद रहा. परीक्षा से ही हमारे स्कूल की शुरूआत हुई और वह हिन्दी की परीक्षा थी. छमाही परीक्षा में पास-फेल का कोई डर नही था फिर भी परीक्षा नजदीक आते ही नितिन हम सब से घर से भाग जाने की बात कहता था. पैदल कलकत्ता भागने की बात अक्सर कहता.नितिन, यदि भूली होता तो पैदल कलकत्ता भागने की बात नही कहता, सिर्फ स्कूल से पैदल घर आने भर तक की बात कहता.नितिन छोटे-छोटे अलग तरह का बाल कटवाता. हम सब चुपके- चुपके उसके बाल की नकल करते.मेरे घुंघराले बाल थे और वह कहता कि घुंघराले बाल वाले लोग रेलगाड़ी से कट कर मर जाते है. उसके पिता के भी बाल घुंघराले थे और वह उसी तरह मरे थे.नितिन के बाल घुंघराले नहीं, छोटे-छोटे झाड़ीनुमा बाल थे. छोटे-छोटे झाड़ीनुमा बालों के नीचे एक छोटी खोपड़ी थी जिसे भूली कहती – शैतान की खोपड़ी - छोटी खोपड़ी के भीतर छोटे से दिमाग में पैदल कलकत्ता भाग जाने वाली बात स्थायी रूप से विद्यमान रहती थी.

परीक्षा में हिन्दी के प्रश्न-पत्र का अंतिम प्रश्न - चित्र देख कर कहानी लिखो वाला होता. अक्सर वह चित्र उलझा-उलझा होता था. हम अक्सर इस प्रश्न से बचते और सोचते कि यदि प्रश्न में कहानी लिखी हुई होती और उस पर चित्र बनाने को कहा जाता तो कितना अच्छा होता. हम अपने पेंसिल बॉक्स के रंगों से एक चित्र बनाते. एक रंगीन चित्र. रंगीन कहानी के रंगीन चित्र. और किसी से भी कह सकते कि कहानी गोल होती है और रंगीन भी. हमारे पेंसिल बॉक्स में जितने रंग होते कहानियां उतने रंगो की होतीं, पर ऐसा नहीं था, हमारे सामने सिर्फ उलझी हुई ब्लैक एण्ड व्हाइट एक भद्दी-सी तस्वीर होती और चित्र में कहीं भी विद्यालय होता तो हम विद्यालय पर लेख लिख देते. कहीं कोने में खड़ी गाय होती तो लिख देते- गाय दूध देती है.

नितिन के साथ ऐसा नही था. वह ये प्रश्न बड़ी आसानी से कर लेता और वह दूसरे प्रश्नों के उत्तर याद करने से बच जाता. वह चित्र को देखता और उत्तर में उससे मिलता-जुलता कोई पुराना देखा हुआ सपना वहाँ टाँक देता. चित्र वाले प्रश्न में उसे सबसे ज्यादा नम्बर मिलते. जैसे, इस बार की परीक्षा में लिखा कि सड़क किनारे एक स्कूल था. स्कूल में छमाही परीक्षा हो चुकी थी सिर्फ पाक कला की परीक्षा बाकी थी. वह शनिवार का दिन था. स्कूल के सभी लड़के-लड़कियां और मास्टर खुश थे. स्कूल के बाहर डेक में पग घुंघरू बाँध मीरा नाची थी वाला गाना बज रहा था. चारो तरफ शोरगुल हो हल्ला. लड़के बाजार से दौड़-दौड़ कर सामान लाते. लड़कियां दूसरी कक्षा के क्लास रूम में मिट्टी के चुल्हे पर खीर-पूड़ी-आलू की सब्जी बना रही थीं. पूरा स्कूल खीर की तरह मीठा-मीठा महक रहा था. मास्टर लोग आकर लड़कियों को समझा जाते, बता जाते. कोई लड़की किसी को खीर चखाती, कोई किसी को तरकारी चखाती.

हेडमास्टर को एक लड़की खीर चखाने ले गई. हेडमास्टर ने खीर खाकर पानी लाने को कहा.लड़की पानी ले कर आई.लड़की ने पूछा –सर, खीर कैसी लगी? हेडमास्टर ने पानी पीकर लड़की के सर पे हाथ रख कर कहा, बहुत अच्छी बनी है.तुम बनाई? लड़की ने कहा, हम सबने मिल कर बनाई. हेडमास्टर ने लड़की को और करीब लाकर उसके गालो को सहलाते रहे और उसके परिवार का हाल-चाल पुछते रहे. फिर हेडमास्टर ने दरवाजा बंद कर लड़की को अपनी गोद में बिठा लिया. लड़की ने कहा, हमें जाना है.हेडमास्टर ने कहा और क्या-क्या बना लेती हो?

लड़की ने कहा- खिचड़ी, हमें जाने दो.

और?

चोखा - हमें जाने दो.

चटनी - हमें जाने दो.

भाजी - हमें जाने दो.

चाय - हमें जाने दो.

सब्जी - हमें जाने दो.

घर बुहारती हूं - हमें जाने दो.

घर लिपती हूं - हमें जाने दो.

भात बनाती हूं - हमें जाने दो.

सिलाई करती हूं - हमें जाने दो.

