अपने अतिप्रिय कवि केदारनाथ सिंह की यह कविता इधर अचानक से यों ही याद आई है, वैसे ही जैसे कोई सिनेमाई गीत कभी कभी ज़बान पर अटक जाता है और उसे हम गाहे बे-गाहे गुनगुना लेते हैं। यह कविता मुझे पूरी याद न आकर टुकड़ों में याद आ रही थी पर जब अभी, यहाँ जालन्धर में, इसे लिखने बैठा तो किसी भूली हुई याद की तरह हू-ब-हू पूरा लिख बैठा। ऐसे ही इन्हीं की एक कविता याद आ रही है-‘बनारस’।
आना
जब समय मिले
जब समय न मिले
तब भी आना
आना
जैसे हाथों में
आता है जाँगर
जैसे धमनियों में
आता है रक्त
जैसे चूल्हों में
धीरे-धीरे आती है आँच
आना
आना जैसे बारिश के बाद
बबूल में आ जाते हैं
नए-नए काँटे
दिनों को
चीरते-फाड़ते
और वादों की धज्जियाँ उड़ाते हुए
आना
आना जैसे मंगल के बाद
चला आता है बुध
आना।
9 comments:
nice
sundar geet
One of the most adorable poems
मेरे नए ब्लोग पर मेरी नई कविता शरीर के उभार पर तेरी आंख http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/05/blog-post_30.html और पोस्ट पर दीजिए सर, अपनी प्रतिक्रिया।
आना
जब समय मिले
जब समय न मिले
तब भी आना
............अति सुंदर ,मेरी भी प्रिय रचना ।
अरे वाह जी बहुत सुंदर
धन्यवाद
वाह.......वाकई गुनगुनाने जैसी है
Its a nice composition.....We miss few people like this ways, we want them to be with us while shedding tears, laughing loud And many times with a changing weather.... I Miss a person badly & i want to ask him to come even if busy....
वाह!
बहुत आभार कवि केदारनाथ सिंह जी की कविता पढ़वाने का.
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