( हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली / हम मुश्ते खाक हैं फानी, रहे रहे न रहे )
स्मृति घुलनशील है. वैसे, स्मृतियाँ भी मरती हैं पर उनके मृत्यु की रफ्तार बहुत धीमी होती है और एन – केन – प्रकारेण लोग हमारी स्मृतियों में तब तक बने रहते हैं जब तक कि हम खुद इस काया के मालिक हैं. जैसे रोहित सर ने जो बाते मुझसे फोन पर की वो मुझे हमेशा याद रहने वाली हैं, इस तरह वो हैदराबाद की दोपहर भी जब पूजा ने उनसे फोन पर बात कराई थी, इस तरह दिल्ली का कमल सिनेमा भी जहाँ से वो मुझे फोन कर रहे थे, इस तरह गोरखपुर में उनसे मिलने का अधूरा करार भी जो कभी पूरा नहीं हो पायेगा.
रोहित पाण्डेय, जो मित्रों के अध्यापक होने के नाते मेरे मन में भी अध्यापक के किरदार में ही बसे हैं, बीमार थे. यह विडम्बना ही है कि उनकी मृत्यु का कारक कौन सी बीमारी बनी यह ठीक ठीक तय नहीं हो पाया. किडनी की बीमारी से परास्त वो करीब साल भर से डायलिसिस पर थे. किडनी का इलाज इसलिए नहीं हो पा रहा था क्योंकि उन दवाईयों का घातक असर इंटेस्टाईनल ट्यूबरक्लोसिस की बीमारी पर पड़ता. बाद के दिनों उनके फेफड़े में पानी भी भर चुका था.
और हद यह कि इन सब की शुरुआत पीठ में लगी चोट से हुआ था. पीठ का इलाज करने वाले ने दवाईयाँ लिखीं, जिनमें एंटीबायोटिक खूब थे, पर वह डॉक्टर यह मामूली तथ्य बताना भूल गया कि एंटीबायोटिक दवाईयों के साथ कच्चा भोज्यपदार्थ खाना कितना जरूरी है. इस मामूली एहतियात से उन दवाईयों का असर किडनी पर नहीं पड़ता. हालाँकि कारण पता करना इतना सामान्य नहीं है पर मेरी अम्मा एक कहावत कहती है, “जेकर भुलाला ऊ लोटा की पेन्दी की नीचे भी खोजेला” (जिसका कुछ सामान खो जाता जाता है वो लोटे के समतल पेंदे के नीचे भी ढ़ूढ़ता है).
उनकी उम्र बमुश्किल पैतीस की थी और गोरखपुर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग की अस्थायी नौकरी पर थे. जहाँ तक बेकल मन साथ दे रहा है, वैसे में जान पड़ता है कि वे हिन्दुस्तान अखबार से भी जुड़े रहे थे. पर जरूरी बात यह कि एक अस्थायी शिक्षक कैसे गोरखपुर जैसी, धार्मिक, सामंती तथा कम उर्वर जगह से पत्रकारों की फौज खड़ा कर रहा था. यह जिनको समझ मे ना आये उनके लिए एक स्थूल उदाहरण:-
क्रिकेट सचिन भी खेलते हैं और बंगलौर में मेरे मुहल्ले का अशफ़ाक भी. सचिन के बारे में सब जानते हैं और अशफ़ाक जानने – न जानने के व्यवसाय से बहुत दूर है. वो प्राईवेट बीमा कम्पनी का मुलाजिम है पर जब वो बैटिंग करने उतरता है तो आस पास की अवाम उसका ऐतमाद करती है. मुरीद लोग उससे बल्लेबाजी सीखने के लिए उसके पास आते हैं और, बात यहाँ बनती नजर आयेगी कि वह अशफ़ाक, मुहल्ले के नए रंगरूटों को बल्लेबाजी सिखाता है. उनका सिखाया हुआ एक तालिब आज जिला स्तर पर रौशन हो रहा है. ठीक इसी तरह रोहित सर ने हर साल कुछ रंगरूट तैयार किए जो जहाँ भी हैं, किसी उद्देश्य के साथ हैं और सबसे बड़ी बात कि पत्रकार होने की अहमियत समझते हैं. इनमें पूजा, अभिनव, रंजेश आदि कुछ नाम हैं जिनकी हर भली बात के बीच रोहित सर का नाम किसी खुश रंग की तरह आता है.
