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Tuesday, March 15, 2011

स्मृति का आयतन, रोहित सर का जाना और टूटा हुआ पुल


( हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली / हम मुश्ते खाक हैं फानी, रहे रहे न रहे )

स्मृति घुलनशील है. वैसे, स्मृतियाँ भी मरती हैं पर उनके मृत्यु की रफ्तार बहुत धीमी होती है और एन – केन – प्रकारेण लोग हमारी स्मृतियों में तब तक बने रहते हैं जब तक कि हम खुद इस काया के मालिक हैं. जैसे रोहित सर ने जो बाते मुझसे फोन पर की वो मुझे हमेशा याद रहने वाली हैं, इस तरह वो हैदराबाद की दोपहर भी जब पूजा ने उनसे फोन पर बात कराई थी, इस तरह दिल्ली का कमल सिनेमा भी जहाँ से वो मुझे फोन कर रहे थे, इस तरह गोरखपुर में उनसे मिलने का अधूरा करार भी जो कभी पूरा नहीं हो पायेगा.


रोहित पाण्डेय, जो मित्रों के अध्यापक होने के नाते मेरे मन में भी अध्यापक के किरदार में ही बसे हैं, बीमार थे. यह विडम्बना ही है कि उनकी मृत्यु का कारक कौन सी बीमारी बनी यह ठीक ठीक तय नहीं हो पाया. किडनी की बीमारी से परास्त वो करीब साल भर से डायलिसिस पर थे. किडनी का इलाज इसलिए नहीं हो पा रहा था क्योंकि उन दवाईयों का घातक असर इंटेस्टाईनल ट्यूबरक्लोसिस की बीमारी पर पड़ता. बाद के दिनों उनके फेफड़े में पानी भी भर चुका था.

और हद यह कि इन सब की शुरुआत पीठ में लगी चोट से हुआ था. पीठ का इलाज करने वाले ने दवाईयाँ लिखीं, जिनमें एंटीबायोटिक खूब थे, पर वह डॉक्टर यह मामूली तथ्य बताना भूल गया कि एंटीबायोटिक दवाईयों के साथ कच्चा भोज्यपदार्थ खाना कितना जरूरी है. इस मामूली एहतियात से उन दवाईयों का असर किडनी पर नहीं पड़ता. हालाँकि कारण पता करना इतना सामान्य नहीं है पर मेरी अम्मा एक कहावत कहती है, “जेकर भुलाला ऊ लोटा की पेन्दी की नीचे भी खोजेला” (जिसका कुछ सामान खो जाता जाता है वो लोटे के समतल पेंदे के नीचे भी ढ़ूढ़ता है).

उनकी उम्र बमुश्किल पैतीस की थी और गोरखपुर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग की अस्थायी नौकरी पर थे. जहाँ तक बेकल मन साथ दे रहा है, वैसे में जान पड़ता है कि वे हिन्दुस्तान अखबार से भी जुड़े रहे थे. पर जरूरी बात यह कि एक अस्थायी शिक्षक कैसे गोरखपुर जैसी, धार्मिक, सामंती तथा कम उर्वर जगह से पत्रकारों की फौज खड़ा कर रहा था. यह जिनको समझ मे ना आये उनके लिए एक स्थूल उदाहरण:-

क्रिकेट सचिन भी खेलते हैं और बंगलौर में मेरे मुहल्ले का अशफ़ाक भी. सचिन के बारे में सब जानते हैं और अशफ़ाक जानने – न जानने के व्यवसाय से बहुत दूर है. वो प्राईवेट बीमा कम्पनी का मुलाजिम है पर जब वो बैटिंग करने उतरता है तो आस पास की अवाम उसका ऐतमाद करती है. मुरीद लोग उससे बल्लेबाजी सीखने के लिए उसके पास आते हैं और, बात यहाँ बनती नजर आयेगी कि वह अशफ़ाक, मुहल्ले के नए रंगरूटों को बल्लेबाजी सिखाता है. उनका सिखाया हुआ एक तालिब आज जिला स्तर पर रौशन हो रहा है. ठीक इसी तरह रोहित सर ने हर साल कुछ रंगरूट तैयार किए जो जहाँ भी हैं, किसी उद्देश्य के साथ हैं और सबसे बड़ी बात कि पत्रकार होने की अहमियत समझते हैं. इनमें पूजा, अभिनव, रंजेश आदि कुछ नाम हैं जिनकी हर भली बात के बीच रोहित सर का नाम किसी खुश रंग की तरह आता है.

उनसे मेरा ताल्लुक सीधे तौर पर नहीं था. जैसे पूजा ने मुझे उनके बारे में बताया वैसे ही उनको भी मेरे बारे में बताया होगा. हम गुरु शिष्य के मार तमाम किस्से आये दिन सुनते हैं पर रोहित सर का जो स्थान पूजा या अभिनव के जीवन में था वह आईनादार था. वे अपने विद्यार्थियों की उलझी हुई गुत्थियाँ सुलझाने में अपना सर्वस्व दाँव पर लगा देते थे. वो चूँकि अस्थायी नौकरी पर थे इसलिए अपने विद्यार्थियों को नौकरी दिला पाना उनके बस में नहीं था और किस्मत की ऊंचाई देखिये कि यह बात भी उन विद्यार्थियों के पक्ष में ही गई. वे लगातार तैयारी करते रहे और आज सब अच्छे मुकाम पर पहुंचने की स्थिति में है जबकि इन सबके पत्रकार की उम्र बमुश्किल तीन से चार साल की है.

विगत तीन मार्च को उनका निधन हुआ. जब मुझे खबर मिली तो क्षणिक सदमें के बाद मेरा ध्यान उस दिन की बात पर चल गया जब वे दिल्ली में थे, मैं हैदराबाद था और हमने फोन पर बात की थी. उन्होने मेरी कहानियों पर बातें की थी, मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछा था और एक ऐसी बात कही थी जो मैं बता नहीं सकता पर मेरे मन में वह समूचा वाक्य सूरजमुखी के फूल की तरह पसरा हुआ है. उस दिन से वो मेरे ख्याल में जगह बना पाए. उस दिन मुझे पहली बार लगा कि आपको पता भी नहीं होता और आपके बारे में लोग सोच रहे होते हैं, बातें कर रहे होते हैं. उस एक बात से मुझे लगा कि अपने विद्यार्थियों के बीच उनका ऐसा ‘क्रेज’ क्यों बना हुआ है.

एक समय ऐसा भी आया था कि जब दो मित्र आपस में किसी नादान बात पर लड़ लेते थे और आपसदारी की बातचीत बन्द कर देते थे. पर थे तो मित्र ही, उनके बारे में जाने बिना, कुछ अच्छा सुने बिना मन नहीं मानता रहा होगा. तब वे रोहित सर से एक दूसरे का हाल लेते थे. इस मायने में रोहित सर एक पुल थे जिनके छाँव तले कितनी नदियाँ बह रही थी और जब ये नदियाँ थक जाती तो उसी छाँव में सुस्ता लेती थीं. वही रोहित सर नहीं रहे.

