Sunday, December 29, 2013

मोहम्मद आमिर प्रसंग : मुझको दयार-ए-गैर में मारा वतन से दूर

( कायदन इस खंड का शीर्षक "उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता" होना था. परंतु आमिर प्रसंग बेधक है, इसलिए ग़ालिब का यह शे'र मौजूँ लगा. आमिर के अलावा यह मेक्सिको की सैर जैसा भी है. )

साढ़े पांच बजे नींद खुल गई. तकरीबन चालीस घंटे के जागरण, जिसमें स्वान निद्रा सरीखी दो चार झपकियाँ शुमार हो सकती हैं, के बाद इन साढ़े पांच घंटों की नींद इतनी गझिन थी की होश में आने की प्रक्रिया में आँखें खुलकर देर तक छत को और खिड़की से आ रही पीली रौशनी  की फांक को नीहारती रहीं. शरीर जी इतने शिथिल थे, मानो उनके सभी हिस्सों का प्राण ऊपर आकर आँखों भर में सिमट गया हो. इस बीच जो पहला सवाल कौंधा, वो ‘यह कहाँ?’ का था. चेतना ने एक झटके में बीते दिन की पूरी यात्रा दुहरा ली और और उत्तर मिला, ‘मैक्सिको, मैक्सिको सिटी’. जल्दी से फ्रेश होकर मैं होटल के बाहर आया, अब तक सिर्फ पढ़े और फिल्मों और कल्पनाओं में देखे शहर से दीदार के लिए.

आसमान का रंग सुबह के आसमान के रंग का ही था, लेकिन यह सोचते ही कि यह सुबह पूरब के सभी देशों को पार करती हुई यहाँ पहुँची है, सुबह बासी लगने लगी. हवा फिर भी उतनी ही ताजी और मौसम का मिजाज भारत के बंगलूरु जैसा. दिन का नाम इतवार.

मेरी रिहाइश की जगह का नाम रेफोर्मा है, जो दिल्ली के कनाट प्लेस की तरह मैक्सिको सिटी के बीचोबीच बसा हुआ है. ‘रेफोर्मा’ शब्द का अर्थ रिफार्म यानी सुधार होता है. रेफोर्मा के केंद्र में ‘एल आंखेल दे ला इन्दिपेंदेंसिया’ यानी ‘स्वतंत्रता की परी’ नामक एक ऊंचा स्तम्भ है, जिसके शीर्ष पर वाकई एक परी की सुनहरी प्रतिमा स्थापित है. स्तम्भ के चारो ओर मैक्सिको के स्वतंत्रता संग्राम में अहम् भूमिकाएं निभाने वाले नायकों, जिनमें मैक्सिको के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले मिगेल इदाल्गो समेत अनेक नाम शामिल हैं, की मूर्तियाँ लगी हुई हैं. थोड़ी और तफसील में जाएँ तो बताना होगा कि इस मोन्यूमेंट का निर्माण सन १८१० में शुरू हुए मैक्सिकन स्वतंत्रता संग्राम की सौवीं वर्षगाँठ के अवसर पर कराया गया था. संक्षिप्त रूप में इसे ‘एल आंखेल’ बोलते हैं. १६ सितम्बर १९११ को हुए अपने अनावरण के बाद से एल आंखेल मैक्सिको के सैकड़ों राजनीतिक एवं सामजिक आन्दोलनों का केंद्र रहा है, जो कि इस क्षेत्र के नाम ‘रेफोर्मा’ के अनुरूप भी है.
एल आंखेल के मोन्यूमेंट को केंद्र बनाकर चारों दिशाओं में सड़कें जाती हैं. इन्हीं में से किसी न किसी सड़क पर आते जाते मुझे इस देश को जानना-समझना और चंद महीने बिताने थे/हैं. इनमें से चारो मुख्य सड़कों के ऊपर सामने की ओर पड़ने वाले किसी महत्वपूर्ण स्थान का नाम लिखा दीखता है. एक दिशा की ओर जाती सड़क पर ‘गांधी’ लिखा दिखता है, जो गांधी नाम की किसी जगह, या म्यूजियम या मोन्यूमेंट की ओर इशारा करता है, अभी मुझे नहीं पता. इनमें से किसी सड़क पर आगे जाते हुए उनसे जो दूसरी सड़कें फूटती हैं उनके नाम विश्व-प्रसिद्ध नदियों के नाम पर दीखते हैं. उन अन्य नदियों, माने अन्य सड़कों के नाम, रिओ लेरमा, रिओ नियाग्रा, रिओ वोल्गा, रिओ पो, रिओ हडसन आदि हैं. थोड़ी और दूरी तय करने पर रिओ गान्खेज यानी गंगा नदी नामक सड़क भी दीखती है. जिसके देखे जाने के साथ ही वहां भारत देश से जुड़ी किसी और चीज या स्थापना मिलने की उम्मीद जागी. उत्सुकतावश आगे बढ़ा तो पाया कि सड़क की संज्ञा के सिवाय वहां और कुछ भी भारत का या भारत जैसा नहीं था. अच्छी खासी टहल कर मैं ८ बजे के आस पास वापस एल आंखेल पहुंचा तो सैकड़ों की तादाद में लोग दिखे. नीले टीशर्ट और निकर पहने. कहना न होगा की भीड़ में पुरुष और महिलाओं की तादाद लगभग बराबर की थी. ‘एल आंखेल’ से ठीक सामने की ओर जाने वाली सड़क को सामान्य यातायात के लिए बंद कर दिया गया था. और यदि उस पर किसी की आवाजाही थी तो सिर्फ एक जैसी दिखने वाली साइकिलें चला रहे ढेर सारे लोगों की. अलस्सुबह उधर से गुजरने पर वह साइकिलें सड़क किनारे करीने से खड़ी दिख रही थीं. कुछ देर अचरज से लोगों की गतिविधियाँ देखने, फिर उनसे पूछने पर पता चला की यह सायकिलें सरकारी योजना के तहत शहर के विभिन्न हिस्सों में उपलब्ध कराई गयी हैं, जिनके प्रयोग के लिए कुछ सुरक्षा राशि देकर वार्षिक सदस्यता ले लेनी होती है. कहीं से कहीं तक जाने के लिए अपने सदस्यता कार्ड की मदद से आप पार्किंग से एक सायकिल उठाते हैं और शहर के जिस दूसरे हिस्से में आपको जाना है, के आस पास की पार्किंग में आप उसे खड़ी कर देते हैं. मैक्सिको सिटी में इतवार का दिन साइकिल प्रेमियों के लिए उत्सव वाला होता है. एल आंखेल के सामने वाली यह सड़क तकरीबन हर इतवार को दोपहर तक इन सायकिल प्रेमियों के हक़ में सामान्य यातायात के लिए बंद रहती है. खेल-कूद से जुड़े उपकरण एवं ड्रेस, नाश्ते, सॉफ्ट और एनर्जी ड्रिंक्स की छोटी छोटी दुकानें सज जाती हैं. दोपहर में, उत्सव के समापन के समय साइकिल प्रेमियों का समूह आम सहमति से सुधार की संभावना वाला कोई विषय चुनता है, उसके लिए थीम के तौर पर कोई रंग चुनता है, और निर्धारित रविवार को लोग उसी रंग के कपडे पहन कर साइकिलिंग के लिए उपस्थित होते हैं. यूं, इस साइकिल उत्सव में साइकिल के माध्यम से विभिन्न करतब दिखा सकने में दक्ष लोग प्रतियोगिताएं भी करते रहते हैं.

इतने तक की जानकारी मुझे खुद की आँखों से देख लेने के अवाला इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले प्रतिभागियों के माध्यम से अलग अलग किश्तों में मिली. मुझे लगा कि सरकार यदि वाकई इतनी संवेदनशील है कि वह जनता के स्वास्थ्य और राष्ट्रीय ऊर्जा के संरक्षण के नजरिये से साइकिलिंग जैसी चीज को प्रोत्साहित कर रही है, तो लोग यहाँ राजनैतिक अराजकता से अपेक्षाकृत कम ही त्रस्त होंगे. लेकिन इस बात की दूसरे कई पैमानों पर पड़ताल किये बिना ऐसी धारणा बना लेना सही नहीं था. मुझे एहसास था कि मैं मैक्सिको के उस हिस्से में खडा हूँ जहां के हालात देखकर पूरे देश की स्थिति का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. कोई भी देश चावल की पतीली नहीं, जिसमें से एक भाग की सख्ती- नरमी देख कर बाकी के हिस्से की असलियत का अंदाजा लग जाये. पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के समय में तो और भी.

अब तक विभिन्न देशों के रूट वाली उड़ानों से चलकर मेरे ऑफिस के और भी सहकर्मी मैक्सिको सिटी में आ चुके थे, जो कि हमारी कंपनी की योजना थी. कुल ग्यारह लोगों की टीम को आना था, जिनमें से दो-दो, तीन-तीन के समूह को अलग अलग रूट की उड़ानों के माध्यम से दिल्ली से रवाना किया गया था. मेरे साथ वाली उड़ान में पीयूष और भावेश नामक साथी भी सवार थे. इस तरह टीम को अलग-अलग टुकड़ों में भेजने के पीछे कंपनियों का मकसद यह होता है कि किसी भी रूट के किसी एक विमान के साथ कोई दुर्घटना होने की स्थिति में कंपनी को कुछ ही कर्मचारियों का नुकसान हो और प्रायोजित काम और अंततः संभावित मुनाफे पर असर भी कम हो. वैश्विक स्तर की कंपनियों में उच्च प्रबंधन के किन्हीं दो सदस्यों को एक उड़ान से नहीं भेजा जाता, कारण, जाहिर तौर पर यही होता है.

खैर, मैं वापस होटल पहुँचते ही रिसेप्शनिस्ट से पूछा कि मोहम्मद आमिर नामक व्यक्ति होटल में चेक इन कर चुके हैं या नहीं? उसने हाँ में सिर हिलाते हुए आमिर का कमरा नंबर बता दिया. मैंने पिछली रात ही आमिर को मेरे बगल का कोई कमरा देने की सिफारिस की थी, जिस पर उन्होंने अमल भी किया था. अगर अपने पांच वर्ष से कुछ अधिक के पेशेवर जीवन की बात करूँ, तो आमिर मेरे बचपन का दोस्त है. जीवन की प्रायिकता के अंतर्गत एक सुखद संयोग यह, कि हम इस नयी कंपनी में भी एक साथ आ गए. नए देश में भी.

