रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता "रामदास" का विषय भी आम लोगों का आचरण है। ये लोग न केवल खुलेआम हुई हत्या के निष्क्रिय दर्शक हैं, बल्कि कविता के अंत तक आते-आते इस हत्या की अनिवार्यता के उत्साही समर्थक हो जाते हैं। कविता की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें---
"सधे क़दम रख कर के आये/लोग सिमटकर आँख गड़ाये/ लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी/ निकल गली से तब हत्यारा/ आया उसने नाम पुकारा/ हाथ तौलकर चाकू मारा/ छूटा लोहू का फ़व्वारा/ कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी/ भीड़ ठेलकर लौट गया वह/ मरा पड़ा है रामदास यह/ देखो-देखो बार-बार कह/ लोग निडर उस जगह खड़े रह/ लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।"
"सधे क़दम रख कर के आये/लोग सिमटकर आँख गड़ाये/ लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी/ निकल गली से तब हत्यारा/ आया उसने नाम पुकारा/ हाथ तौलकर चाकू मारा/ छूटा लोहू का फ़व्वारा/ कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी/ भीड़ ठेलकर लौट गया वह/ मरा पड़ा है रामदास यह/ देखो-देखो बार-बार कह/ लोग निडर उस जगह खड़े रह/ लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।"
यहाँ पहले तो हत्या का तमाशा देखते लोग हत्या होने के बाद मानो राहत की साँस लेते हैं, और उसकी अनिवार्यता का बखान करते हैं---कहा नहीं था......। इसके बाद वे इसका उत्सव-सा मनाने लगते हैं। हत्यारे के चले जाने के बाद बार-बार एक दूसरे को मृत रामदास का शव दिखाकर उसकी मौत का भरोसा दिलाते हैं। इतना ही नहीं वे उन लोगों को शर्मिंदा करने के लिए खोजते हैं, जिन्हें हत्या की अनिवार्यता में संदेह था। ज़ाहिर है वे इस रीत-नीत से असहमत लोग रहे होंगे। लेकिन वे भी गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब हैं। उन्हें खोजना उतना ही मुश्किल हो रहा है जितना आदतन ख़ुशामद न करने वालों को खोजना था। कवि जैसे कह रहा हो कि कहीं से ले आओ वह दिमाग़ जिसे हत्यारे की कामयाबी पर शक न हो।
दूसरी तरफ़, आम लोगों के रवैये में किसी प्रकार के अफ़सोस की झलक तक नहीं है। कवि का रुख़ भी उनके प्रति उतना ही निष्करुण है। वह लोगों के वहां खड़े रह जाने को उनकी "निडरता" की संज्ञा देकर उन पर अत्यधिक कठोर व्यंग्य करता है। लोगों की कमज़ोरियों या उनके पतन को वह मानो उनका चुनाव मानता है,और ख़ुद मनुष्यता का लबादा ओढ़कर कहीं ऊँचाई पर खड़ा रहता है।
इसका अर्थ यह क़तई नहीं कि लोग ऐसी कमज़ोरियों का प्रदर्शन नहीं करते। हत्यारे का सामना होने की आत्यंतिक स्थिति को छोड़ भी दें तो किसी की जान बचाने के लिए कई बार उन्हें अपनी मामूली सुविधाओं को छोड़ने में भी परेशानी होती है। आए दिन ऐसा देखने में आता है कि दुर्घटना का शिकार कोई व्यक्ति सड़क पर छटपटाता रहता है और लोग उसके पास से गुज़र जाते हैं। यही लोग दंगाइयों और अपराधियों को चुनाव भी जिताते हैं। लेकिन क्या यह सिक्के का सिर्फ़ एक पहलू नहीं है? यही आम लोग दूसरों के लिए जान भी देते हैं, ग़रीब और मासूम लोगों के इंसाफ के लिए लड़ते हैं, और मनुष्यता की नई से नई नज़ीर पेश करते हैं। यह बात और है कि हमारी व्यवस्था और ख़ासकर मीडिया की दिलचस्पी ऐसी चीज़ों में नहीं है इसलिए इनकी कहानियाँ कम सुनाई पड़ती हैं, लेकिन ये हर कहीं होते हैं। इसीलिए जब कोई कवि इनके होने से इनकार करता है तो वह जाने-अनजाने सत्ता और व्यवस्था की हाँ में हाँ मिला रहा होता है।