पर ऐसा जीवंत आदमी मृत्यु को ढकेल नहीं पाया. ऐसा नहीं कि जीते चले जाने से उन्हें उलझन थी. वे जिन्दादिल थे पर यह सत्य स्वीकार बहुत कठिन है कि वे लाईलाज नहीं हुए थे. गाने वाले और रोने वाले चाहें जो कहें, रोहित सर यह मान चुके थे कि खुद का इलाज करा सकने भर की पूँजी उनके पास नहीं थी.

यह जीवन का अबूझ व्याकरण ही कहा जायेगा कि उन्हीं दिनों रोहित सर ने रविवार के रविवार मौन व्रत रखना शुरु किया था और दवाईयों के कातिल सिलसिले में उसे भी ताउम्र निभा नहीं पाए. उन्होनें अचानक से बिस्तर नहीं पकड़ लिया. जब मेरी उनसे बात हुई थी तब वे दिल्ली ईलाज कराने ही आए थे. जो उनकी आवाज में उत्साह था, उससे यह मानना भी मुश्किल था कि यह इंसान चन्द दिनों का मेहमान है.

उनकी मृत्यु का स्वीकार इसलिए भी दु:खद है क्योंकि उनके पीछे उनकी पत्नी और बच्चे थे. स्मृति ऐसे मौकों पर दूर खड़ी हँसती हैं, जब हम उसके आगे बेजार होने लगते हैं. ऐसा नहीं होना चाहिये था. उन्हें मेरी श्रद्धांजलि.

Sunday, December 5, 2010

सलाम बॉम्बे हमें कहाँ छोड़ती है..














(कुछ फिल्में ऐसी होती है जो अपने हर विनम्र दर्शक को नये तरीके से सोच विचार करने पर मजबूर करती हैं, जैसे सलाम बॉम्बे पर पूजा सिंह के यह प्रथम दृष्टया नोट्स...)

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मीरा नायर की फिल्म सलाम बाम्बे की त्रासदी यह है कि ये फिल्म जहां से शुरू होती है, ठीक वहीं खत्म होती है. जिस लट्टू का खेल कृष्णा फिल्म के शुरुआती दृश्य में खेलता हुआ दिखा है वही लट्टू वो फिल्म के आखिरी दृश्य में नचा रहा होता है. और वो भी रोते हुए. पूरा सिनेमा देखकर हमें पता चलता है कि वाकई इस रात की सुबह नहीं. ये फिल्म थोड़ी थोड़ी सबकी है बगैर किसी भेदभाव के. कृष्णा की जो पूरी शिद्दत, पूरी ईमानदारी से मेहनत करने के बावजूद 500 रुपये तक नहीं जोड़ पाता, सोलह साल, चिलम, रेखा मंजू यहां तक कि बाबा भी. ये फिल्म इन सबकी है क्योंकि बाम्बे इन सबका है.

फिल्म को प्रस्तुति इसे ‘ऑरिजिनल’ की श्रेणी में रखती है जो मानीखेज सी लगती बात है. गांव के सर्कस से कृष्णा बाम्बे शहर के लाइव सर्कस में आ जाता है. यहां भी उसके जीवन में वही खालीपन है जो सर्कस उजड़ने के बाद गांव में था. इस बीच उसके जीवन में जो बदलाव आता है वह है चिलम यानी रघुवीर यादव की दोस्ती के साथ चायपाव का नया नाम. चाय पहुंचाने वह उन गुमनाम गलियों में भी जाता है जहां मानव सभ्यता का सबसे पुराना व्यवसाय फलता फूलता है…देह व्यापार. वहां उसे एक लड़की मिलती है जिसे जबरन पेशे में डाला जा रहा है. उस गुमसुम लड़की का नाम वह सोलह साल रखता है. वही सोलह साल जो फिल्म की शुरुआत में इस जीवन का प्रतिरोध करती है लेकिन आखिरकार नियति मान कर स्वीकार कर लेती है.

उसे इसके लिए तैयार करता है बाबा यानी नाना पाटेकर. जो दलाली, नशाखोरी समेत जाने मुंबई के कितने अंधेरे कारोबारों में शामिल है. वह शरीर बेचकर अपना पेट पालने वाली रेखा से शादी करता है जिससे उसकी एक बेटी भी है, लेकिन वह अपनी पत्नी से अब भी धंधा करवाता है. वह चिलम से नशीली चीजें बिकवाता है.

इस बीच कृष्णा के जीवन में जाने कितने मोड़ आते हैं, चिलम की बीमारी, मौत, बाल सुधार गृह, फरारी लेकिन जीने की आस उसे हर बार उस गली में ले आती है. जहां इस बीच कुछ भी नहीं बदला होता, सब कुछ वैसा ही. इस बीच बदल चुका होता है उस लड़की सोलह साल का मन. वह अपने पहले धंधे पर निकलती है. सलाम बाम्बे की कहानी कई कहानियों के साथ मासूमियत इंसानियत के खून की कहानी भी है. मासूम कृष्णा जिन लोगों के कारण व जिनके बीच चोरी, फरेब नशे से हत्या तक का सफर तय करता है, वे अब भी अपने काम पर हैं रोज नए नए कृष्णा के साथ. हम तब भी तमाशबीन थे अब भी वही हैं…

Thursday, June 24, 2010

आविष्कार और आवश्यकता




अब जब बारिश आ गई है, मौसम के कटीलें रोयें जरा नर्म पड़ गये हैं, तो इस तस्वीर को देख कर लोग बहुत कुछ अवॉट बवॉट सोचेंगे, सोचेंगे कोई नकाबपोश है, सोचेंगे हो न हो कोई आतंकवादी है.. और नही तो कोई पुलिसवाला है जो छुप के कहीं छापा डालने जा रहा है(मेरी भांजी प्राची जब बहुत छोटी थी तो अपना चेहरा अपने ही हाथों से ढँक कर समझती थी कि वो सबसे छुप गई है और बहुत ही प्यारी भोजपुरी बोलते हुए पूछती थी – मामा हम कोईजा बानी (मामा मैं कहाँ हूँ) जबकि होती वो ठीक मेरे सामने थी).

पर यह तस्वीर मई के उन दिनों की है जब तापमान बढ़ कर असीम हो चुका था और हमारे बुजुर्ग कहानीकारों की तरह हमसे बेहद नाराज लू का कहना था कि अभी नहीं तो कभी नहीं. ऐसे में जो मुँह में चांदी का चम्मच लिये नही पैदा हुए है उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. उन्हे यह सहूलियत उप्लब्ध नही होती कि ए.सी ऑफिस से निकले तो सीधा चार पहियों वाली ए.सी. में लैंड किये. हमारा तो इंतज़ार ए.सी. ऑफिस के बाहर गुस्सैल सूरज कर रहा होता है यह कहते हुए कि - मुझे यहाँ धूप में छोड़ खुद ए.सी. की हवा खा-पी रहे थे, अब चखाता हूँ तुम्हे मौसम का असली मजा. घर के उबलते हुए कमरे इंतजार कर रहे होते हैं. घड़े का पानी इंतजार कर रहा होता है जिसे घड़े ने अप्रैल में ही पानी ठंढा करने से इंकार कर दिया था. कहीं यह इंतजार ऑरेंज फ्लेवर का ग्लूकॉन डी भी करता है.