यात्रा से जुड़ा आमिर का अनुभव मेरी तुलना में अधिक ही कड़वा रहा, और स्पष्ट हुआ कि अपनी हरेक फिल्म के साथ विदेशी मुद्रा में बेशुमार कमाई करने वाले करन जौहर साहब की ‘माय नेम इस खान’ को या तो अमेरिकी सरकार के अधिकारियों ने देखा ही नहीं, या फिर देखकर भी उसे यथोचित सम्मान देते हुए उपहास मात्र के योग्य फिल्म ही समझी. मतलब शायद आप समझ ही गए होंगे. यात्रा के रूट में आमिर को न्यूयार्क में रुकते हुए आना था. अमेरिकी सरकार ने आमिर को अपने देश का वीसा भी दे रखा था, और आमिर को न्यूयार्क एअरपोर्ट के भीतर ही रहकर मैक्सिको सिटी की उड़ान भी पकड़ लेनी थी, लेकिन फिर भी उसे, और सिर्फ उसे ही अतिरिक्त पूछ-ताछ के लिए रोक लिया गया. तकरीबन डेढ़ घंटे तक चले इंटरव्यू में सात-आठ सवालों को ही अलग-अलग, और कई बार वापस उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हुए बीसों बार पूछा गया. सवाल, जैसे कि मैक्सिको क्यों जा रहे हो? कब तक रहोगे? वापस जाओगे न? पक्का जाओगे? आदि... बहरहाल आमिर उनसे छूटने के बाद कुछ ही मिनटों में भाग जाने वाली मैक्सिको सिटी की अपनी उड़ान पकड़कर मैक्सिको आ गया. यह दास्ताँ उसने यह कहते हुए शुरू की, कि यार मेरे अब्बा ने मेरा नाम श्रीकांत दुबे क्यूँ नहीं रखा? मैं अपनी अगली पीढ़ी के लिए तो ऐसा ही कुछ करूंगा. पक्का.

बहरहाल, हम होटल के डाइनिंग हाल में गए और फल, जूस और दूध के साथ कार्न फ्लेक्स मिलाकर कम से कम इतनी मात्रा में तो खा ही लिया कि शाम तक क्षुधा देवी कोई शिकायत न कर सकें. तैय्यारियों के मुताबिक़ हमें पांच दिनों के ऑफिस के काम के बाद सप्ताहांत के दो दिनों का भरपूर प्रयोग इस मुल्क के इतिहास, भूगोल, जैविकता, समाज और संस्कृति जैसी हरेक चीज को भरसक जान लेना था. चूंकि दिन रविवार था, इसलिए उस दिन हमें सिर्फ उसी दिन के बचे खुचे घंटे मिले.

पूछ-ताछ कर हम नजदीकी मेट्रो स्टेशन ‘इन्सुर्खेंतेस’ पहुंचे, जहां हम रूट और टिकट की जानकारी लेने साथ यह भी तय करना था कि वहां से आगे हमें जाना कहाँ है? लेकिन प्रवेश द्वार से अन्दर जाने पर लोगों की बाढ़ के बीच हंगामे का मंजर सामने आया. कुछ न समझ पाते हुए हम बाहर निकलकर वापस जाने का फैसला लेते, इससे पहले ही पीछे और भीड़ जमा हो गयी और हम भीड़ के बीच में कर दिए गए. स्पैनिश आमिर को भी आती थी, इसलिए थोड़ी अश्वस्थि थी कि किसी भी चीज़ के हमारे खिलाफ जाने पर हम दोनों ही उसे जानने समझने और अपने बचाव में सक्षम थे. हंगामे की वजह चाहे जो भी हो, इस अजनबी भूमि पर आने के बाद हमारी स्थिति अभी अंडे से निकले चूजे के जैसी थी, जो आस-पास को अपनी आँखें बड़ी से बड़ी कर बस घूरता जाए और कुछ समझने की कोशिश करे. हालांकि आस पास के लोगों के हाव-भाव से यह साफ़ हो जा रहा था की वे हमारे विदेशी होने को जान ले रहे हैं, लेकिन फिर भी भीड़ के अन्दर हमारे प्रति किसी का व्यवहार खराब नहीं रहा. चंद दस मिनट के बाद स्पष्ट हुआ कि हंगामा मेट्रो का किराया बढाए जाने के विरोध स्वरूप किसी विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा किया जा रहा है. हंगामे का अंत कुछ इस तरह हुआ कि कुछ छात्र टिकट काउंटर के पास खडा होकर लोगों को टिकट खरीदने से रोके हुए थे, और बाकी टिकट जांच की मशीन को बंद कर लोगों को मुफ्त में अन्दर घुसा रहे थे. हमें मेक्सिको सिटी की मेट्रो-प्रणाली के बारे में कुछ भी नहीं पता था, और कुछ पूछने-जानने तक की मोहलत भी न देते हुए भीड़ ने हमें टिकट जांच की मशीन से अन्दर की ओर ठेल दिया.
आगामी तीन चार स्टेशनों पर लोगों के थोड़ी थोड़ी मात्रा में उतरते जाने के बाद हमें एक दूसरे से मुखातिब हो पूछ पाने की मोहलत मिली कि, ‘यूं आगे कहाँ तक?’. सहमति इस पर बनी कि किसी सहयात्री से पूछते हैं कि दिन के बचे खुचे घंटों में हम इस शहर में ऐसा क्या कुछ देख सकते हैं जो उल्लेखनीय हो? हमारे ठीक सामने एक मोहतरमा खड़ी थीं, लेकिन अपने भारतीय संकोच के नाते मैंने बगल में खड़े भद्र पुरुष से बात करनी उचित समझी. कुछेक मिनट तक चले मेरे प्रलाप को किसी गोरी चट्टान की माफिक चुपचाप सुनते जाने के बाद उन्होंने बस एक छोटी सी सलाह दी की हम अगले मेट्रो स्टेशन पर उतर जाएँ. हम उन्हें काफी हद तक खुद के विदेश में होने, और बहुत कम मात्रा के शिष्टाचार के चलते ‘धन्यवाद’ बोलकर अविलम्ब ट्रेन से उतर गए.
स्टेशन, अथवा स्टेशन वाली जगह का नाम ‘सोकालो’ था. सोकालो का अर्थ ‘आधार’ या ‘नींव’ जैसा कुछ ठहरता है. दरअसल मैक्सिको की स्वतंत्रता के बाद किसी समय में इस जगह पर ‘मैक्सिकन स्वतंत्रता’ का प्रतीक-स्तम्भ बनवाने की योजना बनी, जिसका आधार मात्र तैयार हो सका. बाद में चलकर उस आधार को भी नष्ट हो जाना पड़ा, लेकिन उस जगह का नाम ‘आधार’ अथवा ‘सोकालो’ रह गया. क्षेत्र विशेष की ख्याति, उपयोगिता एवं स्थानिक संरचना के मद्देनज़र ‘सोकालो’ शब्द अब तक ‘नगर के मुख्य चौक’ का पर्याय बन चुका है.

भूमिगत मेट्रो से बाहर आते ही हमारी आँखें पल-पल में चौंक जाने लगीं, एक विशाल मैदान के चारो तरफ कम से कम चंद सदी पुराने भव्य स्थापत्य देखकर. मानो अचानक हम बेल्जियम के ब्रूसेल्स या फिर शेक्सपियर की मर्चेंट ऑफ़ वेनिस में व्याख्यायित ऐतिहासिक शहर के बीचोबीच लाकर खड़े कर दिए गए हों. जाहिर तौर पर घूमने-परखने के लिए हमारे पास हरेक दिशा में अपार चीज़ें थीं, लेकिन समय कम. हमने फिर से अपनी यथा स्थिति बताकर किसी मैक्सिकन नागरिक से सलाह लेनी चाही. आमिर ने इस दफा एक युवती से सवाल किया, जिसने न सिर्फ हमें दिलचस्पी के साथ सुना, बल्कि सामने की तरफ लहरा रहे मैक्सिको के ‘बान्देरास मोन्यूमेंताल’ माने  मोन्यूमेंटल फ्लैग के उतारे जाने की प्रक्रिया देखने की सलाह देते हुए हमारा साथ देने को भी राजी हो गयी. हम सोकालो के विशाल मैदान के बीचोबीच खड़े खूब ऊंचे स्तम्भ पर लहराते (तीन रंगों की ऊर्ध्वाधर पट्टियों वाले) मैक्सिकन मोन्यूमेंटल तिरंगे को दूर से घेरे लोगों की ओर बढ़ चले.