यह सच है कि हमारे देश के आम लोग ग़ुलामी, बंटवारे और आज़ादी के बाद भी जारी लूटतंत्र के इस क़दर सताए हुए हैं कि अनेक बार वे सामान्य मानवीय भावनाओं से भी वंचित जान पड़ते हैं। न्यूनतम मानवीय गरिमा से वंचित अपने देशवासियों को देखकर कवि उनसे प्रेम के कारण उनकी आलोचना करे और उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलाए, यह तो स्वाभाविक है। लेकिन अगर वह जनसमुदाय के पतन से अछूता रह जाने के जोश में मानवता को आभिजात्य की तरह धारण करता है और बाक़ी लोगों को लताड़ लगाता है तो उसे जनपक्षधर कवि कहना मुश्किल है। आइए देखें मुक्तिबोध ऐसी स्थिति का सामना होने पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं:
" ओ मेरे आदर्शवादी मन,/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,/ अब तक क्या किया?/ जीवन क्या जिया!!/उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,/ भूतों की शादी में कनात से तन गए,/ किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,"
आलोचना यहाँ भी सख़्त है, लेकिन आलोचना करने वाला ख़ुद को भी अपने देशवासियों के पतन का भागीदार और ज़िम्मेदार पाता है। अपने मन को सम्बोधित करके यह सब कहने का यही अभिप्राय है। अपने देशवासियों की नियति से आज़ाद होकर उसने शुद्धता का कोई बाना नहीं ओढ़ रखा है। "अँधेरे में" नामक इस कविता में अन्यत्र भी इस आशय के वक्तव्य हैं,मसलन:
"मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे ही कारण दुर्घट हुई यह घटना"।
"मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे ही कारण दुर्घट हुई यह घटना"।
असल में, रघुवीर सहाय की चेतना में जनता एक अचेतन समुदाय की तरह आती है जिसे कुछ ज्ञानवान लोग सही रास्ता दिखाते हैं। उनकी यह धारणा इतनी मज़बूत है कि उनके अपने समय में चलने वाले जनसंघर्ष भी इस पर खरोंच नहीं डाल पाते। जनता की शक्ति और उसकी भूमिका की समझ से कटी हुई यह चेतना किसी दौर में सीमित रूप से जनपक्षधर भूमिका भले ही निभा ले, वर्तमान संक्रमणकालीन दौर की लोकतांत्रिक चेतना से नहीं जुड़ पाती। जनता की भूमिका का अवमूल्यन करने वाली उनकी चेतना की एक और बानगी देखते चलें:
"जब एक महान संकट से गुज़र रहे हों/ पढ़े-लिखे जीवित लोग/ एक अधमरी अपढ़ जाति के संकट को दिशा देते हुए/ तब/आप समझ सकते हैं कि एक मरे हुए आदमी को/ मसखरी कितनी पसंद है"
(आज का पाठ है)
"जब एक महान संकट से गुज़र रहे हों/ पढ़े-लिखे जीवित लोग/ एक अधमरी अपढ़ जाति के संकट को दिशा देते हुए/ तब/आप समझ सकते हैं कि एक मरे हुए आदमी को/ मसखरी कितनी पसंद है"
(आज का पाठ है)