दिन में लू के थपेड़े हमारे चेहरे को झुलसा देतें हैं, पीटते हैं जैसे खूब उंचाई से गिरा हुआ आम. गर्म लू ठीक से सांस भी नही लेने देती. और फिर आप ऐसे अनोखे अनोखे और बेचारे बेचारे किस्म के मासूम इंतजाम करने में लगे रहते हैं जैसे इस तस्वीर में पूजा.

खुद की यह तस्वीर पूजा ने रिक्शे पर बैठे बैठे ही उतारी है और इस समय वो कोई मास्क या नकाब नही डाले हुए है. यह एक टिशू पेपर है जिससे इन्होने अपना चेहरा ढँक रखा है. बहुत तेज लू के खिलाफ एक जिद की तरह यह टिशू पेपर टिका है. फिर वो बात शुरु होती है जिसके लिये यह पीढ़ी मशहूर हुई जा रही है और जो बुजुर्गों को बहुत नागवार गुजर रही है. अगर रोने गाने वाली पीढ़ी ने लू के खिलाफ यह क्षणिक उपाय विचारा होता तो उसका गुण गाते(जाहिर है, रोते हुए ही), उस टिशू पेपर को ताउम्र के लिये, प्रेमपत्र की तरह, बचा रखते. पर पूजा ने ठीक इसका उल्टा किया. यह इतिहास में अमर होने की झूठी आकांक्षा रखने वाली पीढ़ी नही है इसलिये ज्यादा स्वंतत्र है और एक एक पल को जीने मे यकीन रखती है..इसलिये लू के खिलाफ यह टिशू पेपर कितना कारगर हुआ यह तो पता नही पर जैसा की तस्वीर से जाहिर है, पूजा ने टिशू पेपर में दो ऐसी जगहों पर सूराख किये जहाँ आँखे टिक रही है ताकि बाहर का भी जायजा जारी रहे.

बिना बताये समझने वाली बात यह है कि यह उपाय हमेशा हमेशा के लिये नही है और ना ही यह कोई उच्शृंखलता दर्शाती है.. यह बस एक खास समय की मुश्किल से बचने के लिये लिया गया क्षणिक सहारा है. बेहद तात्कालिक और उतना ही जरूरी.

Thursday, June 10, 2010

दिल्ली में बच्चे



यह तस्वीर पूजा ने उपलब्ध कराई है.इनके नये मोबाईल – नोकिया 2700 क्लासिक के कैमरे से उतारी गई यह तस्वीर जिस क्षण की है उसके ठीक पहले, जैसा पूजा ने बताया, ये तीनों बहादुर अपनी इस साईकिल पर सवार होकर किसी कार से रेस लगा रहे थे और फिर जो हंसी छूटी कि अब भी मुस्कुरा रहे हैं.

दिल्ली का नाम आते ही कुछ ऐसी जिम्मेदार या फिर क्रूर छवि मन मे उभरती है कि मानो दिल्ली में बच्चे होते ही नही होंगे. और अगर होते भी हों तो शरारते सभ्य शहर के बाहर जाकर करतें होंगे. ऐसी भोली शरारतों के लिये मेरे मन मे धनबाद की जगह सुरक्षित है. मैं आठ और नौ के बीच रहा होउंगा जब पापा के साथ धनबाद एक नातेदारी में गया था. वहाँ एक छोटा बच्चा था, चार या पाँच का, जिसकी तिपहिया साईकिल मैने खूब चलाई थी. मेरे पैर उस खास समय की आवश्यकता से लम्बे थे पर मुझ पर कोई पागल धुन सवार हो गई थी.

अभी देखें तो इन तीनों में से पीछे वाले को छोड़कर किसी की भी उम्र इस साईकिल पर बैठने वाली नही रह गई है पर एक नही, दो नही, तीन तीन सवार इस नन्ही साईकिल पर जमे हैं और जैसे इतना ही काफी नही कि किसी कार से भी रेस लगा चुके हैं तथा इनकी जो मुस्कान है वो नब्बे के दशक का सबसे मशहूर डायलॉग याद दिला रही है.. “ ...जीत कर हारने वाले को बाजीगर कहते हैं.”

इनके पूरे चेहरे पर फैली मुस्कान से मन हरा हो गया. यह चित्र यहाँ दे रहा हूँ इस भली उम्मीद के साथ कि काश ये बच्चा पार्टी अपने जीवन की हर रेस जीते.

Friday, May 7, 2010

निजार कब्बानी की कविता जो वर्षों पहले निरूपमा के लिए ही लिखी थी

पारिवारिक तानाशाही का शिकार बन चुकी निरूपमा ने अपनी मृत्यु के बाद एक बड़ा काम किया है. विभाजक रेखा खींची है: ढोगियो और पाखंडियों को इतनी आसानी से मंच पर कभी नहीं देखा गया जो उस परिवार के सुख चैन के लिए हो-हल्ला मचा रहे है जिसने, अगर रिश्वतखोरो और दबाव बना कर जीने वालो के लिए उपयुक्त इस समय के सारे तर्कों को मान लें, निरूपमा को कम से कम आत्महत्या करने पर मजबूर किया ही किया. अपनी कुंठित उम्र जी चुके लोग ब्लॉग की दुनिया में नैतिक शुचिता पर गंध मचाये हुए हैं. अकुंठ और युवा पीढी के लिए निहायत ही गैर जरूरी प्रवचनों का परनाला बहा रहे हैं. ऐसे जले समय में महान कवि निजार कब्बानी की यह कविता, सालो पहले लिखी जा चुकी थी पर, अपने होने का कोई मतलब पाने के लिए शायद निरुपमा का इन्तजार कर रही थी. इस कविता को ढूढने और इसके अनुवाद का संयुक्त काम पूजा सिंह का है.

क्रुद्ध पीढ़ी चाहिए

हम एक गुस्सैल पीढी चाहते हैं
हम चाहते हैं ऐसी पीढी जो क्षितिज का निर्माण करेगी
जो इतिहास को उसकी जड़ो से खोद निकाले
गहराई में दबे विचारों को बाहर निकाले
हम चाहते हैं ऐसी भावी पीढी
जो विविधताओं से भरपूर हो
जो गलतियों को क्षमा ना करे
जो झुके नहीं
पाखंड से जिसका पाला तक ना पड़ा हो
हम चाहते हैं एक ऐसी पीढी
जिसमें हों नेतृत्व करने वाले
असाधारण लोग

Wednesday, April 28, 2010

नोयडा से दिल्ली, ऑफिस से घर

(नोयडा से दिल्ली मैं, हद से हद, दस बार आया होउंगा. पांच छः बार नोयडा से जे.एन.यू. तथा तीनेक बार नोयडा से आई.टी.ओ. और हर बार पाया कि दिल्ली के भीतर आना जाना जितना आसान है उतना नोयडा से दिल्ली नहीं. ना ज्यादा बसें हैं, मेट्रो भी अभी शुरू हुई है और भारी भीड़ ले के चलती है तथा उससे आना जाना बेतरह महँगा है. उन्ही दिनों मन में एक कहानी का प्लाट घूमा था और पता नहीं कब लिखा जाता. पर इस बीच पूजा का यह स्वानुभूत आलेख.)