तिरंगे के ठीक सामने मैक्सिको का ‘प्लासा दे ला कोन्स्तितुसिओन’ यानी ‘संविधान चौक’ था और दोनों के बीच की तकरीबन दो सौ मीटर की दूरी पंक्तिबद्ध सैनिकों से घिरी थी. लोग सैनिकों द्वारा बनी सीमारेखा के बाहर खड़े होकर प्लासा दे ला कोन्स्तितुसिओन से मैक्सिको के राष्ट्र-ध्वज के बीच के मार्ग पर नज़रें टिकाये हुए थे. प्रतीक्षारत लोगों की भीड़ में हमारे शामिल होने के बाद हम करीब आधे घंटे तक इन्तजार किये, जिसके दौरान हमने उस महिला से उस विशालकाय ध्वज के बारे में बहुत सी जानकारियां लीं. दरअसल यह ध्वज सन १९९९ में यहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति एर्नेस्तो सेदिय्यो द्वारा चलाये गए ‘बान्देरास मोन्यूमेंतालेस’ नामक राष्ट्रवादी कार्यक्रम का हिस्सा था. जिसके तहत देश के विभिन्न, और ऐतिहासिक महत्व की जगहों पर कम से कम ५० मीटर ऊंचे खम्भे के ऊपर कम से कम १४.३ मीटर चौड़ा तथा २५ मीटर लम्बा ध्वज लगाया जाता है. इस कार्यक्रम की देख-रेख मैक्सिको का रक्षा मंत्रालय करता है, तथा हरेक शाम में इन ध्वजों के उतारे जाने की प्रक्रिया देखने लायक होती है. छः बजते ही ‘प्लासा दे ला कोन्स्तितुसिओन’ की तरफ से जवानों की एक टुकड़ी नमूदार हुई, जिसकी अगवानी करने वाला शख्श कोई सेनाध्यक्ष या फिर आला अधिकारी रहा होगा. परेड करते हुए वे बान्देरा मोन्यूमेंताल के पास पहुंचे और सलामी देने के बाद ध्वज को उतारने की कोशिशें शुरू हुई. खम्भे के ठीक नीचे से कुछ जवान रस्सी के सहारे झंडे को नीचे की ओर खिसकाने लगे. साथ ही पचासों जवान झंडे की हवाई परिधि का अंदाज़ा लगाते हुए मैदान में इधर से उधर भागने लगे, इस एक कोशिश के साथ कि झंडा जमीन को न छू सके. सोकालो के ध्वज का खम्भा अंदाजन ७० मीटर से अधिक था, और लम्बाई और चौडाई का अनुपात भी कम से कम ४० गुणे १९ मीटर का रहा होगा. मौसम कितना भी शांत रहे, ७० मीटर की ऊंचाई पर हवा का प्रवाह इतना तो रहता ही है कि वह ध्वज के कपडे में ऊपर से विक्षोभ पैदा करता रहे, नतीज़तन पूरा ध्वज इधर से उधर तक लहराता हुआ नीचे आये. उस दिन हवा कुछ कम ही थी और लगभग १८-२० मिनट की जद्दोजहद के बाद एक सैनिक ने ध्वज का नीचे वाला खुला कोना पकड़ लिया. उसके बाद का काम अपेक्षाकृत आसान हो गया. बाकी सैनिकों ने ध्वज के उस किनारे से लेकर खम्भे तक कतार बना ली और उसे लपेटना शुरू कर दिया. पूरा ध्वज लपेट लेने के बाद वे परेड करते हुए वापस प्लासा दे ला कोंस्तितुसिओं की ओर जाने लगे, जैसे रंग-बिरंगे विशालकाय अजगर को काबू में कर, ले जाया जा रहा हो. इस परिघटना को हमारे साथ खड़ा हो देखने वाली युवती ने बताया कि आंधी तूफ़ान कुछ भी आता रहे, ये जवान ध्वज को हवा में ही पकड़ लेने में हर बार ही कामयाब रहते हैं. ‘अब अंधरा छाने वाला है’ की भंगिमा के साथ जाने की इज़ाज़त लेने से पहले उस युवती ने बताया कि ‘बान्देरास मोंयूमेंतालेस’ कार्यक्रम के अंतर्गत मैक्सिको का सबसे बड़ा ध्वज देश के पूर्वोत्तर में मोंतेर्री नाम की जगह पर लगाया जाता है, जिसके खम्भे की ऊंचाई १००.६ मीटर तथा ध्वज की लम्बाई एवं चौडाई क्रमशः ५० एवं २८.६ मीटर ठहरते हैं. उसके जाते जाते हमने उसका नाम पूछा, जो ‘लौला’ था. लौला हमारे सवाल के लिए आकस्मिक चयन में आ गयी एक युवती भर थी, मतलब उसकी जगह कोई और युवती या पुरुष भी हो सकता था. यूं, देश के एक आम, दुनियादार नागरिक के पास राष्ट्रीय महत्त्व की चीज़ों की इतनी बारीक समझ विस्मित करने वाली थी. भारत में ऐसी डिटेल्स की उम्मीद सरकारी नौकरियों की तैयारी करने वाले या कर चुके लोगों से ही की जा सकती है. और तो दूर, इसी मैक्सिको के सीमावर्ती और तथाकथित सबसे विकसित देश सं. रा. अमेरिका के बारे में पढ़े एक सर्वे के मुताबिक़ वहां के सात में से ४ युवा को यह भी नहीं पता कि अमेरिकी स्वतंत्रता से पहले वहां किस देश का शासन था? बहरहाल, मेरी इस बात का मतलब यह कहीं से नहीं है कि राष्ट्रवादी मूल्य कोई ज़रूरी चीज़ हैं.


आमिर ने तय किया कि वह मैक्सिको का सबसे बड़ा ध्वज देखने मोंतेर्री भी जाएगा, मैंने तय किया कि मैं नहीं जाऊँगा. बाद में हम देर तक खड़े और आसपास टहलते रहे. जब हमने होटल के लिए वापसी का मन बनाया, तब तक सोकालो का मुख्य चौक लोगों से लगभग खाली हो चुका था.

Sunday, December 22, 2013

ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ||

( युवा कथाकार श्रीकांत नौकरी के सिलसिलों में मैक्सिको सिटी गए हुए हैं. नई बात के आग्रह पर यह तय हुआ है कि हर हफ्ते, मैक्सिको से जुड़ा, वो एक न एक वृतांत भेजेंगे जो यात्रा / आत्म / अन्य संस्मरण से मिलता जुलता होगा. प्रस्तुत पहली किस्त में श्रीकांत मैक्सिको पहुँच रहे हैं, इसलिए आप पायेंगे कि नई दिशा में जाने की उत्कंठा है, यात्रा समाप्त होने के बाद की बेचैनी, उद्वेग है, आत्मगत खुशियाँ और शामिल मुश्किलें हैं. )

( ** पाठ शीर्षक, श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकांड की एक चौपाई है )




बहुत लोगों के लिए यात्राएँ रोजमर्रा की आम बातों की तरह होती हैं. विमान के भीतर का मेरा पड़ोस ऐसे ही लोगों से भरा था. यह जानने के लिए उनसे पूछताछ करने की ज़रुरत नहीं थी, एअरपोर्ट की सुरक्षा जांच से लेकर विमान में अपनी जगह पर बैठने तक के प्रक्रम में उनका सहज रहना देखकर ही इस बात का एहसास हो जाता था. ऐसे लोग कम ही थे जिनकी नज़र खिड़की पर ही चिपकी रहे. उन्हीं कम लोगों में से एक मैं भी था.

विमान ने जब हहराती रफ़्तार में भागते हुए उड़ान भरी, उस वक्त भारतीय समय के अनुसार भोर के साढ़े तीन बज रहे थे. दिल्ली शहर कुछ ही क्षणों में अन्धकार के समुद्र में तैर रही दीयों की थाल बन गया, और चंद मिनटों में ही कहीं पीछे छूट गया. आगे, हम हरियाणा और पंजाब की भूमि के ऊपर कहीं से गुजरते रहे, जहां से मैं यह उम्मीद लगाये बैठा था कि कहीं तो कुछ दिखेगा, रौशनी सरीखा. हरियाणा चूक गया तो पंजाब के हिस्से से सही, कोई शहर नहीं तो किसी कस्बे की सड़क के किनारे जलता कोई लैम्पपोस्ट या किसी उत्सवधर्मी गाँव से प्रकाश का एक छोटा सा गुच्छा ही सही. लेकिन हाथ लगी निराशा. इस पूरे दौर में मैं अपनी सीट से थोडा उचककर खिड़की के शीशे पर आँखें चिपकाए प्लेन के ठीक नीचे देखने की कोशिशों में तत्पर था. कुछ इस तरह, मानो बनारस, इलाहाबाद या लखनऊ शहर की किसी सघन बस्ती के मकान के चौथे माले पर रहने वाली लडकी खिड़की की ग्रिल पकड़कर ठीक नीचे खड़ी उस लड़के की साइकिल देख लेना चाह रही हो जो उसे पसंद करता है. बहरहाल, मेरी ऐसी तमाम कोशिशों से जो कुछ भी मुझे दीख रहा था वह महान अँधेरे को जरा सा धूमिल करती चाँदनी के बीच नीचे की ओर जाती अनंत गहराई की सुरंग थी. मुझे याद आया कि यह उन अनेक डरावने सपनों में से किसी एक का यथाचित्र है जिन्हें मैं बचपन में बहुतायत में देखा करता था. जिनमें रिक्तता के अनंत में अन्धकार के भीतर सनी अजीब सी आकृतियाँ हुआ करती थीं और जिनमें से किसी भी आकृति ने कभी भी जादू की छड़ी ली हुई जगमगाती परी का रूप नहीं लिया, जो मुझसे पूछे कि बोलो तुम्हें क्या चाहिए? यूं विमान के अन्दर होते हुए सपने के उस यथाचित्र से मुझे ऐसी कोई अपेक्षा नहीं थी, सिवाय इसके कि किसी शहर की कोई शिनाख्त मिल जाय.

इस बीच मेरे पडोसी सहयात्री ने सामने वाली सीट की खोल पर चिपकी एक डिजिटल स्क्रीन को चालू कर लिया, जिस पर कि पहले मेरा ध्यान नहीं गया था. इससे पहले मैंने विमान से कुछ अन्तःदेशीय यात्राएँ की थीं, लेकिन उनमें ऐसी तकनीक मुझे कतई नहीं मिली. मैंने जल्दी से उस स्क्रीन के फीचर्स की पड़ताल कर डाली और पाया कि उसमें अंग्रेजी और डच भाषा की फिल्मों और संगीत के अलावा विमान की वर्तमान अवस्थिति को बताने वाला रूट मैप भी है. मैं रूट मैप वाले स्क्रीन को चालू कर विमान की बढ़ती गति के सापेक्ष नीचे के भूगोल की कल्पनाएँ करने लगा. बीच बीच में उचककर खिड़की से परे भी देख ले रहा था. विमान की पचास प्रतिशत से अधिक की आबादी अपनी सीट्स पीछे की झुकाकर सो चुकी थी. जागने वालों में मेरे अतिरिक्त मेरे पडोसी सहयात्री भी थे. एक-आधी बार मेरी तरफ देख लेने के उनके अंदाज़ से जाहिर हो रहा था की मेरी हरकतें उनकी नजर में बचकानी हैं. ऐसा महसूस करने के बाद भी मुझे लगा कि इससे मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा. मैंने रूट मैप पर विमान के मार्ग से थोडा हटकर चिन्हित पेशावर शहर को देख जान लिया कि हम पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत की उत्तरी सीमा के आस पास से गुजरते हुए अफगानिस्तान की हवा में प्रवेश करने वाले हैं. इस भूखंड से मुझे वैसी कोई उम्मीद न रही, जैसी पीछे छूट रहे भारत और फिर लाहौर के आस-पास के पाकिस्तान वाले हिस्से से थी. अन्धेरा बदस्तूर कायम रहा. अफगानी आसमान में बादल न होने के कारण अँधेरे की सुरंग मानो और भी गहरी हो गयी हो. विमान जब काबुल शहर के बगल से गुजर रहा था तो अनायास अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमलों की याद आयी. आसमान के उसी हिस्से से, या हो सकता है कि ठीक उसी बिंदु से रेगिस्तानों में खरगोश और बकरियों की तरह छुप रहे लोगों पर गोले बरसाए गए हों, क्या पता कि धमाकों को चीरती हुई कोई चीख उस ऊंचाई तक भी पहुँची हो जहाँ से हम गुजर रहे थे.