खून! हमें जाने दो.

और चारों तरफ की शोरगुल के बीच उस बंद कोठरी में बेहोशी के पहले की दम तोड़ती एक लम्बी अपाहिज कराह कि आ बाप हमें जाने दो. देखते-देखते स्कूल के बाहर बहुत लोग जमा हो जाते हैं.हेडमास्टर रेल हो जाता है. पास के सदर अस्पताल में लड़की दम तोड़ देती.

सुबह स्कूल बंद रहता.कई दिनो तक बंद रहता.स्कूल के बाहर चारों तरफ पूड़ी सब्जी, खीर बिखरी होती.कुत्ते इधर-उधर घुमते रहते.सूंघ कर छोड़ देते.पूरा स्कूल श्राद्ध-सा महकता रह जाता.

नितिन की यह कहानी इतनी चर्चित हुई की अगले दिन के अखबार में हू-ब-हू ऐसी ही छपी. परीक्षा के पन्द्रह दिन बाद हमारा स्कूल खुला.नितिन उस दिन नहीं आया. दूसरे-तीसरे किसी भी दिन नितिन वापस स्कूल नहीं आया. हम हर रोज उसका इन्तजार करते रहे. हम हर रोज उसके घर जाते. अलकतरे से पुती किवाड़ एक पुराने ताले से हमेशा बंद रहती. मां कहती, नितिन अपने माँ के साथ मामा के घर गया. मामा के घर नितिन अक्सर गरमी की छुट्टियों में जाता पर इस बार ऐसा नहीं था. पूरे जाड़े के बाद एक पूरी गरमी आई, नितिन नहीं आया.

और देखते-देखते वार्षिक परीक्षा आ जाती है. जिस तरह घर के पते में सिनेमा हॉल, मंदिर और नीम या बरगद का पेड़ शामिल थे. ठीक वैसे ही आम के मौसम में परीक्षा का मौसम शामिल था. परीक्षा के दिनों में पूरा स्कूल कलकतिया आम-सा गमक उठता. तब वार्षिक परीक्षा के पेपर लाल और पीले थे.और फिर प्रश्न 1 का घ चित्र देखो और कहानी लिखो.तब हम नितिन को बहुत याद करते.

चित्र में एक नारियल का पेड़ था.बहुत दूर एक अपरिचित-सा पेड़ होता, बहुत दूर तक फैले खेत और खेतों के बीच एक चुराये गए समय-सी शांत पगडंडी और उस पर भागते हुए हम बडे़ हो जाते.उस आदमी-सा जो उस प्रष्न पत्र के चित्र में होता.

वह आदमी, चित्र वाला आदमी, जिसके बाल छोटे-छोटे झाड़ीनुमा होतेए थोड़ा-थोड़ा नितिन की तरह लगता.चित्र वाला आदमी हाथ में सुटकेस लिए चित्र में कहीं जाता हुआ दिखता. चित्र में आदमी की बाईं तरफ हरसिंगार का एक छोटा पेड़ होता. हरसिंगार के छोटे-से पेड़ पर एक छोटी गौरैया चहकती हुई बैठी दिखती. चहकती हुई गौरैया के खुले चोंच के सामने एक बड़ा खुला नीला आकाश दिखता. चहकती गौरैया के चित्र में चहकना चित्र नहीं होता.

चित्र वाला आदमी थोडा़ दुखी-दुखी, संतुष्ट और सुलझा हुआ लगता. उसकी पूरी जिन्दगी में आने वाले पेंच सुलझे हुए लगते. उस चित्र वाले दुखी-दुखी, संतुष्ट और सुलझे हुए आदमी के सामने चील, गौरैया और तितली तीन जीव रख दिए जाते या तीनों के सिर्फ नाम बतलाकर पूछे जाते या तीनों के चित्र बनाकर पूछे जाते कि बतलाओ, इन तीनों के पंख के बारे में तुम क्या सोचते हो? तब वह पिछले किसी सपने से उसका उत्तर ढूढ़ कर लाता और कहता कि चिल का पंख उसकी ताकत है जिसका इस्तेमाल वह सिर्फ शिकार के लिए करती है. गौरैया का पंख विशुद्ध उड़ने के लिए है. वह इसका उपयोग सिर्फ उड़ने के लिए करती है. उसका पंख उसका जीवन है क्योंकि वह एक चिड़िया है.

और चील?

वह एक शिकारी है.

तितली का पंख एक फरेब है. जो न शिकार के लिए है न उड़ने के लिए. उसका पंख उसकी सुन्दरता है जैसे लड़कियों की नेलपॉलिश होती है. तितली की पंख कोई खुशी है. दो उंगलियो से उसके पंख को पकड़ लो खुशी के बर्क उंगलियों में आ जाते और उन्हे गुस्सा तक नही आता.

इस तरह चित्र में आदमी के सामने रूकी हुई बस का चित्र होता. वह चित्र वाली बस तब कहीं नहीं जाती जब तक चित्र वाला आदमी उसमें चढ़ नहीं जाता.फिर बस कलकत्ता चली जाती.

पीछे छूटे रह गये हरसिंगार के पेड़ से एक गौरैया गाती हुई छुटी रह जाती कि सब के पंख जरूरी होते.



और कहानी खत्म हो जाती.

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