पिछले ढाई साल से दिल्ली में हूँ और ऑफिस से घर(जाहिर सी बात है किराए का घर) आने जाने के तमाम अनुभव हैं. अच्छे या बुरे जैसे भी हैं, इन अनुभवों की कमी कत्तई नहीं है. नौरोजी नगर के बस स्टॉप पर नोयडा जाने वाली ठसाठस भरी बसों में चढ़ पाने की जद्दोजहद हो या कभी बारिश में भींगते भागते ऑफिस पहुंचना हो. वो दिन खुशनसीब होता जिस दिन सुबह बस में जगह मिल जाती थी.

इन्ही मुश्किलों के कारण सफदरजंग इन्क्लेव से मदर डेयरी शिफ्ट करने का निर्णय लिया. यहाँ आते हुए मन के किसी कोने में एक खुशी यह भी थी कि चलो यहाँ से नोयडा के लिए ढेरो बसें होंगी जिससे ऑफिस आना जाना कम दुश्वार हो जाएगा. लेकिन इस खुशी ने काफूर होने में ज्यादा समय नहीं लिया. पर ऑफिस तो जाना ही था, चाहे जैसे जाऊं.

इनदिनों बेवजह परेशान रहती हूँ. कोइ कारण दिखाई नहीं देता पर कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है मेरे साथ. ना कहीं जाने की इच्छा होती है न ही किसी से बात करने की. मैं खुद से ही शायद इतना बोल लेती हूँ कि थकान मुझ पर हावी रहती है. ऑफिस में अक्सर लोग मुझसे पूछने लगे हैं कि तुम परेशान क्यों रहती हो? अब मुझे लगता है कि अगर मैं ऑफिस नहीं आती जाती तो शायद पागल हो जाती जबकि मेरा स्वभाव ऐसा रहा है कि मुझे सफ़र पर निकलना बेहद पसंद रहा है चाहे माध्यम चरण एक्सप्रेस( पैदल), बस, ऑटो, मेट्रो ही क्यों न हो. बाईक की सवारी मेरा पसंदीदा शगल है, चाहे मैं खुद ड्राइव कर रही होऊं या कोइ और. लेकिन आजकल मोटरसाइकल की कल्पना करते ही सिहरन होने लगती है. असल बात कुछ इस तरह:-

मेरे एक अजीज मित्र के सगे भाई हैं, वैसे नाम में क्या रखा है, पर अपनी सुविधा के लिए इनका एक नाम रखा लेते हैं, जैसे उनका नाम इस बेचारी बात चीत में 'अ' रहेगा. जनाब 'अ' का घर मेरे कमरे से दो मिनट की दूरी पर है.सुबह ऑफिस जाने का समय भी कमोबेश एक ही है और लगभग रोज ही आते जाते मुझसे टकरा जाया करते हैं. इनके बेहद जिद करने पर लगभग एक पखवाड़ा पहले मैंने इनकी बाईक पर ऑफिस जाना शुरू किया जहां एक नया ही खेल मेरा इंतज़ार कर रहा था.

अपने घर पर हमेशा गंभीरता और रुआब का आवरण ओढ़े रहने वाला यह शख्स बाइक पर मेरे बैठते ही टिपिकल मर्द में बदल जाता है. रास्ते भर डींगे मारता है: आज ऑफिस से इसको नौकरी से निकाल दिया, उसको रखा लिया,अलान हाथ जोड़ रहा था, फलां पैर पकड़ रहा था, वगैरह..वगैरह...मगर यह तो जैसे शुरुआत भी नहीं थी.

दो एक दिन ही साथ आते जाते हुआ था कि इन्होने मुझसे पूछा, " रोज ऑफिस आने जाने में कितना खर्च होता है?" मैंने जोड़ घटा कर कुछ बताया, लगे हाथ यह भी कह दिया "भैया, चुकी मैं रोज ही आपके साथ आ जा रही हूँ इसलिए मैं आपको एकमुश्त पैसा दे दूंगी." इतना कहना था कि उनके भीतर का पुरुष या कहा ले कि ' भैया' जाग गया और कहने लगे, " तुमने ऐसा सोचा भी कैसे, क्या मैं इतना गिरा हुआ हूँ, ..तुम नहीं आती तो भी इतना ही पेट्रोल फूंकता.." आदि आदि. मैं भी सहम कर चुप हो गयी, सच था कि मुझे ऐसी छोटी बात नहीं करनी चाहिए थी.

मंगलवार का दिन था और इन्होने बजरंग बली की खुशामदीद के लिए व्रत रखा हुआ था. ऑफिस से लौटते हुए 'अ' महाशय को जूस की तलब लगी. इच्छा न होने के बावजूद भी मैंने इनका साथ तो दिया ही दिया और पैसे भी दिए.अगले दिन बाइक मदर डेयरी पर रूकती है, क्या है तो...लस्सी पीने की इच्छा हो रही है..पर पर्स तो भूल आया हूँ. सौ कदम आगे चल कर बाइक जनरल स्टोर पर रूकती है...कुछ चिप्स लेना है बच्चों ने मंगाया है.

धीरे धीरे ये बातें रूटीन में शामिल हो गयी. मदर डेयरी पर लस्सी. जहां मुझे उतरना होता है वहाँ से बच्छो के लिए चिप्स या कुरकुरे. रोज. रोज मतलब रोज! कहने की जरुरत नहीं कि पैसे मैं ही देती थी. कुछेक बार लिहाज में और कई बार उनके कहने पर.

इधर कुछ दिनों से क्या होने लगा है कि हर तीसरे दिन, नियम से, पेट्रोल पम्प पर पहुंचाते हैं और वहाँ जाकर अचानक याद आता है कि अपना बटुआ तो आज घर पर ही भूल आये हैं. और अगर मैंने पेट्रोल नहीं भरवाया तो जाहिर है बाइक कहीं भी बंद हो सकती है.

उस दिन ऑफिस से मैं बेहद खराब मूड में निकली. धुप और लू से सर में चकमक हो रहा था और मुझे मेरा रूम दिखाई दे रहा था. जेब में बीस पच्चीस रूपये पड़े थे. तब तक उनका फोन आया: रजनी गंधा तक मैं भी पांच मिनट में पहुँच रहा हूँ.

रजनीगंधा पहुँच कर मैं 'अ' भैया का इंतज़ार करने लगी. मैं जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहती थी. वो आये. पर हुआ यह कि बाइक पर ठीक मेरे ठीक से बैठने के पहले फरमाईशों की उनकी फेहरिस्त खुल गयी. कहने लगे, " भतीजी का फोन आया था, बड़ी शैतान है, कहने लगी कि बिना छाता लिए आये तो घर में अन्दर नहीं आने देगी." इशारों में यह भी बता दिया कि पैसे नहीं है उनके पास. मैंने टका सा जबाव दिया कि मेरे पास भी नहीं है.

उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, " एटीएम् तो होगा". छतरी लेने की खातिर उस आदमी ने दिल्ली नोयडा एक कर दिया. गोल चक्कर से atta तक के सारे एटीएम् तक वो मुझे लेकर गए. और हर जगह उतनी ही भीड़. भीड़ होने का हवाला दे उन्होंने कहा, " तुम अपना एटीएम् मुझे दो मैं पैसे निकाल कर लाता हूँ." आखिरकार पैसे निकले और ये आदमी छतरी के लिए दूकान दर दूकान घुमाता रहा. मेरी तबीयत ज़रा भी ठीक नहीं थी और उस दिन वो हद कर रहे थे. मेरा मन कर रहा था कि गाडी रुकवाऊँ और एक थप्पड़ मार कर चली जाऊं. बार बार मन में यह चल रहा था कि घर पर मेरा भाई भी मेरा इंतज़ार कर रहा होगा.

घंटो घुमाने के बाद छतरी की दूकान और छतरी दोनों मिली. बाद में पेट्रोल पम्प पर मुझसे पैसे लिए. और लस्सी पीने के बाद तो जैसे ताबूत में आख़िरी कील बाकी रह गयी हो कि बाइक से उतरते ही मुझसे चिप्स की पुरानी फरमाईश दुहरा दे गयी.

मैं चाहती तो उन्हें बहुत कुछ सुना सकती थी पर मित्र का सम्मान रखने के कारण बोल ना सकी. बात रूपयों की नहीं है. ऑफिस आने जाने की दुश्वारियो में पैसा खर्च होता है. अचरज की बात यह है कि यह आदमी मुझसे पैसे खर्च करवाने के नित नए तरीके ढूँढने में कितनी ऊर्जा खर्च करता होगा.

उस दिन मैंने निर्णय किया कि उनके साथ आना जाना बंद कर दूंगी. दो दिन तक ऐसा चला भी पर तीसरे दिन उन्होंने रास्ते में मुझे पकड़ लिया. फिर वही मेरे मित्र के सगे भाई होने का जिक्र, साथ ऑफिस होने की दुहाई. जाने किस बात का लिहाज रख मैं उनके बाइक पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद समोसे और लस्सी की दुकान नजदीक आई. बाइक के इंजन की आवाज में आ रहे परिवर्तन को मैं महसूस कर रही थी.

Tuesday, February 23, 2010

भागना

(बचपन के डर और दु:साहस का यह संस्मरणात्मक आलेख पूजा का है)

चन्दन की पोस्ट ‘गुमशुदा की तलाश का स्वप्न’ पढ़कर मुझे भी अपना कुछ पिछला याद आ गया। मैं भी एक बार मार खाने के डर से घर से भाग गई थी। अगर मुझे ठीक ठीक याद तो मैं उस समय चौथी में पढ़ती थी और नौ या दस की उम्र थी मेरी। उस समय की अपनी याद्दाश्त में मैने ऐसा कोई काम नहीं करती थी जिस पर मुझे डाँट ना पड़ी हो। यह भी हो सकता है कि घरवालों के नजरिये से मैं हर काम को गलत ढंग से करती रही होऊँ। पर अपने हिसाब से मैं हमेशा सही रहती थी।

मुझे लगता कि घर में कोई मुझे प्यार नहीं करता। मेरी इच्छा होती कि दूर कहीं ऐसी जगह जाकर रहूँ जहाँ कोई मुझे जानता पहचानता न हो। लगता कि वहाँ ना तो कोई मुझे पहचानेगा और ना ही डाँटेगा। अकेले जाने में डर लगता इसलिये मैं अपने दोस्तों को भी अपनी प्लानिंग में शामिल करती। मेरी नन्ही उमर के दोस्त ऐसे मौकापरस्त होते कि जिस दिन माँ बाप से डाँट पिटती आकर मेरी योजना में शामिल हो जाते और जैसे ही उधर से थोड़ा प्यार दुलार मिलता वो सब पाला बदल लेते। थक हार कर मैं भी समय का इंतजार करने लगी कि थोड़ी बड़ी हो जाऊँ तो मैं भी अकेले ही निकल जाऊँगी।

हाँ तो बात घर से भागने की हो रही थी। तारीख तो याद नहीं लेकिन वह सर्दियों का कोई गुरुवार था। उस दिन बड़ा बाजार लगता था। और मैं हमेशा जिद करके मम्मी के साथ बाजार जाती। मुझे सब्जी मंडी की भीड़ भाड़ अच्छी लगती है। ये ऐसी जगह है जहाँ से मेरा लगाव कभी कम नहीं हुआ। फल सब्जियाँ ही नहीं मैं तो उनके खरीददारों को देखते और उनका ऑब्जर्वेशन करते हुए भी घंटों बिता सकती हूँ। उन्हे पता भी नहीं चल पाता कि कोई उनका पीछा भी कर सकता है।

मम्मी को उस दिन सब्जियों के अलावा और भी खरीदारी करनी थी और उन्होंने करीब
दो हजार रूपये ले रखे थे। हमारी गाड़ी उसी दिन शादी की बुकिंग से लौटी थी और ड्राईवर को जो किराया मिला था उसने भी मम्मी को वो पैसे पकड़ा दिये। अब चुकि मैने जैकेट पहन रखा था अत: उन रूपयों को रखने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। लेकिन उन्हे क्या पता था कि इन रूपयों के चलते शाम तक अच्छा खासा बखेड़ा खड़ा होने वाला है।

हमेशा उदास रहने वाले बाजार में उस शाम बड़ी चहल पहल थी। लग रहा था मानो इलाके के सभी घरों का राशन एक साथ खत्म हो गया है और वे सब बाजार में आ धमके हैं। तभी मैने देखा कि कुछ औरतों की टोली सनसनाते हुए एक दम मेरे बगल से गुजर गई है। मुझे इसका भी पता चला कि मेरे जैकेट की जेब में किसी का हाथ भी गया है। जब तक मैं सम्भलती वो औरते पता नहीं कहाँ अदृश्य हो गईं। मैंने अपनी जेब टटोली और डर गई। मम्मी से कहा, उन औरतों ने मेरी जेब से पैसे निकाल लिये हैं। मम्मी कुछ बोलती कि तभी उन्हे वहाँ खड़े होकर औरतों पर ध्यान रखने के लिये कह, मैं उन चोरों को ढूढने के लिये दूसरी तरफ चली आई। लेकिन जाऊँ तो कहाँ, मुझे उनका चेहरा भी याद नहीं था। अब याद आ रहा था तो सिर्फ मम्मी और दूसरे घरवालों का चेहरा।मुझे पता था कि अब मैं वो पैसा कहीं से ढूंढ नही पाऊँगी। मुझे लगा कि गलतियाँ मेरा पीछा करते हुए घर से बाजार तक आ गईं हैं।

मैं मम्मी के पास नही गई। शहर में कहाँ कहाँ देर तक घूमती रही। फिर जब रात होने लगी तो बाजार से बाहर निकल आई और अपनी कॉलोनी पहुँची। मेरे डर के बीच मुझे अपनी सबसे अच्छी दोस्त मधु का चेहरा याद आया। मधु झा। मधु से मेरी दोस्ती इसलिये भी थी क्योंकि वो टिफिन में मूंगफली की चटनी जरूर लाती थी। मैं अपने एक या दो पराठे से उसकी मूंगफली वाली चटनी बदल लेती थी। वो मुझे बहुत अच्छी लगती थी। पर आज मामला जरा दूसरा था। उसके घर पर उसके मम्मी पापा थे और छोटा भाई। दोनों एक कमरे में बैठे पढ़ रहे थे।