अफगानिस्तान के बाद तुर्कमेनाबत नाम का शहर. वहाँ के भूगोल के बारे में कुछ न जानते हुए भी मैंने अनुमान कर लिया कि नीचे की जमीन तुर्कमेनिस्तान कहलाती होगी. एक जरा देर की दूरी के बाद उज्बेकिस्तान और फिर कजाकिस्तान. कजाकिस्तान का अंदाजा रूट मैप पर आक्ताऊ शहर के उल्लेख से लगा जिसके बारे में मैंने कहीं पढ़ रखा था कि वह कैस्पियन सागर के किनारे पर स्थित है. कैस्पियन सागर पार कर रूस की सीमा के ऊपर दाखिल होने तक हमने लगभग साढ़े तीन घंटे का सफ़र तय कर लिया था. मतलब भारतीय समय के अनुसार उस वक्त सुबह के सात बजे होंगे. मतलब भरपूर रौशनी वाली एक सुबह. लेकिन रूस का आसमान फिर भी काला, गहन काला. मतलब गोल पृथ्वी की परिधि का चक्कर काट रहे हमारे विमान के बहुत पीछे छूट रही सुबह, जो ताबड़तोड़ हमारी ओर बड़ी आ रही थी. इस तरह पृथ्वी के गोल होने की परिकल्पना को व्यवहार रूप में महसूस करना रोमांचक था. और यह सोचना भी कि सूरज हमारा पीछा कर हमें पकड़ पाने की कोशिशों में है और हम, फिर भी, उसकी पहुँच से घंटों दूर.

रूस की यूक्रेन से लगती सीमा के करीब पहुंचने पर किसी पुच्छल तारे की पूँछ की मानिंद धुंधली रोशनी वाला एक भूखंड दिखा, स्क्रीन उस जगह को मिलरोवो नाम दे रहा था. जाहिर तौर पर यह रूस का यूरोप में पड़ने वाला हिस्सा था. मेरे द्वारा तय किये गए पूरे तथा अपने आप में लगभग एक चौथाई एशिया को अँधेरे में देखने के बाद यूरोप में दाखिल होते ही रोशनी के दिख जाने ने मुझे इस बात को अपने कहे जाने वाले महाद्वीप की नियति के बारे में सोचने पर विवश कर दिया. यहाँ मुझे एशिया के प्रति पश्चिमी महाद्वीपों के उपेक्षापूर्ण बर्ताव से अधिक भारत समेत अपने पड़ोसी देशों की रूधिग्रस्त जीवन शैली पर अफ़सोस हो रहा था, जहाँ रात के समय को सक्रिय जीवन का हिस्सा शायद इस पूरी सदी में भी न माना जा सके. मुझे पूरा यकीन था की रात के अँधेरे के बचे हिस्से में अब मुझे ऐसी रौशनियाँ अब दिखती रहेंगी. यूक्रेन के बाद बेलारूस आया, और हर पंद्रह-बीस मिनट के अंतराल पर उजाले का कोई न कोई टिमटिमाता टुकड़ा दीखता रहा. पोलैंड की राजधानी वर्सा हमारी यात्रा के रात वाले हिस्से का सबसे रौशन पड़ाव रहा. रूट मैप के अनुसार वहाँ से उत्तर की दिशा में चेक गणराज्य का प्राग शहर था. प्राग शहर को मैं सिर्फ निर्मल वर्मा की वजह से जानता था. ‘वे दिन’ उपन्यास के भीतर रचा बसा प्राग मेरी दृष्टि सीमा से बस थोड़ी सी दूरी पर लोगों की आँखों में भोर की मीठी नींद भर रहा होगा. काश, एक झलक मिल जाती उसकी.

पोलैंड के सीमान्त तक पहुँचते पहुँचते क्षितिज के अँधेरे के बीच एक फांक भर लाली दिखने लगी. मतलब रात और दिन के बीच का वह समय जिसके लिए प्रसाद ने ‘अम्बर पनघट में डुबो रही तारा घाट उषा नागरी’ लिखा है. कुल मिलाकर अब हम सूरज की पकड़ से बस थोड़ी दूर थे. सामान्य परिस्थितियों में उसके बाद चीज़ों को उनके असली रंग का दिखलाने लायक सुबह होने में दस से पंद्रह मिनट का वक्त लगता. वैज्ञानिक गणना के अनुसार साढ़े आठ मिनट सूर्य की पहली किरण के पृथ्वी तक पहुँचने के लिए, बाकी के साढ़े सात मिनट बाकी किरणों के जगहों और चीज़ों के भीतर तक घुसकर अपनी जगह ले लेने के लिए. लेकिन आसमान में लाली अर्थात ऊषा के अवतरण के बाद, हमारे लिए सुबह होने में कम से कम एक घंटे का वक़्त लगा. अँधेरे और रौशनी की द्विविधा के बीच बर्लिन भी पीछे छूट गया. यूरोप की सतह पर उगी वनस्पतियाँ थोड़ी थोड़ी स्पष्ट होने लगीं. मैं कुर्सी की स्क्रीन से नज़र हटाकर वापस खिड़की पर चिपक गया. यूरोप नामक महाद्वीप ही खूबसूरत था या हर अजनबी आसमान से दिखने वाली पृथ्वी ऐसी ही खूबसूरत दिखती है, मुझे नहीं पता, पर मैं देखे जा रहा था. पायलट ने जिस वक्त एम्सटर्डम शहर के करीब आने का ऐलान किया तब तक यूरोप की सतह पर पक्की तौर पर सुबह उतर आई थी. विमान धीरे धीरे नीचे की ओर उतरने लगा. जिस ऊँचाई से पृथ्वी की सतह साफ़ दिखने लगी, मुझे दूर तक पानी ही पानी दिखाई दे रहा था. यह विशाल जलराशि नीदरलैंड के मानचित्र में अन्दर तक घुसे हुए उत्तरी सागर यानी नार्थ सी की थी, जिसके किनारे पर एम्सटर्डम बसा हुआ है. उत्तरी सागर से लगकर बहती एम्स्टेल नदी का चौड़ा पाट समुद्र को शहर में घुसता हुआ दिखा रहा था. एम्स्टेल नदी से फूटती अनेक नहरें एम्सटर्डम शहर के अंग-अंग पर गहने की तरह लिपटी हुई थीं. मैं पृथ्वी के इस खूबसूरत टुकड़े के सौन्दर्य पान में कुछ इस कदर मशगूल था कि अपने पडोसी द्वारा बोले एक छोटे से वाक्य पर ध्यान नहीं दे पाया. उन्हें दूसरी बार मुझसे पूछना पड़ा, ‘पहली बार पहुँच रहे हैं एम्सटर्डम?’ मैंने हाँ में जवाब देते हुए उनसे उन तमाम नहरों के बारे में पूछ डाला, उन्होंने ही बताया की एम्स्टेल नदी से निकली नहरे हैं तथा इस शहर का नाम ‘एम्स्टेल’ और ‘डैम’ (बाँध) से मिलकर एम्सटर्डम बना है. विमान ने जब धरती को छुआ तब उन्होंने बताया कि एम्सटर्डम शहर समुद्र तल से दो मीटर नीचे बसा है. यह मेरे लिए एक और चौंकाने वाले तथ्य था.  एम्सटर्डम के शिफोल एअरपोर्ट पर उतरने के वक्त वहां सुबह के साढ़े सात बजे थे और दिल्ली से वहां तक की यात्रा में हमें साढ़े सात ही घंटे भी लगे. एयरक्राफ्ट से उतरकर मै सीधा यूरोप की मिट्टी पर कदम रखना चाहता था, लेकिन विमान के दरवाज़े पर ही एक सुरंगनुमा मार्ग लगा दिया गया था, जिसमें चलकर हम एअरपोर्ट के अन्दर पहुँच गए.

विमान से उतरकर एअरपोर्ट में दाखिल होने पर फिर से एक सुरक्षा जांच. पर इसमें कोई ख़ास समय नहीं लगा, क्यूंकि सारे लोग सिर्फ दो-एक हैण्ड बैग्स के साथ ही थे. मुझे एम्सटर्डम में सात घंटों के लिए रुकना था, अगली उड़ान दिन में दो बजकर पैंतीस मिनट की थी. मैंने एअरपोर्ट की सीमा से बाहर निकल शहर को ताक आने की कोशिश की. सुरक्षा-कर्मियों ने यह कहे हुए मुझे बेरहमी से एअरपोर्ट में अन्दर की ओर वापस कर दिया कि मेरे पास शेनेगन वीसा नहीं है, जो कि यूरोपियन यूनियन के देशों में भ्रमण के लिए ज़रूरी था. मैं एअरपोर्ट के जिन-जिन कोनों में जा सकता था, वहाँ जाकर एम्सटर्डम की मिट्टी, वनस्पतियों, सड़कों और पहाड़ों को देखने की कोशिश करने लगा. ग्यारह बजे के आसपास मैंने महसूस किया कि मैंने पिछले तीस से अधिक घंटों से सोया नहीं हूँ और अब आँखें किसी भी तरह की विलक्षणता या सौन्दर्य को जज़्ब कर पाने में असमर्थ हो रही हैं. मैं विश्राम कक्ष की कुर्सी पर बैठे बैठे सो गया. दो बजे तो जेब में रखे मोबाइल का अलार्म गुनगुना उठा. लोग मैक्सिको सिटी की उड़ान के लिए जुटने लगे थे. थोड़ी देर बाद विमान की तरफ प्रस्थान करने की घोषणा हुई और मैं पंक्ति में पहला हुआ उधर जाने वाला.

