Thursday, May 13, 2010

मृत्यु का शीर्षक कहाँ होता है?

कल एक या दो अजीब बातें हुई. बहुत दिनों बाद कल मैं करनाल था और एक साहित्यिक मित्र से किये वादे को नहीं पूरा कर पाने का दुःख मुझे घेर रखा था.यह दूसरा मौक़ा था जब मैंने उनसे कहानी देने का वादा किया और अंततः अपनी व्यस्तताओं के कारण कहानी समय पर लिख पाने में अक्षम रहा. इस बार मैंने सोच रखा था कि कोई वादा खिलाफी नहीं होगी और नवम्बर से ही वो कहानी लिख रहा था, लगभग एक ड्राफ्ट पूरा हो जाने के बाद की बात है, जब मेरा लैपटॉप ही छीन लिया गया.उसके बाद मेरी हिम्मत जाती रही, प्रयास मैंने फिर भी किया पर,जैसा कि डर था, असफल रहा. इधर दूसरी मुश्किल यह आई है कि एक फिल्म प्रोड्यूसर से मैंने अडवांस ले रखा है और अब उसे पूरी स्क्रिप्ट चाहिए.मेरे पास स्क्रिप्ट के नाम पर लिखा हुआ एक पैरा तक नहीं है, कहानी दिमाग में है पर उसे पन्नो तक लाने के लिए जो समय और एकाग्रता चाहिए उसे देने से नौकरी ने समूचा इनकार कर दिया है.मेरे पास दस दिन का समय था जिसमे से दो दिन मैंने यह सोचते हुए बिता दिए हैं कि अरे बाप रे! बस दस दिन का समय है.

कल कई दिनों बाद करनाल था और अपने एकलौते मित्र से मिलाने गया, सोचा कहानी शुरू हो सकेगी. करनाल में यह मेरे एक मात्र मित्र है. नाम मैं इनका नहीं जानता हूँ ना ही वो मेरा नाम जानते हैं.उनकी उम्र नहीं भी होगी तो पचहत्तर की होगी. चाय की दूकान सुबह साढ़े सात बजे खोल बैठ जाते हैं और पंजाब केसरी जैसा अखबार, जिसमे सचमुच में पढ़ने लायक कुछ नहीं छपता है, दिन भर पढ़ते रहते हैं. उनकी आमदनी इतनी कम हो गयी है कि अगले महीने से वो यह अखबार भी बंद कराने वाले हैं. सुबह सुबह चाय पीने की आदत ने इनसे बातचीत चला दी वरना करनाल में किसी से मैं बात ही नहीं कर पाता( अगर बातचीत की परिभाषा से इस तरह की बातो को निकाल दे कि वेटर ज़रा, रोटी लाना, सलाद बिना चटनी के देना, खरबूजा क्या भाव ताऊ? तब तो मेरे दिन अबोले ही निकल जाएँ). पिछले दिसंबर से चाय वाले अंकल से बातचीत शुरू हुई. ये मेरे लिए ठेठ दूध पत्ती (चाय की अमीर किस्म जिसमे सिर्फ दूध और चायपत्ती होती है) बनाते हैं और मुझे हरयाणवी सिखाने का काम भी कर रहे हैं.

कल गया तो क्या देखत़ा हूँ कि दूकान तो बंद है! याद आया कि पिछले हफ्ते मैं दो दिन करनाल था और दोनों ही दिन दूकान बंद थी. मुझे नकारात्मक आश्चर्य हुआ. क्या कारण हो सकता है? मन में खराब ख़याल आया कि कहीं अंकल जी "बाबुल के घर" तो नहीं चले गए? आस पास कोई ऐसी दूकान नहीं जिससे कुछ पूछा जाए.फिर मैं ऑफिस चला गया. घिरी दोपहर में कमरे तक आ रहा था तो देखा, ताऊ दूकान सजा रहा है. आप मानेगे नहीं, मैंने यही सोचा कि पट्ठा मृत्यु से भीड़ कर लौट आया है. वैसे भी इस बूढ़े इंसान की बातचीत में इतना उमंग रहता है कि बनावटी किस्म के शरीफ इनसे खफा हो जाते हैं. आस पास की kमोटर मैकेनिक की दुकानों पर काम करने वाले नौजवानों से यह इंसान काफी खुला हुआ है. मैंने नमस्कार किया. उन्होंने कहा, चाय पिएगा? मैंने कहने को कह दिया बनाओ पर गरमी इतनी ज्यादा थी और गुमटी के बाहर की बरसाती इतनी ताप रही थी कि क्या बताऊँ? चाय पी और अनायास ही टूटी फूटी हरियाणवी में बोल बैठा- इतने दिन दूकान बंद देख ताऊ मैंने यह समझा कि तुम टपक लिए.

