फेदेरिको गार्सिया लोर्का: विश्व कविता का अद्वितीय नाम. (5 जून 1898 – 19 अगस्त 1936) जितनी कम उम्र में कविता की 14 किताबें, 18 नाटक और 'ट्रिप टू द मून' फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी. इनकी मृत्यु पर कहने वाले तो बड़ी कला से बहुत कुछ कह जाते हैं पर जिस तरीके से इनकी हत्या हुई, उसे जानकर यह अन्दाजा भी लगाना मुश्किल है कि यह महाकवि उन दिनों कैसे एकांत और निर्वासन में धकेल दिया गया होगा. मैं साथियों से यह निवेदन करूंगा कि इनकी जीवन गाथा एक बार जरूर पढ़ें. अन्धराष्ट्रवाद हमसे क्या क्या छीन लेता है...
मेरे लिये यह बेइंतिहा खुशी की बात है कि इतने महान कवि की कविता अपने ब्लॉग पर लगा रहा हूँ..
1924 – 27 के बीच लिखी इस कविता की नायिका 'प्रेसिओसा' दुनिया के पहले आधुनिक उपन्यासकार कहे जाने वाले 'मिगेल दे सर्वान्तेस' की रचना 'ला गितानिल्या' की एक पात्र है. वह एक किशोर उम्र की खूबसूरत बंजारन है जो एक बुढ़िया के साथ रहती है और उन्मुक्त प्रेम करती है. वैसे 'प्रेसिओसा' का शाब्दिक अर्थ 'बहुमूल्य' भी होता है.
प्रेसिओसा और हवा का झोंका
(दामासो आलोंसो के लिये)
अपनी डफली बजाती हुई
चली आ रही है प्रेसिओसा,
कल्पवृक्षों से सजी,
चमकती रहगुजर से।
दूर उठी बहुत पुरानी कोई धुन और
फैल जाती है खामोशी धुन्ध की मानिन्द
मछलियों की गन्ध से लिपटी रात में
मचलता हुआ समुद्र
गीत गाता है.
पर्वतों की धवल चोटियों की सुरक्षा में
उनींदे वे सिपाही, वहाँ
जहां अंग्रेजों की रहनवारी है।
समुद्री बंजारे
बिताने के लिये
अपना खुश और खाली वक्त
बनाते हैं कुंज,
समुद्री शंख
और चीड़ की हरी टहनियों से।
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अपनी डफली बजाती हुई
आती है प्रेसिओसा।
उसे देखते ही उठ बैठता है
कभी न सोने वाला हवा का आलसी झोंका।
आशिर्वचनओं की बरसात करने वाले,
बांसुरी की मधुर तान में खोये,
नग्न,
संत किस्टोफर,
देखते हैं उसे, अचानक.
"लडकी, मुझे उठाने दे अपने वस्त्र
ताकि देख सकूं तुम्हें।
मेरी बुजुर्ग उंगलियों पर खिल जाने दे
अपने गर्भ का नीला फूल।"
प्रेसिओसा फेंक देती है अपनी डफली
और भागती है बेतहाशा।
हवा का शिकारी झोंका करता है पीछा
जलती तलवार लिये।
समुद्र समेटता है अपनी फुसफुसाहटें।
पीले पड़ जाते हैं जैतून के सदाबहार पेड़।
गाने लगती हैं
परछाईं की बाँसुरी
और बर्फ की सपाट सिल्लियां
प्रेसिओसा,
भाग, प्रेसिओसा
कि तुम्हें धर लेगा हरे रंग का झोंका
भाग, प्रेसिओसा
भाग !
देख, किधर से आया वो
अपनी लपलपाती जीभ के साथ
ढलती उम्र का विलासी संत।
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प्रेसिओसा
भयभीत,
घुसती है उस घर में,
चीड़ के पेड़ों के पार
जहां रहता है वह अंग्रेजी राजदूत।
उसकी चीख से आतंकित
निकलते हैं तीन रक्षक,
उनके लबादे चुस्त,
टोपियां उनकी मंदिरों जैसी।
अंग्रेज उसे देता है
दूध का गर्म प्याला,
और पैमाने भरा ज़िन
प्रेसिओसा जिसे नहीं पीती।
और जब वह सुना रही होती है रोकर,
उन्हें अपनी दास्तान
हवा का गुस्सैल झोंका,
काटता रहता है
स्लेट की खपरैलें।
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श्रीकांत का आभार जो इस जटिल कविता का सरस अनुवाद किया! यह सूचित करना जरूरी है कि लोर्का की कविताओं का अनुवाद कठिनतम से भी कठिन कार्य है. यहाँ तक कि उन्हे पढ़ना भी. इनके बिम्ब और काव्य संरचना महान कवि नेरुदा की तरह आसान नहीं होती. अभी जो युवा सम्वाद चला उसमें जब श्रीकांत अपनी राय रख रहा था तो कुछ निखट्टू इसे यह सलाह दे दे के मरे जा रहे थे कि सिर्फ और सिर्फ (कुछ निर्जीव) लिखने पढ़ने पर ही ध्यान दो. अब जब यह सकारात्मक सम्वाद करते हुए महफिल लूट लाया और इतनी जटिल कविता का अनुवाद भी कर लाया तब भी वे, सलाहों के देवता, अभी फेसबुक फेसबुक ही खेल रहे हैं. श्रीकांत का अनुवाद कार्य लगातार जारी है.
12 comments:
श्रीकांत का अनुवाद में लगे रहना प्रशंसनीय है। उन्हें हमारी शुभकामनाएं।
कविता बहुत अच्छी है और हवा के माध्यम से इंसान के शिकारियों का रूपक अच्छा खींचा है.
अनुवादक को बधाई! यह एक मह्त्वपूर्ण प्रयास है.
राकेश द्विवेदी
इन्दौर
अनुवाद भी बेहतरीन है और कविताएं भी।
कविता खूबसूरत है. इन्हे सम्झने के लिये समग्रता में पढना होगा . पर इनका जीवन बहुत कठिन रहा. ऐसे महान कवि को मेरा सलाम! श्रीकांत भाई को भी धन्यवाद!
अच्छा अनुवाद है. आशा करता हूँ आप कुछ और स्पेनिश कवियों के अनुवाद पढ़वाएंगे.
Its very easy to coment on anybody but as per ur wish i will do it in as usual way. First thing what i want to say that i felt some connections are missing and the problems with actress is never ending...very nicely this poem is saying that how in this cruel word everone wants to catch flying beautiful birds...
keep it up many more things from west we will be knowing through u...congrats
sundar , srikant ko kahiye ki inhi ki kuch aur rachanaao ko anudit karen, kyun ki man nahin bhara , aisa laga jaise kisi ne garmi ke dhoop me thoda sa pani pila ke chhor diya ho
ब्लॉग के माध्यम से तुम एक महत्वपूर्ण काम कर रहे हो....उम्मीद है श्रीकांत निखट्टूओं के कह-कहो से बेखबर होकर अनुवाद कार्य जारी रखेंगे...दोनो लोगो को ढेरो बधाइयाँ...
adbhut! dil ko chhu gayi kavita.
Bahot achha laga!! Was really interesting!!- Ashutosh
मैंने श्रीकांतजी को कमतर समझा था। माफी चाहता हूँ।
डूब कर पढ़ने लायक कविता है यह । इसका एक एक दृश्य साकार हो उठा है । श्रीकांत को इस बेहतरीन अनुवाद के लिये बधाई । सही मे इस का अनुवाद एक कठिन कार्य था ।
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