आगे की यात्रा के लिए विमान में बैठते हुए मैं अंतर्राष्ट्रीय नियमों के प्रति गहरा गुस्सा महसूस कर रहा था, जिनकी वजह से मैं शिफोल एअरपोर्ट में कैदी बनकर रह जाने के अलावा यूरोप की मिट्टी तक से भी दीदार नहीं कर पाया था. विमान के भीतर मेरे आस पास से लेकर दूर तक अपनी अपनी सीट्स ले रहे लोगों को देख, उनकी भाषा आदि सुनते हुए पहली बार मेरे जेहन में ‘विदेश’ जैसा ख्याल आया. सारी घोषणाएं पहले स्पैनिश, फिर डच और आखिर में अंग्रेजी में होनी शुरू हो गईं. दिल्ली से एम्सटर्डम के बीच भाषा के विकल्पों में हिन्दी भी थी. हालांकि मुझे ठीक ठाक अंग्रेजी के साथ काम चलाऊं स्पैनिश भी आती थी, लेकिन फिर भी इतने सारे दिन हिन्दी के बिना गुजारने की कल्पना ने मुझे असहज सा कर दिया था. हिंदी के बाद की अगली करीबी भाषा मेरे लिए अंग्रेजी ही थी. मैंने सोच लिया की जहां तक चलेगा, आगे अंग्रेजी ही बोलूँगा. मैं एयर होस्टेस से पानी मांगने से लेकर बाथरूम तक जाने के लिए पडोसी सहयात्री से थोड़ी सी जगह गुहार तक के लिए भी अंग्रेजी का इस्तेमाल करता रहा. उड़ान भरने के बाद जल्द ही हमने यूरोप के शेष भूखंड, यानी इंग्लैंड और आयरलैंड को पार कर लिया और उत्तरी अटलांटिक महासागर के मुख्य प्रवाह के ऊपर आ गए. अटलांटिक के बारे में मैंने सुन और पढ़ रखा था कि यह सबसे अधिक अशांत और उग्र महासागर है. कैटरीना, वेंडी और ऐसे अनेक नामों वाले सबसे उपद्रवी तूफ़ान इसी महासागर की कोख से उठते रहे हैं. अनेकों पनडुब्बियों तथा जहाज़ों को निगल लेने वाला ‘डेविल्स’ अथवा ‘बरमूडा ट्रायंगल’ इसी अटलांटिक का एक हिस्सा है. तथा कुछ ही वर्षों पहले ब्राजील से फ्रांस जाने वाले एयर फ्रांस के विमान को इसी अटलांटिक के आसमान और फिर पानी ने मिलकर लील लिया था. जाहिर तौर पर इन सभी तथ्यों के मष्तिष्क में प्रकाशित रख यात्रा करते हुए मैं अटलांटिक से डरा हुआ था, और चाहता था कि कुछ और लम्बी दूरी की शर्त पर ही सही लेकिन हमारा विमान और अधिक उत्तर की ओर जाते हुए ग्रीनलैंड के ऊपर के आसमान में उड़े. दिन की भरपूर रौशनी हमारे साथ थी और ऊपर से देखने पर बादलों की झीनी परत के हस्तक्षेप के बीच से सिर्फ नीले रंग की सतह दिख रही थी. बीच बीच में कुछ द्वीप भी आते रहे, जिनके बारे में विमान के रूट मैप में भी कोई ज़िक्र नहीं होता था, और समुद्र और उनके बीच में पड़े विशालकाय चट्टान और भूखंड धूप में नहाते हुए बेहद खूबसूरत दीखते रहे. सूर्य और हमारे बीच का खेल दिल्ली से एम्सटर्डम की यात्रा के दौरान चले खेल के विपरीत चलने लगा. मतलब इस बार आगे आगे सूर्य और पीछे पीछे हम. सूर्य की कोशिश की वह जल्दी से पश्चिम की ओर बढ़कर शाम और रात करे, और हम भी उसी की तर्ज पर पश्चिम की ओर बढ़ते जाते हुए. मेरे लिए दहशतनाक अटलांटिक को पार कर जब हम कनाडा के आसमान में दाखिल हुए, उस वक़्त का सूरज लगभग साढ़े चार बजे वाला रंग दिखा रहा था. हम न्यू ब्रून्स्वीक शहर, यानी कनाडा के सीमा में जरा सा घुसने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यू हैम्पशायर और न्यूयार्क के ऊपर उड़ने लगे. वर्जीनिया, टेनेसी और अल्बामा प्रान्तों को बारी बारी से पीछे छोड़ते हुए हम एक बार फिर से बदनाम अटलांटिक के उस हिस्से के आसमान में दाखिल हुए जिसे मैक्सिको की खाड़ी के नाम से जाना जाता है. यहाँ तक पहुँचते पहुँचते सूरज फिर से हमसे जीतने लगा और आसमान कैरेबियाई शाम के लिए लाल रंग पहनने लगी. इससे आगे के भूगोल के बारे में मुझे कुछ ख़ास नहीं पता था. आखिर के तकरीबन एक घंटे का सफ़र ‘जल्दी से मैक्सिको सिटी’ आ जाने की मानसिक गुहार, ऊब और ढेर सारी थकान के बीच बीती. शाम के बाद रात का अँधेरा छाने लगा, और पता ही नहीं चला की समुद्र का हिस्सा कब बीत गया. मैक्सिको की धरती का जो हिस्सा सबसे पहले हमारे नीचे आया वह वेराक्रूस नाम का प्रान्त था. वहां से मैक्सिको सिटी की यात्रा में अधिक से अधिक बीस मिनट लगे. विमान के जमीन छूने से ठीक पहले के दृश्य से यह स्पष्ट था कि मैक्सिको सिटी काफी विस्तृत क्षेत्र में बसा एक घनी आबादी वाला शहर है.

एम्सटर्डम से मेक्सिको सिटी तक की यात्रा कुल ग्यारह घंटे और चालीस मिनट की थी. मैक्सिको की जमीन पर कदम रखने के वक़्त थकान और ऊब से भरे मेरे जिस्म में नए देश या शहर के प्रति किसी भी तरह की उत्सुकता के लिए जगह नहीं बची थी. मैं जल्दी से यात्रा शब्द तक सी पीछा छुड़ाकर खुद को एक लम्बी नींद के हवाले कर देना चाहता था. विमान से बाहर आकर एअरपोर्ट के अन्दर घुसते ही मैं और लोगों की तरह दिल्ली में बिछड़े अपने दोनों बैग्स पा लेने के लिए लगेज क्लेम की ओर भागा. कुछ ही मिनटों में मेरे बैग मेरे सामने आ गए जिन्हें उठाकर मुझे लगा की बस अब एक टैक्सी मिले और मुझे किसी तरह होटल पहुंचा दे. लेकिन सहयात्रियों की देखा देखी आगे बढ़ते हुए फिर एक बार सुरक्षा जांच की प्रक्रिया सामने आ गयी. जिसमें नीली वर्दी पहने एक पुलिस महिला कतार में बढ़ रहे हम विदेशियों का स्वागत एक लम्बी डोर से बंधे कुत्ते से करती जा रही थी. डोर का दूसरा सिरा उस महिला के हाथ में था तथा कुत्ता उसके पूरे दायरे में घूम घूमकर यदृच्छया किसी के भी शरीर से लेकर सामन तक को सूंघता जा रहा था. जिस किसी के पास वह कुछ देर के लिए ठहर जाता, पुलिस महिला दूर खड़े अपने साथियों की तरफ इशारा कर उस शख्स की विधिवत तलाशी का निर्देश दे देती. कुत्ते ने बदस्तूर मेरा भी स्वागत किया, लेकिन जल्द ही दूसरे यात्री के सामान की ओर बढ़ गया. प्रत्येक विदेशी के साथ किया जाने वाला यह शंशय का व्यवहार निहायत अपमानजनक था. बात सिर्फ इतने तक नहीं थी. कुत्ते के बर्ताव से बचे लोगों को एक आगे एक अलग कतार में जाना पड़ता. कुत्ता जिन्हें तलाशी के लिए पृथक कर देता, वो वहीं से विधिवत तलाशी वाले काउंटर की तरफ बढ़ जाते. और बचे लोग उस दूसरी कतार में, जिसके अन्त में रखी एक मशीन में लगी कांच की सतह को उन्हें अपनी तर्जनी से छूना पड़ता. छूने पर यदि लाल बत्ती जल जाए तो यात्री को वापस विधिवत तलाशी वाले काउंटर की तरफ जाना पड़ता, और अगर हरी बत्ती जल जाए तो उसी बिंदु से आगे पूरा मैक्सिको आपका. लाल और हरी बत्ती की इस प्रक्रिया का तर्क मुझे कुछ कुछ लाई डिटेक्टर यानी झूठ पकड़ने वाली मशीन पर आधारित लगा. मतलब वह शायद अपने दायरे के अन्दर आने वाले व्यक्ति की धडकनों की रफ़्तार के आधार पर लाल या हरा रंग दिखाती होगी और कांच की सतह को छूना उसे सक्रिय करने के लिए होता होगा. मुझे चूंकि इसकी कोई खबर नहीं थी कि सामान के अन्दर ऐसी कौन सी चीज़ें होती होंगी जिन्हें ये आपत्तिजनक मानते हैं, इसलिए मेरी धडकनें औसत और संयत थीं, मुझे यकीन था की मेरे हिस्से में हरा रंग ही आएगा. लेकिन हुआ इसका उल्टा. लाल बत्ती जल गयी. मैंने सोच लिया कि मैं लाल और हरे रंग के पीछे के तर्क को अब जानकार ही रहूँगा. मुझे स्पैनिश भाषा आती थी, फिर भी मैंने इस बात से जुड़ा सवाल अंग्रेजी में पूछा. मुझे उत्तर मिला कि मशीन की प्रोग्रामिंग ऐसी है की यह किसी को भी लाल और किसी को भी हरा रंग दे सकता है. यह सुनते ही मुझे भारतेंदु हरिश्चंद के ‘अंधेर नगरी’ की याद आयी और मैं इस देश में अपने प्रवास की सोचकर सशंकित हो उठा. बहरहाल, मैं विधिवत तलाशी देने पहुंचा. शरीर की तलाशी चंद सेकेंड्स में पूरी हो गयी, लेकिन बैग जो खुला तो तलाशी लेने वाली महिला का चेहरा मानो अचानक ही चमक उठा. उसने एक एक कर मेरे दोनों बैग्स से दालें, चावल, चने, मूंग और सोयाबीन समेत कम से कम दसियों थैलियाँ निकलकर अलग कर दीं. जो कुछ उसने छोड़ा उनमें छोटे सामानों के अलावा कुछ कपडे, किताबें, एक डिब्बा अचार के अलावा माँ की ढेर सारी दुआएं. मैंने एक झटके में अपने देर से रुके गुस्से को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से बाहर कर दिया. लेकिन जांच अधिकारी को अंग्रेजी नहीं आती थी. फिर गुस्से का अनुवाद स्पैनिश में कर देने से पहले ही मुझे ख्याल आ गया की उसके पास मुझे एअरपोर्ट से ही बैरंग वापस भेज देने के सारे अधिकार सुरक्षित हैं, इसलिए स्पैनिश भाषा में मेरा तापमान कम ही रहा. मेरी बात के ज़वाब में उस अधिकारी ने कहा कि वे प्लेग के डर से किसी भी तरह के अनाज को बाहर से देश के अन्दर आने नहीं देते. मुझे यह सफाई कतई अपर्याप्त और असंतोषजनक लगी, मैं विदेशों से हो रहे हज़ारों टन अनाज के आयात-निर्यात के बारे में सोचा, लेकिन चुप ही रहा. बैग्स में बचे सामान और मुंह में ढेर सारी कडवाहट लिए मैं एअरपोर्ट से बाहर और लिखे हुए के आधार पर टैक्सी स्टैंड तक पहुँच गया. एक टैक्सी चालक ने मेरे होटल का पता पूछा और सामान उठाकर रख लिए. होटल पहुंचकर एक बार मैंने खाने के बारे में सोचा, फ़ूड मेन्यू उठाकर देखा और फिर रख दिया. मेन्यू के अन्दर सबसे अधिक शाकाहारी चीज़ ‘आरोस कोन पोय्यो’ यानी चिकेन के साथ चावल इसलिए थी की उसमें शाकाहार के नाम पर कम से कम चावल था. मैंने तय किया कि इस बात का फैसला कल करूँगा कि मैं और कितने समय तक शाकाहारी रह सकता हूँ और बिना खाए जैसे तैसे सो गया.

