पारिवारिक तानाशाही का शिकार बन चुकी निरूपमा ने अपनी मृत्यु के बाद एक बड़ा काम किया है. विभाजक रेखा खींची है: ढोगियो और पाखंडियों को इतनी आसानी से मंच पर कभी नहीं देखा गया जो उस परिवार के सुख चैन के लिए हो-हल्ला मचा रहे है जिसने, अगर रिश्वतखोरो और दबाव बना कर जीने वालो के लिए उपयुक्त इस समय के सारे तर्कों को मान लें, निरूपमा को कम से कम आत्महत्या करने पर मजबूर किया ही किया. अपनी कुंठित उम्र जी चुके लोग ब्लॉग की दुनिया में नैतिक शुचिता पर गंध मचाये हुए हैं. अकुंठ और युवा पीढी के लिए निहायत ही गैर जरूरी प्रवचनों का परनाला बहा रहे हैं. ऐसे जले समय में महान कवि निजार कब्बानी की यह कविता, सालो पहले लिखी जा चुकी थी पर, अपने होने का कोई मतलब पाने के लिए शायद निरुपमा का इन्तजार कर रही थी. इस कविता को ढूढने और इसके अनुवाद का संयुक्त काम पूजा सिंह का है.
क्रुद्ध पीढ़ी चाहिए
हम एक गुस्सैल पीढी चाहते हैं
हम चाहते हैं ऐसी पीढी जो क्षितिज का निर्माण करेगी
जो इतिहास को उसकी जड़ो से खोद निकाले
गहराई में दबे विचारों को बाहर निकाले
हम चाहते हैं ऐसी भावी पीढी
जो विविधताओं से भरपूर हो
जो गलतियों को क्षमा ना करे
जो झुके नहीं
पाखंड से जिसका पाला तक ना पड़ा हो
हम चाहते हैं एक ऐसी पीढी
जिसमें हों नेतृत्व करने वाले
असाधारण लोग
4 comments:
अच्छी कविता। पूजा ने अनुवाद सुंदर किया है। बेहद जरूरी हस्तक्षेप चंदन।
प्रासंगिक!! सही सन्दर्भ में सटीक खोज. पूजा को धन्यवाद!
बहुत प्यारी कविता चन्दन..
काश ऎसी पीढी आये.. Amen!!
चंदनजी एक जरूरी और बहसतलब विषय पर उम्दा और प्रासंगिक कविता के चयन के लिए बधाई और पूजा को भी.
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