तिलमिलाती शक्ल वाली दोपहर में मैंने उस बुजुर्ग की प्रतिक्रया देखी. वो उदास नहीं हुआ और नहीं उसके चहरे पर खुशी का नंगा अतिरेक था. बेहद सामने भाव से उन्होंने मुझे देखा और कहा: अब तो उसी का इंतज़ार है छोरे! और देर तक दूकान के बाहर खाली और तपती सड़क को देखते रहे. हमलोग मृत्यु पर बात कर रहे थे और बजाय उनके, ये मैं था जो डर गया था. उन्होंने अगला सवाल हँसते हुए किया: फिर तू चाय पीने कहाँ जाया करेगा? तू शादी क्यों नहीं कर लेता? तेरी उम्र में मेरे दो दो बेटे थे?' फिर वो बुढाऊ अपनी मजाकिया औकात पर आ गया: मैं लड़की दिखाऊ?” पर मैं उसी आसन्न मृत्यु और उसके डर पर अटका हुआ था. यह कोई नई बात नहीं थी पर मुझ पर या तो लम्बी और गर्म दोपहर का असर था या या अकेलेपन का या अपनी खराब तबियत का या पता नहीं किसका कि शाम तक मैं मृत्यु के ख्याल से उबार ही नहींपाया.

शाम को अम्मा(माँ) से बात हुई. अम्मा उन बेहद ख़ास दो लोगों में से एक है जिनसे मैं लगभग रोज ही बात करता हूँ. फोन पर उसकी आवाज ही ऐसी आयी कि लगा, उसकी तबीयत नासाज है. मैंने मर्ज पूछा तो उसने हंसने की कोशिश करते हुए बताया,"बुढापा". कहने लगी, अब तो चलने चलाने की उम्र ही आ गयी कि जिसमे कुछ ना कुछ लगा रहेगा. आगे बात करने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई. यह दोपहर की बातचीत का असर था वरना अब सचमुच में अम्मा की तबियत अक्सर खराब रहने लगी है. दोपहर को मैंने मृत्यु को ऐसे महसूस कर लिया था कि जीवन में पहली बार मैंने सोचा कि क्या पता अम्मा भी ना रही तो? अपनी सारी होशियारी और समझदारी के बावजूद मैं अम्मा के बिना अपने जीवन में कुछ कल्पना भी नहीं कर पाता. मेरे पास इसका नक्शा जरूर बन गया है कि मेरा अजीज दोस्त मेरे साथ नहीं होगा तो क्या होगा.पर अम्मा के बिना.यही सब मेरे सपने हैं कि अम्मा के साथ मौसी के यहाँ जाना है, अम्मा को यहाँ घुमाना है, ये करना है, वो करना है, जागती आँखों के तमाम तमाम स्वप्न.

कल बहुत दिनों बाद मुझे रोने की इच्छा हो रही थी. एक दोस्त से यह सब बताते हुए गला भर आया था. मेरे मुंह से वाक्य नहीं फूट रहे थे. फिर अपनी ज्यादतियां याद आई. कई मौके ऐसे आये जब मैं गलत छोर पर खडा रहा और अम्मा को काफी दुःख हुआ. एक मन हो रहा है कि अभी छुट्टी डाल कर घर चला जाऊं. अगले तीन दिन के लिए घर में लगभग सब जमा हो रहे हैं.पर मुझे अगस्त से पहले छुट्टी नहीं मिलनी है.