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श्रीकांत से सम्पर्क: bestshrikant@gmail.com

Saturday, October 5, 2013

राहुल द्रविड़ : कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था.

पिछले मैच में हर्ष भोगले ने जब राहुल द्रविड़ को क्रीज पर देखा तो सारे शोर-ओ-गुल के बीच एक बात कही - देख लीजिए इन्हें, जितनी देर देख सकते हैं. जो क्रिकेट को प्यार करने वाले हैं उनके लिए एक दर्दीली बात है यह. राहुल द्रविड़ अपने क्रिकेट जीवन के आखिरी कुछ मैच खेल रहे हैं. रविवार को वो अपने जीवन का अंतिम आधिकारिक मैच खेलेंगे.

पिछले ( ओटागो वोल्ट्स ) की तरह आज के मैच ( चेन्नई सुपरकिंग्स - सेमीफाईनल ) में भी मन सहमा हुआ था कि यही कहीं आखिर मैच न साबित हो. पर आज की जीत से एकगुनी खुशी बढ़ी. राहुल को खेलते देखना ऐसा है जैसे आपके मन की कोई सुन्दर साध कोई दूसरा पूरी कर रहा हो. 
  
कैशोर्य-दिनों में हम सब के बीच कई खेमें बँटे थे. उनमें से एक यह था - सचिन बनाम राहुल. यह आभास दोस्तों के इस दुनिया में बिखर जाने के बाद हुआ कि दरअसल हम सब एक साथ इन तीनों को पसन्द करते थे - राहुल, सचिन और वी.वी.एस. ( क्रिकेट अपने समूचेपन में एक व्यवसाय, शक्ति-संतुलन, राजनीति का अड्डा है या रहा होगा और इसलिए भी जो इसके भीतर के कुछेक हिस्से सिर्फ खेल के नाते पसन्द करते हैं, उन्हें खेल और खेल की राजनीति को एक ही बताया जाना अनबूझ लगता है. वो खेल की कला और पूँजी की कला में फर्क जानते हैं पर स्थूल तर्कों के आगे अपनी ही प्रतिक्रिया समझ नहीं पाते. )

खेल को देशों की लड़ाई के बतौर देखना मुझे कभी पसन्द नहीं रहा. क्लब-क्रिकेट का सलीका बेहतर जान पड़ता है. विश्व कपों की हिस्टीरिया के आगे हो सकता है क्लब क्रिकेट की ट्रॉफी अखबारी मानसिकता का इतिहास न झेल पाए, पर राहुल द्र्विड़ ( शेन वॉर्न के बाद) ने शिद्दत से राजस्थान रॉयल्स को एक बेहतरीन टीम बनाया है. आज के मैचोपरांत वक्तव्य में प्रवीण ताम्बे ने राहुल के प्रति कृतज्ञता जताई. ताम्बे भावुक हो गए थे और इधर मैं भी. 

चौतरफा यह बात फैली है, इक्तालीस वर्ष की उम्र में प्रवीण को पहचान मिली है. सब बातों के बीच बेचारगी का एक पुट है पर जब राहुल से यह सवाल मंजरकेर ने किया तो राहुल का जवाब अनूठा था: उसने पिछले बीस सालों से हर तरह की गेंदबाजी की है और मुझे उस पर पहले ही दिन से भरोसा है. ताम्बे ही नहीं राहुल ने जो नए विश्वसनीय चेहरे इस क्लब क्रिकेट के जरिए हमें दिखाए उनमें संजू सैम्सन और राहुल शुक्ला हैं. 

वैसे द्रविड़ पर उम्र का दवाब दिख जा रहा है. उनका बैट देरी से नीचे आ रहा है और जिस अन्दाज में उनका विकेट जा रहा है उसे देख कर लगता है, दीवाल छिद गई है. फिर भी मेरी तमन्ना है कि रविवार का मैच राजस्थान रॉयल्स ही जीते. राहुल उस दिन बोल्ड न हों. मेरे पास समय हो. मैं आठ से ग्यारह के बीच किसी 'मेल' में न उलझूँ और उस दिन अपने इस अतिप्रिय खिलाड़ी को आखिरी बार आधिकारिक मैच खेलते हुए देखूँ. आमीन.      

Saturday, August 31, 2013

रविवार : उदय प्रकाश और महेश वर्मा

ख्यातिलब्ध कवि और कथाकार उदय प्रकाश ने महत्वपूर्ण कवि महेश वर्मा की कविता 'रविवार' का अंग्रेजी तर्जुमा किया है. उदय के मार्फत महेश की कविता बृहद पाठक संसार तक पहुँची है. उदय प्रकाश ने अनुवाद के साथ साथ महेश की कविताओं पर एक सुचिंतित टीप भी लिखी है. उदय प्रकाश जी की यह टीप और तर्जुमा देखकर, कहना न होगा कि, केदारनाथ सिंह की वह कविता याद आ रही है: ली पै और तू फू ( शीर्षक स्मृति आधारित ). मौके दर मौके उदय प्रकाश अपने प्रयासों से अनुज कवियों के प्रति अपनी यह जवाबदारी निभाते रहते हैं.
 
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उदय प्रकाश की टिप्पणी:  इन दिनों बहुत कम ऐसी कवितायेँ पढी हैं . ये चलन और शोर से कुछ दूरी बनाती हुईं , मद्धिम आवाज़ में किसी 'सालिलाक्विस ' जैसी, अपने आप से/ को संबोधित होतीं कवितायेँ हैं . जब हिंदी में समकालीनता को बनाती हुई बहुत सी कवितायेँ हर रोज़ आ रही हैं , आभासी और उससे बाहर कागज़ी दुनिया में ..और ..जैसे कोई हर रोज़ कविता-सम्मेलन हो रहा हो ....तब महेश वर्मा की ये कवितायेँ (और उनकी पहले की भी कई कवितायेँ ) कुछ इस तरह हैं, जैसे किसी तेज़ आर्क्रेस्ट्रा के बीच सितार या किसी दूसरे तार-वाद्य का फकत एक तार बहुत संभाल कर, निहायत धीरे से छेड़ रहा हो. मन्द्र सुरों में शोर के बाच अपनी अलग जगह और व्यक्तित्व बनाती कवितायेँ . भाषा में यह भी संभव है का भरोसा एक बार फिर सौंपती कवितायेँ . बधाई . ( कविताएँ यहाँ

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रविवार

रविवार को देवता अलसाते हैं गुनगुनी धूप में
अपने प्रासाद के ताखे पर वे छोड़ आये हैं आज
अपनी तनी हुई भृकुटी और जटिल दंड विधान

नींद में मुस्कुराती किशोरी की तरह अपने मोद में है दीवार घड़ी 

खुशी में चहचहा रही है घास और
चाय की प्याली ने छोड़ दी है अपनी गंभीर मुखमुद्रा

कोई आवारा पहिया लुढ़कता चला जा रहा है
वादियों की ढलुआ पगडण्डी पर

यह खरगोश है आपकी प्रेमिका की याद नहीं
जो दिखा था, ओझल हो गया रहस्यमय झाडियों में

यह कविता का दिन है गद्य के सप्ताह में

हम अपनी थकान को बहने देंगे एड़ियों से बाहर
नींद में फैलते खून की तरह

हम चाहेंगे एक धुला हुआ कुर्ता पायजामा
और थोड़ी सी मौत
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Sunday

( Translated by Uday Prakash

Angels chill out under warm sun
They have abandoned their avenging souls and byzantine judicial laws
In their holy palaces

The wall clock is dropped deep in
Smile of a girl
In a bliss

Grass is tweeting and
The tea cup rejects its mask of
Sombreness and profound intellectualism

A wheel
An urchin wheel
Spins downwards in a stunning landscape

It was just a rabbit
Vanished behind bush
Obviously, it was not the memory of your
Mislaid girl friend

Sunday is a day for poetry
In a prosaic week

We’d let our collapse flow out through our ankles
As blood flows through our sleeps

We would wish to wear a
Freshly rinsed Kurta and pyjama

And a petty death... 

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Monday, July 29, 2013

गहरे अर्थों में देखे तब कैम्पस का जीवन सामाजिक जीवन का एंटीडोट होता है : राकेश मिश्र, अपने साक्षात्कार में.

राकेश का यह साक्षात्कार बजरिये सुनील हुआ है. जनपक्ष में पूर्व प्रकाशित इस बातचीत को सुनील ने कहानी, आधुनिक समय, लेखक की दुनिया, आलोचना, राजनीति आदि के इर्द-गिर्द रखा है. राकेश की कहानियाँ भी, वैसे तो, इन प्रश्नों के उत्तर अपनी कहानियों में देते रहे हैं पर यहाँ वो 'दिल को लगती है तेरी बात खरी शायद' को अपनी समझ से मूर्त करते हैं.       

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 सुनील: युवा लेखन का यह दौर भले ही किसी चर्चित आंदोलन की उपज नहीं रहा है लेकिन इसका जैसा उभार हुआ है और समकालीन रचनाक्रम में हस्तक्षेप बढ़ा है उससे आपको क्या ऐसा लगता है कि इसके अंतस  में कहीं कोई आंदोलन है ?

राकेश: कोर्इ भी लेखन का दौर किसी खास सामाजिक राजनैतिक स्थितियों की ही उपज होता है। यदि राजनैतिक स्थिति पर देखें तो सोवियत संघ का विघटन इस पीढी के लिए रिमार्केबल घटना है। परिघटना ने राजनैतिक रूप से सचेतनता की परिभाषा बदल दी। असिमता परक आन्दोलनों का उभार हुआ और नवसामाजिक आन्दोलन के नाम से एक राजनीतिक प्रक्रिया का भी जन्म हुआ। वर्ग, जाति और जेन्डर के पुराने मापदण्ड और प्रतिबद्धताएँ टूटी और उसकी जगह समाज को देखने समझने की एक भिन्न दृष्टि सामने आयी जिसमें यथार्थ के इकहरेपन से मुक्ति का स्वर ज्यादा है। यह जो नर्इ पीढी है, अपने समय के यथार्थ को ज्यादा जटिल तरीके से अभिव्यक्त कर पा रही है क्योंकि समय का यथार्थ भी जटिलतर हुआ।

२  सुनील:  नई कहानी के टीकाकारो ने कहा कि नई कहानी आंदोलन की उपज में पूर्ववर्ती कथा लेखन का विरोध रहा है. युवा लेखन के इस प्रबल हस्तक्षेप में भी ऐसी कोई बात रही है ?