मुझे देखते ही वो आई। मैं भी सकपकाई हुई उनके साथ पढ़ने बैठ गई। कुछ देर बाद मैने उससे पूछा कि मैं कब तक उसके घर पर रह सकती हूँ? मधु ने कहा तो कुछ नही पर मैने महसूस किया कि आज मधु कुछ ज्यादा ही अपनापे से बात कर रही है। मुझे कुछ खटका हुआ। उसके पापा मुझे देखते ही बाहर निकल गये। मधु की आत्मीयता मुझे झूठी लग रही थी। मेरी छठी इन्द्री ने कहा “पूजा यहाँ से भाग ले”। मैने उससे पानी मांगा और जैसे ही वो पानी लाने गई मैं वहाँ से भी भाग गई। बाद में पता चला कि मेरे भईया, मम्मी सब पहले ही मेरी तलाश में वहाँ आ चुके थे और मेरे आने के बाद उसके पापा उन्ही को इत्तिला करने गये थे।

रात के आठ बज चुके थे। मैं अपने स्कूल भी गई और सोचा कि यहीं रूक जाऊँ लेकिन मन ने वहाँ ठहरने की अनुमति नही दी। वहाँ चौकीदार से थोड़ी देर ऐसे ही कुछ बात करते हुए मं मन ही मन सोच रही थी कि इतनी रात गये कहाँ जाया जा सकता है? उस समय मैं इंसानों से अधिक भूतों से डरती थी। कभी लगता अगर मैं स्कूल में रूकी तो जी हॉरर शो वाला डेविड कब्रिस्तान से आ जायेगा या अनुराधा आकर मेरे गले में दाँत गड़ाकर सारा खून पी जायेगी। फिर मैं वहाँ से अपनी कॉलोनी में आ गई। चुपके से अपने घर के पास रहने वाले अंकल के घर के पास पहुँची। चुपके चुपके उनके घर के बाहर स्थित सीढ़ी से उनके छत पर पहुँची। वहाँ से मेरे घर की छत दिखाई दे रही थी। सर्दियों के मौसम के कारण किसी के छत पर होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। अब भी उन बातों को याद कर मेरी रूह काँप जाती है कि अगर उन उंची नीची छतों पर कहीं भी मेरा पैर फिसला होता तो मैं शायद अभी भी बिस्तर पर होती।

छत से आंगन में धीरे से झाँका। नीचे कोहराम मचा हुआ था। मम्मी रो रही थी, बगल की आंटियाँ उन्हे शांत हो जाने के लिये कह रही थी। थोड़ी दूर पर रहने वाली मौसी और उनका पूरा परिवार सब के सब नीचे बातचीत कर रहे थे। मुझे यह सब देखकर जाने क्यों हंसी आने लगी। इस बीच मैं यह भी ध्यान दे रही थी कि कहीं कोई छत पर ना आ जाये। मम्मी को रोता देख भी मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं नीचे उतर जाऊँ। रात के दस ग्यारह बज जाने के बावजूद घर पर लोग जाग रहे थे।

सीढ़ी से नीचे जाने पर आंगन और अन्दर वाला कमरा आता था। जहाँ सिर्फ सामान और एक तख्त रखी हुई थी। छत पर ठंढ भी लग रही थी। जब सब इधर उधर हुए तो मैं धीरे से अन्दर वाले कमरे के तख्त के नीचे जाकर छुप गई। मम्मी की बार बार तेज से रोने की आवाज सुन कर मैने फिर से भागने का निर्णय लिया और सोचा, कहीं भी जाऊँगी लेकिन घर नही जाऊँगी। और फिर मैं उतनी रात में छत पर आ गई।

बस मुझसे यहीं चूक हो गई। मेरे बगल के पप्पू भईया मेरी खोजबीन में मची अफरातफरी का लाभ लेते हुए छत के एक कोने में सिगरेट पी रहे थे। उनके घर में किसी को पता नहीं था कि वो सिगरेट या शराब पीते हैं। मैं उनसे बहुत डरती थी। उन्होने मुझे देखा तो एक क्षण के लिये मेरी सांस ही टंग गई और घबराकर मैं छत से सीधे नीचे कूद गई। उन्होने शोर मचाना शुरु किया और फिर ....मुझे घर पहुंचा दिया गया। आगे क्या हुआ उसके बारे में मत पूछिये। बस एक बात कहूँगी कि उस दिन मम्मी ने रोते रोते कहा था, “इस लड़की को भागने की आदत पड़ जायेगी”।

मम्मी की यह बात आशिर्वाद की तरह फली। पढाई और रोजगार के सिलसिले में शहर दर शहर भागते रहना ही वह आशिर्वाद था।

Sunday, January 31, 2010

पूजा की डायरी: अमिताभ बच्चन हमारे ऑफिस में

(विश्व की तमाम भाषाओं की तरह कितनी सारी विधाये भी लुप्त होती जा रही हैं। जैसे डायरी, रिपोर्ताज इत्यादि। हम सब इनके विलुप्त होते जाने पर सच्चे हृदय से चिंतित होते हैं, पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इस मुश्किल से निकलने के रास्ते हमें नही दिखते। डायरी लिखने वाले भी अक्सर गुरु निकलते हैं जब वो यह सोच कर डायरी लिखते है कि उसे छपवाना है। उसमें भी इतने दिखावे करते है कि पूछिये मत। वैसे में डायरी लेखन के लिये पूजा की डायरी के कुछ पन्नों से इस ब्लॉग पर आगाज करते हैं इस उम्मीद के साथ कि ‘कारवाँ बनता चला जायेगा।‘ अमिताभ बच्चन और उनसे आभासी मुलाकात से जुड़ा यह डायरी अंश इसी अट्ठाईस जनवरी का है।)

नेटवर्क-18 के ऑफिस की हवा में गुरुवार को अलग ही तरह की खुशबू बिखरी हुई थी। मैं भी कहूं कि कोई बात जरूर है। सुबह मदरडेरी से न केवल बस समय पर मिल गई बल्कि कंडक्टर ने बैठने खातिर अपनी सीट भी दे दी। और साथ ही प्यास लगने पर पानी भी पिलाया। लग रहा था आज कुछ अच्छा घटेगा और हुआ क्या ऑफिस पहुँचते ही गार्ड भईया ने बताया कि आज अमिताभ बच्चन आने वाले हैं। अमिताभ बच्चन! हिंदुस्तान में क्या कोई इस नाम से अपरिचित होगा।

मेरे घर में गुरुवार को कोई भी अच्छा काम करने का चलन नहीं है। चाहे वह कितना जरूरी क्यों न हो। या तो एक दिन पहले या बाद में उस जरूरी काम का निपटारा होता है। लेकिन ठीक उलट मेरे लिए यह दिन विशेष रहता है। अक्सर ऐसा होता है कि मेरा अधूरा काम इस दिन पूरा हो जाता है और नया काम शुरू हो जाता है। इस दिन ने मुझे बहुत कुछ दिया है।

