डियर आरोही,
तुम्हारी ज़िज्ञासाएँ / बातें मुझे भाती हैं. इसलिए कि तुम लिखते बहुत अच्छा हो और इसलिए भी कि तुम्हारी जिज्ञासाओं में से बहुतों का जबाव मेरे पास नही होता. होता भी है तो इतना धुँधला कि मैं खुद को भी ठीक ठीक नहीं बता पाता.
जैसे तुम्हारा यह जादुई यथार्थवाद वाला सवाल. इस विषय पर एक परिचयात्मक लेख गिरीश मिश्र ने आलोचना के जिस अंक में लिखा था, उसका प्रकाशन वर्ष तथा अंक संख्या भूल रहा हूँ. तुम्हें यह जानकर दु:ख तो नहीं, कुछ कुछ आश्चर्य होगा कि इस प्रविधि को नाम चाहे जिसने दिया हो, पर इसका प्रयोग पहली बार चित्रकला में हुआ. यह 1925 की बात रही होगी जब फ़्रांज रो ने अपने एक आलोचनात्मक आलेख में इस शब्द का प्रयोग किया. वैसे मेरा मानना है कि हम तारीखों की कचहरी में न उलझे तो बेहतर होगा. बताता चलूँ कि जादुई यथार्थवाद का साहित्यिक उन्न्यन ‘लैटिन अमरिकी’ देशों में हुआ.
एक दौर था जब कुछ भिन्न करने की चाह और सामयिक जरूरत के कारण नए नए तरीके और प्रविधियाँ ईजाद की जा रही थीं. जिनमें से एक बहुप्रचलित हुआ : अतियथार्थवाद. इसके प्रवक्ताओं में प्रमुख लुई अरागाँ, सल्वाडोर डॉली, और डियेगो रिवेरा हैं. यों तो यह बेहद लम्बी और उबाऊ बहस की सम्भावना बनाती है कि हम जादुई और अतियथार्थ वाद के बीच कोई तुलनात्मक बात रखें पर अगर देखा जाए तो कुछ फर्क बेहद आसानी से लक्षित किए जा सकते हैं. मसलन, अतियथार्थवादी हर हमेशा खुद को समय की राजनीति से जोड़ते रहे, अतियथार्थवाद एक सांस्कृतिक आन्दोलन के बतौर उभरा, जिसका घोषणापत्र 1917 में तैयार किया गया. ट्राट्स्की के चाहने वालों के लिए यह बेहद उत्कंठा से भरी बात है कि अतियथार्थवादियों ने अपना एक मसौदा 1930 में तैयार किया जिसपर बतौर लेखक लुई अरागाँ और डियेगो रिवेरा का नाम गया परंतु सच्चाई यह है कि उसके लेखक लियोन ट्राट्स्की और लुई अरागाँ थे.
जहाँ हम इन दोनों वादों में फर्क की बात कर रहे थे, वहाँ लौटते हैं. दोनों ही वाद यथार्थ और फंतासी के मिश्रण के लिए जाने जाते हैं. पर जो बारीक फर्क है वह है प्रस्तुति का. जादुई यथार्थवाद जहाँ वस्तु विषय के ही नवीन प्रस्तुतिकरण में विश्वास रखता है और उसके लिए अजीबोगरीब तुलनाएँ, लुभावनी कलाएँ, शब्द विन्यास आदि का प्रयोग करता है, पर करता वह इसी दुनिया की बात है. तो दूसरी तरफ अतियथार्थवाद एक ऐसी दुनिया की रचना करता है, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं, और अगर उसका कोई अस्तित्व है भी तो सिर्फ और सिर्फ मस्तिष्क में. यह प्रस्तुति के साधारण तकनीक से भी किसी असम्भव की रचना करता है पर जादुई यथार्थवाद प्रस्तुति के नितांत नए और अविश्वसनीय लगते उपकरणों / शिल्प से रचना साधारण जन जीवन की करता है.
अब देखो यही होता है ! इन दोनों का फर्क इतना महीन है कि उपर के अंतरे को जरा भी बेख्याली में पढ़ोगे तो विभ्रम में चले जाओगे. विभ्रम – जो कि बतौर शिल्प जादुई यथार्थवाद में इस्तेमाल होता है और यही विभ्रम बतौर रचना, अतियथार्थवाद से हुई रचनात्मकता के करीब चला जाता है.