राकेश: विरोध से ज्यादा महत्व पूर्ववर्ती कथा लेखन को समझ कर उसे आगे बढाने में है। ऊपर हम जिस राजनीतिक परिदृश्य की बात कर रहे थे उसका असर हमारे पूर्ववर्ती कथाकारों के लेखन में दिखार्इ देना शुरू हो जाता है। यदि कहीं कोर्इ विरोध है भी वह यथार्थ के समझने के नजरियें में है जैसे- सूचना हमारे समय का एक बड़ा यथार्थ है और इस नए यथार्थ के कारण हमारे वैयक्तिक और सामाजिक सम्बन्धों में हमारी भाषा में एक उल्लेखनीय बदलाव हुआ। इस यथार्थ को नही समझ पाने के कारण जो लोग इस पीढी को फैसनेबल और बाजार समर्थक कहते हैं उनसे हमारा विरोध है और मैं यह मानता हूँ कि यह विरोध जायज है।

३  सुनील जैसा कि होता आया है हर काल खंड में एक नया लेखन उभर कर आता है तो पहले प्रश्नांकित किया जाता है फिर आरोप लगते हैं. आपके पीढ़ी के साथ भी यहीं हुआ. कहा गया कि नई कहानी की नकल है, कि इनमें मँजी हुई जीवन दृष्टि का अभाव है, कि ये लोग बाल की खाल निकालने तक विषय उधेड़ रहे है और फैशनेबल प्रस्तुति कर के कथ्य को खा जा रहे है. बात यहाँ तक भी आ गई कि यह पीढ़ी उदय प्रकाश के हस्तमैथुन का परिणाम है. इस परिप्रेक्ष्य में अपने और अपने पीढी के कथा संसार के बारे में क्या कहना चाहेंगे ?

राकेश: ये आरोप तो तमाम कथा पीढियों पर लगते रहे हैं क्योंकि यह मानव समाज की विशेषता है कि वह नयेपन को जल्दी बर्दाश्त नहीं कर पाता। हमारी पीढ़ी के साथ थोड़ा अजीब इस मामलें में हुआ कि पहले तो तमाम लोगों ने इस हाथों-हाथ लिया। बहुत दिनों तक इसका श्रेय भी लेने की कोशिश करते रहे कि हमनें इस पीढी को पहचाना और बढाया लेकिन उन्होंने जैसे यह महसूस करना शुरू किया कि इस पीढी के सरोकार उनसे जुदा हैं और बढे हुए हैं और यह भी कि इनका एक अपना स्वयं का पाठक वर्ग तैयार हो रहा है। इन पहलुओं को समझने के लिए आलोचकों को अपने पुराने मापदण्ड बदलने पड़ रहे है, तब उन्होनें इसे खारिज करने की कवायदे शुरू की, लेकिन जल्द ही उनके फतवे बेचारे अर्थहीन और हास्यास्पद हो गए क्योंकि यह पीढ़ी किसी के आशीर्वाद और शुभेच्छाओं से नहीं बलिक बदलते यथार्थ के गहरे दबाव से निकली थी।
       
   सुनीलपूर्ववर्ती कथा लेखन में स्त्री को बचाने की, उसे आदर देने की बात होती रही है लेकिन इस दौर के लेखन में स्त्री खलनायिका बन कर भी उभरी है क्या यह सच में आज का यथार्थ है, स्त्री की पहचान या फिर भ्रम की स्थिति ?

राकेश: यह तो आज सभी मानेंगे कि स्त्री को बचाने और आदर देने की कोशिशें किन्हीं अर्थो में स्त्री के प्रति अन्याय और छल ही है। सही दृषिटकोण तो बदलते सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में स्त्री के व्यक्तित्व में आए परिवर्तन को समझने का है। यहाँ उसके नायिका या खलनायिका होने का सवाल नहीं है और न ही किसी के नायक या खलनायक होने का है। जिस जटिल यथार्थ की बात ऊपर हम कर चुके हैं, हमारे समय की कहानियों में आए पात्र उस जटिलता के प्रतिबिम्ब है, स्त्री की या अन्य किसी अस्मितावादी छवि को उसके महिमा मंडित आवरण में गढ़ना एक रचनात्मक छल है।

सुनीलहर दौर के लेखन में कोई खास आग्रह एक प्रवृति की तरफ ले जाता है, किसी दौर में अगर ना भी ले गया हो तो खास प्रवृति की तरफ इशारा तो करता ही है इस दौर के लेखन में कोई खास आग्रह है ? लेखन की गतीशीलता के लिए कोई भी आग्रह कितना सही होता है ?

राकेश: आग्रह तो होता ही है और हर समय में यह अपने समय के सच को समझने का होता है। हमारी पीढ़ी में भी यह आग्रह है और यदि इसे प्रवृत्ति कहना चाहे तो जटिलता इसकी प्रवृत्ति है। लेकिन यह जटिलता साग्रह नहीं है बलिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने का सबसे मौजूद तरीका है।

सुनील स्वांत: सुखाय ,कला कला के लिए, वैयक्तिक स्वतंत्रता और सरोकार युक्त लेखन मोटे तौर पर ये कुछ प्रकिया है जिसके तहत कोई रचनाकार अपनी बात कहता है ? आपको इन प्रक्रियाओं में कही कोई विरोध नजर आता है ? या फिर इन प्रक्रियाओं में कौन सी प्रक्रिया सबसे विश्वसनीय नजर आती है. आप और आपकी पीढी इनमें से किस प्रक्रिया के जरिए अपनी बात कह रही है ?

राकेश: कला, कला के लिए तो एक मनुष्यता विरोधी अवधारणा है। कोर्इ भी कला या साहित्य समाज का ही प्रतिबिम्ब होता है और उसका उदेश्य भी समाज को कुछ सार्थक प्रतिदान देने में ही निहित है। स्वांत: सुखाय भी मॉडेस्ट किस्म का छलावा है। सरोकार युक्त लेखन भी अपने पुराने सन्दर्भो में एक पिछड़ी विवेचना है क्योंकि हम सायास किसी घटना या पात्र को अपनी सदाशयता के हिसाब से खड़ा कर देते हैं। मुख्य बात है कि हमारे समय के तेजी से बदलते हुए यथार्थ को समझना उसके ‘डीप नैरेशन’ को सामने लाना और यदि यह कोशिश हम र्इमानदारी से करते हैं तो सरोकार अपने आप स्पष्ट हो जाते हैं।

सुनील:   शुरू में आप की पीढ़ी के बारे में यह भी कहा गया कि यह पीढ़ी राजनीतिक रूप से उतनी सचेत नहीं है ? अगर बात सही है तो क्या ऐसा होने में देश के अंदर जो राजनीतिक शून्यता की स्थिति है उसका परिणाम है या राजनीति इस पीढ़ी के लिए कोई मायने नहीं रखता ? राजनीति की बात उठी है तो यहाँ इस बात पर गौर करना वाजिब होगा कि जे.पी आंदोलन के बाद अन्ना हजारे और केजरीवाल ने राजनीतिक शून्यता को भरने की कोशिश की है ? आप इस बात से कितना इत्तेफाक रखते है ? इस आंदोलन से क्या इस दौर का लेखन अपनी किसी खास राजनीतिक विचारधारा के लिए ललाइत होगा या इसे जेनरल तरीके से लिया जाएगा ?

राकेश: राजनीति से तात्पर्य यदि हमारे देश के भीतर विभिन्न राजनीतिक दलों के उठा-पटक से है या अन्ना हजारे, केजरीवाल जैसे राजनीतिक बुलबुलों से है तो यह समझना चाहिए कि यह पीढी ज्यादा सचेत और सक्षम-दृष्टि सम्पन्न है क्योंकि समूचा विश्व जिस तरीके से एकध्रुवीय हुआ है, बाज़ार की विकल्पहीनता का ऐसा शोर उठा है, साभ्यतिक संघषो का ऐसा छदम वातावरण निर्मित हुआ है, राष्ट्र-राज्यों और उसके नागरिकों के बीच उसकी खार्इ इतनी तेज हुर्इ है और यह सब कुछ इन दस से पंद्रह सालों मे इतनी तेजी से हुआ कि इसे समझ पाना किसी गहरे राजनीतिक दृष्टि से ही सम्भव है। यह दृषिट हमारी पीढी के पास है। इसलिए अब यह आरोप लगाने वाले इन कहानियों की पुर्नव्याख्या में लगे हैं और कहीं न कहीं मानने भी लगे हैं कि इन पुराने तौर-तरीकों को बदलने होंगे।

सुनीलआपकी की कहानियों की बात की जाय तो आप पर बार-बार खुद को दोहराने के आरोप लगे है कि आप कैंपस बैकग्राउंड की प्रेम कहानियाँ लिखते है, कि कहानियों में त्रिकोण प्रेम की  स्थिति बनी रहती है, कि आप के चरित्र उच्च शिक्षा से आते है आदी. क्या यह आरोप सही है या आपको ठीक से देखा नहीं गया है और यह कहने के लिए कहा गया है ? क्योंकि लालबहादुर का इंजन, गाँधी लड़की, आंबेडकर हॉस्टल और अभी तद्भ्व में हालिया प्रकाशित कहानी राज्य परिवार और संपति में उपर्युत आरोपों से इतर बात है. लेकिन एक बात तो सही है कि आप ने कैंपस बैकग्राउंड में अपेक्षाकृत ज्यादा प्रेम कहानियाँ लिखी है. क्या यह आपकी कोशिश सयास है ? किस नजरिए से आप इसे पूरे परिप्रेक्ष्य को देखते हैं ?

राकेश: कैंपस का यथार्थ भी कोर्इ इकहरा यथार्थ नहीं होता। गहरे अर्थों में देखें तो कैंपस का जीवन सामाजिक जीवन का एंटीडोट होता है। केवल कैंपस का जिक्र आ जाने भर से वह कैंपस यथार्थ की कहानी नहीं हो जाती या दो-तीन कहानियों में कैंपस आ जाने से वह दोहराव नहीं हो जाता है। क्या हम गाँव की कर्इ कहानी लिखने वाले कहानीकार को ग्रामीण यथार्थ के दोहराव का कहानीकार कहते है। मेरा अधिकांश जीवन कैंपस में बीता है और जिस पेशे में मैं हूँ और उसमें सम्भवत: बीतेगा भी। इसलिए यह लाजमी है कि मेरी कुछ कहानियों में कैंपस का जिक्र प्रमाणिकता से आयेगा। यह सयास नहीं है लेकिन जिस यथार्थ से आप सबसे ज्यादा परिचित होते हैं उसका चित्रण तो आपकी कहानियों में होता ही है। अभी मै और भी कैंपस आधारित कहानियाँ लिखूँगा क्योंकि मुझे लगता है कि इस यथार्थ को समाज के बाहर के एक यथार्थ के रूप में देखने की जरूरत है।

सुनील आत्मानुभूति, स्वानुभूति, सहानुभूति, और प्रमाणिकता ये ऐसे आधार है जहाँ से कोई रचनाकार अपने रचना श्रोत को देखने की कोशिश करता है आप इनमें से किस पर अपना हाथ रखते है ?