ऑफिस में साथी वजह-बेवजह की उत्तेजना में थे। कोई कांप रहा था तो कोई हांफ रहा था। अभी अमित जी आईबीएन-7 के ऑफिस में हैं एक लड़की बगल से चीखती हुई गुजरी है। अमिताभ के आने की बात धीरे-धीरे यह बात ऑफिस के हर उस शख्स ने बताई जो मुझसे परिचित था। फोन पर हर कोई दूसरे को अमिताभ बच्चन के आने की खबर दे रहा था। मैं बहुत उत्साहित थी। मैं जितनी बार अपनी सीट से उठती देखती क्या? - हर कोई गेट की तरफ टकटकी लगाए खड़ा है। ये अभिषेक के पिता एश्वर्या के ससुर या जया के पति के लिए नहीं था। यह हरिवंश राय के बेटे के लिये भी नहीं था। यह था सिर्फ और सिर्फ अमिताभ के लिए।

लंच जाते समय एक बार मन में आया कि कहीं इस बीच अमित जी चले न जाएं। थोड़ा डर भी था। लंच सिर्फ दो मिनट में करके मैं वापस आई, तो जान में जान आई। ग्राउंड फ्लोर खचाखच भरा हुआ था। सुबह 11 बजे से लेकर शाम के 4 बजे तक अमिताभ को देखने वालों का भारी हुजूम खड़ा हो गया था। मैंने जानबूझकर एक दो जनों से पूछा कि इतनी भीड़ क्यों हैं, पहले तो लोगों ने मुझे एक पल देखा और कहा आपको नहीं पता अमिताभ जी आने वाले हैं। लेकिन लगता है कि उन्हे देखने का मौका नहीं मिल पाएगा। मैंने पूछा क्यों? जवाब आया कि सिक्यूरिटी बहुत टाईट है और उन्हें छुपाकर सीधा स्टूडियों तक ले जाया जाएगा। अब अपने काम में मेरी कोई रूचि नहीं बची थी बस पीछे मुड़मुड़कर देख रही थी कि कहीँ अमिताभ आ न गए हो।


चार बजते बजते मैंने एक ऐसे शख्स के चहकने की आवाज सुनी, जो हमेशा सिर्फ गंभीर बातों में ही शामिल रहता है। मनु नाम का यह शख्स बच्चों की तरह उछलते-कूदते हुए बताया: अमिताभ बच्चन आ गए। सभी अपना काम छोड़कर ग्राउंड फ्लोर पर पहुंचे। मैं भी थी। तभी अमित बच्चन की गाड़ी सीधा बेसमेंट में पहुंची और वहां से वे राजदीप के साथ फस्ट फ्लोर पर पहुंचे। राजदीप की चमक फिर भी अलग थी। अपने जादुई अन्दाज के साथ जो मुस्कुराहट राजदीप के चेहरे पर रहती है, वो तब भी थी।

अमिताभ को नही देख पाने के बाद मुझे बहुत गुस्सा आया। मन ही मन सोचती रही कि उन्हें ग्राउंड फ्लोर से उपर ले जाना चाहिए था। मैंने अकेले में सबकों बुरा भला कह रही थी कि तब तक अमिताभ बच्चन उपर हाथ हिलाते दिख गए। मैं खुश हो गई। लेकिन अभी तो और अच्छे से मुझे उन्हें देखना था। नीचे खड़े लोग भी उतने ही खुश नजर आ रहे थे। लगभग बावले हो चुके लोग हाथ हिलाकर अमित जी आई लव यू अमित जी आई लव यू कह रहे थे और सीटी बजा रहे थे। फिर अचानक से अमित जी गायब हो गए। मैं इधर उधर देखने लगी। एकबारगी लगा मेरी जान पहचान का कोई भी वहाँ नहीं है। तभी अरुण दिखा। वह भी इन्ही वजहों से हैरान परेशान! आधी हंसी में मुझसे कहा: चलो अब उपर ही चलते हैं। मैं भी एक अकेली! उसके पीछे चल दी।

उपर भी बहुत भीड़ थी। भीड़ में मनु था। उसके चेहरे की चमक बता रही थी कि वह अमिताभ को देखने और फोटो लेने में सफल हो चुका है। लोग एक दूसरे के उपर चढ़ कर अमिताभ की एक झलक पाने को बेताब थे। मैंने भी संघर्ष किया लेकिन जब असफल रही तो एक किनारे की जगह ले खड़ी हो गई। पर आश्चर्य, पांच मिनट बाद अमिताभ ठीक मेरे बगल में थे! मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं भी उनके साथ तब तक चलती रही जब तक कि वो स्टूडियों के भीतर न पहुंच गए हो। हाथ में एक विजिटिंग कार्ड था और मांगी गई एक पेंसिल कि अगर मौका मिला तो आटोग्राफ लेने में नहीं चूक होगी। लेकिन फिलहाल यह इच्छा तो अधूरी रह गई। वैसे मैंने कहीं पढ़ा है कि जीवन में कुछ इच्छाएं अधूरी रहनी चाहिए, तभी जीवन में आस्था बनी रहती है।

क्या इस गुरुवार को मुझे भगवान से कुछ और भी मांगना चाहिए था?

Friday, January 22, 2010

भाई, ये महाराष्ट्र कोई और देश है क्या?

(‘नई बात’ पर सबकुछ भले ढंग से चल रहा है पर एक चीज की कमी खल रही थी-वो थी समसामयिकी की। साथियों की तैयारी से अब वो भी कमी दूर किये देते हैं। कोई बड़ा दावा करने की जगह हम यह कहेंगे कि हर हफ्ते किसी खबर को अपने तईं देखने समझने की कोशिश करेंगे। यह भी जरुरी नही कि खबर बिल्कुल नई ताजी हो। पुरानी बात को हम बार बार, हजार बार कहेंगे-अगर कहने की जरूरत महसूस हुई तो..। इस बार पूजा सिंह का यह ब्लॉगालेख मुंबई की दु:खद परंतु सनातन समस्या पर...। टैक्सी ड्राईवरी के लाईसेंस खेल पर। पूजा की कविता आप पहले इस ब्लॉग पर पहले पढ़ चुके हैं।)
भाई, ये महाराष्ट्र कोई और देश है क्या?

जहाँ तक मुझे जानकारी है मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है। और शायद महाराष्ट्र भारत का ही एक प्रदेश है। कहा जा सकता है कि मुंबई भारत का प्रवेश द्वार भी है। देश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाली मायानगरी, मुंबई में समृद्धि सिर्फ मराठी वासियों से नहीं आई है बल्कि इसे समृद्ध बनाने में गुजरातियों, दक्षिण भारतीयों तथा यू.पी. बिहार बासियों के साथ अन्य प्रदेश के लोगों की भी अहम भूमिका रही है। मुंबई ने हमेशा से देश के लोगों का ही नहीं बल्कि विदेशियों का भी तहेदिल से स्वागत किया है।

उसी मुंबई में, बाल ठाकरे के बाद एमएनएस के सुप्रीमो राज ठाकरे ने गैर मराठी लोगों को जिस तरह से महाराष्ट्र से बाहर करने का आंदोलन चला रखा है अब उसी को आगे बढ़ाने का काम कांग्रेस कर रही है। केंद्र के साथ-साथ महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस सरकार ने बुधवार को एक फैसले के तहत, राज्य में टैक्सी चालकों के लिए 15 साल के स्थाई निवास के अलावा मराठी भाषा को बोलना, पढ़ना और लिखना अनिवार्य बना दिया है। अब नए टैक्सी चालकों को इन शर्तो को मानना जरूरी होगा अन्यथा उन्हे टैक्सी चलाने का परमिट नहीं दिया जाएगा।