इस श्रृंखला में हमनेे जानबूझकर अब तक रघुवीर सहाय के एक परिपक्व संग्रह की सबसे चर्चित और प्रशंसित कविताओं का विश्लेषण किया है ताकि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं से ही उनकी सीमा भी प्रकट हो। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर इस मूल्यांकन की प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती थी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की जनता के प्रति अवमानना भरा रुख़ उनके किसी ख़ास दौर की विशेषता है।दरअसल, यह उनकी चेतना का ट्रेडमार्क है। इस बात को समझने के लिए हम उनके आरम्भिक और परवर्ती दौर की एक -एक कविता पर ग़ौर करेंगे। पहले एक शुरूअाती कविता "दुनिया"(1957) की अंतिम पंक्तियों पर नज़र डालें:
"लोग कुछ नहीं करते जो करना चाहिए तो लोग करते क्या हैं/ यही तो सवाल है कि लोग करते क्या हैं अगर कुछ करते हैं/ लोग सिर्फ़ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग/ लोग ही लोग हैं चारों तरफ़ लोग, लोग, लोग/ मुँह बाये हुए लोग और आँख चुंधियाते हुए लोग/ कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग/ खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग/ दुनिया एक बजबजाती हुई चीज़ हो गई है।"
"लोग कुछ नहीं करते जो करना चाहिए तो लोग करते क्या हैं/ यही तो सवाल है कि लोग करते क्या हैं अगर कुछ करते हैं/ लोग सिर्फ़ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग/ लोग ही लोग हैं चारों तरफ़ लोग, लोग, लोग/ मुँह बाये हुए लोग और आँख चुंधियाते हुए लोग/ कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग/ खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग/ दुनिया एक बजबजाती हुई चीज़ हो गई है।"
ये पंक्तियां अपनी मिसाल आप हैं और इनपर कुछ भी कहना ग़ैरज़रूरी है। कवि की परवर्ती दौर की एक छोटी सी कविता "जब उसको गोली मारी गयी"(1984) देखें:
"जब उसको गोली मारी गयी/ फ़ोटो से जाना क्या पकता था चूल्हे पर/बेटे ने बैठकर अपना मुँह दिखलाया/ लाश का ढँका था मुँह।"
"जब उसको गोली मारी गयी/ फ़ोटो से जाना क्या पकता था चूल्हे पर/बेटे ने बैठकर अपना मुँह दिखलाया/ लाश का ढँका था मुँह।"
जैसा कि स्पष्ट है इस कविता में एक हत्या के बाद खिंची हुई तस्वीर के माध्यम से बात की गई है। चूल्हे पर पकता खाना और मृतक के बेटे का चेहरा भी तस्वीर में आ गया है। वैसे तो यह विवरण तथ्यपरक और मार्मिक हो सकता था, लेकिन कवि को संभवतः विश्वास नहीं है कि किसी की हत्या का शोक उसके यानी स्वयं कवि के अलावा किसी और को हो सकता है चाहे वह मृतक का अपना बेटा ही क्यों न हो। "बैठकर अपना मुँह दिखलाने" की बात से लगता है कि फ़ोटो में अपना चेहरा ठीक से आए इसके लिए प्रयास किया गया है, ख़ास तौर पर तब जब मृतक का चेहरा ढँका है। शव के चेहरे को ढँकना अत्यंत सामान्य प्रथा है और उसकी फोटो में उसके किसी प्रियजन की तस्वीर आ जाना भी उतनी ही सामान्य बात। ग़ौरतलब यह है कि कवि इस तकलीफ़देह परिस्थिति में भी चीजों को देखने का कौन सा कोण खोज लाता है। उसके संयोजन में यह सब मृत व्यक्ति के प्रति उपेक्षा और किंचित विश्वासघात की तरह प्रकट होता है। इस कविता में "रामदास" की संवेदना की निरंतरता को आसानी पहचाना जा सकता है, बस समय के साथ तमाशा देखते लोगों की भीड़ में रामदास का बेटा भी न केवल शामिल हो गया है बल्कि अपना दयनीय चेहरा दिखाकर उसने संभवतः "निर्धनता के बदले कुछ मांगने" का कारोबार भी शुरू कर दिया है।
कवि के मनोजगत की बुनावट को समझने के लिए इससे बेहतर साक्ष्य मिलना मुश्किल है।