जैसे कई वर्ष तक की बारिश जादुई यथार्थवाद है तो आईने के भीतर चलता हुआ आदमी अतियथार्थवाद है. वजह ? क्योंकि, वह एक दिन हो या दस लगातार साल, हो तो बारिश ही रही है पर एक इंसान किसी भी कीमत पर आईने के भीतर चला जाए और उसके अन्दर टहलता रहे, यह असम्भव है.
मैं, समझता हूँ कि अब तक तुम पर्याप्त दुविधा के शिकार हो गए होगे !
जादुई यथार्थवाद, मेरे लिए महज एक शिल्प है, जैसे यथार्थवाद. मुझे अमरकांत की कहानियाँ उतना चकित करती है जितना उदय प्रकाश की. अगर तुम्हारा भी भोजन विदेशी नामों के बिना हजम न होता हो तो उपरोक्त उदाहरण को ऐसे देखो : कि मुझे जेम्स जॉएस भी उतना ही पसन्द है जितना बोर्हेस. मार्खेज से अधिक मुझे वर्जीनिया वुल्फ और हेमिंग्वे पसन्द आए. रोबर्तो बोलान्यो तो इस वाद के विरोध में जाते हुए इतना अच्छा लिख गया कि क्या कहा जाए ?
बतौर शिल्प, जादुई यथार्थवाद, मार्खेज की अद्भुत प्रतिभा के आगे छीज गया और इसलिए ही उनके बाद इस वाद के जितने भी प्रस्तोता आए, मसलन सलमान रुश्दी, वर्गास लोसा और इसाबेल अलेन्दे आदि नागवार लगने लगे. हाँ, गुंटर ग्रास से अब भी एक अच्छी किताब की उम्मीद मैं लगाए हूँ जो कि जादुई यथार्थवाद के अनन्य साधक हैं.
आज की अपनी बात मैं एक उदाहरण से समाप्त करता हूँ. जादुई यथार्थ पर बाकी बातें कल. ठीक ?
अलेक्जेंडर वॉन हमबोल्ट( Alexander von Humboldt ) एक जर्मन भूगोलविद थे जिन्होने उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वार्ध में लैटिन अमेरिका की यात्रा की थी. इनके जीवन पर,सन्योग से एक ही साथ, दो उपन्यास आये थे. पहला 2005 में: डेनियल केल्ह्मैन का मेजरिंग द वर्ल्ड, जिसमें उनके यात्रा वृतांतो तथा गॉस ( सुप्रसिद्ध गणितज्ञ) से उनकी मुलाकात का क्या खूब यथार्थवादी वर्णन है. दूसरा 2006 में : सेजार आईरा का उपन्यास ‘एन एपिसोड इन द लाईफ ऑफ ए लैंडस्केप पेंटर’ ..जो कि जादुई यथार्थवाद और अतियथार्थ के बीच का रास्ता चुनते चुनते खत्म हो गया है.
तुम्हारा
09901822558
4 comments:
आरोही जी से यह क्या बहस हों पडी है भाई? ज़रा सन्दर्भ स्पष्ट करते तो कुछ और जानने-कहने का मन कर रहा है.
आरोही दरअसल रविन्द्र आरोही हैं. युवा और प्रतिभाशाली कथाकार. अपने गद्य से मोहित कर लेते हैं. इनका पसन्दीदा काम छत पर घूमना और बाजार से सब्जी लाना है. 'ठेठ' पर इनकी पकड़ लाजबाव है. सम्वेदना में कोलकाता और भाषा में छत्तीसगढ के निवासी हैं.
चन्दन,मुझे यह पत्र पसंद आया,इसलिये भी कि तुमने ईमानदारी से खंगाला है. हममें से बहुतों के पास ढेर सारी impressionistic गलतफहमियां होती हैं जो इस मार्फत अपना शिकंजा ढीला करने को विवश होती हैं.बधाई.
सबसे पहले 'आरोही' को साधुवाद, जो खुद को 'बार्न इंटेलिजेंट' समझने वालो धुरंधरों की दुस्सह होती जा रही दुनिया में कुछ समझने की जिज्ञासा दिखाई। आरोही की द्विविधा क्या रही होगी, यह चंदन के स्पष्टीकरण से साफ हो जाता है। पत्र के स्वरूप में विश्व साहित्य की दो बेहद जरूरी प्रवृत्तियों ('वादों') के रहस्य इतनी आसानी खोल देने का चंदन का यह तरीका भी नायाब लगा। दोनों का शुक्रिया।
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