जब इस बात का विरोध हुआ तो माननीय मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए अपना बयान बदल लिया है कि मराठी भाषा की जगह उसे(ड्राईवर को) क्षेत्रीय भाषा मराठी, हिन्दी या गुजराती आनी चाहिये। अब इस महान आत्मा को कौन समझाये कि हिन्दी क्षेत्रीय भाषा नही है। विश्व भर में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषाओं मे हमारी हिन्दी का स्थान चौथा है। सबसे दुखद यह है कि क्या मुंबई में सिर्फ हिन्दी भाषी, गुजराती और मराठी ही रहते हैं? दक्षिण भारत का वो विशाल जनसमूह जो मुम्बई में बसा है और अपने श्रम से मुंबई के चहुँमुखी विकास में सहायक है क्या उसे महाराष्ट्र सरकार ने बाहरी आदमी मान कर बाहर भेजने का मन बना लिया है? कोई है जो मुख्यमंत्री के इस बयान को शालीन मानेगा? क्या मुख्यमंत्री को इतने छिछले बयान देने चाहिये?

तुर्रा यह कि अब इस मुद्दे को एक मीडियॉकर नेता, दूसरे की आवाजो की नकल उतार उतार कर अपनी राजनीति चमकाने वाला, ‘वीर’ मराठा राज ठाकरे ने अपने हाथों में ले लिया है। उनका कहना है कि जिन चार हजार नई परमिटों की बात चल रही है, उसमें से अगर एक भी परमिट मराठी मानुस के बजाय किसी और को मिली तो......। इस ‘तो’ का मतलब कौन नही जानता? ...’तो’ यह खानदानी बिगड़ैल, ताकत के नशे में चूर सड़को पर हिंसा का नंगा नाच मचायेगा। आमीन!

देश के सामने इस समय सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद, गरीबी, जनसंख्या और अशिक्षा है न कि मुंबई से गैर-मराठी लोगों का बहिष्कार। और फिर वहां से गैर-मराठी लोग जाएं भी क्यों? हम भारत के नागरिक हैं और वहां रहने का हमारा मूलभूत अधिकार है। जब भारतीय मूल के लोग विदेशों में अच्छे ओहदे पर देखे जाते हैं तो हम अलग ही खुशफहमी में जीते हैं कि अपना आदमी वहां है और वहां की तरक्की में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। फिर भेदभाव सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ ही क्यों जबकि ये कहीं और नहीं अपने देश में रह कर अपना पेट ही तो पाल रहे हैं। सबको पता होना चाहिए कि जब कोई आदमी अपने जड़ के अलग होता है तो किसी दूसरी जगह बसने में उसे कितनी पीड़ा सहनी पड़ी होगी। किसी नए समाज में अपने आपको स्थापित करने में उसे कितना संघर्ष करना पड़ता होगा यह तो उस व्यक्ति विशेष से ही पूछकर जाना जा सकता है।

जबकि संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत देष के नागरिकों को जम्मू कश्मीर को छोड़कर कहीं भी बसने और रोजगार करने का अधिकार मिला हुआ है। फिर सिर्फ राजनीति करने के लिए ऐसी ओछी हरकत क्यों। भारतीय संविधान की प्रस्तावना की वह लाइन ‘’हम भारत के लोग ...’’ मुझमें हमेशा राष्ट्रीयता का संचार करती है। लेकिन देश को तोड़ने जैसी घटनाएं आए दिन घटित हो रहीं हैं, कभी जाति, धर्म तो कभी भाषा को ही आधार बना कर लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है।

तिस पर भी लोकतंत्र के ये पहरुये आम आदमी की मुश्किल बढ़ाने पर लगे हुए हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है, जो मैने पढ़ रखा है, वो यह कि मुख्यमंत्री, मंत्री और सरकारें जनता की भलाई के लिये होती हैं। चाहे चारो तरफ के उदाहरण मेरी जानकारी को गलत ठहरा रहे हो फिर भी प्लीज कोई ये मत कहना कि मैने गलत पढ़ रखा है। कुछ झूठ मुझे अच्छे लगते हैं।


.............................पूजा सिंह

Thursday, November 26, 2009

मैं सूर्य की प्रेमिका हूँ

लीशू और सूरज के बाद अब पूजा। पूजा सिंह। Network 18 से जुड़ी पूजा की इस कविता में अनोखी उर्जा है, आत्मविश्वास है। इनका व्यक्तित्व इतना शानदार और गजब कि अगर रिश्ते निभाने और 'गुस्सा होने' की प्रतियोगितायें हो तो दोनो में ही प्रथम आयेंगी। गोरखपुर के धुर देहात से निकल, पत्रकारिता की पढाई - नौकरी। दु:खद यह कि शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र मे जगह बनाने के लिये जो संघर्ष करना पड़ा उसमे कविता ही जाती रही। स्नातक की पढ़ाई के दिनों मे लिखी कुछ में से यह कविता इस लिये भी महत्वपूर्ण है कि इसके जरिये हम देखेंगे: समय का दबाव कितना गहरा है और अपने आप को व्यवस्थित करने की जो लड़ाई हम लड़ रहे है उसमे कैसी कैसी प्रतिभायें अपने रोयेंदार पँख समेट लेने पर विवश हैं।

समय के दबाव मे प्रतिभाओं के छिप जाने के किस्से तो हमने बहुत सुने थे, पर पहली बार आंखो देखी। मै पूजा को भरपूर जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि उनके ‘कंसर्न’ और ‘कमिटमेंट’ मे कहीं कोई कमी नहीं है। ऐसे मे क्या यह पड़ताल नहीं होनी चाहिये कि आखिर इस बारूद समय मे ऐसा क्या है जो हमें हमारी असल राह भुलाने में ही यकीन रखता है, ऐसा क्या है जो हमारे संघर्षों के बदले हमारे कोमल मन पर कब्जा जमा लेता है? क्या पूजा को और से और कवितायें नहीं लिखनी चाहिये?


मैं सूर्य की प्रेमिका हूँ

मैं सूर्य की प्रेमिका हूँ
जिसका करती हूँ नित्य दर्शन
फिर भी नहीं होती
पूरी मन की तृष्णा


कभी लगता एक अबोध बालक सा
कभी हो जाता इतना ज्ञानी जो
सारे जग को प्रकाशित करने में
सामर्थ्यवान .....लेकिन
अस्तिव खो जाने के भय में जीती
इधर मैं


जबकि मैं हूँ उसकी प्रेमिका
आखिर मैं हूँ उसका हिस्सा
अभिन्न
फिर क्यों मुझे भुलाकर
पीछे छोड़कर
चलता चला जाता है वह
अपनी अजब गति से और
छोड़ जाता है एक जिजिविषा
एक विश्वास

है वह मेरा
इस तरह स्पर्श करेगा वह
मेरा कल, क्योंकि मैं हूँ
उसकी,
अपने सूर्य की प्रेमिका।

-पूजा सिंह