एक दूसरा मन यह भी कह रहा कि चूकि मैं स्क्रिप्ट पर काम करने से डर रहा हूँ इसलिए ही शायद दुनिया के सबसे सुरक्षित कोने की याद लगातार आ रही है. वैसे आज फिर मैं अगले चार दिनों के लिए सिरसा, फतेहाबाद और हिसार निकल आया हूँ.

17 comments:

Unknown said...

good piece, chandan.
I got a touch of Nirmal verma.

Anonymous said...

Kuch dukh aise hote hai ki jab tak kahe na jay tab tak chup rahte hai...aur jab bolna shuru karte hai to khamoshi me bhi sunai dete hai !!!

-Bodhisatva

सुशीला पुरी said...

चन्दन ! आपकी मैंने पहली कहानी पढी थी 'रेखाचित्र मे धोखे की भूमिका '...और उसे पढ़कर बहुत दुखी हो गई थी मै । तब से ही आपकी कहानियाँ पढ़ती रही हूँ ....,आपको कहानी पर काम करने से बचना नही चाहिए ...,हाँ माँ को लेकर आपके मन मे जो एक कमजोर कोना है उसे आपको अपने संबल मे बदलना चाहिए ।

कुश said...

एक बूँद इधर भी टपकी चन्दन भाई..

आशुतोष पार्थेश्वर said...

चन्दन जी, माँ के बिना दुनिया की कल्पना भी वजूद को सोख लेती है । वह हर तकलीफ दूर कर सकती है, वह है तो ज़िदगी में बहुत बड़ी ताकत है । सब कुछ, सारी मुसीबतें उसके सामने होने भर से बौनी हो जाती हैं ।
अम्मा को मेरा प्रणाम!
रही बात काम की वह तो आप मजे से पूरा कर सकते हैं, लग जाइए, आप पर भरोसा है ।
शुभकामनाएं !

Unknown said...

Yaar, Amma ke alawa doosra "behad khaas" koun hai?

Mujhse bataye bagair nahin kuch....

चन्दन said...

nahi vyomesh bhaiya aapse bataaye vagair to mera sooraj bhi nikalne se jaraa darega.

waise, apne blog par aapka swaagat!

shesnath pandey said...

मृत्यु बोध चाहे जितना बुरा हो.... इसमें जिन्दगी अपने मूल के साथ शामिल रहती है.... वही धड़कन और सांस होने के वावजूद कोई स्त्रि जब माँ होती है तो माँ होती है... किसी के न रहने की आहट का संकेत चाहे जितना सही और दुखदाई हो... इतना तो कहा ही जा सकता है कि जिन्दगी एक दम कल खत्म नहीं हो जाएगी... मेरा यह मानना है कि दुनिया में कुछ आता हो या न हो कल जरूर आता है... लेकिन परसो आ गया तो...परसो के आने की संभवाना चाहे जितनी कम हो हम उसे नकार तो कतई नहीं सकते... यही वो चीज है जहाँ हम ये जानते हुए भी कि हमारे पास आज के एक्जाम के लिए एक कलम है हम दूसरी कलम खरीदते है....बहरहाल.....



मृत्यू बोध पर तुम्हरा लिखना डर पैदा कर दे रहा है...एक बार जब तुम एक डॉक्यूमेंट्री के सूटिंग करने के लिए इलाहाबाद तुम आए थे... तो तुने बात-बात में कहा था कि हमें झटके पसंद है... तुम्हारा उस समय चाहे जो मतलब था...मै तो काँप गया था...