उनसे मेरा ताल्लुक सीधे तौर पर नहीं था. जैसे पूजा ने मुझे उनके बारे में बताया वैसे ही उनको भी मेरे बारे में बताया होगा. हम गुरु शिष्य के मार तमाम किस्से आये दिन सुनते हैं पर रोहित सर का जो स्थान पूजा या अभिनव के जीवन में था वह आईनादार था. वे अपने विद्यार्थियों की उलझी हुई गुत्थियाँ सुलझाने में अपना सर्वस्व दाँव पर लगा देते थे. वो चूँकि अस्थायी नौकरी पर थे इसलिए अपने विद्यार्थियों को नौकरी दिला पाना उनके बस में नहीं था और किस्मत की ऊंचाई देखिये कि यह बात भी उन विद्यार्थियों के पक्ष में ही गई. वे लगातार तैयारी करते रहे और आज सब अच्छे मुकाम पर पहुंचने की स्थिति में है जबकि इन सबके पत्रकार की उम्र बमुश्किल तीन से चार साल की है.
विगत तीन मार्च को उनका निधन हुआ. जब मुझे खबर मिली तो क्षणिक सदमें के बाद मेरा ध्यान उस दिन की बात पर चल गया जब वे दिल्ली में थे, मैं हैदराबाद था और हमने फोन पर बात की थी. उन्होने मेरी कहानियों पर बातें की थी, मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछा था और एक ऐसी बात कही थी जो मैं बता नहीं सकता पर मेरे मन में वह समूचा वाक्य सूरजमुखी के फूल की तरह पसरा हुआ है. उस दिन से वो मेरे ख्याल में जगह बना पाए. उस दिन मुझे पहली बार लगा कि आपको पता भी नहीं होता और आपके बारे में लोग सोच रहे होते हैं, बातें कर रहे होते हैं. उस एक बात से मुझे लगा कि अपने विद्यार्थियों के बीच उनका ऐसा ‘क्रेज’ क्यों बना हुआ है.
एक समय ऐसा भी आया था कि जब दो मित्र आपस में किसी नादान बात पर लड़ लेते थे और आपसदारी की बातचीत बन्द कर देते थे. पर थे तो मित्र ही, उनके बारे में जाने बिना, कुछ अच्छा सुने बिना मन नहीं मानता रहा होगा. तब वे रोहित सर से एक दूसरे का हाल लेते थे. इस मायने में रोहित सर एक पुल थे जिनके छाँव तले कितनी नदियाँ बह रही थी और जब ये नदियाँ थक जाती तो उसी छाँव में सुस्ता लेती थीं. वही रोहित सर नहीं रहे.
पर ऐसा जीवंत आदमी मृत्यु को ढकेल नहीं पाया. ऐसा नहीं कि जीते चले जाने से उन्हें उलझन थी. वे जिन्दादिल थे पर यह सत्य स्वीकार बहुत कठिन है कि वे लाईलाज नहीं हुए थे. गाने वाले और रोने वाले चाहें जो कहें, रोहित सर यह मान चुके थे कि खुद का इलाज करा सकने भर की पूँजी उनके पास नहीं थी.
यह जीवन का अबूझ व्याकरण ही कहा जायेगा कि उन्हीं दिनों रोहित सर ने रविवार के रविवार मौन व्रत रखना शुरु किया था और दवाईयों के कातिल सिलसिले में उसे भी ताउम्र निभा नहीं पाए. उन्होनें अचानक से बिस्तर नहीं पकड़ लिया. जब मेरी उनसे बात हुई थी तब वे दिल्ली ईलाज कराने ही आए थे. जो उनकी आवाज में उत्साह था, उससे यह मानना भी मुश्किल था कि यह इंसान चन्द दिनों का मेहमान है.
उनकी मृत्यु का स्वीकार इसलिए भी दु:खद है क्योंकि उनके पीछे उनकी पत्नी और बच्चे थे. स्मृति ऐसे मौकों पर दूर खड़ी हँसती हैं, जब हम उसके आगे बेजार होने लगते हैं. ऐसा नहीं होना चाहिये था. उन्हें मेरी श्रद्धांजलि.