यह सूरज की कविता है. उसने “शापित एकांत” नाम से कविताओं की यह सीरिज शुरु की है. हालांकि एकांत-वेकांत मुझे भी अच्छे नही लगते पर जो नाम उसने चुना है, वो ही कभी इसे परिभाषित भी करेगा.
अलविदा के लिये
अलविदा के लिये उठते हैं हाथ
थामने हवा में बाकी बची देह-गन्ध
नमक के कर्जदार बनाते पसीने और
याद से भींगे होठों के चूम
(या उनकी भी याद ही)
अलविदा के लिये
तुमसे भी जरूरी हों कई काम
(?)
झूठ है सफेद जो बोले जाने हैं
यादें चींटियों की कतार से लम्बी
भूलना जिन्हे जीवन लक्ष्य
होगा एकसूत्रीय
वापसी की रूखी धुन शामिल होती
हो अलविदा में तो आता है रंग
आती है गूँजती पुकार
सोमवार को धकेल
आने को आतुर रहता है
मेरे जीवन का हर मंगलवार
सारे बुध करते रहते हैं मंगल के
बीतने का बोझिल इंतज़ार
अलविदा, अलविदा
डोलते हाथों और काँपती उंगलियों से पहले
अलविदा के वक्त चाहिये एक मनुष्य
जीवन में शामिल
जिसकी आंखों में बचे रहे मेरे हाथ
बचे रहे कुछ सिलसिले जो उसी से
सम्भव हुए
बचा रहूँ मैं
इंसान की तरह
कवि से सम्पर्क: soorajkaghar@gmail.com
4 comments:
..अलविदा के वक्त चाहिये एक मनुष्य
जीवन में शामिल ..
...सुंदर कविता.
Dear Suraj,
Liked your poem...please keep-up your incubation of good perceptions.My friend Chandan has introduced me towards your stout creativity..all the best for future deliberations.
Regards
Atul Thakur
New Delhi
Blogs at: www.onesstandpoint.blogspot.com
One more time.......Suraj,I am being a fan of yours......This is your first poem, which had the capacity to bring tears in my eyes..........I was truly co relating myself while reading....
All the Best to you
badhiya aur bahut akeli kavita jo padhne wale ko bhi akela kar gayi
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