मैं नवी या दसवी में पढ़ रहा था.... माँ, बहन के साथ मामा गाँव गई थी... हम बाबा के साथ घर में खाना बना रहे थे... बाबा के साथ दोस्ताना जैसा था... बाबा ने बात-बात में कह दिया कि हम तुम्हारी शादी में हाथी पर चढ़ के पैसा लुटाएँगे... मैं हँसने के बजाय गम्भीर हो गया.... और लगा कि मैं कह दूँगा कि तब तक आप जिन्दा रहेंगे...? (मेरा अनुमान बस इस आधार पर था कि बूढे तो कल मर ही जाते है)उस समय पापा अपने बाँस से झगड़ा करने के बाद नैकरी के लिए लड़ रहे थे... ऐसे में हाथी से पैसा लूटाने वाली बेवकूफाना हरकत हम सोच भी नहीं सकते थे... पापा लड़ाई तो नहीं जीत पाए लेकिन नैकरी मिल गई तो मेरे विरोध के बाद भी हाथी पर चढ़ के लोगो ने लूटाया... मेरा अनुमान गलत नहीं निकला... बाबा नहीं रहे...लेकिन मेरी शादी इतनी ज्ल्दी हो गई कि वो आराम से रह सकते थे.... उनके मरे हुए दस साल से जादा हो गए... लेकिन आज भी उनके सारे दोस्त मिलते है.... अंतत: मृत्यु बोध में मृत्यू जितनी रहे उसके आने का अनुमान लगभग निरर्थक होता है...

विमलेश त्रिपाठी said...

चन्दन, यार इतने दिनों में इतना गंभीर तुम्हें कभी नहीं देखा। मुलाकात तो एक ही है हमारी, 2005 या 2006 के कथाकुंभ, कोलकाता में ...जब हमने एक ही मंच से कहानी का पाठ किया था। लेकिन उस मुलाकात ने तुम्हे एक खुशनुमा युवा कथाकार के रूप में परिचय कराया था। यह सही है कि हम अपनी-अपनी नौकरियों में बंधे साहित्य को उतना नहीं दे पा रहे हैं...लेकिन तुमने इसी उम्र में वह कर दिखाया है जिसके लिए लोग पूरी उम्र तक खरच देते हैं....हमें तुमपर पूरा भरोसा है मेरे भाई...ये हवा के झोंके हैं कुछ... इनसे तो हमारा रात-दिन का साथ है....

shesnath pandey said...

विमलेश भाई आप चंदन के साथ कथा कुंभ में नहीं युवा महोत्सव में कहानी पाठ किया था... उसने अपनी कहानी नकार और आपने खंडहर और इमारत पढ़ी थी...

विमलेश त्रिपाठी said...

अरे हां...सही कहा तुमने भाई....Thanks

kundan pandey said...

mahaj sayong hi hoga ki aaj amma gir gayi hai aur use reed ki haddi me chot aayi hai aur aaj hi e post padhne ko mila..aaj hi vns se bhopal aaya hu isliye mn bhi nhi lg raha hai...jb didi ne bataya ki amma ko chot aayi hai aur wo bhi reedh ke haddi me..fir mere mn me achanak se khayal aaya ki kahi aisa na ho ki amma meri ab baithak ho jaye..fir kya hoga yeh sochkr mai bechain ho gaya ki ab kya kru.ye mere awchetan me hai lgta hai ki mai pareshani paida krne ke liye hu aur wo use dur krne ke liye..fir to ye laga ki ek puri duniya badal jayegi..is khayal ne ekdam se bechain kr diya...jisase chhutkara ke waste kai jagah phone milaya mslan didi, bhaiya and papa, pr santust nahi ho paya in logo ke jawab se..
unki baat kuch aisi thi ki kuch nahi hua hai sb thik ho jayega.laga sb mujhe bewkuf bana rahe hai.lekin is post ne ek takat di hai ki mai akela nahi hu...fir bhi amma se milne ki bahut ikchha ho rahi hai..

Anonymous said...
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Shrikant Dubey said...

कैसी हैं चाची जी?.. कुछ ज्यादा चोट तो नहीं आई है कुंदन / चन्दन भैया?..

Unknown said...

Kahin darte-darte hi...?

kundan pandey said...

shrikant, bhai yahi to spasht nahi ho paa raha hai...

Aparna Mishra said...

@ Kundan Don't Worry, She'll be fine....Ye rishta hee aisa hai ki apka pareshaan hona lazmi hai.... Take care