http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/03/140316_modi_kejriwal_varanasi_analysis_vr.shtml
मैं उम्मीद करता हूँ कि उपर के लिंक में जो बातें काशीनाथ सिंह के नाम से छपी हैं वो, काश, उनकी बातें न हों.
सड़कछाप विकास ( जिसमें सड़के और इमारतें बनाना भर ही शामिल हो, शिक्षा, गरीबी या अन्य जरूरी मुद्दे नहीं ) हर जगह हो रहा है. यह नसबन्दी कार्यक्रम की तरह जबरा हो गया है. इसके तर्क इतने तगड़े और लूट इतनी शानदार हैं लोग चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर पा रहे. जहाँ कुछ् भी नहीं हैं वहाँ भी विकास के नाम पर सड़के हैं. सड़के विकास का पैमाना कब से हो गईं इसकी जाँच होनी चाहिए. आज अगर कॉर्पोरेट्स का मुनाफा इस इंफ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री में कम हो जाए तो ये सारे 'विकास' झटके में बन्द हो जायेंगे. जिन्हें लगता है कि सरकारें इस सड़कछाप विकास की कर्ता धर्ता हैं उनकी मृत समझ के लिए मेरी ओर से दो फूल रखें. कनेर के फूल.
नरेन्द्र का बनारसी संकल्पना से अरसा पहले बनारस के प्रशासन ने जो सड़्क चौड़ीकरण और अन्य अभियानों में जो मुस्तैदी दिखाई है वह मैं समझता हूँ पर्याप्त है और काबिल-ए-तारीफ भी. बनारस हो या कटक, इन बेहद पुराने शहरों की अपनी काबिलियत और अपनी मुश्किलें है.
परंतु बी.बी.सी-हिन्दी ( website ) की इस छिछोर रिपोर्ट की माने तो शायद अब नरेन्द्र बनारसी गलियों को ही नेस्तनाबूद कर बनारस का विकास करेंगे. हो सकता है, गंगा के किनारे को, घनी और आबाद आबादी से खाली कराकर वहाँ, अहमदाबाद की मरती हुई साबरमती के किनारे शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की तर्ज पर, विकास कराने की उम्मीद वरिष्ठ रचनाकार काशीनाथ सिंह ने लगा रखी हो.
यह सबको मालूम होना चाहिए कि शहर का विकास नगर निगम या पालिका के हाथों होता है.
रही पहचान की बात तो यह सबको समझ लेना चाहिए कि नरेन्द्र तो फिर नरेन्द्र हैं, खुद ओबामा भी बनारस से चुनाव लड़े तो इससे उनकी ही पहचान पुख्ता होगी. बनारस की पहचान जिन पैमानों पर बननी बिगड़नी है, वो सौभाग्य से 'राजनीति' नहीं है.
जिसे भी शहर से प्यार है उसे मुख्तार अंसारी या उसके समकक्ष नरेन्द्र मोदी जैसों के झाँसे में नहीं आना चाहिए.
मैं उम्मीद करता हूँ कि उपर के लिंक में जो बातें काशीनाथ सिंह के नाम से छपी हैं वो, काश, उनकी बातें न हों.
सड़कछाप विकास ( जिसमें सड़के और इमारतें बनाना भर ही शामिल हो, शिक्षा, गरीबी या अन्य जरूरी मुद्दे नहीं ) हर जगह हो रहा है. यह नसबन्दी कार्यक्रम की तरह जबरा हो गया है. इसके तर्क इतने तगड़े और लूट इतनी शानदार हैं लोग चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर पा रहे. जहाँ कुछ् भी नहीं हैं वहाँ भी विकास के नाम पर सड़के हैं. सड़के विकास का पैमाना कब से हो गईं इसकी जाँच होनी चाहिए. आज अगर कॉर्पोरेट्स का मुनाफा इस इंफ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री में कम हो जाए तो ये सारे 'विकास' झटके में बन्द हो जायेंगे. जिन्हें लगता है कि सरकारें इस सड़कछाप विकास की कर्ता धर्ता हैं उनकी मृत समझ के लिए मेरी ओर से दो फूल रखें. कनेर के फूल.
नरेन्द्र का बनारसी संकल्पना से अरसा पहले बनारस के प्रशासन ने जो सड़्क चौड़ीकरण और अन्य अभियानों में जो मुस्तैदी दिखाई है वह मैं समझता हूँ पर्याप्त है और काबिल-ए-तारीफ भी. बनारस हो या कटक, इन बेहद पुराने शहरों की अपनी काबिलियत और अपनी मुश्किलें है.
परंतु बी.बी.सी-हिन्दी ( website ) की इस छिछोर रिपोर्ट की माने तो शायद अब नरेन्द्र बनारसी गलियों को ही नेस्तनाबूद कर बनारस का विकास करेंगे. हो सकता है, गंगा के किनारे को, घनी और आबाद आबादी से खाली कराकर वहाँ, अहमदाबाद की मरती हुई साबरमती के किनारे शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की तर्ज पर, विकास कराने की उम्मीद वरिष्ठ रचनाकार काशीनाथ सिंह ने लगा रखी हो.
यह सबको मालूम होना चाहिए कि शहर का विकास नगर निगम या पालिका के हाथों होता है.
रही पहचान की बात तो यह सबको समझ लेना चाहिए कि नरेन्द्र तो फिर नरेन्द्र हैं, खुद ओबामा भी बनारस से चुनाव लड़े तो इससे उनकी ही पहचान पुख्ता होगी. बनारस की पहचान जिन पैमानों पर बननी बिगड़नी है, वो सौभाग्य से 'राजनीति' नहीं है.
जिसे भी शहर से प्यार है उसे मुख्तार अंसारी या उसके समकक्ष नरेन्द्र मोदी जैसों के झाँसे में नहीं आना चाहिए.
1 comment:
कहानी लिखते हो तो वही काम किया करो...तहलका की बोगस कहानी के बाद मन नहीं करता तुम्हें पढ़ने के लिए...हर कहानी तिरिछ नहीं हो सकती चन्दन बाबू
Post a Comment