राकेश: ये कोर्इ अलग-अलग चीजें नही हैै या इन में कोर्इ आत्यांतिक परस्पर विरोध भी नहीं है। आप जब कोर्इ कहानी सोचते हैं तो उस कहानी की बहुत पतली महीन लकीर आपके सामने होती है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है वैसे-वैसे आपकी इन तमाम प्रक्रियाओें में सच आपके सामने आते हैं। कहानी बनने की प्रक्रिया लगभग घर या खाना बनाने जैसी प्रक्रिया ही होती है जिसमें यदि चीजें सही अनुपात में हो तो वह चीजें खूबसूरत हो जाती हैै। कलात्मक हो जाती है।
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सुनील:दलित आंदोलन, स्त्री आंदोलन से मुख्यधारा के इस युवालेखन को काट कर देखा जा रहा है. ऐसा क्यों  ? आप इन दोनों आंदोलन से कितना जुड़ा हुआ महसूस करते है.

राकेश: यह दोनो आंदोलन हमारे समय के सच हैं और उससे कटने की तो बात ही नहीं। हमारी पूरी पीढ़ी का परिदृश्य इन विमर्शो में लिख रहे लेखकों को साथ लेकर बनता है। क्या हम युवा लेखन से अजय नावरिया को या अंजली काजल को अलग कर सकते हैं। कविता स्त्री विमर्श का लेखन करती है तो क्या वह हमारी पीढ़ी में नही है। हम इन विमर्शो की परिभाषाओं को चुनौती नहीं देते है लेकिन अपनी कहानियों में इनके यथार्थ को सामने लाने की कोशिश करते हैं। इनके पीछे एक और प्रवृति है कि हमारे जो साथी इन विमर्शों  के माध्यम से पहचाने गए वें भी अब अपने आपको सिर्फ कहानीकार के तौर पर पहचाना जाना पसंद करते हैं। यह एक बदली हुर्इ स्थिति है और पूरे परिदृश्य को इसी बदलते परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है।

   सुनीलइस युवा लेखन के एक दसक से ज्यादा का वक्त हो गया है, मोटे या सूक्ष्म स्तर पर क्या कोई ऐसी बात कहीं गई है जो अब तक के हिंदी लेखन में नहीं कहा गया है ?

राकेश: इसकी पड़ताल तो हमारे दौर के आलोचक कर रहे हैं लेकिन व्यकितगत रूप से हमारा मानना है कि हमारी पीढ़ी के लेखकों के पास इतने कम समय में दो या चार ऐसी कहानियाँ है जो सिर्फ अभी ही अच्छी कहानी नहीं, बलिक हिंदी साहित्य के इस समय की अच्छी कहानियाँ है। यह एक सुखद सिथति है और हमें अपने विकास पर संतुष्ट होना चाहिए।

 सुनील: क्या इस दौरान कुछ भ्रम रचे गए है, कुछ जड़ता आई है, इसने अपना एक वैचारिक आधार तैयार कर लिया है या यह दौर अपनी सही दिशा में जा रहा है ?

राकेश: कुछ आलोचक और पत्रिकाएँ पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर कुछ सनसनीखेज आरोप लगाते हैं या समूचे युवा लेखन को खारिज करने की कोशिश  करते हैं लेकिन इस बदलते यथार्थ का दबाव और आग्रह इतना ज्यादा है कि इन कहानियों से परे जाकर समय के सच को समझने की कोर्इ भी कोशिश इकहरी होगी।

सुनील: अपनी पीढ़ी के रचना क्रम से आपको कोई शिकायत है ? अपनी पीढ़ी में किन- किन रचनाकारो को पढ़ना पसंद करते है ? जिसे पसंद करते है उनकी रचनाओं में कोई खास बात और जो आप को अच्छे नहीं लगते उनकी कमी क्या है ?

मुझे अपने समय के यथार्थ को इकहरे तरीके से व्यक्त करनेवाली  रचनाएँ पसंद नहीं आती। मुझे वह काहनियों भी अच्छी नहीं लगती जो सूचना को यथार्थ के तौर पर न देखकर एक फैशन तलब तौर पर देखती है। सिर्फ रोजमर्रा की बात करने वाले या फिर एक वाक्य या घटनाओं से सोíेश्य किसी आग्रह पर पहुंचने वाली रचनाएँ भी मुझे अच्छी नहीं लगती। यथार्थ की जटिलता को जटिल तरीके से व्यक्त करनेवाली  कहानियाँ मुझे आकर्षित करती है। अपने पूर्ववर्ती लेखकों में उदयप्रकाश, अखिलेश, मनोज रूपड़ा पंकज मित्र योगेन्द्र आहूजा और अपने साथ लिखने वालों में नीलााक्षी, कुणाल, चंदन, मनोज, विमल, वंदना, सत्यनारायण, गीत चतुर्वेदी, अजय नावरिया और आशुतोष जैसे और भी कर्इ लेखक मुझे अच्छे लगते हैं। मैं अपने आप को इन सबके साथ ही देखता हूं। इनकी भी कर्इ कहानियाँ अच्छी नहीं लगती तो उनसे बात करता हूं। असहमति दजऱ् कराता हूं। इस मामले में हमारी पीढ़ी ज्यादा लोकतांत्रिक और उदार है।

सुनील: कुछ रचनाकार समीक्षा आलोचना को टेढ़ी नजर से देखते है कुछ इसे बहुत जरूरी मानते है. मार्कण्डेय ने एक बार कहा था कि नई कहानी को छोड़कर किसी भी कथा प्रवृति पर ठीक से बात नहीं हुई है और नाहीं उन पर प्रमाणिक किताबे आई है, यहाँ तक की प्रेमचंद पर भी.  क्या इस पीढ़ी के साथ आलोचना के स्तर पर अच्छा काम हो रहा है या सिर्फ़ आलोचना के नाम पर लफ़्फ़ाजी भर हो रही है ?

यह इस पीढ़ी के साथ एक अच्छी बात है कि इसके साथ ही आलोचकों की एक पीढ़ी तैयार हो रही है। पहले के आलोचकों में जहाँ विजय मोहन सिंह, अजय तिवारी, खगेंद्र ठाकुर, सूरज पालीवाल और शंभू गुप्त जैसे आलोचकों ने इस पर गंभीरता से लिखा  वहीं कृष्णमोहन, प्रियम अंकित, अजय वर्मा, भरत प्रसाद, वैभव सिंह, राहुल सिंह, अरूणेश शुक्ल, पल्लव, राकेश बिहारी जैसे युवा आलोचकों की पूरी पीढ़ी तैयार हो गर्इ है जो उसी पीढ़ी की कहानियों से अपना मुख्य आलोचनात्मक जुड़ाव रखते हैं। यह एक उल्लेखनीय सिथति है और इसमें शिकायत की कोर्इ बहुत ठोस वजह नहीं दिखती है।    

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राकेश मिश्र : सुप्रसिद्ध कहानीकार। 
सुनील : युवा कवि।  

Friday, April 19, 2013

वार्षिक समीक्षा : कुछ हो तो ऐतबार भी हो कायनात का.

परफोर्मेंस अप्रेजल, इस शब्द युग्म की सटीक और सुन्दर हिन्दी क्या होगी ? ऐसी जो जुबान पर भी चढ़े। अपने अर्थ  मे तो यह शब्द जुबान पर बसने से रहा। हम दिन रात अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ या उनकी निगाह में रहते है। हमारी हर गतिविधि उन्हें मालूम होती है। हमारी यात्राएं, ली और न ली हुई छुट्टियां उनकी बदौलत है। सुख, उत्साह, भाग - दौड़, सकारात्मकता जितनी उनकी निगाह पर , हम उतने ही आगे। उत्तेजना, दुःख, बेचैनियाँ उनसे ओझल रखना भी एक गुण। सच उनके सामने झूठ उनसे दूर। सब कुछ से वो अवगत फिर भी सालाना परफोर्मेंस अप्रेजल होता ही होता है। एक प्रारूप ( फ़ॉर्मेट ) मिलता है जिसमे आपको लिखना होता है की इस साल आपने क्या किया और तब आपको ख्याल आता है अधूरी कहानिया लिख पाए, कविताएं अधूरी पढ़े, उपन्यास दर उपन्यास उछलते रहे, सपने देखे ये जानते हुए कि इनका होना जाना कुछ नहीं,,,,इस तरह हमारे जीवन से एक वर्ष और काट लिया गया। हम कोई पेड़ हो जैसे कि वर्ष वाली टहनियां एक एक कर कम होती जा रही हो। 

प्रारूप को देखते ही मन हदस जाता है। पहला ख्याल - हमने आखिर इस साल किया क्या ? उल्लेखनीय था कुछ ? फिर दूसरा ख्याल - लेकिन दफ्तर के सिलसिले तो रोज चले। सुबह-ओ-शाम चले। कुछ तो किया होगा। तब हम किए गए कार्यो को याद करना शुरू करते है। बतौर रचनाकार, पता नही ऐसा क्या है कि मुझे रोजगार के दौरान किए गए काम उल्लेखनीय नहीं लगते।    फिर भी एक-एक  कर उन्हें मन में सहेजता हूँ, लिखता हूँ, मिटाता हूँ . पूरा साल याद आता है। अपराधबोध सबसे अधिक याद आते है। न किए गए काम याद आते है और वो मौके याद आते है जो हमारे हाथो से सिर्फ इसलिए निकल गए क्योंकि हमारे सिर्फ दो ही हाथ थे और काम सुरसा के मुह की तरह विकराल। रोजाना के काम काज के बीच ख्याल आता है, भाई अभी आत्महन्ता बाते न विचारों। अप्रेजल का प्रारूप शानदार भरा जाना चाहिए और वो भरा जाता है। मन फिर भी उदास ही बना रहता है। 

वरिष्ठ अधिकारी बुलाते है, बाते करते है। वो, जिनकी उम्मीदों पर शायद ही कभी खरे उतारे हो, वो खुद आगे बढ़ कर तारीफे गिनवाते है, मेरे किए गए काम मुझे भी बताते है, सराहते है, मुझे एक पल को अच्छा लगता है। लगता है क्या मैं वाकई अच्छे काम करता हूँ। पर एक एहसास साथ रहता है, साल दर साल बीतते जाने का। तुझसे भी दिल फरेब है गम रोजगार के वाली तर्ज उदासी के बोल की तरह बजती रहती है। घामड़ अकेलापन आपके इर्द गिर्द तमाम खराब पल बुनते रहता है। आप अगले साल की तैयारियों में जुट जाते है। नौकरी का छोड़ना मुल्तवी होते जाता है। लिखना भी या शायद लिखना ही।